Facing Illness with Equanimity
पिछले अंक में आपने श्री टंडनजी के कैंसर-ग्रस्त होने और उनकी अद्भुत समता का विवरण पढ़ा। इस विषय में पूज्य गुरुजी का मार्गदर्शन भी देखें। सन 1995 में एक साधिका के थाइरोइड कैंसर के दो ऑपरेशन किये गये। ठीक हो गयी पर भयमुक्त नहीं हो पा रही थी। क्योंकि सुन रखा था कि यह रोग हो गया तो बार-बार उभरते रहता है। कहीं वापस हो गया तो क्या होगा? उस समय पूज्य गुरुजी ने उसे जो मार्गदर्शन दिया, उनका पालन करके विपश्यना की वह आचार्या आज भी लोगों को धर्मदान दे रही है। उस बातचीत को उसके पति ने रेकार्ड किया था और टंकित करवा कर भिजवाया है, जिसे साधकों के लाभार्थ यहां प्रश्नोत्तर के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। (सं.) :--
🌺साधिका-- मेरा दो बार कैंसर का ऑपरेशन हुआ है गुरुजी!
पूज्य गुरुजी- बेटी, कैंसर हो गया तो क्या हुआ। उसका सामना करना है।
पूज्य गुरुजी- बेटी, कैंसर हो गया तो क्या हुआ। उसका सामना करना है।
🌺साधिका-- गुरुजी, बहुत भय लग रहा है। मैं जानती हूं कि ऐसा नहीं करना चाहिए।
गुरुजी-- क्योंकि अंदर से समझ नहीं आयी। अंदर से समझने के लिए जब भी चिंता आये, भय आये तब उस समय देख-- 'अच्छा मेरे मन में भय आया है, अब देखें क्या संवेदना है?' उस वक्त कहीं भी शरीर में जो संवेदना हुई वह भय के साथ जुड़ी हुई है। उस संवेदना को देखना है। यद्यपि मनका एक हिस्सा भय में रोल कर रहा है, न जाने क्या हो जायगा, क्या हो जायगा? परंतु मन का एक हिस्सा उस संवेदना को देख रहा है, भले 5 प्रतिशत ही हो, बाकी 95 प्रतिशत रोल कर रहा है। लेकिन वह 5 प्रतिशत इतना बलवान है कि जड़े काट देगा। और यदि 100 प्रतिशत रोल करेगा तब तो बढ़ेगा ही न । विपश्यना से हमें इतना तो सीखना होता है कि हम अपने मानस का एक हिस्सा ऐसा बलवान बनायें जो साक्षीभाव से देख रहा है। अच्छा भाई, हमें यह रोग है और इस रोग का न जाने क्या परिणाम होगा, इस चिंता को भी देख रहे हैं। यह चिंता आयी तो उस समय संवेदना क्या है? संवेदना भी देख रहे हैं और यह चिंता है, इसे भी देख रहे हैं। ये संवेदना है, ये चिंता है। हम उसे बार-बार देखते हैं। यह भी जानते हैं कि संवेदना तो बदलती रहने वाली है, सदा रहने वाली नहीं है। चिंता भी बदलने वाली है। यों, देखते गये तो उसकी ताकत कम होते-होते सारी चिंता निकल जाती है। यही तरीका है। ऐसा नहीं हो और हम केवल बुद्धि से समझते रहें कि हमें चिंता नहीं करनी चाहिए। तो ऐसा तो सारी दुनिया कहती है और करती है। तब विपश्यना करने में और दुनिया के कहने में क्या फर्क हुआ?
गुरुजी-- क्योंकि अंदर से समझ नहीं आयी। अंदर से समझने के लिए जब भी चिंता आये, भय आये तब उस समय देख-- 'अच्छा मेरे मन में भय आया है, अब देखें क्या संवेदना है?' उस वक्त कहीं भी शरीर में जो संवेदना हुई वह भय के साथ जुड़ी हुई है। उस संवेदना को देखना है। यद्यपि मनका एक हिस्सा भय में रोल कर रहा है, न जाने क्या हो जायगा, क्या हो जायगा? परंतु मन का एक हिस्सा उस संवेदना को देख रहा है, भले 5 प्रतिशत ही हो, बाकी 95 प्रतिशत रोल कर रहा है। लेकिन वह 5 प्रतिशत इतना बलवान है कि जड़े काट देगा। और यदि 100 प्रतिशत रोल करेगा तब तो बढ़ेगा ही न । विपश्यना से हमें इतना तो सीखना होता है कि हम अपने मानस का एक हिस्सा ऐसा बलवान बनायें जो साक्षीभाव से देख रहा है। अच्छा भाई, हमें यह रोग है और इस रोग का न जाने क्या परिणाम होगा, इस चिंता को भी देख रहे हैं। यह चिंता आयी तो उस समय संवेदना क्या है? संवेदना भी देख रहे हैं और यह चिंता है, इसे भी देख रहे हैं। ये संवेदना है, ये चिंता है। हम उसे बार-बार देखते हैं। यह भी जानते हैं कि संवेदना तो बदलती रहने वाली है, सदा रहने वाली नहीं है। चिंता भी बदलने वाली है। यों, देखते गये तो उसकी ताकत कम होते-होते सारी चिंता निकल जाती है। यही तरीका है। ऐसा नहीं हो और हम केवल बुद्धि से समझते रहें कि हमें चिंता नहीं करनी चाहिए। तो ऐसा तो सारी दुनिया कहती है और करती है। तब विपश्यना करने में और दुनिया के कहने में क्या फर्क हुआ?
🌺साधिका-- वही हो रहा है गुरुजी।।
गुरुजी- तो इसको समझना चाहिए न बेटी! हमें तो बताया गया कि तुम्हें रोग हो गया था, वह निकल गया। अब क्यों चिंता करती हो?
चिंता के बाहर निकलने के लिए विपश्यना की इतनी बड़ी विद्या मिली है। जब ऐसा होने लगे तब देखो कि इस समय संवेदना क्या है। संवेदना तो 24 घंटे होगी। ऐसा हो नहीं सकता कि संवेदना न हो। यह भी जरूरी नहीं कि सिर से पांव तक जाओ। जहां संवेदना हुई, साफ-साफ मालूम हुआ। उसको देख रहे हैं- अच्छा, यह अनित्य है। चिंता का विषय आया, यह भी अनित्य है। जैसे भी हो, कुछ लेन-देन नहीं। क्योंकि मन और शरीर का इतना बड़ा संबंध है-- उस वक्त मन में कोई बात जोर से उठी है, वह शरीर में संवेदना के साथ जुड़ जायगी। शरीर में जो संवेदना है वह मन के साथ जुड़ी हुई है। उस समय मन में जो घटना घट रही है वह शरीर के साथ जुड़ गयी और उसको हम देख नहीं सकते। इतनी ताकत अभी आयी नहीं कि हम चिंता को चिंता की तरह देख सकें कि देख यह चिंता है। नहीं देख सकते, क्योंकि आसान बात नहीं है। ऐसे ही भय है, हम उसे नहीं देख पाते । तो भय है, इसे स्वीकार कर लिया और 95 प्रतिशत हमारा मन उस भय में रोल कर रहा है लेकिन 5 प्रतिशत मन ऐसा है जो संवेदना को देखेगा, भले थोड़ी देर सही। यों देखते रहो संवेदना को और यह भी देखते रहो कि यह अनित्य है। जो भय आया है यह भी अनित्य है। अब देखेंगे कितनी देर रहता है। यों उसकी ताकत कम होते-होते निकल जायगा।
गुरुजी- तो इसको समझना चाहिए न बेटी! हमें तो बताया गया कि तुम्हें रोग हो गया था, वह निकल गया। अब क्यों चिंता करती हो?
चिंता के बाहर निकलने के लिए विपश्यना की इतनी बड़ी विद्या मिली है। जब ऐसा होने लगे तब देखो कि इस समय संवेदना क्या है। संवेदना तो 24 घंटे होगी। ऐसा हो नहीं सकता कि संवेदना न हो। यह भी जरूरी नहीं कि सिर से पांव तक जाओ। जहां संवेदना हुई, साफ-साफ मालूम हुआ। उसको देख रहे हैं- अच्छा, यह अनित्य है। चिंता का विषय आया, यह भी अनित्य है। जैसे भी हो, कुछ लेन-देन नहीं। क्योंकि मन और शरीर का इतना बड़ा संबंध है-- उस वक्त मन में कोई बात जोर से उठी है, वह शरीर में संवेदना के साथ जुड़ जायगी। शरीर में जो संवेदना है वह मन के साथ जुड़ी हुई है। उस समय मन में जो घटना घट रही है वह शरीर के साथ जुड़ गयी और उसको हम देख नहीं सकते। इतनी ताकत अभी आयी नहीं कि हम चिंता को चिंता की तरह देख सकें कि देख यह चिंता है। नहीं देख सकते, क्योंकि आसान बात नहीं है। ऐसे ही भय है, हम उसे नहीं देख पाते । तो भय है, इसे स्वीकार कर लिया और 95 प्रतिशत हमारा मन उस भय में रोल कर रहा है लेकिन 5 प्रतिशत मन ऐसा है जो संवेदना को देखेगा, भले थोड़ी देर सही। यों देखते रहो संवेदना को और यह भी देखते रहो कि यह अनित्य है। जो भय आया है यह भी अनित्य है। अब देखेंगे कितनी देर रहता है। यों उसकी ताकत कम होते-होते निकल जायगा।
बहुत बार स्पष्ट दीखता है कि हम पर संकट आने वाला है। बाहर कोई घटना ऐसी घटने वाली है जिससे हमारी कोई चीज नष्ट होने वाली है। भय जागा, न जाने क्या हो जायगा? वह घटना तो पीछे घटेगी, मन में घबराहट पहले आ गयी। ऐसे में हम जो बीज डालेंगे, बीज डालते ही एक तरह की संवेदना होगी। बीज का फल भी पीछे आयगा, पर संवेदना पहले होगी। फिर फल आयेगा । यह प्रकृति का नियम है। बीज भी संवेदना के साथ, फल भी संवेदना के साथ । तो जब संवेदना आयी, फल आने में अभी देर है, परंतु संवेदना आ गयी और हमने उसे देखना शुरू कर दिया तो उसकी ताकत कम होते-होते वह फल आयेगा भी तो फूल की छड़ी की तरह हल्का होकर आयेगा। उसकी ताकत कम हो गयी। यों समता से देख कर उसकी ताकत कम कर दी। आम आदमी क्या करता है, उस बेचारे को होश नहीं है तो जैसे हम कर रहे थे, चिंता ही करता है-- हमारा क्या हो जायगा, हमारा क्या हो जायगा? उसका जो फल आने वाला है उसको और मजबूत बना देगा, बढ़ा देगा। उसको बढ़ाने का काम कर रहे हो भाई । भला चाहते हुए भी बुरा कर रहे हैं, उल्टी बात हो गयी न!
🌺साधिका-- मुझे थोड़ा अपराधभाव महसूस होता है, डर लगता है कि हमारी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रहे हैं।
साधक- वह बच्चों की चिंता कर रही है गुरुजी ।
गुरुजी- नहीं, तुम अपने फर्ज की बात अपने मन में महसूस कर रही हो। तुम अपना फर्ज निभाती भी तो अब नहीं निभा रही हो । क्योंकि अब नहीं निभाने का काम करने लगी। मन को कमजोर बना रही हो तो जो फर्ज निभा सकती थी वह भी निभाने लायक नहीं रही। अपने मन को कमजोर मत बनाओ। कुदरत का कानून बड़ा ही नाजुक है। उसको केवल बुद्धि से समझने से नहीं होता। बुद्धि से समझना जरूरी है, फिर उसको काम में लाओ, उसका उपयोग करो। जैसे ही समझ में आ गया कि अच्छा फल आयेगा, खुशी की संवेदना अनुभव होगी । घटना पीछे घटेगी, लेकिन अच्छा अनुभव होता है -- जबकि प्रत्यक्ष कोई कारण नहीं है। वह थोड़े दिन बाद मालूम पड़ेगा, परंतु संवेदना पहले आ गयी। ऐसे ही कोई बहुत बुरी बात होने वाली है तो बुरी संवेदना आनी शुरू हो गयी। यदि हम विपश्यना बहुत अच्छी तरह करने वाले हैं तो समझ जायेंगे कि ऐसी खराब संवेदना आयी है तो खराब फल आने वाला है। उसे भी देखने लगेंगे तो मंद पड़ जायगा। उसका बल कम होते-होते फल आयेगा भी तो कमजोर होकर आयेगा । फूल की छड़ी की तरह आया और निकल गया। ऐसा नहीं कर पाये तो फल तलवार की तरह आयेगा और काटेगा। क्योंकि हम कमजोर पड़ गये। मन को मजबूत बनायेंगे। फल को क्यों मजबूत बनायें?
साधक- वह बच्चों की चिंता कर रही है गुरुजी ।
गुरुजी- नहीं, तुम अपने फर्ज की बात अपने मन में महसूस कर रही हो। तुम अपना फर्ज निभाती भी तो अब नहीं निभा रही हो । क्योंकि अब नहीं निभाने का काम करने लगी। मन को कमजोर बना रही हो तो जो फर्ज निभा सकती थी वह भी निभाने लायक नहीं रही। अपने मन को कमजोर मत बनाओ। कुदरत का कानून बड़ा ही नाजुक है। उसको केवल बुद्धि से समझने से नहीं होता। बुद्धि से समझना जरूरी है, फिर उसको काम में लाओ, उसका उपयोग करो। जैसे ही समझ में आ गया कि अच्छा फल आयेगा, खुशी की संवेदना अनुभव होगी । घटना पीछे घटेगी, लेकिन अच्छा अनुभव होता है -- जबकि प्रत्यक्ष कोई कारण नहीं है। वह थोड़े दिन बाद मालूम पड़ेगा, परंतु संवेदना पहले आ गयी। ऐसे ही कोई बहुत बुरी बात होने वाली है तो बुरी संवेदना आनी शुरू हो गयी। यदि हम विपश्यना बहुत अच्छी तरह करने वाले हैं तो समझ जायेंगे कि ऐसी खराब संवेदना आयी है तो खराब फल आने वाला है। उसे भी देखने लगेंगे तो मंद पड़ जायगा। उसका बल कम होते-होते फल आयेगा भी तो कमजोर होकर आयेगा । फूल की छड़ी की तरह आया और निकल गया। ऐसा नहीं कर पाये तो फल तलवार की तरह आयेगा और काटेगा। क्योंकि हम कमजोर पड़ गये। मन को मजबूत बनायेंगे। फल को क्यों मजबूत बनायें?
🌺साधक-- उसको यही डर है कि मुझको कुछ हो गया तो बच्चों को मेरी सेवा करनी पड़ेगी। यही उसके दिल में है गुरुजी ।
गुरुजी-- यह जो इतना चिंतन कर रही हो, उसको निमंत्रण दे रही हो। तुम उसको बुला रही हो। अपने यहां एक कहानी है
एक आदमी कल्पवृक्ष के नीचे बैठा है। जो मांगे वही मिले । तो ये मांग लिया, वो मांग लिया। फिर मन में आया शेर आ जायगा, शेर आ गया। शेर मुझे खा जायेगा, खा गया। तो बेटी कल्पवृक्ष के नीचे बैठी हो, जो मांगोगी, सो आयेगा । तू मांग ही गलत रही हो तो अच्छी बात कहां से आयेगी। मान लिया, कमजोर हो इसलिए 95 प्रतिशत मन इस तरह की गलत बातों में जा रहा है। अभी पकी नहीं हो पर पक ही जाओगी। पक जाओगी तब याद करोगी कि गुरुजी ने ऐसा कहा था, हम कितने गलत थे। लेकिन जब तक नहीं पकी और 5 प्रतिशत मन भी विपश्यना करने वाला नहीं बना, यह गलत बात हो गयी। नये-नये शिविर के साधक का मन भी 5 प्रतिशत तो विपश्यना करने लायक हो ही जाता है। भले 95 प्रतिशत घूम रहा है पर 5 प्रतिशत तो संवेदना देखने लायक हो ही जाता है। वही जड़े काट देगा। तुम जड़े काट रही हो। ऊपर फैलाव भी हो रहा है लेकिन तुम जड़ें काट रही हो। एक समय आयेगा कि सारा पेड़ धप करके गिर पड़ेगा। क्योंकि जड़े कट गयीं। लेकिन केवल चिंता करके यदि 100 प्रतिशत उसी में रोल कर रहे हैं तो फिर कौन बचायेगा? मत घबराओ बेटी, विपश्यना के रास्ते आ गयी हो। तुम्हारा कोई बहुत बड़ा पुण्य है, क्यों घबराओ! ऐसे उदाहरण हमारे पास आये हैं।
मेरी मां का केस, बिल्कुल टर्मिनल स्टेज का कैंसर । डॉक्टर कहता है बहुत पीड़ा हो रही होगी । तुम्हें पीड़ा दूर करने की कोई दवा दे दें। इंजेक्शन देते हैं। मां कहती है, अरे नहीं-नहीं। क्या करना है-- अब तो देखना आ गया। उसने मुस्कराते-मुस्कराते प्राण छोड़ दिये। बेटी, तुम्हारी तो वह स्थिति भी नहीं है। तुम जबरदस्ती क्यों डर रही हो? क्या चिंता कर रही हो?
गुरुजी-- यह जो इतना चिंतन कर रही हो, उसको निमंत्रण दे रही हो। तुम उसको बुला रही हो। अपने यहां एक कहानी है
एक आदमी कल्पवृक्ष के नीचे बैठा है। जो मांगे वही मिले । तो ये मांग लिया, वो मांग लिया। फिर मन में आया शेर आ जायगा, शेर आ गया। शेर मुझे खा जायेगा, खा गया। तो बेटी कल्पवृक्ष के नीचे बैठी हो, जो मांगोगी, सो आयेगा । तू मांग ही गलत रही हो तो अच्छी बात कहां से आयेगी। मान लिया, कमजोर हो इसलिए 95 प्रतिशत मन इस तरह की गलत बातों में जा रहा है। अभी पकी नहीं हो पर पक ही जाओगी। पक जाओगी तब याद करोगी कि गुरुजी ने ऐसा कहा था, हम कितने गलत थे। लेकिन जब तक नहीं पकी और 5 प्रतिशत मन भी विपश्यना करने वाला नहीं बना, यह गलत बात हो गयी। नये-नये शिविर के साधक का मन भी 5 प्रतिशत तो विपश्यना करने लायक हो ही जाता है। भले 95 प्रतिशत घूम रहा है पर 5 प्रतिशत तो संवेदना देखने लायक हो ही जाता है। वही जड़े काट देगा। तुम जड़े काट रही हो। ऊपर फैलाव भी हो रहा है लेकिन तुम जड़ें काट रही हो। एक समय आयेगा कि सारा पेड़ धप करके गिर पड़ेगा। क्योंकि जड़े कट गयीं। लेकिन केवल चिंता करके यदि 100 प्रतिशत उसी में रोल कर रहे हैं तो फिर कौन बचायेगा? मत घबराओ बेटी, विपश्यना के रास्ते आ गयी हो। तुम्हारा कोई बहुत बड़ा पुण्य है, क्यों घबराओ! ऐसे उदाहरण हमारे पास आये हैं।
मेरी मां का केस, बिल्कुल टर्मिनल स्टेज का कैंसर । डॉक्टर कहता है बहुत पीड़ा हो रही होगी । तुम्हें पीड़ा दूर करने की कोई दवा दे दें। इंजेक्शन देते हैं। मां कहती है, अरे नहीं-नहीं। क्या करना है-- अब तो देखना आ गया। उसने मुस्कराते-मुस्कराते प्राण छोड़ दिये। बेटी, तुम्हारी तो वह स्थिति भी नहीं है। तुम जबरदस्ती क्यों डर रही हो? क्या चिंता कर रही हो?
🌺साधक-- वह दूसरे की चिंता ज्यादा कर रही है।
गुरुजी- दूसरों की चिंता करने का मतलब यह हुआ कि वैसे भविष्य का निर्माण कर रही हो जो आया नहीं। भगवान बुद्ध ने कहा - अत्ता हि अत्तनो नाथो, ... अत्ता हि अत्तनो गति। ... हर व्यक्ति अपना मालिक है। अपनी गति स्वयं बनाता है। तुम्ही तुम्हारी गति बना रही हो, तो दुर्गति क्यों बनाओ। इतनी बड़ी विद्या प्राप्त हो गयी है तो सद्गति बनाओ और सारी गतियों के बाहर निकल जाओ । मुक्ति के रास्ते पर जाना है। ठीक हो जायगा । बस ख्याल रखो कि जब उदासी आये, निराशा आये-- तब संवेदना देखनी शुरू कर दो। और यह समझ करके कि यह किस बात को लेकर के आयी है। विवरण में जाने की जरूरत नहीं। एक हिस्सा भले विवरण में जाय पर हम जान बूझ कर विवरण में नहीं जायेंगे। एक हिस्सा कमजोर है तो उसमें चक्कर लगा रहा है-- अरे, बच्चों का क्या हो जायगा, पति का क्या हो जायगा। ये तो अपनी आदत है, क्या करेंगे। परंतु एक हिस्सा देख रहा है संवेदना को, वह बहुत बलवान है। वह देखने वाला सारी जड़ों को काट देगा। तो बेटी, बस संवेदना का काम करना है। खाली चिंतन नहीं करेंगे।
गुरुजी- दूसरों की चिंता करने का मतलब यह हुआ कि वैसे भविष्य का निर्माण कर रही हो जो आया नहीं। भगवान बुद्ध ने कहा - अत्ता हि अत्तनो नाथो, ... अत्ता हि अत्तनो गति। ... हर व्यक्ति अपना मालिक है। अपनी गति स्वयं बनाता है। तुम्ही तुम्हारी गति बना रही हो, तो दुर्गति क्यों बनाओ। इतनी बड़ी विद्या प्राप्त हो गयी है तो सद्गति बनाओ और सारी गतियों के बाहर निकल जाओ । मुक्ति के रास्ते पर जाना है। ठीक हो जायगा । बस ख्याल रखो कि जब उदासी आये, निराशा आये-- तब संवेदना देखनी शुरू कर दो। और यह समझ करके कि यह किस बात को लेकर के आयी है। विवरण में जाने की जरूरत नहीं। एक हिस्सा भले विवरण में जाय पर हम जान बूझ कर विवरण में नहीं जायेंगे। एक हिस्सा कमजोर है तो उसमें चक्कर लगा रहा है-- अरे, बच्चों का क्या हो जायगा, पति का क्या हो जायगा। ये तो अपनी आदत है, क्या करेंगे। परंतु एक हिस्सा देख रहा है संवेदना को, वह बहुत बलवान है। वह देखने वाला सारी जड़ों को काट देगा। तो बेटी, बस संवेदना का काम करना है। खाली चिंतन नहीं करेंगे।
संवेदना का काम कर रही हो और वह संवेदना हमारे मानस की जड़ों के साथ जुड़ी है, यानी, हमने अपने मानस को समता के साथ स्थापित करना शुरू किया तो जड़ों को समता में स्थापित किया। ऊपर का एक हिस्सा समता में नहीं है। वह हमारे लिए दुःख पैदा कर रहा है। लेकिन दूसरी ओर जड़ों को देख कर हम बाहर निकाल रहे हैं। बस रास्ता मिल गया। दुनिया में और जितनी भी साधनाएं हैं, वे संवेदना की बात नहीं समझीं। वे ऊपर-ऊपर लेप लगाती हैं। वह भी बहुत अच्छा । मन को अन्यत्र कहीं ले गये तो जो बहुत ज्यादा तकलीफ है उससे थोड़ी राहत मिली। मान लो बुद्ध-बुद्ध कहने लगे, जैन हो तो महावीर-महावीर कहने लगे। मन को कहीं और ले गये तो बहुत अच्छा लगा। लेकिन केवल बाहरी (जागृत) मन कहीं और लगा, परंतु नीचे का मन तो वही काम कर रहा है। जड़ों में जो है वह तो वही काम कर रहा है। प्रतिक्रिया का नया-नया काम करते जा रहा है। नये-नये संस्कार यानी नये-नये दुःख ही पैदा कर रहा है।
यह तो कुदरत की बहुत बड़ी देन है कि तुम अपने अंतर्मन की जड़ों को सुधारने का काम कर रही हो। इसके बिना पूरा सुधार नहीं हो सकता। यही एक मात्र रास्ता है। इतनी बड़ी विद्या मिल गयी, अब काहे की चिंता। चिंता नहीं करेंगे, एकदम बाहर निकल आओगी । अब थोड़ी देर साधना करो बेटी । (मंगल मैत्री, साधुकार!)
हां, एकदम ठीक हो जाओगी बेटी, घबराना नहीं । धर्म के पास आयी हो। तुम्हारे पीछे कितना पुण्य है। इतने लोग भटकते फिरते हैं, धर्म मिलता नहीं। तुम्हारा पुण्य है कि धर्म मिला। धर्म बड़ा बलवान है। ठीक ही करेगा। हमने धर्म का रक्षण ले लिया, अब धर्म हमारा रक्षण करेगा।
हां, एकदम ठीक हो जाओगी बेटी, घबराना नहीं । धर्म के पास आयी हो। तुम्हारे पीछे कितना पुण्य है। इतने लोग भटकते फिरते हैं, धर्म मिलता नहीं। तुम्हारा पुण्य है कि धर्म मिला। धर्म बड़ा बलवान है। ठीक ही करेगा। हमने धर्म का रक्षण ले लिया, अब धर्म हमारा रक्षण करेगा।
अन्यथा तुम कहां किसकी रक्षा करोगी बेटी? बच्चों की रक्षा करने वाली तुम कौन आयी? क्या ताकत है तुम्हारी? जिंदा रह कर भी तुम क्या करोगी? क्या ताकत है तुम्हारे पास? हां, धर्म के पास बहुत बड़ी ताकत है। ये लोग भी धर्म की शरण हैं और तुम भी धर्म की शरण हो, फिर काहे की चिंता? धर्म बहुत बलवान है। उसकी ताकत का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। छोड़ो सारी चिंता और जो रोग होगा उसकी भी चिंता नहीं करते। हम नहीं डरते। जो होगा, अच्छे के लिए होगा । बस, यही मानते चलो, अच्छा ही होगा।
लेकिन अच्छा तब होगा जब साधना नहीं छोड़ोगी। कोई चमत्कार नहीं है। काम करना पड़ता है। इस रास्ते खूब मेहनत करनी पड़ती है। जहां भय आया, हम नहीं डरेंगे। संवेदना देखेंगे। इसके लिए किसी कोने में बैठने की जरूरत नहीं है। आंख खोले-खोले, जहां बैठी हो, जैसी भी हो, आंख खुले-खुले भी मन देख रहा है। एक मन, भय आया तो भय को देखता है, चिंता आयी तो चिंता को देखता है और दूसरा संवेदना को देख रहा है। रात में सोते-सोते भी यही करना है। बस, अपना काम हो गया। परिणाम अच्छे ही आयेंगे। सभी मनुष्य दुर्बल होते हैं। अपनी दुर्बलता छोड़ो और सुरक्षित हो जाओ। धर्म की शरण लो । धर्म बड़ा बलवान है।
🌺साधक-- ये हमेशा पूछती है जो कर्म आने वाला है उसे विपश्यना करते-करते कैसे काट सकते हैं?
गुरुजी-- इसी तरह कटेंगे। अभी समझाया न । कर्म आयेगा तो फल लेकर आयेगा। फल आने के पहले संवेदना आयेगी । संवेदना को हमने देख कर दुर्बल बना दिया तब जो फल आयेगा वह दुर्बल होकर आयेगा। पेड़ में फल तो आया, लेकिन बढ़ा नहीं। छोटा-सा होकर गिर गया। अन्यथा बड़ा होकर आता-- खारा (कड़वा) था तो बहुत बड़ी कड़वाहट लेकर आता, मीठा था तो बहुत मीठा फल आता। परंतु हमने तो खतम ही कर दिया। क्योंकि जड़ हमारे हाथ में है। कर्म का यह सिद्धांत भूल जायेंगे तो कोई दूसरा हमारा कर्म काटने वाला नहीं है। ये गुरुजी काट देंगे, ये फला काट देंगे, ऐसा नहीं होता। कोई नहीं काट सकता।
गुरुजी-- इसी तरह कटेंगे। अभी समझाया न । कर्म आयेगा तो फल लेकर आयेगा। फल आने के पहले संवेदना आयेगी । संवेदना को हमने देख कर दुर्बल बना दिया तब जो फल आयेगा वह दुर्बल होकर आयेगा। पेड़ में फल तो आया, लेकिन बढ़ा नहीं। छोटा-सा होकर गिर गया। अन्यथा बड़ा होकर आता-- खारा (कड़वा) था तो बहुत बड़ी कड़वाहट लेकर आता, मीठा था तो बहुत मीठा फल आता। परंतु हमने तो खतम ही कर दिया। क्योंकि जड़ हमारे हाथ में है। कर्म का यह सिद्धांत भूल जायेंगे तो कोई दूसरा हमारा कर्म काटने वाला नहीं है। ये गुरुजी काट देंगे, ये फला काट देंगे, ऐसा नहीं होता। कोई नहीं काट सकता।
🌺साधिका-- कर्म काट नहीं सकते तो कर्म का जो फल है उसे आसानी से भुगत लेंगे।
गुरुजी-- यही तो भुगतना हुआ बेटी । कर्म का फल संवेदना के रूप में आया। हमने समता से देख कर यहीं भुगत कर समाप्त कर दिया। थोड़े में छुटकारा हो गया। हमारा कर्म थोड़े में खतम हो गया। नहीं तो बड़ा होकर आता तो हम उसका सामना नहीं कर पाते। यही तो ढूंढ़ा भगवान बुद्ध ने। समझ गये कि कैसे आते ही उसे काटा जा सकता है और यही विद्या लोगों को सिखायी। हमने जो दुष्कर्म किया उसका फल तो आयेगा ही। पहले संवेदना के रूप में आयेगा, फिर बाहर प्रकट होगा। हमने संवेदना देखनी शुरू कर दी। तो उसकी ताकत कम हो गयी। अब भविष्य में आयेगा ही नहीं या फिर आया भी तो मरे हुए फल की तरह, जिसमें कुछ नहीं उपजता । उसका सारा बल समाप्त हो गया। आया भी तो बलहीन, दुर्बल होकर । और मान लो कोई बड़ा फल आया भी तो हम मुस्कराते रहेंगे। हमारा कुछ नहीं बिगड़ा। ऐसे ही किसी ने हमारा कुछ छीन लिया और हम मुस्कराते रहे। ले लिया तो क्या हुआ? हमारे कर्म , थोड़े ही ले लिये । हमारे पास अच्छे कर्म भी तो हैं न। अच्छे फल भी आयेंगे । यदि हम नहीं घबराये तो अच्छे फल आने ही लगेंगे।
गुरुजी-- यही तो भुगतना हुआ बेटी । कर्म का फल संवेदना के रूप में आया। हमने समता से देख कर यहीं भुगत कर समाप्त कर दिया। थोड़े में छुटकारा हो गया। हमारा कर्म थोड़े में खतम हो गया। नहीं तो बड़ा होकर आता तो हम उसका सामना नहीं कर पाते। यही तो ढूंढ़ा भगवान बुद्ध ने। समझ गये कि कैसे आते ही उसे काटा जा सकता है और यही विद्या लोगों को सिखायी। हमने जो दुष्कर्म किया उसका फल तो आयेगा ही। पहले संवेदना के रूप में आयेगा, फिर बाहर प्रकट होगा। हमने संवेदना देखनी शुरू कर दी। तो उसकी ताकत कम हो गयी। अब भविष्य में आयेगा ही नहीं या फिर आया भी तो मरे हुए फल की तरह, जिसमें कुछ नहीं उपजता । उसका सारा बल समाप्त हो गया। आया भी तो बलहीन, दुर्बल होकर । और मान लो कोई बड़ा फल आया भी तो हम मुस्कराते रहेंगे। हमारा कुछ नहीं बिगड़ा। ऐसे ही किसी ने हमारा कुछ छीन लिया और हम मुस्कराते रहे। ले लिया तो क्या हुआ? हमारे कर्म , थोड़े ही ले लिये । हमारे पास अच्छे कर्म भी तो हैं न। अच्छे फल भी आयेंगे । यदि हम नहीं घबराये तो अच्छे फल आने ही लगेंगे।
ऐसे ही हमारे जीवन में एक बार बड़ा कड़वा फल आया। इतनी बड़ी संपदा, उद्योग-व्यापार सब रातोंरात, किसी को पता भी नहीं चला, सब सरकार का हो गया। हम नहीं घबराये गया तो गया, हमारा क्या बिगड़ा? पहले सूचना मिलती तो उसकी ताकत कुछ कम कर देते। लेकिन ऐसा ही हुआ कि नहीं कम कर पाये। तो क्या हुआ, सामना करेंगे। दुःखी नहीं होंगे। और अच्छा ही हुआ । कुछ नहीं बिगड़ा । धर्म में और पुष्ट होने का अवसर मिला।
ऐसे ही सब का मंगल हो!
ऐसे ही सब का मंगल हो!
सत्यनारायण गोयन्का
जुलाई 2015 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
🌷Facing Illness with Equanimity 🌷
( In the last newsletter we read about Sri Tandonji’s commendable equanimity in dealing with cancer. On the same subject Goenkaji gives guidance at a similar, critical juncture in a student’s life. In 1995 a Vipassana meditator was twice operated on for thyroid cancer. She was healed but remained fearful as she had heard that the disease had a high chance of recurrence. What if it came back? She met Goenkaji and was deeply influenced by the guidance she received at that time. Given here is the conversation between Goenkaji and her, as recorded by her husband. )
1) Q. Mrs: I have undergone two surgeries for cancer Guruji.
Goenkaji: My daughter, so you have cancer, it is ok. One has to learn to face it.
2) Q. Mrs: Guruji, I am afraid, though I know this should not be so.
Goenkaji: Because the understanding has not deepened. Whenever you feel anxious and fearful just observe it – ‘Oh fear has arisen, now let me watch what sensations it brings’. At that time the sensations that arise will be linked to and filled with fear. Observe that. A part of the mind will be rolling in that fear, yet another part will be aware of sensations. Maybe just 5% of the mind will be aware, the remaining 95% will be rolling in fear, yet that 5% is powerful enough to cut the roots of the fear. If the mind rolls fully 100% in fear then indeed the fear will multiply. At least this much we must learn from Vipassana; that we must strengthen a portion of our mind sufficiently for it to witness fear. There is an ailment and we worry over its outcome. We watch this worry and we watch the sensations being generated. Sensations and worry, we observe this again and again. We also know that these sensations are always changing, they are impermanent. So also the worry is ephemeral, it will not stay forever. If we continue to watch with this understanding, then the worry starts weakening until it all dissolves. The whole world says that we should not worry, but if we only understand this intellectually and do not witness it as Vipassana teaches us to, then there is little difference between us and the world.
3) Q. Mrs: This worry is what is happening within.
Goenkaji: Please understand this well, my daughter. I was told that your cancer has been removed with surgical intervention, then why are you worried? You have received this profound teaching of Vipassana. Now use it. Whenever fear overpowers you, see what sensations are arising. Sensations are arising continuously, you know that. It is not important when fear overpowers to travel head to toe observing sensations. Wherever the sensations arise, clear and well defined, just understand, ‘Oh! There is this sensation and it is so ephemeral, anicca’. Worry has arisen, and that too is anicca. Understand, ‘It has nothing to do with me. I am unaffected, just observing’. The connection between mind and body is deep. Whatever arises strongly in the mind will generate and get connected to the bodily sensations. Any sensation felt on the body is also linked to the mind. We are not able to be aware with equanimity of the thought that has arisen in the mind and is inevitably linked to the body, as we have not matured enough in meditation to experience arisen worry or fear as pure worry or fear. This only occurs at higher levels of meditation. So we just accept that fear has arisen, and 95% of the mind is rolling in it, though 5% of the mind is able to watch sensation even if only briefly. Just be aware of the sensation and know its ephemeral nature. So also know that arisen fear too is very temporary. See how long it stays. And as you keep watching, its power will continue to weaken till fear finally dissolves. Many times we can see a calamity approaching. An event will likely occur externally which will damage something dear to us. Immediately the fear will arise, ‘What will happen now’? The event will occur later but the fear has already enveloped us. Sensation starts as soon as a seed is planted. This is the law of nature. Seed and fruit both give rise to sensation and though the fruit is yet to take shape the sensation has already arisen and we start watching it. This observation weakens the event to come so that when it occurs it will turn light like a flower petal. Awareness with equanimity weakens it. A non meditator on the other hand is unaware and indulges in worry which strengthens the fruit that has to come. Do not strengthen the unwanted event through lack of awareness. Do not walk backwards.
4) Q Mrs: I feel guilty that I am not fulfilling my responsibility.
Q Mr: She is worried about the children.
Q Mr: She is worried about the children.
Guruji: The thought of fulfilling your responsibilities is only in your mind. Maybe you were fulfilling them earlier but now as you allow your mind to weaken, it does not remain capable of performing its duties. Do not allow your mind to weaken. The law of nature is very delicate and once it is understood it should be applied. How? When you know that the results of an event will be good, pleasant sensations will follow. The event will occur later, but its sensation will be felt before any visible manifestation of the event. Similarly, if an unhappy event is to take place, then unpleasant sensations will be felt. If we are an established meditator, we will know that if unpleasant sensations are arising, then some unhappy event may be around the corner. If these sensations are observed with equanimity, then its power will weaken and it will bear a weakened result, like a flower, light and soft. On the other hand if we become weak, then the impending fruit may come and fall heavily like a sword. Strengthen the mind.
5) Q. Mr: She is afraid that the children will have to serve her in case she falls very ill. This churns in her heart.
Goenkaji: Thinking about this constantly is inviting this eventuality. There is a story. A man is sitting under a wish fulfilling (Kalpavriksha) tree. He gets whatever he wishes for. However his wishes come at random. He thinks what if a lion comes and it happens. Then he thinks, the lion will eat me up, and it happens! So, my daughter, you are sitting under a wish fulfilling tree, ask and you will receive. Moreover, if you are asking for the wrong things then how can you hope to receive happy tidings? It is agreed that the mind is weak; and so 95% of it is going in an undesirable direction. You are not a ripe meditator, but you will ripen with time and then will realize the true import of what I am telling you just now. You will then realize how misguided your thinking was. Until then, unless you use at least 5% of your mind to mature in your practice, you are not going in the right direction. Even a raw meditator who has freshly entered the path is able to focus at least 5% of his or her mind on observing sensations even if the remaining 95% is wandering and rolling. That 5% is powerful enough to cut the roots of our mental impurity. You too are cutting the roots, though it seems like the tree canopy is growing and spreading. A time will come when the tree will fall down. Have no fear now that you have entered the path of Vipassana as a result of immense past paramis. Do you know that my mother was suffering from terminal cancer? Doctors said to her that she must be in severe pain, and offered her some pain killers or injections. But my mother said, ‘That will not be required as I have learnt to observe objectively’. She left her body smiling calmly. Your situation is not as bad, so why are you worried?
6) Q. Mr: She is more worried about others.
Goenkaji: That means you are creating a future that has not yet been created. Lord Buddha said: Atta hi attano natho; Atta hi attano gati, meaning: you are your own master; you create your own destiny. We are our own masters and write our own future. Then why do you create an unhappy future for yourself? You have received such profound teachings of the Buddha, so carve out a happy, wholesome future. In fact come out of all the past and future and walk on the path to Nibbana. Whenever despondency and hopelessness arise, develop awareness of sensations, and the cause of their arising. You do not need to go into details; though part of mind may start analyzing, do not go into it consciously. Work on the sensations with awareness and stop worrying. These sensations are connected to the very depths of the mind, which means that if our mind gets established in equanimity, then we are getting established in equanimity at the root level. The surface level of the mind is reactive and it is making us unhappy. But the other part is watching these very roots and helping us to come out of our miseries. This is the way out of misery. There are many types of sadhanas in the world but these do not offer the profound reality of sensations. They work to a degree at the surface level of the mind and to that extent are good. The mind is diverted, relieving it of an unbearable pain. Let us say that if we are followers of the Buddha and we start chanting Buddha, Buddha, or if we are Jains and chant Mahavir’s name, then this will divert our attention and so alleviate the suffering in the mind. But only the surface, conscious level of the mind will get diverted. The mind working at the sub conscious level or deeper root level is continuing the same reactive process and creating new sankharas of misery. It is a huge blessing that you are able to work at cleansing the mind at the root level. Without this the mind cannot be fully purified. After receiving this profound teaching of the Buddha which shows us the way out of fear, there can be no room for anxiety. Come out of it. Meditate with me for a while now. Good, good, do not fear, you will be fully healed. You have a large bank balance of paramis and you are on the path of Dhamma. How many people are searching but have not found the path to salvation. You have received it due to your past paramis. Dhamma is very powerful and you have taken refuge in it, and that Dhamma will protect you. Otherwise who are you to protect your children? Even if you are alive, what protection can you offer your children? What is your strength? Just as Dhamma, potent and powerful, protects you; it also protects your children. Its power is incomparable. Offer total surrender to Dhamma and know that it can only do good. But you must continue your practice as there are no miracles. You must work hard. Observe sensations of fear instead of rolling in them. It is not necessary to always sit in a corner with closed eyes. Watch your mind even as you are doing now, with open eyes. One part of the mind continues to be aware of fear or anxiety as it arises, while the other part is aware of sensations as they arise. Do the same while sleeping at night. Results will only be good. Human beings tend to be weak. You must be strong with the power of Dhamma as you take refuge in it.
7) Q. Mrs: How can we cut kammas that are to come, by Vipassana?
Goenkaji: Just as it has been explained. When kamma ripens it brings its fruit. Before the fruit comes, the sensation comes. If we weaken the inevitable fruit by observing the sensations then the fruit that comes will be weaker. Otherwise it would have come large and ripe, filled with bitterness or sweetness as the case may be. Now we have demolished it by cutting at the roots. We cannot forget the fundamental law of kamma, that no one else can remove our kamma. To dream that some guru or anyone else will remove it for us someday is to live with false hope.
8 ) Q. Mrs: Perhaps we are unable to cut our kamma, but we face it bravely and bear its fruit with resilience.
Goenkaji: This is what we are doing. The fruit of kamma that would have come along with unbearable suffering has come as a sensation and we dissolve it by observing it with equanimity; thus becoming free with very little suffering. This is the rare and supreme gift of the Buddha. He discovered where the starting point of kamma was and gave us this knowledge. Fruits of all our kamma will come inevitably. If we start watching sensations as soon as they arise, then when the fruit does come, it will be a weak fruit with no strength or power. Even when a difficult and a particularly large fruit ripens it will cease to affect us. We will accept it smilingly, knowing that as kammas bringing unhappiness have borne fruit, so also kammas bringing happiness will bear fruit. We must remain steadfast with equanimity and fearless in both situations. In my life also a major fruit of kamma came in all its bitterness. Large businesses, properties and riches were taken over by the government overnight, without our knowledge. Though we remained steadfast and grounded in Dhamma, we would have been better equipped to deal with it if we had been forewarned. We would have worked at weakening its impact. However that did not happen; never mind as we gained more time and opportunity to ripen in Dhamma. May you both be happy and continue to grow in Dhamma.
(Vipassana Newsletter. July'15)