पुक्कुसाति - भाग 2-3

🌹 पुक्कुसाति (भाग 2-3) गतांक से आगे...


King Pukkusāti
चला त्यागकर राज्य-सुख
बिम्बिसार ने यह पत्र रत्नखचित स्वर्ण-मंजूषा में रखकर उसे 'एक के ऊपर एक , दस बहुमूल्य पेटियों में बन्द करवाया और लाख की चपड़ी लगा राज्य-मुहर से सील-बंद किया। फिर उसे मूल्यवान वस्त्रों से सुसज्जित मंगल हाथी के हौदे पर स्थापित किया और राजकीय श्वेतछत्र से आच्छादित कर एक श्वेतकेतु सैनिक टुकड़ी सहित गाजे बाजे के साथ तक्षशिला की यात्रा के लिए प्रस्थान करवाया।
रास्ते पर छिड़काव करवाकर बालू बिछवाई। दोनों ओर मांगलिक वंदनवारें तथा स्वच्छ पानी भरे कलश रखवाए और अपने नगर की सीमा तक स्वयं साथ-साथ पैदल गया। इसके आगे की यात्रा के लिए संदेश-वाहकों को आदेश दिया कि धर्मरत्न की यह अनमोल भेंट तक्षशिला तक अत्यंत सम्मानपूर्वक ले जायी जाय और वहां पहुंचने पर मेरे मित्र को मेरी ओर से यह संदेश दिया जाय कि इसे किसी एकांत स्थान में आदरपूर्वक खोलकर देखे।
पुक्कुसाति ने अपना उपहार जनसम्मुख खोले जाने का संदेश भेजा था, ताकि जनता पर दोनों राजाओं की मित्रता की गहरी छाप पड़े। परन्तु बिम्बिसार अपनी भेंट अकेले में खोले जाने का संदेश भेजता है। बिम्बिसार जानता है कि पुक्कुसाति के पास पूर्व जन्मों की पुण्य पारमी होगी तो धर्म का यह संदेश पढ़कर राज्य त्यागने की बात सोचेगा और ऐसी अवस्था में परिवार और राज्यशासन व नगर के अन्यान्य उपस्थित लोग उसके उत्साह को शिथिल करने का प्रयत्न करेंगे। अतः उसके लिए एकांत ही कल्याणकारी होगा।
हजारों मील की लंबी यात्रा पूरी करता हुआ यह शाही कारवां जब गांधारदेश की सीमा पर पहुंचा तो पुक्कुसाति ने अपने आमात्यों को भेजकर इस राज्य-उपहार की समुचित अगवानी करवायी और तक्षशिला तक की यात्रा बड़ी धूमधाम के साथ ससम्मान पूरी करवायी । राजनगरी तक्षशिला की सीमा पर स्वागत के लिए पुक्कुसाति स्वयं पहुँचा और जुलूस के साथ राजमहल तक पैदल चलकर आया।
मित्र बिम्बिसार के सुझाव के अनुसार उसने यह अनमोल पिटारी राजमहल के एकांत कक्ष में पहुंचाई और द्वार पर एक प्रहरी बैठाकर अकेले में स्वयं अपने हाथों उपहार की पिटारी खोली। लाख की राज्य मुहर तोड़कर पेटी में से पेटी निकालते हुए, अंत में रत्नखचित स्वर्ण-मंजूषा निकाली और उसे खोलकर गोल लपेटे गए लंबे स्वर्ण-पत्र को अत्यंत आदर पूर्वक बाहर निकाला।
“मेरे मित्र ने मेरे लिए धर्म का यह अनमोल उपहार भेजा है जो मध्यदेश जैसी पावन भूमि में ही उपजता है। यहां मिलना असंभव है।" अतः बड़ी भावभीनी श्रद्धा के साथ स्वर्णपत्र को खोलकर पढ़ने लगा। देखू, मेरे मित्र का क्या धर्म-संदेश है?
पहली ही पंक्ति थी - इध तथागतो लोके उप्पन्नो। यहां लोक में तथागत उत्पन्न हुए हैं।
क्या सचमुच संसार में तथागत बुद्ध उत्पन्न हुए हैं! क्या सचमुच मैं बुद्धकाल में जन्मा हूं! इस चिंतन मात्र से उसके मन में प्रसन्नता का एक प्रबल प्रवाह फूट पड़ा। और फिर जब आगे,
“इतिपि सो भगवा... आदि” इन शब्दों में भगवान के गुणों का वाचन किया तो पढ़ते-पढ़ते शरीर के 11 हजार रोमकूप उत्थापित हो । उठे। सारा मानस पुलकित हो गया। सारा शरीर रोमांचित हो गया। कुछ देर इसी प्रसन्नताविभोर अवस्था में सुध-बुध खोए रहा। यह भी होश न रहा कि मैं बैठा हूं या खड़ा हूं। आगे की पंक्तियां पढ़ ही न सका। यों भावविभोर अवस्था में बहुत सा समय बीत जाने के बाद जब भावावेश कुछ कम हुआ तो आगे पढ़ना शुरु किया। आगे शुद्ध धरम के गुणों की व्याख्या थी।
"स्वाक्खातो भगवता धम्मो...आदि" पढ़ते-पढ़ते फिर तन-मन उसी प्रकार पुलकन-सिहरन से भर उठे । फिर तीव्र भावावेश जागा। फिर कई देर तक सुध-बुध खोए रहा। कुछ समय बाद मन शांत हुआ तो आगे संघ के गुणों की पंक्तियां पढ़ी -
“सुपटिपनो भगवतो सावक संघो... आदि” तो फिर वही दशा हुई। तदन्तर पत्र के चतुर्थ भाग को पढ़ने लगा तो उसमें आनापान साधना का विवरण था, जिसे पढ़ते-पढ़ते चित्त और शरीर में आनंद की ऐसी धाराप्रवाह अनुभूति होने लगी कि सहज ही चित्त एकाग्र हो गया। समाधिस्थ हो गया। अनेक जन्मों की पुण्यपारमिताओं का संग्रह था, अत: चित्त तत्काल प्रथम ध्यान समापत्ति में समाहित हो, अल्पकाल में ही प्रथम से द्वितीय, द्वितीय से तृतीय और तृतीय से चतुर्थ ध्यान समापत्ति में गहनतापूर्वक समाधिस्थ हुआ। बाहरी आलंबनों का जरा भी भान नहीं रहा। यह अवस्था देर तक चली। यद्यपि अभी विपश्यना की ऊंची अवस्थाएं नहीं प्राप्त हुई थीं, परन्तु चौथी ध्यान-समापत्ति का धर्म रस ही इतना अपूर्व था कि बार-बार उसी के अभ्यास में लगा रहा और उसके रसास्वादन में दो सप्ताह बिता दिए।
कक्ष के द्वार पर पहरेदार बैठा था। केवल एक व्यक्तिगत सहायक के अतिरिक्त अन्य किसी का प्रवेश निषिद्ध था। 15 दिनों तक देश का राजा न राजमहल के रनिवास में गया और न राजदरबार में, न न्यायालय में और न ही सेनालय में। राज्य के प्रमुख लोगों को चिंता होने लगी कि हमारे राजा को ऐसा क्या उपहार मिला है, जिससे कि वह इस प्रकार वशीभूत हो गया है?
चतुर्थ ध्यान समापत्ति के शांति रस की स्वानुभूति से प्रभावित हुए राजा पुक्कुसाति को अपने मित्र के अंतिम बोल याद आए। सचमुच मुझे राज्य त्यागकर तुरंत अभिनिष्क्रमण कर देना चाहिए। मेरा सद्भाग्य है कि इसी समय देश में बुद्ध उत्पन्न हुए हैं। उनके सान्निध्य में रहकर भवभ्रमण के दुःखों से सर्वथा विमुक्त कर देनेवाली विपश्यना विद्या सीखकर मुझे अपना मनुष्य जीवन सार्थक कर लेना चाहिए। न जाने जीवन थोड़ा ही बचा हो। महान उपकार है मेरे मित्र का, जिसने मुझे ऐसी कल्याणी सूचना भिजवाई।
यो जीवनमुक्त अर्हत होने के उद्देश्य से भगवान बुद्ध के बताए मार्ग पर चलने के लिए राजपाट, घरबार त्यागने का दृढ़ निश्चय किया। अपने हाथों कृपाण से शीश और दाढ़ी-मूंछ के केश काटे और सहायक से दो काषाय वस्त्र मँगवाए । एक को अधोवस्त्र बनाकर पहना, दूसरे को ऊर्ध्व वस्त्र बनाकर ओढ़ा। मिट्टी का एक भिक्षा-पात्र और लकड़ी का एक दंड भी मँगवाया। इन्हें हाथ में लेकर महल के नीचे उतर आया।
राजपरिवार के लोग उसे इस वेष में नहीं पहचान पाए। समझा कोई संन्यासी राजा से मिलने आया होगा और अब लौट रहा होगा। राजदरबार के राजपुरुष भी उसे नहीं पहचान पाए। परन्तु जब निजी सहायक ने सारी स्थिति स्पष्ट की तो रनिवास और दरबार में कुहराम मच गया। दावानल की भांति यह सूचना सारे नगर में फैल गयी। पुक्कुसाति जैसे प्रजावत्सल राजा के राज्यत्याग की सूचना ने सारी प्रजा को दुःख सागर में डुबो दिया। प्रजा पर अनभ्र वज्रपात हुआ। शोक-निमग्न रोते-बिलखते हुए नगरनिवासी, राज्य के शासनाधिकारी और राजपरिवार के लोग भिक्षु वेशधारी पुक्कुसाति के पीछे हो लिए। लोगों ने क्रंदन करते हुए, कहा “महाराज, आपके बिना हम अनाथ हो जायेंगे।"
पुक्कुसाति ने सान्त्वना भरे शब्दों में कहा, - “यहां अनेक योग्य व्यक्ति हैं जो मेरी अनुपस्थिति में राज्य-प्रशासन के दायित्व को अत्यंत कुशलतापूर्वक निबाहेंगे।”
मंत्रियों ने उसे समझाने की चेष्टा की-“महाराज, मध्यदेश के राजा बड़े मायावी होते हैं। कुटिल होते हैं। उनकी कूटनीति छल-छद्म से परिपूर्ण होती है। कोन जाने लोक में सम्यक्सम्बुद्ध उत्पन्न हुए भी हैं या नहीं? हो सकता है कि यह सब प्रवंचना हो। आप को राज्यच्युत करवाकर गंधार देश को दुर्बल बना दिया चाहता हो, ताकि समय पाकर उसे हड़प ले।"
“नहीं, मंत्रियों, मेरे परम मित्र के प्रति ऐसा शक-संदेह न करो। मगध का राज्य गंधार देश से बहुत दूर है। बीच में कौशल, कौशाम्बी, चेदिय, पांचाल, कुरु जैसे शक्ति-सम्पन्न जनपद हैं। उनका अतिक्रमण करके गंधार देश को हथिया लेना असंभव है। यह अनदेखा मित्र, मेरा परम हितैषी है। जानता है कि भगवान मगध देश में विहार कर रहे हैं। अतः वह स्वयं गृहस्थ रहते हुए भी उनके सान्निध्य का दीर्घकालीन लाभ ले सकता है। परन्तु भगवान मध्यदेश छोड़कर इतनी दूर विहार करने आयेंगे नहीं। अतः मैं उनके सान्निध्य से वंचित रह जाऊंगा। इसीलिए उसने मुझे गृह त्यागकर उनके समीप रहने के लिए प्रोत्साहित किया है। मंत्रियों, मेरे मित्र के प्रति मिथ्या संदेह कर दोष के भागी न बनो। वह मेरा कल्याण चाहनेवाला सन्मित्र है।
“बद्ध उप्पादो दुल्लभो लोकस्मि” राज आमात्यों, संसार में बुद्ध का उत्पन्न होना सचमुच दुर्लभ है । मेरे और मेरे जैसे अनेकों के सौभाग्य से यह दुर्लभता सुलभ हुई है। मुझे उनकी शरण जाने दो। अनेक जन्मों में मुक्ति की खोज में मैं व्यर्थ भटका हूं। अब इसे प्राप्त करने का सुअवसर आया है। मुझे इस लाभ से वंचित करने का वृथा प्रयत्न मत करो।"
यों बहुत प्रकार से समझाने पर भी लोग नहीं माने। रोते बिलखते, उसके पीछे चलते ही गए। तब पुक्कुसाति ने दृढ़ता का कदम उठाया । उसने अपने दंड से मार्ग पर एक रेखा खैच दी और कहा-“मैंने गृही जीवन का त्याग कर दिया है। परंतु अब भी तुम मुझे अपना राजा मानते हो तो सुनो, यह राजाज्ञा है। कोई इस सीमा का उल्लंघन न करे।"
लोग राजा पुक्कुसाति के इस दृढ़ निश्चय को देखकर हताश हुए और राजाज्ञा को नमस्कार कर, रोते-बिलखते नगर लौट गए। गृहत्यागी श्रमण पुक्कुसाति गंधार से मगध की ओर जानेवाले महापंथ पर पैदल चल पड़ा।
तक्षशिला से राजगिरी का रास्ता बहुत लंबा था। पर भूतपूर्व गंधार नरेश अब एक सामान्य भिक्षु के रूप में सुदृढ़ निश्चय और सबल कदमों से चला जा रहा था। - “भगवान बुद्ध अपने हाथों अपने केश काटकर काषाय वस्त्र धारण करके चले, तो अकेले ही सत्यान्वेषण की चारिका पर निकले थे । मुझे उन्हीं के चरण-चिन्हों पर चलना है। मैं भी अकेला विचरण करूंगा। उन्होंने पांव में पनही भी नहीं पहनी थी। मैं भी नंगे पांव यात्रा करूंगा। उन्होंने किसी वाहन का प्रयोग नहीं किया था। मैं भी कि सी वाहन का प्रयोग नहीं करूंगा। उन्होंने सिर पर पत्तों के छाते का भी प्रयोग नहीं किया था। मैं भी खुले सिर ही यात्रा करूंगा। उन्होंने बिना मांगे जो मिले, उसी से यात्रा की थी। मैं भी अदिन्नादान से विरत रहकर यात्रा करूंगा। दातून के लिए किसी पेड़ की डाली भी स्वयं नहीं तोडूंगा। किसी जलाशय से मुँह धोने के लिए पानी भी स्वयं नहीं ग्रहण करूंगा। कोई न दे तो भोजन भी नहीं ग्रहण करूंगा।” ।
इन दृढ़ व्रतों का अटूट संकल्प धारण कर भिक्षु पुक्कुसाति कदम-कदम आगे बढ़ने लगा। तक्षशिला से राजगिरि की यात्रा लंबी ही नहीं दुर्गम भी है । राजमहलों की सुख-सुविधा और वैभव-विलास में जन्मा पला पुक्कुसाति खुरदरी कड़ी धरती पर नंगे पांव चल रहा है। पांव में छाले पड़ गए हैं। चलते-चलते छाले फूट गए हैं। घावों में पीप पड़ गई है। पीप बहने लगी है। पैदल चलने का श्रम तो है ही। इन फोड़ों और फफोलों की पीड़ा भी कम तीव्र नहीं है।
आगे-आगे व्यापारियों का एक कारवां चल रहा है। पीछे-पीछे पुक्कु साति दृढ़ कदमों से पैदल चल रहा है। सामने चल रहीं सैकड़ों बैलगाड़ियों पर क्रय-विक्रय का सामान लदा है। साथ-साथ कुछ एक आलीशान रथनुमा बैलगाडियां चल रही हैं, जो कारवां के मालिक साहूकारों के सोने-बैठने और आराम करने के लिए हैं। इनमें झालरवाले आरामदेह मोटे गद्दे, तकिए और मसनद लगे हैं। एक-एक गाड़ी को दो-दो श्वेतवर्णी स्थूलोदर विशाल वृषभ बैंच रहे हैं। इनके पेट की लटकन धरती को छूती सी लगती है। बड़े-बड़े सींगवाले सुंदर चेहरे हैं इनके। सींगों को नयनाभिराम रंगों से रँगा है। गले में एक-एक घंटी बँधी है। प्रत्येक बैल की पीठ पर खूबसूरत कसीदे की कढ़ाई की हुई रंग-बिरंगी खोल लगी है, जिसमें नन्हीं-नन्हीं घंटियों की झालर झूल रही है। गाड़ी के चक्कों के आरों पर धुंघरू बँधे हैं। प्रत्येक रथ पर जुते हुए दोनों बैल एक साथ अपना सिर हिलाते और झूमते हुए गाड़ी बैंचते हैं तो इन घंटे, घंटियों और धुंघरुओं का समवेत स्वर पैदा होता है। यह रुनझुन स्वर बड़ा चित्ताकर्षक है, परन्तु पीछे-पीछे चलते भिक्षु का ध्यान इन पर नहीं जाता। वह नजर नीची किए हुए अपनी श्रमसाध्य यात्रा पैदल पूरी कर रहा है।
सूर्यास्त होने पर कारवां कही रुकता है । मालिकों के लिए खूबसूरत आरामदेह, अन्यों के लिए साधारण तम्बू तान दिए जाते हैं, जिनमें वे रात्रि विश्राम करते हैं। परन्तु भिक्षु उनके समीप भी नहीं जाता। कुछ दूरी पर किसी पेड़ के नीचे पाल्थी मारकर बैठ जाता है। न घाव भरे पांव धोने के लिए पानी है। न दुखती पीठ सहलाने का कोई साधन है। परन्तु आनापान का ध्यान करते हुए शीघ्र ही उपचार से अर्पणा समाधि की ओर बढ़ कर पहले से चौथे ध्यान की समापत्ति में समाहित हो जाता है। रात भर ध्यान में लीन रहकर शरीर की सारी हरारत, थकावट दूर कर लेता है। दूसरे दिन तरे-ताजा हो, यात्रा के लिए फिर तैयार हो जाता है।
कारवां के लोग सुबह-सुबह का नाश्ता कर चुक ने पर बचा-खुचा भोजन तथा कुछ जूठन भिक्षु के भिक्षापात्र में डाल देते हैं। भोजन कभी अधपका होता है, कभी बहुत पका। कभी रूखा होता है, कभी गीला । कभी अलोना होता है, कभी बहुलोना। गृहत्यागी राजसी भिक्षु के भिक्षा पात्र में जो पड़ जाए, उसे ही अमृत सदृश स्वादिष्ट मानकर सहर्ष ग्रहण कर लेता है और उसी एकाहार से दिन भर की यात्रा करता है।
कारवां के श्रेष्ठियों को यदि मालूम हो जाय कि यह जो फटेहाल भिखारी पीछे-पीछे चल रहा है, वह स्वयं गांधारनरेश पुक्कुसाति है, जिसकी कृपा से हमें तक्षशिला में आयात-चुंगी की छूट मिली और हमारा मुनाफा कई गुना बढ़ा, तो श्रद्धा और कृतज्ञता से विभोर होकर उसके लिए यात्रा की वह सारी सुविधाएं कर देते, जो कि उन्हें अपने लिए उपलब्ध थीं। परन्तु पुक्कुसाति को यह अभीष्ट नहीं था। उसे एक श्रमण का श्रमसाध्य जीवन श्रेष्ठतर दिखता था। इस कष्ट में उसे अतीव मानसिक तुष्टि और प्रसन्नता मिलती थी। इसी प्रसन्नता में उसने लगभग 192 योजन की लंबी यात्रा पूरी की।
रास्ते में कारवां श्रावस्ती नगर में से होकर गुजरा। नगर के बाहर निकलने पर जेतवन विहार के सामने से गुजरा । पुक्कुसाति ने सुना यह बुद्ध का विहार है । परन्तु उसने सोचा अनेक लोग बुद्ध होने का दावा करते हैं। मुझे उनसे सरोकार नहीं। मेरे कल्याणमित्र बिम्बिसार ने जिन भगवान गौतमबुद्ध के बारे में लिखा है, मेरे लिए तो वही बुद्ध हैं और वह तो मगधदेशीय राजनगरी राजगिरि में मिलेंगे। इसी विचार से उत्साहित हो, उसने श्रावस्ती से राजगिरि की 45 योजन की यात्रा पूरी की।
जब राजगिरि पहुँचा तो सूरज ढल चुका था और राज्य के कठोर नियमानुसार नगरद्वार बंद कर दिए गए थे। प्रातःपूर्व किसी के लिए नहीं खुल सकते थे। अतः उसने राजनगर के बाहर विश्राम करने का निर्णय किया। वहीं यह सूचना मिली कि जिन भगवान सम्यक सम्बुद्ध से मिलने यहां आया है, वह इस समय श्रावस्ती के जेतवन में विहार कर रहें हैं। अतः उसने निर्णय किया कि एक रात यहीं बिताकर कल भगवान के दर्शन के लिए पुनः वापसी यात्रा पर निकल पड़ेगा।
🌹 पुक्कुसाति (३) गतांक से आगे...
हुई मित्रता फलवती
नगर के बाहर भार्गव कुम्भकार (कुम्हार) का एक छोटा सा'मकान। कुम्भकार को बर्तन, भांडे बनाने के लिए बहुत सी मट्टी की आवश्यकता होती है, अतः नगर के बाहर जहां ऐसी सुविधा हो, वहीं उसका निवास होना स्वाभाविक है। हम नहीं जानते कि भार्गव इस कुम्भकार का नाम है अथवा गोत्र, जिसके कारण वह इस सम्बोधन से पुकार जाता है। हो सकता है जैसे आज कुम्भकार को प्रजापति के नाम से पुकारते हैं, उसी प्रकार उन दिनों भार्गव नाम से पुकारते हों। क्योंकि पुरातन साहित्य में हमें एक से अधिक भार्गव कुम्भकरो के उल्लेख मिलते हैं।
जो भी हो, यह भार्गव कुम्हार अत्यंत श्रद्धालु है। साधु-संतों की सेवा टहल और सत्संग में रुचि रखता है। उनकी सुख सुविधा के लिए अपने घर के समीप एक विश्रामशाला बना रखी है, जो कि कुम्भकारशाला के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें यात्री साधु-संन्यासी, एक दो दिन के लिए टिकते रहते हैं। कभी भगवान बुद्ध और कभी सारिपुत्र आदि, उनके शिष्य भी रैन बसेरे के लिए इस कुम्भकार की विश्रामशाला में रुके हैं। आज भी भगवान बुद्ध सूरज ढलने के बाद इस कुम्भकार के पास आए हैं और उससे पूछते हैं - “भार्गव कुम्भकार,मैं तुम्हारी अतिथिशाला में रात बिताऊं? तुम्हें बोझ तो नहीं लगेगा?"
“नहीं, भन्ते भगवान, मेरे लिए तो यह असीम पुण्य की बात होगी। कुंभकार शाला का कक्ष बहुत बड़ा है। उसमें एक साथ एक से अधिक लोग आराम से टिक सकते हैं। परन्तु अभी कुछ देर पहले मैंने एक श्रमण को वहां टिकने की अनुमति दे दी है। उसे पूछ लें। उसे एतराज न हो तो भगवान सुखपूर्वक रहें।"
भगवान कुंभकार शाला में गए। देखा, वहां फटे चीवर पहने एक श्रमण बैठा है। गौर वर्ण है, उन्नत ललाट है, बड़ी आंखे हैं, लंबा नाक है। सिर और मूंछ दाढ़ी के कटे हुए बाल, दो-दो अंगुल बढ़े हुए हैं। योद्धाओं का सा चौड़ा सीना है । सबल सुडौल हाथ-पांव हैं। सब मिलाकर बड़ा भव्य व्यक्तित्व है। भगवान उसे देखकर मुस्कराए । उन्होंने पूछा, “भिक्षु इस कक्ष में मैं तुम्हारे साथ एक रात गुजार लूं? तम्हें बोझ तो नहीं लगेगा?" _ “नहीं, आयुष्मान्, जरा भी नहीं। कुम्भकारशाला का यह कक्ष बहुत बड़ा है। बड़ी खुशी से यहां रात बिताओ । मुझे तो पाल्थी मारकर बैठने भर का स्थान चाहिए। तुम यहां यथासुख रहो।"
तृण का आसन बिछाकर भगवान एक ओर बैठ गए और ध्यानमग्न हो गए। पूर्वागत भिक्षु भी ध्यान में बैठ गया और शीघ्र ही चौथी ध्यान-समापत्ति में समाधिस्थ हो गया।
शनैः शनैः रात बीतती गयी । रात्रि का प्रथम याम बीता, द्वितीय याम बीता, अब तीसरा बीत रहा था । पूर्णिमा थी। आकाश सारी रात चंद्रप्रभा से प्रभासित रहा। धरती के आंगन पर चांदनी छिटकी रही। खुली खिड़कियों से चांदनी का प्रकाश कक्ष में भी प्रवेश पा रहा था। भगवान बुद्ध और भिक्षु को चंद्र-किरणे स्पर्श कर रही थीं। भगवान तो बोधिरश्मि से स्वयं प्रभाकर थे ही, भिक्षु का चेहरा भी ध्यान समापत्ति की प्रभा से प्रदीप्त था। चांद की शुभ्र ज्योत्सना उन दोनों के चेहरों को और अधिक उजला कर रही थी। भिक्षु देर तक बिना हिले-डुले अधिष्ठान आसन में बैठा रहा। तीसरे याम के दौरान उसने आंखे खोली! भगवान ने उसकी ओर देखा और मुस्कराये। उन्होंने पूछा - “भिक्षु, तुम किस पर आश्रित होकर गृहत्यागी हुए हो? कौन तुम्हारा शास्ता है, आचार्य है? किसके द्वारा उपदेशित धर्म तुम्हें रुचिकर है।
_ भिक्षु ने उत्तर दिया, – “आयुष्मान् लोक में सम्यक्सम्बुद्ध उत्पन्न हुए हैं, जिनकी कीर्ति चारों ओर फैली है । मैं उन्हीं शाक्यमुनि भगवान गौतम बुद्ध का आश्रय लेकर घर से बेघर हुआ हूं। वही मेरे शास्ता हैं। उन्हीं का उपदेशित धर्म मुझे रुचिकर लगता है।"
भगवान फिर मुस्कराये । उन्होंने पूछा, - “भिक्षु, क्या तुमने अपने शास्ता को कभी देखा है? क्या देख लो तो पहचान पाओगे?"
“नहीं, आयुष्मान् नहीं पहचान पाऊंगा। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा।" “इस समय तुम्हारे शास्ता कहां हैं?"
“यहां आने पर पता चला कि वे श्रावस्ती के जेतवन में विहार कर रहे हैं। रास्ते में मैं जेतवन विहार के सामने से गुजरा, पर तब तो समझता था कि उन्हें मगध में सम्बोधि मिली है, अत: मगध में ही विहार कर रहे हैं। अब उनसे मिलने के लिए पुनः 45 योजन श्रावस्ती की ओर लौटना होगा।"
भगवान फिर मुस्कराए। उन्होंने अपने बोधिचित्त से देखा कि भिक्षु का आयुष्य बहुत थोड़ा बचा है। सूर्योदय के कुछ समय बाद उसकी शरीर-च्युति हो जायेगी। मेरे निमित्त ही यह प्रव्रजित हुआ है। बहुत योग्य पात्र है। अनेक जन्मों की पुण्य पारमिताओं का धनी है। विपश्यना सिखायी जाए तो अभी विमुक्ति की ऊंची अवस्थाएं प्राप्त कर लेगा। अत: उन्होंने बड़े करुण चित्त से कहा, -
“तो भिक्षु ध्यान लगाकर सुनो! मैं तुझे धरम देशना देता हूं।"
ऐसा आकर्षण था भगवान की करुणासिक्त वाणी में कि भिक्षु ना न क र सका। उसने कहा, “बहुत ठीक आयुष्मान्!" और दत्तचित्त होकर उनकी कल्याणी वाणी सुनने लगा।
पूर्व जन्मों के अभ्यास के कारण स्वर्णपत्र पर आनापान की साधना का वर्णन मात्र पढ़कर वह स्वतः चौथी ध्यान समापत्ति की अनुभूति तक पहुँच चुका था। भगवान ने अब उसे धातुओं के विभंग को समझाते हुए विपश्यना की गहराइयों में उतारा।
पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश, -ये पांच भौतिक तत्व हैं और विज्ञान , यह एक मानसिक तत्व । इन छह तत्वों का समुच्चय ही मनुष्य है। इन छहों को विभाजित करके ,इनकी धातु याने इनके धर्म-स्वभाव को अनुभूतियों के स्तर पर जान लेना धातु विभंग है। इन छह तत्वों के अतिरिक्त आंख, कान, नाक ,जीभ, त्वचा और विज्ञान (मानस) की छह इंद्रियां और इनके अपने-अपने विषयों के संस्पर्श से उत्पन्न होनेवाली सुखद-दुखद अथवा असुखद-अदुखद संवेदनाओं की 18 प्रकार की अनुभूतियों में विचरण करते रहनेवाले स्वभाव को विभाजित कर-करके देख लेना, इन्हें मैं, मेरा और मेरी आत्मा न मानकर मिथ्या अहं की भ्रम-भ्रांति जनक मरीचिका से मुक्त होना, मिथ्या मान्यताओं की गुलामी से छुटकारा पाना, यही विपश्यना की विभंग साधना है। इस साधना द्वारा निरंतर अनित्यबोधिनी संप्रज्ञा में सतत अधिष्ठित रहना, याने स्थितप्रज्ञ बने रहना, इंद्रिय जगत के अनित्य और इंद्रियातीत के नित्य स्वभाव वाली सच्चाइयों को स्वानुभूति से जानकर सत्य में सतत अधिष्ठित रहना, मिथ्या अहंभाव से उत्पन्न राग-द्वेष और मोह जैसे विकारों के त्याग में सतत अधिष्ठित रहना और विकारविमुक्ति द्वारा प्राप्त चित्त की शांति में अधिष्ठित रहना, यही धातुविभंग उपदेश के चार प्रमुख उद्देश्य हैं।
भगवान जैसे-जैसे इस उपदेश की बारीकियों को समझाते गए वैसे-वैसे पुक्कुसाति लोकीय ध्यान को संप्रज्ञान के साथ जोड़कर लोकोत्तर ध्यानों में बदलता गया और अब उसकी समाधि केवल ध्यानसमापत्तियों तक ही सीमित नहीं रही। सम्प्रज्ञान की विपश्यना द्वारा अधोगति के सम्पूर्ण संस्कारों का क्षय करके उसने पहले स्रोतापत्ति की निर्वाणिक फल-समापत्ति को अनुभूति पर उतारा और तदनन्तर सगदागामी की फल-समापत्ति को।
भगवान समझाए जा रहे थे और साथ-साथ मैत्री धातु, धर्मधातु और निर्वाणधातु से सारे वातावरण को आप्लावित किए जा रहे थे। श्रद्धालु पुक्कुसाति केवल सुनता ही नहीं जा रहा था, भीतर ही भीतर विपश्यना प्रज्ञा द्वारा घनीभूत सच्चाइयों का छेदन-भेदन करता हुआ बाकी बचे कर्मसंस्कारों का उच्छेदन भी करता जा रहा था।
रजनीकांत निशाकर अपनी रजत रश्मियां समेटता हुआ पश्चिमी क्षितिज कीओर अस्त हो रहा था । भुवन भास्कर अपनी स्वर्ण-रश्मियों को विकीर्ण करता हुआ पूर्वी क्षितिज से उदय हो रहा था। इसी समय पुक्कुसाति भगवान की महाकारुणिक धर्मतरंगों का संबल प्राप्त करता हुआ, विपश्यना की सूक्ष्म गहराइयों की ओर अग्रसर हो रहा था। यकायक उसे चौथे ध्यान की समापत्ति के साथ-साथ प्रथम निरोध समापत्ति की निर्वाणिक अनुभूति हुई। वह अनागामी-फल लाभी हुआ।
इस निरोधसमापत्ति से उठा तो कृतज्ञता विभोर हो गया। ऐसी मुक्तिदायिनी विपश्यना भगवान बुद्ध के अतिरिक्त और कोई नहीं सिखा सकता । अवश्य यह भगवान बुद्ध ही है । यह विचार मन में आते ही उसके मुँह से हर्ष के उद्गार निकल पड़े।
“अहो! मैंने अपना शास्ता पा लिया, सुगत पा लिया, सम्यक्सम्बुद्ध पा लिया।" यह कहते हुए पुक्कुसाति ने अपना सिर भगवान के चरणों में झुका दिया। फिर दाहिने कंधे को खुला छोड़कर अपने उत्तरासंग को याने ऊर्ध्व वस्त्र को बाएं कंधे पर रखते हुए (यह उन दिनों का सम्मान प्रदर्शन था), हाथ जोड़कर बोला -
“भन्ते भगवान! अनजाने में मुझसे बहुत बड़ा अपराध हुआ। मैं अपनी अज्ञान अवस्था में, मूढ़ अवस्था में आपको पहचान नहीं पाया । इसलिए आपको आयुष्मान् शब्द से सम्बोधित करके मन अत्यंत अकुशल कर्म कि या । (पद अथवा उम्र में अपने से छोटों के लिए आयुष्मान् शब्द प्रयुक्त हुआ करता था) भगवान मेरे इस अपराध को क्षमा करें। भविष्य में मुझसे ऐसी भूल नहीं होगी।"
“भिक्षु अनजाने में की हुई अपनी भूल तुमने स्वीकारी है। इसका उचित प्रतिकार किया है। आर्य धर्म-विनय में यह प्रगति का लक्षण है, जबकि कोई अपनी भूल स्वीकारता है, उसका प्रतिकार करता है और भविष्य में न करने का संकल्प करता है।"
“भगवान, मुझे आप से उपसंपदा मिले।"
“भिक्षु, क्या तुम्हारे पास परिपूर्ण पात्र-चीवर है?" “नहीं भन्ते, परिपूर्ण नहीं है।" “भिक्षु, अपूर्ण पात्र-चीवर वाले को तथागत उपसंपदा नहीं देते।"
तब आयुष्मान् पुक्कुसाति भगवान के वचन का अभिनंदन कर, आसन से उठा और उनका अभिवादन कर, उनकी प्रदक्षिणा की और पात्र-चीवर की खोज में नगर की ओर चल पड़ा।
सर्योदय होते ही नगरद्वार खुले । नगर के कुछ एक नागरिक और भिक्षु बाहर आए तो भार्गव कुम्हार की अतिथिशाला में अप्रत्याशित रूप से भगवान को बैठे देखा। उन्होंने भगवान का सादर अभिवादन किया। कुछ लोग दौड़े हुए महाराज बिम्बिसार के पास पहुँचे । वह भी शीघ्रतापूर्वक भगवान की सेवा में आ गया। भगवान को पंचांग प्रणाम कर भार्गव कुम्हार की अतिथिशाला में बैठ गया।
इतने में सूचना आयी कि पात्र-चीवर की खोज में निकला हुआ भिक्षु एक दुर्घटना में मृत्यु को प्राप्त हो गया है।
भगवान ने बताया कि यह व्यक्ति गांधारनरेश था, जो कि अपने मित्र का धर्मसंदेश पाकर, राजपाट त्यागकर प्रव्रजित होने मगध चला आया था। पुक्कुसाति समझदार था। वह परम सत्यान्वेषी था। शुद्ध धर्म को जैसे-जैसे सुनता गया, वैसे-वैसे स्थूल से सूक्ष्म सत्यों की ओर अग्रसर होता हुआ, मुक्ति की ओर बढ़ता चला गया। धर्म को समझाने और धारण करने में उसमें कोई हेठी नहीं दिखाई दी। कोई अड़ियलपन नहीं दिखाई दिया। आज की रात ही उसने विपश्यना साधना द्वारा अनागामी फल प्राप्त किया, जिससे उसके सारे अवरभागीय संयोजन-बंधन टूट गए। अब वह ओपपातिक ब्रह्मलोक में जन्मा है। वहां विपश्यना करते हुए अर्हत फल प्राप्त कर लेगा और वहीं शरीर त्यागने पर परिनिर्वाणलाभी होकर समस्त लोकों के भवभ्रमण से सर्वथा विमुक्त हो जायेगा।
बिम्बिसार अपने अनदेखे मित्र की मृत्यु के संवाद से दुःखी तो हुआ, पर शीघ्र ही उसका यह दुःख मोद में पलट गया, जबकि उसने यह सुना कि उसका मित्र अनागामी फल प्राप्त कर मृत्यु को प्राप्त हुआ है। उसे लगा कि उसका धर्म-संदेश बहुत ही योग्य व्यक्ति तक पहुँचा और वह भगवान के और विपश्यना के संपर्क में आकर यथोचित लाभान्वित हुआ।
बिम्बिसार ने भगवान की वाणी सुनकर प्रसन्नता व्यक्त की और तीन बार साधु,साधु,साधु कहकर उनके चरणों में नमन किया ।
सचमुच उसकी धर्म-मैत्री सफल हुई, सार्थक हुई। उसके मित्र का मंगल हुआ, कल्याण हुआ। ऐसा मंगल-कल्याण सब का हो!
कल्याणमित्र,
सत्य नारायण गोयन्का
मई , जून 1991 हिंदी पत्रिका में प्रकाशित
-------------------------------------------

Premsagar Gavali

This is Adv. Premsagar Gavali working as a cyber lawyer in Pune. Mob. +91 7710932406

एक टिप्पणी भेजें

Please Select Embedded Mode To Show The Comment System.*

और नया पुराने