मिटाओ मेरे भय आवागमन के - डॉ. ओमप्रकाश

🌹मिटाओ मेरे भय आवागमन के🌹



मिटाओ मेरे भय आवागमन के, फिरूं न जनम पाता बिलबिलाता -
बड़े ही करुण स्वर से आर्तनाद करता हुआ भक्त याचना करता है कि हे प्रभु! मुझे इस भवसागर से पार उतारो और बार-बार के इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करो! क्योंकि जन्म लेना भी दुःख है, संसार में रहना भी दुःख है और मरना भी दुःखमय है। परंतु क्या भक्त ने कभी यह भी सोचा कि यह आवागमन क्या है? क्यों है? और इसका कारण वास्तव में क्या है ? हम पैदा होते क्यों हैं? दार्शनिकों ने अनेक अटकलें, अनुमान और तर्क दिए हैं। कोई कहता है यह सृष्टिकर्ता की लीला है। वह जीव को संसार में भेजता है और उसके खेल देखता है। किसी को राजा बनाता है तो किसी को रंक ; किसी को अपंग, लूला लंगड़ा, अंधा, बहरा तो किसी को सर्वांग सुंदर देह देता है। किसी को ज्ञानी और बुद्धिमान बनाता है तो किसी को निपट मूढ़।
दूसरे कहते हैं - नहीं वह न्यायकारी है, दयालु है। अकारण वह किसी को ऐसा-वैसा नहीं बना देता। उसके नियम हैं। बनी-बनायी लीक है। व्यक्ति अपने पूर्वजन्म के कृतकर्म के या संस्कारों के फलस्वरूप जन्म पाता है। नया शरीर, नयी योनि मिलती है और उन कर्मों के फलभोगने व नये कर्म करने के लिए ही उसके जन्म-मरण का चक्र चलता है। अस्तु!
जो पूर्वजन्म और कर्म-फलसिद्धांत को मानते हैं उन्हें यह मान्यता अच्छी, युक्तिसंगत और हृदयग्राही लगती है। इसे मान लें तो लगा कि जन्म कर्म-फलभोगने के लिए है और वह कर्म करने के लिए स्वतंत्र है। उसे बुद्धि दी गयी है, ज्ञान दिया गया है कि वह सोच समझकर ऐसे कर्म करे जिनके फल भोगने के लिए दुबारा जन्म लेने की आवश्यकता न पड़े। अर्थात, जन्म के बंधन से मुक्त होना है तो कर्म के बंधन से भी मुक्त होने का प्रयत्न करे आवागमन का कारण हमारे कर्म ही हैं। किसी अन्य दैवी शक्ति की लीला आदि नहीं। इस जन्म के किये कर्म-संस्कार चित्त धारा या आत्मा जो कुछ भी कह लें, उसके साथ आगे जाते हैं। उन्हीं के अनुसार भावी जन्म होता है।
कर्मन की गति न्यारी- नहीं, बल्कि यह गति निश्चित है। याने
जो जस करइ सो तस फल पावा - अच्छे कर्म अच्छा फल देते हैं और बुरे कर्मबुरा। अच्छे बुरे की क्या पहचान है?
सरल शब्दों में भगवान बुद्ध ने कहा -
सब्ब पापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा।
सचित्त परियोदपनं, एतं बुद्धान सासनं ॥
सभी प्रकार के पापों को न करना, कुशल कर्मों का संपादन करना __और अपने चित्त को निर्मल करना यही समस्त बुद्धों (ज्ञानियों) की शिक्षा है।
पाप कर्म क्या होते हैं? और कुशल कर्म क्या होते हैं? अपनी वाणी या शरीर से दूसरे प्राणियों की हानि करना ही पाप है। जिस कर्म से दूसरों को सुख पहुँचता हो, शांति मिलती हो, उनका मंगल होता हो वही पुण्य है, वही कुशल कर्म है। जो कर्म दूसरों को हानि पहुँचाए उससे बचें और जो दूसरों को लाभ पहुँचाए वही करें।
इस मापदंड से कर्म को मापा जाय तो पाप कर्म से छुटकारा रहेगा और चित्तधारा पर बँधनेवाले कर्म-संस्कार नहीं बनेंगे। समता भरे मन से स्थितप्रज्ञ व्यक्ति कुशल कर्म करते हुए बंधन में नहीं पड़ता। क्योंकि कर्मसंस्कार ही जन्म-मरण के कारण हैं। तो हम स्वयं ही कर्ता हैं। बुद्धवाणी में कहा गया है –
अत्ता ही अत्तनो नाथो, अत्ता ही अत्तनो गति। हर आदमी अपना मालिक स्वयं है। अपनी गति खुद ही बनाता है। इसलिए स्वयं ही इस आवागमन के चक्र से छूटना होगा। सो कैसे?
पराने संस्कार क्षीण हो जायं, नये बनने ना पावें - जब ऐसा होगा तब स्वयं ही मिटेंगे तेरे भय आवागमन के।
भगवान बुद्ध ने जब इस सत्य का अनुभव किया तो उनके मुँह से जो उद्गार निकले वे बड़े महत्त्व के हैं,
अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।।
गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसङ्कितं ।
विसङ्घारगतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा।।
कितनी बार जन्म लिया इस संसार में, गिनती नहीं। जन्म लेता गया और बिना रुके (मृत्यु की ओर) दौड़ लगाता गया। इस कायारूपी घर बनानेवाले की खोज करते हुए पुनः पुनः दु:खमय जीवन में पड़ता ही रहा। अब घर बनानेवाले को देख लिया। अब नया घर नहीं बना सकेगा। सारी कड़ियां भग्न हो गयीं, घर का शिखर टूट गया, घर बनाने की सारी सामग्री फेंक दी गयी। चित्त पूर्वसंस्कारों से विहीन हो गया, भविष्य के लिए कोई तृष्णा नहीं रह गयी। तृष्णा का समूल नाश हो गया। विमुक्त हो गया।
हर व्यक्ति ऐसा कर सकता है। हर व्यक्ति इस अवस्था तक पहुँच सकता है। पर काम स्वयं ही करना होगा।
(श्री सत्यनारायणजी गोयन्का की पुस्तक आत्मदर्शन' के आधार पर)
__ डॉ. ओमप्रकाश
सी-34, पंचशील एन्क्लेव, नई दिल्ली - 100017.
जनवरी 1990 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित