विपश्यना: कामवासना से मुक्ति का वैज्ञानिक रास्ता - आचार्य सत्यनारायण गोयन्का




(Published On नवंबर 26, 2018 Comments)

कामवासना मानवमन की सबसे बड़ी दुर्बलता है। जिन तीन तृष्णाओं के कारण वह भवनेत्री में बँधा रहता है उसमें कामतृष्णा प्रथम है, प्रमुख है। माता-पिता के काम संभोग से मानव की उत्पत्ति होती है। अतः अंतर्मन की गहराइयों तक कामभोग का प्रभाव छाया रहता है। इसके अतिरिक्त अनेक जन्मों के संचित स्वयं अपने काम संस्कार भी साथ चलते ही हैं। अतः मुक्ति के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के लिए कामभोग के संस्कारों से छुटकारा पाना बहुत कठिन होता है। विपश्यना करनी न आए तो असंभव ही हो जाता है।
 
काम वासनाओं से छुटकारा पा कर कोई व्यक्ति ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहता है परंतु बार-बार मन में वासना के तूफान उठते हैं और उसे व्याकुल बनाते हैं। कहीं ब्रह्मचर्य भंग न हो जाय इसलिए वह कठोरतापूर्वक वासनाओं का दमन करता है और परिणामतः अपने भीतर तनाव की ग्रंथियां बांधता है। दमन द्वारा वासनाओं से मुक्ति मिलती नहीं। भीतर ही भीतर वासना उमड़ती कुलबुलाती रहती है और मन को मोहती रहती है। या दमन द्वारा ब्रह्मचर्य पालने वाला कोई विश्वामित्र जैसा साधक मेनका जैसी अप्सरा की रूप माधुरी पर फिसल जाता है तो आत्मग्लानि, आत्मक्षोभ और आत्मगर्हा से भर उठता है। ऐसा होने पर अपराध की ग्रथियां बांध-बांध कर अपनी व्याकुलता को और बढ़ाता है।

इसीलिए फ्रायड जैसे मनोविज्ञानवेत्ता ने कामवासना के दमन को मानसिक तनाव और व्याकुलता का प्रमुख कारण माना और कामभोग की खुली छूट को प्रोत्साहित किया। अनेक लोग इस मत के पक्षधर बने। आज के युग के कुछएक साधना सिखाने वाले लोग भी इस बहाव में बह गए। ऐसे लोगों ने रोग को तो ठीक तरह से समझा, पर रोग निवारण का जो इलाज ढूंढा, वह रोग को बढ़ाने का ही कारण बन बैठा। काम वासना का दमन एक अंत है, जो सचमुच रोग निवारण का सही उपाय नहीं है। परंतु उसे खुली छूट देना ऐसा दूसरा अंत है जो कि रोग निवारण की जगह रोग संवर्धन का ही काम करता है।

जब कोई व्यक्ति बुद्ध बनता है तो तृष्णा के सभी बंधनों को भग्न करके विकार विमुक्ति के ऐश्वर्य का जीवन जीता है। इसीलिए वह भगवान कहलाने का अधिकारी होता है। ऐसा व्यक्ति काम तृष्णा, भव तृष्णा और विभव तृष्णा, इन तीनों से छुटकारा पा लेता है और जिस विपश्यना विद्या (भगवान बुद्ध की ध्यान-विधि) द्वारा यह मुक्त अवस्था प्राप्त की, उसे ही करुण चित्त से लोगों को बांटता है।


विपश्यना साधना की विधि न विकारों के दमन के लिए है और न उन्हें खुली छूट देने के लिए। विपश्यना विधि इन दोनों अतियों के बीच का मध्यम मंगल मार्ग है जो जागे हुए विकार को साक्षी भाव से देखना सिखाती है जिससे कि अतंर्मन की गहराइयों में दबे हुए काम-विकारों को भी जड़ से उखाड़ने का काम शुरू हो जाता है। कुशल विपश्यी साधक समय पाकर इस विधि में पारंगत होता है और काम-विकारों का सर्वथा उन्मूलन कर लेता है और सहज भाव से ब्रह्मयर्च का पालन करने लगता है। इसके अभ्यास में समय लगता है। बहुत परिश्रम, पुरुषार्थ, पराक्रम करना पड़ता है। परंतु यह पराक्रम देहदंडन का नहीं, मानस दमन का नहीं, बल्कि मनोविकारों को तटस्थ भाव से देख सकने की क्षमता प्राप्त करने का है जो प्रारम्भ में बड़ा कठिन लगता है पर लगन और निष्ठा से अभ्यास करते हुए साधक देखता है कि शनैः शनैः उसके मन पर वासना की गिरफ्त कम होती जा रही है। दमन नहीं करने के कारण कोई तनाव भी नहीं बढ़ रहा है और समय पा कर सारे कामविकारों से मुक्त हो कर ब्रह्मचर्य का जीवन जीना सहज हो गया है। यह सब कैसे होता है। इसे समझें।
 

पुरुष के लिए नारी के और नारी के लिए पुरुष के रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श से बढ़ कर अन्य कोई लुभावना आलंबन नहीं होता। यह पांचों आलंबन आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा की इंद्रियों पर आघात करते हैं अथवा इनकी याद और कल्पना चिंतन के रूप में मन की इंद्रिय पर आघात करती है तो ही वासना के विकार जगने का काम आरंभ होता है।
 

पहली पांचों इंद्रियां शरीर पर स्थापित हैं ही। छठी मन की इंद्रिय भी शरीर की सीमा के भीतर ही होती है। अतः विपश्यना साधना का अभ्यास साढ़े तीन हाथ की काया के भीतर ही किया जाता है, बाहर नहीं। कामतृष्णा जहां जागती है वहीं उसे जड़ से उखाड़ा जा सकता है, अन्यत्र नहीं। साढ़े तीन हाथ की काया में इंद्रिय सीमा-क्षेत्र के भीतर इसकी उत्पत्ति होती है, यहीं इसका निवास और संवर्धन होता है।

अतः विपश्यना द्वारा यहीं इसका उन्मूलन किया जा सकता है। देखना यह है कि बाहर के आलंबन ने अपने भीतर क्या खटपट शुरू कर दी। आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा पर रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्ष का संपर्क होते ही यानी, प्रथम आघात लगते ही अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर तत्संबंधित इंद्रिय के दरवाजे पर और फिर सारे शरीर पर प्रकंपन होता है- फस्स पच्चया वेदना - स्पर्श होते ही संवेदना होती है। जैसे कांसे के बर्तन को छू देने से उसमें झंकार की तरंगें उठती हैं। इस प्रथम आघात के तुरंत बाद मानस का वह हिस्सा जिसे संज्ञा कहें या बुद्धि कहें वह अपने पूर्व अनुभव और याददाश्त के आधार पर इस आलंबन को पहचानता है- ‘‘यह पुरुष अथवा नारी का रूप, शब्द, गंध आदि है”। और फिर उसका मूल्यांकन करता है ओह बहुत सुंदर है, बहुत मधुर है, ऐसा करने पर शरीर पर होने वाली ये तरंगें प्रिय प्रतीत होने लगती हैं और मानस उनके प्रति राग रंजित हो कर उनमें डूबने लगता है। वेदना पच्चया तण्हा - संवेदना से ही (काम) तृष्णा होती है। यहीं से वासना का दौर शुरू हो जाता है। बार-बार रूप, शब्द, गंध आदि संबंधित इंद्रियों से टकराते हैं, बार-बार प्रिय मूल्यांकन होता है, बार-बार प्रतिक्रिया स्वरूप वासना के संस्कार बनते हैं।

यों क्षण-प्रतिक्षण एक के बाद एक वासना के संस्कार बनते-बनते पत्थर की लकीर जैसे गहरे हो जाते हैं। जब रूप, शब्द, गंध, रस आदि बाहर के आलंबन प्रत्यक्षतः आंख, कान, नाक आदि इंद्रिय द्वारों से संपर्क करना बंद कर देते हैं तो छठी इंद्रिय का दरवाजा खुल जाता है। अब मन की इंद्रिय पर पूर्व अनुभूत रूप, शब्द, गंध आदि के आंलबन कल्पना और चिंतन के रूप में टकराने लगते हैं, फिर वही क्रम चल पड़ता है।

आघात से प्रकंपन का होना, फिर प्रिय मूल्यांकन, फिर संवेदना, फिर प्रतिक्रिया स्वरूप वासना के संस्कारों की उत्पत्ति। क्षण-प्रतिक्षण चिंतन का आंलबन चित्तधारा से टकराता रहता है और क्षण-प्रतिक्षण वासना का संस्कार पैदा होता रहता है। यह क्रम जितनी देर चलता है, वासना उतनी ही बलवान होती जाती है।

मन पर उमड़ती हुई यह तीव्र वासना वाणी और शरीर पर प्रकट होने के लिए मचल उठती है। सारा का सारा चित्त वासना के प्रवाह में आमूल-चूल डूब जाता है। वासना में डूबे हुए व्यक्ति की सति यानी, स्मृति (यहां स्मृति का अर्थ याददाश्त नहीं है।) यानी, जागरूकता बनी रहती है। वासना-व्यथित व्यक्ति स्मृतिमान रहता है यानी, सजग रहता है परंतु सजग रहता है केवल रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श अथवा चिंतन के आलंबन के प्रति ही। इन छहों में से किसी न किसी आलंबन पर उसका ध्यान लगा रहता है। यही आलंबन का ध्यान वासना को उद्दीप्त करता रहता है।

अतः स्मृति रहते हुए भी इसे सम्यक स्मृति यानी, सही स्मृति नहीं कहते। मिथ्या स्मृति कहते है, सतिमुट्ठा कहते हैं। इन छह आलंबनों में से कोई एक भी तत्संबंधित इंद्रिय द्वार के संपर्क में आता है तो संवेदना के साथ स्वानुभव का काम शुरू हो जाता है। संपर्क होते ही तरंग रूपी वेदना का होना, संज्ञा द्वारा मूल्यांकन करना, संवेदना का प्रिय लगना और प्रिय संवेदना का रसास्वादन करते हुए वासना के संस्कार की प्रतिक्रिया का आरंभ होना, यह सब स्वानुभूति का क्षेत्र है। अतः सत्य का क्षेत्र है।

इसके प्रति सजग रहे तो स्मृति सम्यक है। केवल मात्र आलंबन के प्रति सजग रहे, आलंबन के स्पर्श का भी निरीक्षण न कर सके, उसके आगे की स्वानुभूतियां तो दूर रहीं, तो स्मृति मिथ्या ही हुई, क्योंकि गहरी अनुभूति वाले क्षेत्र को भुलाया हुआ है।

स्मृति यानी, जारूकता जब सम्पजञ्ञ से जुड़ती है तो सम्यक हो पाती है। साधक आतापी सम्पजानो सतिमा हो जाता है। इसी को विपश्यना कहते हैं। इसी को सतिपठ्टान कहते हैं यानी, सति का सम्यक रूप से स्वानुभूतिजन्य सत्य में प्रतिष्ठापित हो जाना। विपश्यी साधक यही करता है, वह सत्यदर्शी होता है, आत्मदर्शी होता है। आत्मदर्शी के माने जिसका कभी स्वयं अनुभव किया ही नहीं, ऐसी सुनी सुनाई; पढ़ी पढ़ाई दार्शनिक मान्यता वाली कल्पित आत्मा का दर्शन करना नहीं। यहां आत्मदर्शन का अर्थ है- स्वदर्शन। अनुभूतियों के स्तर पर अपने बारे में जिस-जिस क्षण जो-जो सच्चाई प्रकट हो उसे ही साक्षीभाव से देखना सत्यदर्शन है, स्वदर्शन है, आत्मदर्शन है, मुक्ति का सहज उपाय है।

किसी कल्पना का ध्यान मन को कुछ देर के लिए भरमाए भले ही रखे पर विकार विमुक्त नहीं कर सकता। कोरे बौद्धिक अथवा भक्ति भावावेशमूलक मान्यताओं के दायरे के बाहर निकल कर साधक अनुभूति के स्तर पर यथार्थ की भूमि पर कदम रखता है। जो सत्य है उसे केवल सत्य मान कर नहीं रह जाता, उसे जानता है- जानाति, और प्रज्ञापूर्वक जानता है- पजानाति। साक्षीभाव से तटस्थ भाव से बिना राग के, बिना द्वेष के, बिना मोह के यथाभूत जैसा है वैसा, उसके सत्य स्वभाव में, यथार्थ को जानता है। मात्र जानता है। कोई प्रतिक्रिया नहीं करता- न उसे दूर करने की, न उसे रोके रखने की। केवल दर्शन, केवल ज्ञान, यही है- पजानाति।

बाहर का आलंबन चाहे जो हो, अपने भीतर कामवासना जागी तो बाहर के आलंबन को गौण मानकर अपने भीतर की अनुभूतिजन्य सच्चाई को जानने का अभ्यास साधक शुरू कर देता है। सन्तं वा अज्झत्तं कामच्छन्दं - जब भीतर कामतृष्णा है तो अत्थि मे अज्झत्तं कामच्छन्दोति पजानाति - मेरे भीतर कामवासना यानी, कामतृष्णा है- यह प्रज्ञापूर्वक जानता है। प्रज्ञापूर्वक इस माने में भी कि यह अनित्य स्वभाव वाली है, अनंतकाल तक बनी रहने वाली नहीं।

इस समझदारी के साथ तटस्थभाव बनाए रखता है। उसे दूर करने की जरा भी कोशिश नहीं करता, अन्यथा दमन के एक अंत की ओर झुक जाएगा। और न ही उसे वाणी और शरीर पर प्रकट होने की छूट देता है अन्यथा आग में घी डालने वाले दूसरे अंत की ओर झुक जाएगा। उसके अनित्य सवभाव को समझते हुए केवल जानता है- पजानाति। क्योंकि अब उसे बढ़ावा नहीं मिल रहा, इस सच्चाई को भी महज साक्षीभाव से प्रज्ञापूर्वक जान लेता है- असन्तं वा अज्झत्तं कामच्छन्दं, नहीं है भीतर कामछंद तो, 'नत्थि मे अज्झत्तं कामच्छन्दो'ति पजानाति - मेरे भीतर कामछंद नहीं हैं, इस सच्चाई को प्रज्ञापूर्वक तटस्थभाव से जानता है। और क्योंकि विपश्यना कर रहा है तो सतिमुट्ठा नहीं हुई, सतिपट्ठान का अभ्यासी है यानी, अपने भीतर नामरूप यानी, चित्त और शरीर के प्रंपच को प्रज्ञापूर्वक अनुभूति के स्तर पर जानने का काम कर रहा है। इसी को सति के साथ सम्पजञ्ञ को जोड़ना कहते हैं।

शरीर चित्त का प्रपंच वेदनाओं के रूप में प्रकट होता है। साधक मानस पर जागी हुई संवेदनाओं को तटस्थ भाव से देखता है। ये संवेदनांए अतंर्मन से जुड़ी रहती हैं अतः मन की उदीर्णा शुरू हो जाती है। यानी, पूर्व संचित अनुत्पन्न कामवासनाओं का उत्पाद शुरू हो जाता है- यथा च अनुप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स उप्पादो होति तञ्च पजानाति। और उदीर्ण हुई इस चिर-संचित कामवासना को भी साक्षीभाव से संवेदनाओं के स्तर पर देखते रहता है तो उन पुराने संस्करों की परत पर परत उतरते हुए, उनकी निर्जरा होती जाती है, उनका क्षय होते जाता है। यथा च उप्पन्नस्स कामच्छन्दस्स पहानं होति तञ्च पजानाति - यों उदीर्णा और निर्जरा होते होते, प्रहाण-क्षय होते-होते एक समय ऐसा आता है, जब कि अंतर्मन की गहराई तक के कामतृष्णा के सारे संस्कार उखड़ जाते हैं, उनका नाम लेश तक नहीं रहता। अब कोई कामवासना जागती ही नहीं। न किसी वर्तमान के आलंबन के कारण और न कोई पुराने संग्रह में से। यथा च पहीनस्स काच्छन्दस्स आयतिं अनुप्पादो होति तञ्च पजानाति। साधक परम मुक्त अवस्था तक पहुँच जाता है।

जो परिश्रम करे, वही इस मुक्त अवस्था तक पहुँचे। किसी भी जाति का हो, वर्ण का हो, रंग-रूप का हो, देश-विदेश का हो, बोली-भाषा का हो, जो करे वही मुक्त। जो न करे उसे लाभ कैसे मिले भला। कोई-कोई इसीलिए नहीं करता कि यह तो हमारी पंरपरागत दार्शनिक मान्यता के अनुकूल नहीं है, हम क्यों करें। कोई-कोई इसलिए नहीं करता कि हमारी मान्यता तो कितनी महान है- इस गर्व गुमान में ही संतुष्टि कर लेता है। मान्यताओं में उलझे हुए लोग विपश्यना नहीं कर सकते, इससे लाभान्वित नहीं हो सकते। करें तो लाभान्वित होंगे ही।

- आचार्य सत्यनारायण गोयन्का।