आत्मकथन : बुद्धवाणी का अध्ययन
विपश्यना विद्या को नितांत निर्दोष पाकर मेरे मन में यह तीव्र जिज्ञासा जागी कि जिसके व्यावहारिक पक्ष में कही रंच मात्र भी दोष नहीं दीखता, उसके मूल सैद्धांतिक पक्ष को भी देखना चाहिए। मूल बुद्धवाणी का अध्ययन करना चाहिए। उसमें ऐसे दोष अवश्य छिपे होंगे, जिनके कारण बुद्ध की शिक्षा हमारे देश में इतनी बदनाम हुई और स्वामी शंकराचार्य तथा उन जैसे प्रकांड विद्वानों द्वारा इसे भारत से निष्कासित किया गया। अन्यथा कोई कारण नहीं कि मेरी भांति सारा देश बुद्ध को तो पूज्य माने, परंतु उनकी शिक्षा को सर्वथा त्याज्य। इस रहस्यमयी गुत्थी को सुलझाने के लिए मैंने अपने अति व्यस्त जीवन में से समय निकाल कर इस परंपरा का साहित्य पढ़ना आरंभ किया।
विपश्यना के पूर्व बुद्ध की शिक्षा को अग्राह्य मानने के कारण मैंने कभी कोई बौद्धग्रंथ नहीं पढ़ा था। यहां तक कि भदंत आनंदजी द्वारा मुझे दी गयी ‘धम्मपद' की प्रति भी मेरे टेबल पर तीन वर्ष तक बिना पढ़े पड़ी रही। अत: पहले इसे ही पढ़ कर देखा। एक -एक पद पढ़ता गया। जैसे विपश्यना में धर्म का सर्वथा शुद्ध स्वरूप प्रकट हुआ, वैसे ही धम्मपद के एक-एक पद में सार्वजनीन सत्य धर्म की शुद्धता के ही दर्शन हुए। इतना ही नहीं बल्कि पढ़ते-पढ़ते अनेक बार तन और मन पुलक -रोमांच से भर उठता था। हृदय हर्षातिरेक से उल्लसित हो उठता था।
तदनंतर एक-एक करके बुद्धवाणी के अन्य ग्रंथ पढ़ता गया। सभी को सर्वथा निर्दोष पाया, धर्म की शुद्धता से परिपूर्ण पाया। इससे पहले द्वितीय युद्ध के पश्चात बरमा लौटने पर गीताप्रेस से प्रकाशित गीता, रामायण, महाभारत तथा कुछ एक पुराणों के भी कुछ-कुछ अंश भी देख गया था। परंतु 1955 में विपश्यना विद्या सीखने पर जब बुद्धवाणी का पारायण किया तो उसे सर्वथा दोषशून्य पाया। तब अपने यहां के संस्कृत ग्रंथों का भी अधिक अध्ययन करने के लिए समय निकालने लगा। यह तुलनात्मक अध्ययन अब तक भी चल रहा है। अब तो मेरे अनेक साधक शिष्य जो पालि अथवा छांदस तथा संस्कृत भाषा के विद्वान हैं इस क्षेत्र में अनुसंधान करते हुए मेरी विपुल सहायता करने लगे हैं। अतः कार्यभार बहुत बढ़ जाने पर भी जो सुविधाएं उपलब्ध हैं उनके कारण बहुत-सी जानकारी बढ़ी है।
अब तक दोनों परंपराओं का जितना भी अध्ययन अनुशीलन हो सक है उससे इतना स्पष्ट होता है कि बुद्ध की शिक्षा पर सदियों से लगे लांछनों का कोई पुष्ट आधार नहीं दीख रहा। जो भी लांछन लगे हैं उनमें से कुछ तो इतने छिछले हैं कि उनकी निराधारिता को समझने में देर नहीं लगी। कुछ एक के लिए गहराई से छानबीन करनी पड़ी। यह एक महत्त्वपूर्ण गंभीर शोध का विषय है कि आखिर ये बेबुनियादी लांछन लगे ही कैसे ? इस विषय पर सरसरी तौर पर निगाह डालने पर दो तथ्य सामने आये।
बुद्ध की मूल शिक्षा का लोप
ये लांछन तब लगे जबकि मूल बुद्धवाणी का समग्र वाङ्मय और विपश्यना की कल्याणी शिक्षा सदियों पहले देश से सर्वथा विलुप्त हो चुकी थी। ये दोनों बुद्ध के बाद लगभग 500 वर्ष तक ही अपने देश में शुद्ध रूप में कायम रही। तदनंतर क्षीण होते-होते सर्वथा लुप्त हो गयी। इस विद्या के अभ्यास और मूल वाणी के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत हुआ कि लांछन लगाने वालों को बुद्ध की मूल शिक्षा का यथार्थ ज्ञान नहीं था। जो भी लांछन लगे वे सही जानकारी न होने के कारण ही लगे। बुद्ध की मूल शिक्षा भारत से कैसे विलुप्त हो गयी, यह भी अपने आप में शोध का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। इसके अनेक संभावित कारणों में से एक कारण श्रमणों और ब्राह्मणों का पारस्परिक विग्रह भी हो सकता है। श्रमण और ब्राह्मण दोनों भारत की प्राचीनतम सांस्कृतिक परंपराएं हैं। दोनों अपने आप में स्वतंत्र हैं। दोनों में बहुत समानता है परंतु दोनों के मौलिक आधार भिन्न-भिन्न होने के कारण दोनों में पारस्परिक मतभेद और विग्रह विवाद प्राचीन समय से चले आ रहे हैं।
ये लांछन तब लगे जबकि मूल बुद्धवाणी का समग्र वाङ्मय और विपश्यना की कल्याणी शिक्षा सदियों पहले देश से सर्वथा विलुप्त हो चुकी थी। ये दोनों बुद्ध के बाद लगभग 500 वर्ष तक ही अपने देश में शुद्ध रूप में कायम रही। तदनंतर क्षीण होते-होते सर्वथा लुप्त हो गयी। इस विद्या के अभ्यास और मूल वाणी के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत हुआ कि लांछन लगाने वालों को बुद्ध की मूल शिक्षा का यथार्थ ज्ञान नहीं था। जो भी लांछन लगे वे सही जानकारी न होने के कारण ही लगे। बुद्ध की मूल शिक्षा भारत से कैसे विलुप्त हो गयी, यह भी अपने आप में शोध का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। इसके अनेक संभावित कारणों में से एक कारण श्रमणों और ब्राह्मणों का पारस्परिक विग्रह भी हो सकता है। श्रमण और ब्राह्मण दोनों भारत की प्राचीनतम सांस्कृतिक परंपराएं हैं। दोनों अपने आप में स्वतंत्र हैं। दोनों में बहुत समानता है परंतु दोनों के मौलिक आधार भिन्न-भिन्न होने के कारण दोनों में पारस्परिक मतभेद और विग्रह विवाद प्राचीन समय से चले आ रहे हैं।
व्यक्तिगत गुणवत्ता के आधार पर श्रमण और ब्राह्मण दोनों को एक समान पूज्य घोषित करते हुए भगवान बुद्ध ने इन दोनों परंपराओं के समन्वय का विपुल प्रयास किया । श्रमण-ब्राह्मण के जुड़वा शब्द का बार-बार प्रयोग करके दोनों को समीप लाने का सराहनीय प्रयत्न किया। उनके बाद सम्राट अशोक ने भी भगवान बुद्ध का अनुकरण करते हुए दोनों की एकता बनाए रखने का भरसक प्रयत्न किया। उसने भी श्रमण-ब्राह्मण अथवा ब्राह्मण-श्रमण के जुड़वा शब्दों का आदरणीय भाव से बार-बार प्रयोग किया और उन्हें अपने शिलालेखों और स्तंभलेखों पर उत्कीर्ण करवाया। अपने राज्य में सांप्रदायिक सौमनस्यता कायम रखने के लिए उसने स्पष्ट शब्दों में आदेश दिया कि कोई व्यक्ति अपने संप्रदाय की महत्ता स्थापित करने के लिए किसी अन्य संप्रदाय की निंदा न करे । सभी संप्रदायों में जो-जो अच्छी बातें हैं उन्हें ही उजागर करें। यह स्पष्ट आदेश भी शिलालेखों पर उत्कीर्ण करवाया गया। यही कारण है कि उन दिनों इन दोनों परंपराओं में विग्रह-विवाद का कोई विशेष प्रसंग हमारे देखने में नहीं आता।
मौर्यवंश का अंत हो जाने के पश्चात लगता है इन दोनों का विग्रह-विवाद बहुत उग्र हो उठा। हम देखते हैं कि भगवान बुद्ध के लगभग 200 वर्ष पश्चात पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में द्वंद्व समास के उदाहरण देते हुए केवल बिल्ली और चूहे तथा सांप और नेवले जैसों का शास्वत विरोध बतलाया है। परंतु पुष्यमित्र शुंग के राजपुरोहित पतंजलि ने उसी अष्टाध्यायी का महाभाष्य लिखते हुए इन उदाहरणों के साथ-साथ श्रमण और ब्राह्मण के शाश्वत विरोध का एक और उदाहरण जोड़ दिया। यानी ये दोनों सदा से एक-दूसरे के जानी दुश्मन बताए गये । यकयिक ऐसी अप्रिय स्थिति कैसे पैदा हो गयी? ऐतिहासिक शोध क यह भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। इसी युग में विपश्यना और मूल बुद्धवाणी का ह्रास होना आरंभ हुआ। एक हजार वर्ष बीतते-बीतते न यह साहित्य बचा और न यह विद्या। ऐसी अवस्था में बुद्ध की शिक्षा पर जो मिथ्या लांछन लगते गये, वे लगे ही रह गये।
निराधार लांछन
जब दो सगे भाई भी आपस में लड़ते हैं तो निराधार लांछन लगा-लगा कर एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं। लगता है यहां भी यही हुआ। झगड़े के दिनों जिसके माथे पर लगा कीचड़ नहीं धुल सका,वह लगा ही रह गया । अथवा धोया भी गया तो जिन शब्दों से धोया गया वह वाणी भी लुप्त हो गयी । परिणामतः लांछन की कालिमा लगी ही रह गयी। आगे चल कर लोगों ने इसे ही सत्य मान लिया।
जब दो सगे भाई भी आपस में लड़ते हैं तो निराधार लांछन लगा-लगा कर एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं। लगता है यहां भी यही हुआ। झगड़े के दिनों जिसके माथे पर लगा कीचड़ नहीं धुल सका,वह लगा ही रह गया । अथवा धोया भी गया तो जिन शब्दों से धोया गया वह वाणी भी लुप्त हो गयी । परिणामतः लांछन की कालिमा लगी ही रह गयी। आगे चल कर लोगों ने इसे ही सत्य मान लिया।
भ्रम-भ्रांतिवश, अज्ञानवश अथवा जानबूझ कर द्वेषभावना वश जो भी लांछन लगाए गये वे पिछले हजार-पंद्रह सौ वर्षों में अनगिनित बार दोहराए जाते रहे। अतः देश के प्रकांड से प्रकांड पंडित, समझदार से समझदार लोग भी इन लांछनों को सही मान कर अपनी राय भी वैसी ही व्यक्त करते रहे हैं। जन साधारण का तो इन लांछनों को सत्य मानना स्वाभाविक ही था। अनेक सदियों से सर्वमान्य चले आ रहे इन लांछनों की वैज्ञानिक जांच सर्वथा निष्पक्षभाव से की जानी आवश्यक लगी। और यही किया गया।
देश की सुरक्षा
अनुसंधान के जिन विभिन्न क्षेत्रों को प्राथमिकता दी गयी उनमें देश की सुरक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को भी ध्यान में रखा गया कि क्या बुद्ध की शिक्षा से देश की सुरक्षा खतरे में पड़ी? या कि इस शिक्षा द्वारा भविष्य में भी देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है? यदि ऐसा है तो मुझे ही नहीं, किसी भी देशभक्त को ऐसी शिक्षा स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। और यदि ऐसा नहीं है तो इसको ले कर जो मिथ्या भ्रांतियां फैली हैं उनका पुरजोर निराकरण किया जाना चाहिए। एक सर्वथा निर्दोष महापुरुष पर लगाए गए मिथ्या दोषारोपण को दोहराते रहने के जघन्य पाप से हमें मुक्त होना चाहिए। इसी में हमारा कल्याण समाया हुआ है। इसी में देश तथा देशवासियों का कल्याण समाया हुआ है।
मंगल मित्र,
सत्य नारायण गोयन्का
अनुसंधान के जिन विभिन्न क्षेत्रों को प्राथमिकता दी गयी उनमें देश की सुरक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को भी ध्यान में रखा गया कि क्या बुद्ध की शिक्षा से देश की सुरक्षा खतरे में पड़ी? या कि इस शिक्षा द्वारा भविष्य में भी देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है? यदि ऐसा है तो मुझे ही नहीं, किसी भी देशभक्त को ऐसी शिक्षा स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। और यदि ऐसा नहीं है तो इसको ले कर जो मिथ्या भ्रांतियां फैली हैं उनका पुरजोर निराकरण किया जाना चाहिए। एक सर्वथा निर्दोष महापुरुष पर लगाए गए मिथ्या दोषारोपण को दोहराते रहने के जघन्य पाप से हमें मुक्त होना चाहिए। इसी में हमारा कल्याण समाया हुआ है। इसी में देश तथा देशवासियों का कल्याण समाया हुआ है।
मंगल मित्र,
सत्य नारायण गोयन्का
अप्रैल 2006 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित