पुनरवलोकन


शिविर के पश्चात घर लौट कर दस दिनों के अनुभवों का पुनरवलोकन किया। दुनियादारी की अंतहीन भागदौड़ से दूर, प्राचीन ऋषि-मुनियों की पावन तपोभूमि सदृश धर्म के पवित्र वातावरण में निवास और नितांत संयमित, सात्विक और सादगी का जीवन जीते हुए इन दस दिनों में क्या सीखा ? क्या पाया ?
किसी हिल स्टेशन पर दस दिन छुट्टियां मना कर लौटने पर भी जीवन में कुछ समय के लिए ताजगी आती है, परंतु यहां से तो कायाकल्प की और चित्तकल्प की अद्भुत, अनूठी ताजगी लेकर घर आया। इतना आंतरिक सुख
और इतनी आंतरिक शांति मैंने अपने जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी। गुरुजी के आदेशानुसार घर आकर रोज सुबह-शाम एक-एक घंटे विपश्यना साधना करते रहने पर देखा कि साधना के समय ही नहीं, उसके बाद भी इस शांति की अनुभूति देर तक बनी रहती है। देखा कि माइग्रेन की मरणांतक पीड़ा से अब मुझे हमेशा के लिए छुटकारा मिल गया और उसके साथ-साथ मॉर्फिया के दुःखदायी दुष्प्रभाव से भी। पर इन सबसे बढ़ कर जो लाभ हुआ वह यह था कि विकारों के कारण चित्त में जो व्याकुलता बनी रहती थी वह शनैः शनैः कम होती चली गयी। विकार दिन-पर-दिन क्षीण होते चले गये। इसी उद्देश्य से मैं शिविर में सम्मिलित हुआ था। अब विकार जागे तो इस विधि द्वारा उनका सामना करना आ गया।
राग जागे, द्वेष जागे, भय जागे, अहंकार जागे, काम जागे, क्रोध जागे; जैसे ही कोई विकार जागा कि साथ-साथ होश जागा और उसी समय शरीर पर होने वाली संवेदना को देखते-देखते वह विकार दुर्बल होता चला गया। उस विकार के कारण जो व्याकुलता थी वह अपने आप क्षीण होती चली गयी। काम, क्रोध और अहंकार जैसे गहरे-गहरे दूषित विकारों से छुटकारा पाने में जहां न मेरी सगुण साकार की द्रवीभूत भक्ति और न गीता, उपनिषद का वेदांती चिंतन-मनन कुछ स्थायी लाभ दे सका, वहां केवल दस दिनों की साधना से ये विकार दुर्बल हो-होकर दूर होने लगे। इस विधि की यह विशेषता स्पष्ट हुई कि विकारों को जड़ों से कैसे उखाड़ा जाता है और अंतर्मन में दृढ़ हुए दूषित स्वभाव शिकंजे को किस प्रकार वैज्ञानिक ढंग से नष्ट किया जाता है। ऐसी तुरंत फलदायिनी विद्या पाकर मन बड़ा संतुष्ट प्रसन्न हुआ। जैसे मेरे असाध्य रोग के लिए संजीवनी औषधि मिल गयी।
यह औषधि प्राप्त होने के पूर्व जब कभी काम, क्रोध और अहंकार के प्रबल विकारों से मन विकृत होकर व्यथित हो उठता तब प्रात:कालीन भक्ति में अश्रुमुख हो, कातर कंठ से रुदन करता हुआ यों भजन गाता - प्रभुजी मेरे अवगुण चित न धरो। समदरसी प्रभु नाम तिहारो, मुझ पर कृपा करो ... आदि-आदि अथवा प्रभुजी मैं तो थारो जी थारो। कपटी क्रोधी कुटिल अर कामी, जो भी हूं सो थारो। आंगलियां नूं परे न होवै, आ तो आप विचारो॥.. आदि–आदि । अब यह कल्याणी विद्या मिलने पर रोज के प्रात:कालीन रुदन-क्रदन से छुटकारा मिला। एक ही शिविर में यह तथ्य समझ में आ गया कि मन को मिला मैं करता हूं। इसे सुधारने का दायित्व भी मेरा है। जब सुधारने की विद्या नहीं मालूम थी तब उस भ्रांति का जीवन जिया करता था। अब उससे छुटकारा हुआ। अब कभी प्रात:कालीन भजन गाता भी तो इसी प्रकार के: --
उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहां जो सोवत है?.. आदि-आदि अथवा –
तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग जरा॥ ... आदि-आदि अथवा –
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जो पीर पराई जाने रे॥... आदि-आदि
अब नित्य नियमित रोने-धोने का अध्याय तो समाप्त हुआ ही, कुछ समय पश्चात ये सामान्य भजन भी छूट गये। सोचा, इतना समय अब साधना में ही क्यों न लगाऊं।
क्या अभ्यास किया?
यह विद्या सीखने के लिए वहां क्या अभ्यास किया? नितांत शुद्ध धर्म का ही अभ्यास किया। पंचशील का पालन किया। चित्त की एकाग्रता के लिए समाधि का अभ्यास किया और फिर यथासंभव अपनी प्रज्ञा जगा कर चित्तविशुद्धि का प्रयत्न प्रयास किया। इन तीनों के अभ्यास में कहीं कोई दोष नहीं दिखा।
शरीर और वाणी के दुष्कर्मों से विरत रह कर, शील सदाचार के पालन को वैदिक धर्म ही नहीं, संसार के सभी धर्म स्वीकार करते हैं। सभी इसे अच्छा मानते हैं। उपदेश हजारों सुनते रहें परंतु मन वश में किये बिना शील पालन संभव नहीं है, यह सर्वविदित है। वहां मन वश में करने का अभ्यास सिखाया गया। इस निमित्त स्वाभाविक सांस का जो आलंबन दिया गया वह भी ऐसा निर्दोष और सार्वजनीन कि जिसका प्रयोग सभी कर सकते हैं।
मन वश में करना अच्छा है परंतु शील सदाचार को जीवन का अंग बनाने के लिए चित्त को जड़ों तक निर्मल करना आवश्यक है। अन्यथा अंतर्मन में संगृहीत विकार जब कभी फूटते हैं तब चित्त पुन: विचलित हो उठता है और शील पालन करना कठिन हो जाता है। अत: शारीरिक संवेदनाओं के आधार पर प्रज्ञा द्वारा चित्त को नितांत निर्मल करने का अभ्यास सिखाया गया। यह भी सर्वमान्य है, सार्वजनीन है। इसका अभ्यास सभी कर सकते हैं।
गुरुजी ने बताया कि बुद्ध बनना केवल सिद्धार्थ गौतम का ही एकाधिकार नहीं है। उसके पहले भी अनेक बुद्ध हुए और उसके बाद भी होंगे। जो भी बुद्ध हुआ अथवा होगा सब की यही सार्वजनीन शिक्षा होती है -
(१) दुष्कर्मों से बचना यानी, शील सदाचार का जीवन जीना।
(२) सत्कर्मों में लगना यानी, कुशल चित्त की एकाग्रता हासिल करना। कुशल चित को एकाग्र करके जो भी कर्म करेंगे, वे स्वत: सत्कर्म ही होंगे।
(३) केवल ऊपरी-ऊपरी सतही स्तर तक ही नहीं, बल्कि जड़ों तक संपूर्ण चित्त को पूर्णतया निर्मल करना।
यही तथ्य आगे जाकर बुद्धवाणी में पढ़ने को मिला। स्वयं बुद्ध ने कहा—
सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा।
सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धान सासनं ॥ -धम्मपद १८३
सभी पापकर्मों से विरत रहना, कुशल कर्मों की संपदा अर्जित करना और अपने चित्त को परिपूर्ण रूप से शुद्ध करना; सभी बुद्धों की यही शिक्षा है।
यही शील, समाधि और प्रज्ञा है। हर बुद्ध इन्हीं तीनों का उपदेश देता है। केवल उपदेश ही नहीं देता। बुद्ध उसका प्रयोगात्मक अभ्यास करना सिखाते हैं। इसीलिए बुद्ध की शिक्षा आशुफलदायिनी होती है। पहले ही सत्र में यह सच्चाई खूब समझ में आयी और लगा कि बुद्ध की विद्या का यह व्यावहारिक पक्ष सचमुच बड़ा अनूठा है, अद्भुत है, अनमोल है।
यह शिक्षा पूर्णतया अच्छी लगी। लेकिन फिर मन में एक प्रश्न उठा कि यदि बुद्ध ने केवल शील, समाधि और प्रज्ञा का व्यावहारिक धर्म ही सिखाया तो हमारे यहां उनकी शिक्षा का इतना विरोध क्यों हुआ ? संभव है उनकी शिक्षा में अन्य कोई दोष रहा हो, जो इस शिविर के दौरान मेरी समझ में नहीं आया, पर हमारे बुजुर्गों की समझ में आ गया हो। इसी कारण उन्होंने इसका विरोध किया हो और बुद्ध की शिक्षा को भारत से पूर्णतया निष्कासित कर दिया हो। इसे जांचने के लिए मैंने बुद्धवाणी पढ़ने का निर्णय किया ताकि उसमें जो-जो दोष दिखें उन्हें त्याग कर, जो-जो अच्छाइयां हैं उन्हें ही स्वीकार करूं। शील, समाधि, प्रज्ञा में तो अच्छाई ही अच्छाई है। इसका मैंने स्वयं अभ्यास करके देख लिया। इसके फल कल्याणकारी ही कल्याणकारी हैं। अब बुद्ध की शिक्षा के सैद्धांतिक पक्ष को भी पढ़ कर समझू।
बुद्ध-वाणी का पठन
मैंने सबसे पहले धम्मपद की वह पुस्तक पढ़ी जो कि श्रद्धेय आनन्दजी मेरे पास छोड़ गये थे और जो अब तक मेरी टेबल पर पड़ी थी। धम्मपद का एकएक पद बड़े मनोयोग से पढ़ता गया। एक आलोचक के दृष्टिकोण से पढ़ता गया कि कहीं दोष दिखे तो उस पद पर चिह्न लगा लूं। मुझे यह देख कर बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ कि पुस्तक के किसी भी पद में रंचमात्र दोष नहीं है। सोचा, शायद पढ़ने में कोई भूल रही हो। अत: पुन: दो बार बड़े ध्यान से पढ़ गया। वही सुखद परिणाम आया। वैसे तो धम्मपद को बुद्ध की शिक्षा का सार माना जाता है परंतु फिर भी मन में यह भाव जागा कि मुझे बुद्धवाणी के अन्य ग्रंथ भी पढ़ कर देखने चाहिए। हो सकता है उनमें धर्म के विरुद्ध कोई ऐसी शिक्षा हो, जिसके कारण हमारे पूर्वजों को उसका विरोध करना पड़ा। अत: एक-एक करके बुद्धवाणी के अनेक ग्रंथ उनके अनुवादों की सहायता से पढ़ता और समझता चला गया। एक ओर नित्य नियमित सुबह-शाम एक-एक घंटे की विपश्यना साधना, दूसरी ओर अपने अत्यंत व्यस्त गृहस्थ जीवन में से आवश्यक समय निकाल कर बुद्धवाणी का अध्ययन। इन दोनों के मेल से बड़ा लाभ हुआ।
इसके अतिरिक्त मैं जब-जब रंगून में रहता तब-तब हर रविवार को गुरुदेव के आश्रम में जाकर घंटे भर की सामूहिक साधना करते हुए तथा वर्ष में कम-से-कम एक बार दस दिन और कभी-कभी किसी लंबे शिविर में भाग लेते हुए, मैं इस व्यावहारिक पक्ष को और अधिक अनुभूतिजन्य गहराइयों से समझने लगा और लाभान्वित होने लगा।
मेरा भाग्य जागा और तत्कालीन सैनिक सरकार ने मुझे समस्त व्यापारिक और औद्योगिक जिम्मेदारियों से सर्वथा विमुक्त कर दिया। तत्पश्चात पांच वर्षों तक म्यंमा रहते हुए मैं बुद्धवाणी का गहन अध्ययन कर सका। मेरे लिए यह अत्यंत महत्त्व की बात हुई कि मुझे इतना लंबा अवकाश मिला और पूज्य गुरुदेव का सान्निध्य मिला। जब किसी सूत्र को समझने में कोई कठिनाई होती थी तब मुझे पूज्य गुरुदेव द्वारा समाधान सहज प्राप्य था। कभी-कभी वे अपनी ओर से मुझे आदेश देते कि मैं बुद्धवाणी के अमुक ग्रंथ के अमुक सूत्र को पढ़ कर आऊं। फिर मुझसे पूछते कि इसमें कौन-सी गहन बात देखी और मैं अपनी समझ के अनुसार उत्तर देता। बहुधा बहुत प्रसन्न होते। परंतु कभी-कभी हँस कर कहते कि तुम भलीभांति नहीं समझ पाये। फिर बड़े प्यार से समझाते और कहते कि अब शून्यागार में बैठ कर घंटे भर ध्यान करो। वह घंटे भर का ध्यान अत्यंत कल्याणकारी साबित होता। उस समय बहुधा यों लगता कि भगवान बुद्ध मुझे वह सूत्र स्वयं समझा रहे हैं और वह मेरी अनुभूति पर उतरता जा रहा है। म्यंमा के ऐसे अनुकूल वातावरण में रहते हुए बुद्धवाणी का अध्ययन अत्यंत कल्याणकारी सिद्ध हुआ।
एक ओर विपश्यना का गंभीर व्यावहारिक अनुभव और दूसरी ओर बुद्धवाणी का सैद्धांतिक अध्ययन, दोनों साथ-साथ चलते रहे। इससे बुद्ध की शिक्षा स्पष्ट से स्पष्टतर होती चली गयी। कहीं रंचमात्र भी दोष देख पाना तो बहुत दूर, शब्द-शब्द में अमृत रसपान की अनुभूति होने लगी। विपश्यना पाने के पूर्व बुद्ध की शिक्षा के प्रति मन में जो भ्रांतियां थीं, उन्हें याद कर बहुत लज्जित हुआ। तब ऐसा लगा कि हमारे देश के लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों ने बुद्ध की शिक्षा पर जो अनुचित टिप्पणियां की हैं उनका संभवत: प्रमुख कारण यही है कि उन्हें मूलबुद्ध-वाणी पढ़ने और प्रयोगात्मक विपश्यना के अभ्यास 'का अवसर ही नहीं मिला। क्योंकि ये दोनों बुद्ध के बाद लगभग पांच-सात सौ वर्ष बीतते-बीतते भारत से सर्वथा विलुप्त हो चुकी थीं और ये जो निंदात्मक टीका-टिप्पणियां हुई, वे सारी की सारी इसके भी हजार वर्ष बाद की हैं। स्पष्ट है कि उस युग में तत्कालीन बौद्धों और पौराणिकों के बीच जो कटु वाद-विवाद चल रहे थे, उनमें दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर बहुत कीचड़ उछाला होगा। कालांतर में कोई पक्षधर न बचे रहने के कारण जो कीचड़ बुद्ध की शिक्षा पर उछाला गया, वह कलंक रूप में चिपका रह गया। ऐतिहासिक सच्चाई की जांच करने के लिए मैंने निर्णय किया कि मुझे पौराणिक परंपरा के तत्संबंधी साहित्य का भी अध्ययन करना चाहिए।
गीता, कुछ एक उपनिषद, रामायण और महाभारत का बहुत कुछ अध्ययन म्यंमा रहते हुए कर चुका था। परंतु भारत आने के बाद बहुत-सा अन्य साहित्य भी देख गया। इस अनुसंधान में मेरे साधक शिष्यों ने बहुत सहयोग दिया और जब लगभग संपूर्ण सच्चाई सामने आयी तब लगा कि हमारे पूर्वजों ने आपसी झगड़े में अपने एक अद्वितीय महापुरुष की परम कल्याणी शिक्षा को कलंकित ही नहीं किया, बल्कि उसे देश-निकाला भी दे दिया जिससे देश का अपरिमित अहित हुआ।
अब जबकि पूरे देश ने बुद्ध की व्यावहारिक शिक्षा 'विपश्यना' को बड़े खुले दिल से अपनाया है, मुझे पूर्ण विश्वास है कि बुद्ध की मूल वाणी के आधार पर उनकी वास्तविक सैद्धांतिक शिक्षा भी प्रकट होगी तो सारी भ्रांतियां स्वत: दूर होंगी। मध्यकालीन सांप्रदायिक द्वेष नष्ट होगा। आज के भारत में हिंदू और बौद्धों के बीच जो गहरा मनमुटाव है, वह मिटेगा और इससे भी महत्त्वपूर्ण लाभ यह होगा कि पड़ोसी बौद्ध देशों को यह जान कर बड़ा संतोष होगा कि भारत ने बुद्ध की शिक्षा पर जो भी मिथ्या कलंक पूर्वकाल में लगाये थे उन्हें वे अब गलत मानते हैं और नहीं दोहराते। बुद्ध की शिक्षा का शुद्ध रूप ही अब उन्हें स्वीकार्य है। इससे इन देशों के साथ हमारे स्नेह-संबंध आज की भांति केवल ऊपरी-ऊपरी दिखावे के स्तर पर ही नहीं रहेंगे, बल्कि उनमें हमारे प्रति गहराइयों तक मैत्रीपूर्ण सद्भावना जागेगी। मुझे लगता है, इससे भारत और उसके पड़ोसी देशों का ही नहीं, बल्कि सारे विश्व का कल्याण होगा। सारे विश्व में विपश्यना स्वीकृत होती जा रही है परंतु वहां भी कहीं-कहीं भ्रांतियां हैं। जब सारे विश्व को यह ज्ञान होगा कि मध्यवर्ती काल में बुद्ध संबंधी जो भ्रांतियां भारत से फैली थीं, वे निराधार थीं तब उनके मन में भी बुद्ध की शिक्षा के प्रति जो शंकाएं हैं, वे दूर हो जायँगी। विश्व सचमुच मन को स्वस्थ रखने वाली भारत की इस सार्वजनीन, सर्वहितकारी विपश्यना विद्या को वैसे ही निस्संकोच ग्रहण करेगा जैसे कि शरीर को स्वस्थ रखने वाले प्राणायाम और आसनों की विद्या को ग्रहण किया है। इससे निस्संदेह सारे विश्व का कल्याण होगा।
स० ना गोयन्का
(आत्म कथन भाग 2 से साभार) April-2019
क्रमशः...