
ऐसा मैंने सुना |
एक समय भगवान वेरन्जा में नदेरूपुचिमंद वृक्ष की छाया में विहार कर रहे थे | तब वेरन्ज ब्राहमण जहाँ भगवान थे वहां पंहुचा, पास जा कर भगवान के साथ कुशल-क्षेम की बातचीत की | कुशल-क्षेम की बातचीत समाप्त हो चुकने पर वह एक और बैठ गया | एक और बैठे हुए वेरन्ज ब्राह्मण ने भगवान से निवदेन किया –
“ हे गौतम ! मैंने सुना हैं की श्रमण गौतम ऐसे ब्रहमणों को जो जरा प्राप्त है, जो वृद्ध है, जो बूढ़े है, जो आप प्राप्त है , न अभिवादन करता है, न उनका सत्कार करता है, न उन्हें बैठने के लिए आसन देता हैं | हे गौतम ऐसा करना तो अच्छा नहीं हैं |”
“ ब्राह्मण सदेव, समार, सब्रहम्लोको में, श्रमण-ब्राहमण सहित प्रजा में, देवताओ तथा मनुष्योंमें मै ऐसा कोई व्यक्ति नहीं देखता, जिसका मैं अभिवादन करू, जिसका मै सत्कार करूँ, जिसे मै बैठने के लिए आसन दूँ | ब्राह्मण ! यदि किसी का तथागत अभिवादन करे, सत्कार करे या उसे बैठने के लिए आसन दे तो उनका सिर भी नीचे गिर सकता हैं |”
“ आप गौतम बड़े नी-रस हैं ”
“ ब्राहमण ! जिस दृष्टि से तू कहता है उस दृष्टि से तो नहीं, किन्तु एक दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहने वाला यह कह सकता हैं की श्रमण गौतम नी-रस हैं | हे ब्राहमण जो रूप-रस हैं, जो शब्द रस है, जो गन्ध-रस हैं, जो स्पृष्टव्य-रस हैं वह तथागत का प्रहीण हो गया हैं, जड़ से जाता रहा हैं, कटे ताड़ वृक्ष के समान हो गया हैं, अभाव को प्राप्त हो गया हैं, पुनरुत्पति की कोई सम्भावना नहीं रही है | हे ब्राह्मण ! यह वह दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहनेवाला यह कह सकता हैं कि श्रमण–गौतम नी-रस हैं |
“ आप गौतम भोग-रहित है |”
“ ब्राहमण ! जिस दृष्टि से तू कहता है उस दृष्टि से तो नहीं, किन्तु एक दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहने वाला यह कह सकता हैं की श्रमण गौतम भोग-रहित हैं | हे ब्राहमण जो रूप-भोग हैं, जो शब्द-भोग है, जो गन्ध-भोग हैं, जो स्पृष्टव्य-भोग हैं वह तथागत का प्रहीण हो गये हैं, जड़ से जाते रहा हैं, कटे ताड़ वृक्ष के समान हो गये हैं, अभाव को प्राप्त हो गये हैं, पुनरुत्पति की कोई सम्भावना नहीं रही है | हे ब्राह्मण ! यह वह दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहनेवाला यह कह सकता हैं कि श्रमण–गौतम भोग-रहित हैं |
“ आप गौतम अ-क्रिया-वादी है |”
“ ब्राहमण ! जिस दृष्टि से तू कहता है उस दृष्टि से तो नहीं, किन्तु एक दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहने वाला यह कह सकता हैं की श्रमण गौतम अक्रिया-वादी हैं | ब्राहमण ! मै शारीरिक दुश्चरित्रता, वाणी की दुश्चरित्रता, तथा मानसिक दुश्चरित्रता न करने की बात करता हूँ | हे ब्राहमण ! यह वह दृष्टि है जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहनेवाला यह कह सकता हैं कि श्रमण–गौतम अक्रिया-वादी हैं |
“ आप गौतम उच्छेद-वादी है |”
“ ब्राहमण ! जिस दृष्टि से तू कहता है उस दृष्टि से तो नहीं, किन्तु एक दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहने वाला यह कह सकता हैं की श्रमण गौतम उच्छेद-वादी हैं | ब्राहमण ! मै राग, द्वेष, मोह का मूलोच्छेद करने की बात करता हूँ तथा अनेक प्रकार के पापो, अकुशल-धर्मो का उच्छेद करने की बात करता हूँ | हे ब्राहमण ! यह वह दृष्टि है जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहनेवाला यह कह सकता हैं कि श्रमण–गौतम उच्छेद-वादी हैं |
“ आप गौतम घृणा करनेवाले है |”
“ ब्राहमण ! जिस दृष्टि से तू कहता है उस दृष्टि से तो नहीं, किन्तु एक दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहने वाला यह कह सकता हैं की श्रमण गौतम घृणा करनेवाले हैं | ब्राहमण ! मै शारीरिक दुश्चरित्रता, वाणी की दुश्चरित्रता, तथा मानसिक दुश्चरित्रता से घृणा करता हूँ और तथा घृणा करता हूँ अनेक प्रकार के पापो व् अकुशल धर्मो के आचरण से | हे ब्राहमण ! यह वह दृष्टि है जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहनेवाला यह कह सकता हैं कि श्रमण–गौतम घृणा करनेवाला हैं |
“ आप गौतम विनयी (दमन करनेवाले) है |”
“ ब्राहमण ! जिस दृष्टि से तू कहता है उस दृष्टि से तो नहीं, किन्तु एक दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहने वाला यह कह सकता हैं की श्रमण गौतम विनयी (दमन करनेवाला) हैं | ब्राहमण ! मै राग, द्वेष, मोह का दमन करने की धर्म-देशना करता हूँ तथा अनेक प्रकार के पापो, अकुशल-धर्मो के दमन करने की बात करता हूँ | हे ब्राहमण ! यह वह दृष्टि है जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहनेवाला यह कह सकता हैं कि श्रमण–गौतम विनयी (दमन करनेवाले) हैं |
“ आप गौतम तपस्वी है |”
“ ब्राहमण ! जिस दृष्टि से तू कहता है उस दृष्टि से तो नहीं, किन्तु एक दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहने वाला यह कह सकता हैं की श्रमण गौतम तपस्वी हैं | ब्राहमण ! मै शारीरिक दुष्कर्मो, वाणी की दुष्कर्मो, तथा मानसिक दुष्कर्मो तथा दुसरे पाप-कर्मो अकुशल-धर्मो को तपानेवाले धर्म कहता हूँ | हे ब्राहमण ! जिस किसी के ये तपाने वाले पाप अकुशल धर्म प्रहीण हो गये हो, उनका मूलोच्छेद हो गया हो, कटे ताड़ वृक्ष के समान हो गया हो, अभाव को प्राप्त हो गया हो, पुनरुत्पति की कोई सम्भावना नहीं रही हो ; मै उसे “तपस्वी” कहता हूँ | हे ब्राहमण ! तथागत के तपाने वाले अकुशल कर्म प्रहीण हो गये हैं, उनका मूलोच्छेद हो गया हैं, कटे ताड़ वृक्ष के समान हो गये हैं, अभाव को प्राप्त हो गये हैं, पुनरुत्पति की कोई सम्भावना नहीं रही है | हे ब्राह्मण ! यह वह दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहनेवाला यह कह सकता हैं कि श्रमण–गौतम “तपस्वी” हैं |
“ आप गौतम अप्रगल्भ है |”
“ ब्राहमण ! जिस दृष्टि से तू कहता है उस दृष्टि से तो नहीं, किन्तु एक दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहने वाला यह कह सकता हैं की श्रमण गौतम अप्रगल्भ हैं | हे ब्राहमण ! जिस किसी की भावी गर्भ-शय्या पुनरुत्पति प्रहीण हो गई है, उनका मूलोच्छेद हो गया है, कटे ताड़ वृक्ष के समान हो गई है, अभाव को प्राप्त हो गई है, पुनरुत्पति की कोई सम्भावना नहीं रही है ; मै उसे अप्रगल्भ कहता हूँ | ब्राहमण ! तथागत की भावी गर्भ-शय्या पुनरुत्पति प्रहीण हो गई है, उनका मूलोच्छेद हो गया हैं, कटे ताड़ वृक्ष के समान हो गई हैं, अभाव को प्राप्त हो गई हैं, पुनरुत्पति की कोई सम्भावना नहीं रही है | हे ब्राह्मण ! यह वह दृष्टि हैं जिससे मेरे बारे में ठीक ठीक कहनेवाला यह कह सकता हैं कि श्रमण–गौतम अप्रगल्भ हैं |
“ ब्राहमण ! जैसे किसी मुर्गी के आठ, दस या बारह अंडे हो | उन्हे उस मुर्गी ने अच्छी तरह से सेया हो, अच्छी तरह से प्रभावित किया हो, अच्छी तरह से गर्मी पहुंचाई हो | मुर्गी का जो चूजा उन अंडो में से किसी एक अंडे को अपने पैरो के नाख़ून से अथवा चोंच से फोड़कर सकुशल बाहर निकल आये, उसे क्या कहा जायेगा- ज्येष्ठ या कनिष्ठ ?
“ हे गौतम ! उसे ज्येष्ठ कहा जायेगा | वह ही उन सबमे ज्येष्ठ होता है |”
“ हे ब्राहमण ! इसी प्रकार अविद्दा रूपी अंडे को फोड़ कर अकेले मैंने ही अनुपम सम्यक सम्बोधि को प्राप्त किया हैं | हे ब्राहमण ! इस विश्वमें मैं ही ज्येष्ठ हूँ, मै ही श्रेष्ठ हूँ | हे ब्राहमण ! मेरा प्रयत्न प्रमाद-रहित रहा हैं, मेरी मूढ़ता-रहित स्मृति उपस्थित रही है, मेरी उतेजन-रहित देह शान्त रही है, मेरा चंचलता-रहित चित शान्त रहा हैं | हे ब्राहमण ! मै काम-वितर्क से रहित हो, बुरे विचारो से रहित हो, प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विचरता हूँ, जिसमे वितर्क और विचार रहता हैं जो एकांतवास से उत्पन्न है, जिसमे प्रीति और सुख रहते है | मै वितर्क और विचारो के उपशमन से उत्पन्न, भीतर की प्रसन्नता और एकाग्रता रूपी दुतीय-ध्यान को प्राप्त हो विचरता हूँ, जिसमे न वितर्क होते हैं न विचार, जो समाधि से उत्पन्न होता है और जिसमे प्रीति तथा सुख रहते है | मै प्रीति से भी विरक्त हो, उपेक्षावान बन विचरता हूँ | मै स्मृतिवान, ज्ञानवान रहता हूँ, चित से सुख का अनुभव करता हुआ तृतीय ध्यान को प्राप्त हो विहार करता हूँ, जिसे पंडित जन उपेक्षावान, स्मृतिवान, सुखपूर्वक विहार करनेवाला कहते हैं | मै सुख और दुःख दोनों के प्रहाण से, सौम्नस्ये और दौर्र्मन्स्ये के पहले ही अस्त हुए रहने से, उत्पन्न चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हो विहार करता हूँ, जिसमे न दुःख होता हैं, न सुख होता हैं केवल उपेक्षा तथा स्मृति की परिशुद्धि |
“ तब इस प्रकार एकाग्र परिशुद्ध, स्वच्छ, चितमल रहित, चित-क्लेश रहित, मृदु, कमनीय, स्थिर चित को मैंने पूर्व जन्मो के अनुस्मरण की और लगाया | मै अपने अनेक पूर्व जन्मो का अनुस्मरण करता हूँ – एक जन्म भी, दो जन्म भी, तीन जन्म भी, चार जन्म भी, पांच जन्म भी, दस जन्म भी, बीस जन्म भी, तीस जन्म भी, चालीस जन्म भी, पचास जन्म भी, सौ जन्म भी, हजार जन्म भी, लाख जन्म भी, अनेक संवर्त कल्प भी, अनेक विवर्त-कल्प भी, अनेक संवर्त विवर्त कल्प भी की मै अमुक जगह था , अमुक नाम था, अमुक गोत्र था, अमुक वर्ग था, अमुक प्रकार का भोजन करता था, अमुक सुख दुःख भोगे, अमुक आयु पर्यन्त | वहाँ से च्युत होकर यहाँ उत्पन्न हुआ | इस प्रकार मै आकार-सहित, उद्देश्य-सहित नाना पूर्व जन्मो का अनुस्मरण करता हूँ | हे ब्राहमण ! रात्रि के प्रथम याम में यह मुझे प्रथम विद्द्या प्राप्त हुई, अविद्द्या का नाश हुआ, विद्द्या हस्तगत हुई, अन्धकार का नाश हुआ, प्रकाश की उत्पत्ति हुई – अप्रमाद-युक्त, आलस्य-रहित प्रयत्नपूर्वक विहार करते हुए | हे ब्राहमण ! यह अंडे से चूजे के बाहर निकलने की तरह मेरी प्रथम अभिनिब्बभदा (ज्ञान प्राप्ति) थी |
तब इस प्रकार एकाग्र परिशुद्ध, स्वच्छ, चितमल रहित, चित-क्लेश रहित, मृदु, कमनीय, स्थिर चित को मैंने दुसरे प्राणियों की च्युति और उत्पति के ज्ञान की और लगाया | मै दिव्य, विशुद्द, मनुष्योतर चक्षु से देखता हूँ कि प्राणी उत्पन्न होते है, मरते है – हीन, प्रणीत, सुवर्ण, दुवर्ण, सुगति-प्राप्त, दुर्गति-प्राप्त ; कर्मानुसार जिस-तिस गति को प्राप्त प्राणी | मै जनता हूँ की ये प्राणी शारीरिक दुष्कर्म से युक्त हैं, वाणी के दुष्कर्म से युक्त हैं, मन के दुष्कर्म से युक्त हैं, श्रेष्ठ जनों के निन्दक है, मिथ्या दृष्टि है, मिथ्या-दृष्टि-ग्रहीत है | ये शरीर के छुटने पर, मरने के अनन्तर, अपाये में उत्पन्न हुए है, दुर्गति को प्राप्त हुए है, नरक में जन्म ग्रहण किया है | अथवा ये प्राणी शारीरिक सुकर्म से युक्त हैं, वाणी के सुकर्म से युक्त हैं, मन के सुकर्म से युक्त हैं, श्रेष्ठ जनों के निन्दक नहीं है, सम्यक दृष्टि है, सम्यक-दृष्टि-ग्रहीत है | ये शरीर के छुटने पर, मरने के अनन्तर, सुगति को प्राप्त हुए है, स्वर्गलोक में उत्पन्न हुए है | इस प्रकार मै दिव्य, विशुद्द, मनुष्योतर चक्षु से देखता हूँ कि प्राणी उत्पन्न होते है, मरते है – हीन, प्रणीत, सुवर्ण, दुवर्ण, सुगति-प्राप्त, दुर्गति-प्राप्त ; कर्मानुसार जिस-तिस गति को प्राप्त प्राणी | हे ब्राहमण ! रात्रि के मध्यम याम में यह मुझे दूसरी विद्द्या प्राप्त हुई, अविद्द्या का नाश हुआ, विद्द्या हस्तगत हुई, अन्धकार का नाश हुआ, प्रकाश की उत्पत्ति हुई – अप्रमाद-युक्त, आलस्य-रहित प्रयत्नपूर्वक विहार करते हुए | हे ब्राहमण ! यह अंडे से चूजे के बाहर निकलने की तरह मेरी दुतीय अभिनिब्बभदा (ज्ञान प्राप्ति) थी |
तब इस प्रकार एकाग्र परिशुद्ध, स्वच्छ, चितमल रहित, चित-क्लेश रहित, मृदु, कमनीय, स्थिर चित को आश्रवो के क्षय ज्ञान की और लगाया | मैंने “यह दुःख है” इसे यथार्थ रूप से जान लिया, “यह दुःख समुदय है” इसे यथार्थ रूप से जान लिया, “यह दुःख निरोध है” इसे यथार्थ रूप से जान लिया, “यह दुःख निरोध की और ले जाने वाला मार्ग है” इसे यथार्थ रूप से जान लिया, मैंने “यह आश्रव हैं” इसे यथार्थ रूप से जान लिया, “यह आश्रव-समुदय है “ इसे यथार्थ रूप से जान लिया, “यह आश्रव-निरोध हैं” इसे यथार्थ रूप से जान लिया, “यह आश्रव-निरोध की और ले जाने वाला मार्ग हैं” इसे यथार्थ रूप से जान लिया | इस प्रकार इनकी जानकारी प्राप्त कर लेने पर मेरा चित कामास्र्व से भी विमुक्त हो गया, भवास्र्व से भी विमुक्त हो गया, अविद्दास्र्व से भी विमुक्त हो गया | विमुक्त होने पर “विमुक्त हूँ” यह ज्ञान प्राप्त हुआ | यह स्पष्ट हुआ की जन्म-मरण का बन्धन क्षीण हो गया, श्रेष्ठ जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया, जो करणीय था वह कर लिया गया, इससे आगे कुछ करने को नहीं है | | हे ब्राहमण ! रात्रि के तीसरे याम में यह मुझे तीसरी विद्द्या प्राप्त हुई, अविद्द्या का नाश हुआ, विद्द्या हस्तगत हुई, अन्धकार का नाश हुआ, प्रकाश की उत्पत्ति हुई – अप्रमाद-युक्त, आलस्य-रहित प्रयत्नपूर्वक विहार करते हुए | हे ब्राहमण ! यह अंडे से चूजे के बाहर निकलने की तरह मेरी तीसरी अभिनिब्बभदा (ज्ञान प्राप्ति) हुई |
ऐसा कहने पर वेरन्ज ब्राहमण ने भगवान से कहा – आप गौतम ज्येष्ठ है | आप गौतम श्रेष्ठ है | हे गौतम ! यह सुंदर है | हे गौतम ! जैसे कोई उलटे को सीधा कर दे, ढके को उघाड़ दे, मार्ग-भ्रष्ट को रास्ता दिखा दे अथवा अन्धेरे में प्रदीप लेकर खड़ा रहे कि आँखे वाले रास्ता देख लेगे, इसी प्रकार आप गौतम ने अनेक प्रकार से धर्म का प्रकाशन कर दिया | मै भगवान गौतम, धर्म तथा भिक्षु-संघ की शरण ग्रहण करता हूँ | आज से प्राण रहने तक आप मुझे अपना शरणागत उपासक समझे |
महावग्ग समाप्त , अगुतर निकाय