जैसे आकाश में विविध प्रकार की वायु बहती है, पूर्व से और पश्चिम से, उत्तर से तथा दक्षिण से, धूल भरी और धूल रहित, शीतल और उष्ण, प्रचंड आँधी अथवा मंद समीर तथा कई प्रकार की वायु बहती है। इसी प्रकार इस काया में अनेकों संवेदनाएँ उपजती हैं जो सुखद, दुःखद और असुखद-अदुःखद होती हैं। जब कोई भिक्षु (साधक) कठिन परिश्रम द्वारा अनित्य-बोध के संपूर्ण ज्ञान को पल भर के लिए भी नहीं छोड़ता है,तब ऐसा बुद्धिमान पुरुष सब संवेदनाओं को पूरी तरह समझता है। इस प्रकार इस जीवन में संवेदना को समझकर वह सब विकारों से मुक्त हो जाता है। ऐसा पुरुष जो वेदगू है, धर्म में स्थापित होते हुए वह मृत्युपर्यंत अवर्णनीय अवस्था को पाता है और इस संसार से परे की अवस्था को जानता है।
(पठम आकास सुत्त, सं.नि.) –
भिक्षुओ! कैसे काया में कायानुपश्यी होकर विहरता है? भिक्षुओ, भिक्षु अरण्य में, वृक्ष के नीचे या शून्यागार में आसन मार कर, शरीर को सीधा कर ऊपर वाले होंठ पर ध्यान केन्द्रित करके बैठता है। वह सजगता रखते साँस छोड़ता है, सजग रहते साँस लेता है। लंबी साँस छोड़ते वक्त, "लंबी साँस छोड़ता हैं-जानता है। लंबी साँस लेते वक्त, "लंबी साँस लेता हूँ"-जानता है। छोटी साँस छोड़ते, "छोटी साँस छोड़ता हूँजानता है। छोटी साँस लेते, "छोटी साँस लेता हूँ-जानता है। सारी काया को जानते (अनुभव) करते हुए साँस छोड़ना सीखता है। सारी काया को जानते हुए साँस लेना सीखता है। काया के संस्कार को शांत करते साँस छोड़ना सीखता है। काया के संस्कार को शांत करते साँस लेना सीखता है।
(सतिपट्ठान सुत्त, दी.नि.) –
जब साधक में एक संवेदना उदय होती है-सुखद, दुःखद या अदुःखद-असुखद, वह समझता है-"मुझमें एक सुखद, दुःखद या अदुःखद-असुखद वेदना उदय हुई है। यह किसी वस्तु पर आधारित है, यह बिना आधार के नहीं है। यह किस पर आधारित है ? इसी सच्ची काया पर।" इस प्रकार वह शरीर के भीतर संवेदना की अनित्य प्रकृति का अवलोकन करते विहरता है।
(पठम गेलञ सुत्त, सं. नि.) –
साधक समझता है-"मुझमें सुखद, दुःखद अथवा अदुःखद-असुखद अनुभव उत्पन्न हुआ है। यह शांत है, स्थूल प्रकृति का है, यह सब स्थितियों पर निर्भर है। किंतु जो यथार्थ में विद्यमान है, जो सबसे अधिक विशिष्ट है, यह समता है।" चाहे उसमें सुखद अनुभव उत्पन्न हुआ है या दुःखद अथवा एक अदुःखद-असुखद, वह नष्ट हो जाता है, केवल 'समता' शेष रह जाती है।
(इंद्रिय भावना सुत्त, म.नि.) –
तीन प्रकार की संवेदनाएँ होती हैं- सुखद, दुःखद तथा अदुःखद-असुखद। सब तीनों अनित्य, निश्चल, स्थितियों पर निर्भर, हास, क्षीण, क्षय, अंत के आश्रित हैं। इस सच्चाई को देखते हुए अष्टांगिक मार्ग का सुशिक्षित अनुगामी सुखद, दुःखद तथा अदुःखद असुखद संवेदनाओं के प्रति स्थिर चित्तवृत्ति वाला हो जाता है, वह अनासक्ति विकसित करके मुक्त हो जाता है।
(दीघनख सुत्त, म.नि.) –
यदि एक साधक शरीर के भीतर सुखद संवेदना की अनित्यता, इसका क्षय, क्षीणता, समाप्ति का अवलोकन करते रहता है और अपनी स्वयं की ऐसी संवेदनाओं की आसक्ति के परित्याग का अवलोकन भी करता है तो उसके शरीर के भीतर सुखद संवेदना के नीचे जमे हुए राग के संस्कार दूर हो जाते हैं। यदि वह शरीर के भीतर दुःखद संवेदना की अनित्यता का अवलोकन करते हुए विहरता है तो उसके शरीर के भीतर दुःखद संवेदना के नीचे जमे हुए द्वेष के संस्कार हट जाते हैं। यदि वह शरीर के भीतर अदुःखद-असुखद संवेदना की अनित्यता का अवलोकन करते हुए रहता है तो उसके शरीर के भीतर अदुःखद-असुखद संवेदना के नीचे जमे हुए मोह के संस्कार दूर हो जाते हैं।
(पठम गेलञ सुत्त, सं.नि.) –
जब उसके सुखद संवेदना के नीचे जमे हए राग के संस्कार, दुःखद संवेदना के द्वेष के संस्कार तथा अदुःखद-असुखद संवेदना के नीचे दबे हुए मोह के संस्कार जड़ से उखड़ जाते हैं, जो साधक कहा जाता है। एक वह जो नीचे दबे हुए संस्कारों से पूर्ण रूप से मुक्त है, जिसने सत्य के दर्शन किये हैं, जिसने सब राग तथा द्वेष को नष्ट कर दिया है, जिसने सब बंधन तोड़ दिये हैं. जिसने अहं की भ्रांतिमय प्रकृति का पूरी तरह अनुभव कर लिया है, उसने दुःखों का अंत कर दिया है।
(महान सुत्त, सं.नि.) –
"सच्चाई की दृष्टि जैसी यह है"- तो वह सम्यक दृष्टि हो जाती है। सच्चाई का पक्का विचार-"जैसा यह है" तो वह सम्यक संकल्प हो जाता है। सत्कर्म के लिए सतत उद्योग-"जैसा यह है" तो वह उसका सम्यक व्यायाम हो जाता है। सच्चाई की स्मृति-"जैसी यह है"- तो वह उसकी सम्यक स्मृति हो जाती है। सच्चाई पर राग-द्वेष रहित चित्त की एकाग्रता "जैसी यह है", वह उसकी सम्यक समाधि हो जाती है। उसके शरीर के कर्म और उसके वचन तथा उसकी आजीविका यथार्थ में निर्मल हो जाते हैं। इस प्रकार उसमें आर्य अष्टांगिक मार्ग उन्नति तथा परिपूर्णता की ओर बढ़ता है।
(महासळायतनिक सुत्त, मं.नि.) –
अष्टांगिक मार्ग का विश्वस्त अनुगामी सतत उद्योग करता है और अपने उद्योग में दृढ़ रहकर वह स्मृतिमान हो जाता है और स्मृतिमान रहते हुए वह एकाग्र चित्त (समाधिस्थ) हो जाता है तथा समाधि में ठहर कर वह सम्यक दृष्टि विकसित करता है और सम्यक दृष्टि रखते हुए वह ज्ञान में पूरा स्थिर होकर सच्ची निष्ठा का विकास करता है। "वे सच्चाइयां जिनके विषय में पहले मैंने केवल सुना ही था, अब शरीर के भीतर उनको प्रत्यक्ष में अनुभव करके विहरता हूँ और मैं उनको मर्मज्ञ-अंतर्दृष्टि द्वारा अवलोकन करता हूँ।"
(आपन सुत्त, सं.नि.)
धम्मथली संदेश, मासिक पत्र-7 जनवरी, 2019 (डाक पोस्टिंग)
(साभारः पालि टेक्स्ट सोसाइटी, लंदन के अंग्रेजी प्रकाशन का हिंदी अनुवाद)
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