पिप्पली माणव ने मगध राष्ट्र के महातित्थ गांव में कपिल के घर जन्म लिया। पिप्पली माणव जब बीस वर्ष का हुआ तब माता-पिता ने उसका विवाह कर देने की इच्छा प्रकट की। माणव ने कहा – “आपके रहने तक मैं आप दोनों की सेवा करूंगा, फिर संन्यास ले लूंगा।" माता-पिता फिर भी सदा विवाह के लिये दबाव डालते रहे।
माणव ने बात टालने के लिये स्वर्णकार से किसी भी प्रकार से दोष-रहित एक स्त्री की अति सुंदर प्रतिमा बनवायी तथा मां से कहा “यदि ऐसी स्त्री मिलेगी तो ही विवाह करूंगा।” माणव ने सोचा, “ऐसी स्त्री मिलना असंभव है, तो विवाह भी नहीं होगा।” पर, मां ने सोचा, “मेरा पुत्र पुण्यवान है, दानशील है। अवश्य ही कोई-न-कोई कन्या होगी जो इसकी कल्पना के अनुरूप होगी।” मां ने सेवकों को चारों दिशाओं में भेजा कि यदि स्वर्ण प्रतिमा के सदृश कोई कन्या है तो विवाह का प्रस्ताव भिजवाओ।
सेवकों को भद्दा कापिलानी के बारे में जानकारी मिली। वह बिल्कुल स्वर्ण प्रतिमा जैसी ही थी। दोनों ओर के माता-पिता विवाह के लिये सहमत हो गये। पर भद्दा कापिलानी भी माणव की तरह विवाह नहीं करना चाहती थी। दोनों ने एक-दूसरे को पत्र लिखा कि वे प्रव्रजित होना चाहते हैं तथा वैवाहिक संबंधों के बारे में अनिच्छा प्रकट की। पत्रों को लेकर दोनों ओर के पत्रवाहक मद्द और मगध की ओर चल पड़े।
मार्ग में दोनों एक स्थान पर प्रव्रज्या मिले। आपस की बातचीत से एक दूसरे के गंतव्य का पता चला। विवाह-पूर्व पत्राचार! दोनों को कुतूहल हुआ। उन्हें पत्र पढ़ने की जिज्ञासा हुई। दोनों सहमत हो गये। अपना-अपना पत्र पढ़ा। विवाह नहीं, लेने की बात! आश्चर्य! उन्होंने अपने-अपने पत्र फाड़ दिये। उनके स्थान पर विवाहानुकूल पत्र लिखकर रख लिया। अंततः न चाहते हुये भी दोनों का विवाह संपन्न हो गया। पर उन्होंने वैवाहिक जीवन व्यतीत नहीं किया। दोनों ब्रह्मचर्य का ही पालन करते रहे।
पिप्पली माणव सत्तासी करोड़ की पैतृक संपत्ति का स्वामी था। साठ बड़े-बड़े तालाब थे। बारह योजन तक व्यापार फैला था। माता-पिता के देहांत हो जाने पर अगाध संपत्ति का स्वामी हुआ। एक दिन माणव अलंकृत घोड़े पर चढ़कर कारोबार देखने गया। वहां जब खेत के ऊपर खड़ा था तब उसने हल द्वारा जोते गये स्थान पर पक्षियों द्वारा कीड़ों को निकाल कर भक्षण करते हुये देखा । उसने अपने सेवकों से पूछा – “तात! इन पक्षियों द्वारा किया गया पाप किसको लगेगा?" सेवकों ने कहा - “आर्य! आपको।"
माणव ने सोचा “यदि इनके द्वारा किया गया पाप मुझको लगेगा, तो सत्तासी करोड़ धन मेरे किस काम का, बारह योजन तक फैला व्यापार किस काम का, यंत्र लगे साठ बड़े तालाब किस काम के, और चौदह गांव किस काम के? इन सबको मैं भद्दा कापिलानी को सौंपकर, घर से बेघर हो प्रव्रजित होऊंगा।
उधर भद्दा कापिलानी महल की छत पर चढ़ी थी। दासी ने छत पर सूखने के लिये तिल फैला रखे थे। तिल में से निकलने वाले जीवों को कौवे खा रहे थे। उसने दासियों से पूछा – “इसका पाप किसको लगेगा?"
दासियों ने कहा – “देवी! इसका पाप आपको ही लगेगा।"
रानी ने सोचा – “मुझको तो चार हाथ का वस्त्र और नालि के प्रमाण भर भात ही पर्याप्त है। लेकिन यदि इन कौवों द्वारा किया गया पाप मुझको लगेगा, तो निश्चय ही हजार भव-चक्रों में सिर उठा नहीं सकूँगी। आर्यपुत्र के आते ही सारी संपत्ति उनको सौंप घर से बेघर हो प्रवजित होऊंगी।"
पिप्पली खेत से लौट आया। वह शांत था। स्नान किया। पत्नी ने भोजन परोसा। दोनों ने साथ भोजन किया। भोजनोपरांत दोनों ने बातें करनी चाहीं। परिचारिकाएं हट गयीं।
पति बोला
“भद्दे! आज से तुम इस घर की समस्त संपत्ति की स्वामिनी हो। इनका सुखपूर्वक भोग करो।”
“और, स्वामी आप!" “मैं प्रव्रज्या लूंगा।"
प्रसन्नमन भद्दा बोली – “स्वामी मैं भी यही सोच रही थी। मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही थी। आपके साथ चलूंगी। मुझे तीन लोक घास की जलती हुई ढेरी लग रहा है। अब यहां रहना कैसा?"
पिप्पली तथा भद्दा ने एक दूसरे के केश काटे। दोनों ने काषाय वस्त्र धारण किये और भिक्षापात्र ले, यह संकल्प कर महल से बाहर निकले कि “जो लोक में अर्हत हैं, उनको लक्ष्य कर हमारी प्रव्रज्या है।” न किसी नौकर को, न किसी अन्य को अपनी प्रव्रज्या की सूचना दी।
जब वे गांव से निकल नौकरों के गांव के द्वार पर पहुंचे, तब दास-दासियों ने उन्हें पहचान लिया। वे रोते हुये उनके पैरों पर गिर पड़े और कहने लगे- “क्यों हमें अनाथ करते हैं आर्य?” इस पर उन्हें समझाया कि हमें यह भव जलती हुई पर्णकुटी के समान लग रहा है। तुम लोग भी अपनी-अपनी मुक्ति के लिये सोचो।
भद्दा के मुंडित सिर को देखकर स्त्रियां बिलख पड़ीं। उन्हें हिचकी बँध गयी। उनकी प्रव्रज्या की बात गांव में आग की लपटों की तरह चारों ओर फैल गयी। लोग उन पर पुष्प-वर्षा करते हुये उनकी चरण-रज मस्तक पर लगा रहे थे।
भद्दा को चलने की आदत नहीं थी। कभी ठीक से चलती, कभी ठोकर लगने पर लड़खड़ा जाती। पूर्व की तरह पिप्पली माणव उसे सहारा ही देता। आज से दोनों अवलंबरहित होकर लोक-यात्रा पूरी करेंगे। उनकी हालत देखकर जन-समूह की आंखें बार-बार भर आतीं। उनके सुख, संपत्ति, वैभव, भोग, दांपत्य जीवन सब पीछे छूट गये थे। उनके प्रति लोग श्रद्धाविभोर हो रहे थे। वे एक स्वर से बोले – “आर्य! हम अनाथ हो रहे हैं।"
माणव ने आगे चलते पीछे मुड़कर देखा और सोचा - “यह भद्दा कापिलानी पूरे जंबूद्वीप में प्रसिद्ध है और सुंदर है। यह मेरे पीछे-पीछे चलती है। ऐसा संभव है कि कोई ऐसा सोचे कि ये प्रव्रजित होकर भी अलग नहीं रह सकते। हमारे बारे में ऐसा विचार लाकर कोई मन में पाप उत्पन्न कर सकता है।"
माणव ने भद्दा को यह विचार बताया और कहा – “यहां दो रास्ते हैं। एक पर तुम चलो, और दूसरे पर मैं।" भद्दा ने कहा – “हां आर्य, प्रव्रजितों के लिये स्त्रियां मल के समान होती हैं।” भद्दा ने माणव को प्रणाम किया और कहा – “कल्पों तक साथ-साथ चलने वाले सहचर आज अलग होते हैं।" माणव दायीं ओर तथा भद्दा बायीं ओर वाले मार्ग पर चल पड़ी। यह देख पृथ्वी यह कहती हुई कांप उठी – “विशाल पर्वतों को वहन करने वाली होकर भी मैं तुम दोनों के सद्गुणों को धारण करने में असमर्थ हूं।" आकाश से बिजली गिरने का-सा नाद हुआ। पर्वत हिल उठे।
उस समय भगवान बुद्ध राजगह (राजगृह, राजगिर, राजगिरी) के वेळुवन में विहार करते थे। वे महाविहार की गंधकुटी में बैठे थे। भूचाल आने से लोग चकित और व्यग्र थे। पर भगवान शांत बैठे थे। अपनी दिव्य-दृष्टि से शास्ता ने भद्दा और पिप्पली माणव को देखा। वे दो मार्गों से भिन्न-भिन्न दिशा में चल रहे थे। भगवान को ज्ञात हुआ कि भोग-विलास, धन-संपत्ति, घर-द्वार, परिजन-पुरजन सबकुछ त्यागकर भद्दा कापिलानी और पिप्पणी माणव ने प्रव्रज्या ली है। शास्ता ने उनके संग्रह का निश्चय किया।
तब तक स्त्रियों को भिक्षुणी नहीं बनाया जाता था। भिक्षुणी-संघ की स्थापना नहीं हुई थी। इसलिये भद्दा को जेतवन के समीप तैर्थिकों के आराम में पांच वर्षों तक रहना पड़ा।
भद्दा कापिलानी एक अद्वितीय साधिका थी। उसका त्याग अनुपम था। उसका इंद्रिय-निग्रह अपूर्व था। काम पर उसने विजय प्राप्त कर ली थी। महापजापति गोतमी के प्रव्रजित होने के पश्चात भिक्षुणी-संघ का गठन हुआ। भद्दा धर्म-मार्ग पर प्रगति करती रही। महापजापति गोतमी ने उसे प्रव्रज्या और उपसम्पदा दी। प्रयत्नपूर्वक विपश्यना का अभ्यास करती हुई भद्दा ने अर्हत्व प्राप्त किया। उस समय भावाभिभूत भद्दा ने अपने पूर्व पति और अब के कल्याणमित्र महाकस्सप स्थविर के गुणों का बखान किया।
उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करते हुये उसने ये उद्गार व्यक्त किये :-
“पुत्तो बुखस्स दायादो, कस्सपो सुसमाहितो।
पुब्बेनिवासं योवेदि, सग्गापायञ्च पस्सति ॥
[ शांत, समाधिस्थ महाकस्सप, जो पूर्वजन्मों को जानते हैं, स्वर्ग तथा अपाय गतियों को देखते हैं, बुद्ध के उत्तराधिकारी पुत्र है। ]
“तथेव भद्दा कापिलानी, तेविज्जा मच्चुहायिनी।
धारेति अन्तिमं देहं, जेत्वा मारं सवाहनं ॥
[ उन्हीं के समान भद्दा कापिलानी भी त्रैविद्य है, मृत्युविजयिनी है। सन मार को उसके हाथी के साथ जीतकर अंतिम देह धारण करती है। ]
"दिस्वा आदीनवं लोके, उभो पब्बजिता मयं ।
त्यम्ह खीणासवा दन्ता, सीतिभूतम्ह निब्बुता ॥"
[ सांसारिक जीवन के दुष्परिणामों को देखकर हम दोनों ने प्रव्रज्या ले ली। अब हम दोनों ने निर्वाण का साक्षात्कार कर आत्मजयी तथा क्षीणासव हो परम शांति को प्राप्त कर लिया है। ]
थेरीगाथा (६३-६६)


भद्दा कापिलानी का त्याग अद्भुत था। वह एक महान साधिका और प्रतिभाशाली भिक्षुणी थी। वह एक आदर्श उपदेशिका भी हुई। अपने पूर्व-निवासों को याद करने में वह अत्यंत दक्ष थी।
एक बार जेतवन आराम में भिक्षुओं से घिरे हुये भगवान ने कहा “भिक्षुओ! मेरी भिक्षुणी श्राविकाओं में ये अग्र हैं - पूर्व-जन्मों को अनुस्मरण करनेवालियों में अग्र है भद्दा कापिलानी।"





पुस्तक: पटाचारा एवं भद्दा कापिलानी ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!