जिन-जिन का उपकार मानूं, उन-उन की नामावली बहुत लंबी है। उनके उपकारों का विवरण भी इस छोटे से लेख में सम्मिलित करना असंभव होगा। इसके लिए यदि समय मिला और अपनी अध्यात्म मार्ग की यात्रा पर कभी कोई पुस्तक लिख सका तो भले उनके प्रति थोड़ा-बहुत न्याय कर सकू। अब इस नामावली में जिनके नाम नहीं आ सके, वे अन्यथा न मानें । समय और स्थान की सीमा को समझ कर मन में मैत्री जगाएं।
सबसे बड़ा उपकार मेरे धर्मप्रेमी माता-पिता और धर्मपूर्ण
परिवार का, जहां मैं जन्मा और पला । उपकार प्रारंभिक पाठशाला के गुरु पं. कल्याणदत्त दूबे और मास्टरजी मदनमोहन शर्मा का ।
सही अध्यात्म के क्षेत्र में नया जन्म देने वाले गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन, धर्ममाता डो म्या त्वीं और धर्मक्षेत्र के साथी सहायक धर्मबंधु प्रो. ऊ को ले, ऊ बा फो, ऊ टिं यिन, सहयोगी साहित्कार ऊ पारगू का।
परिवार के अन्य सदस्यों में पहला नाम सहोदर अग्रज बालकृष्ण का आता है, जिससे विपश्यना सिखाने के प्रारंभिक समय से ही अनूठी सहायता मिली। भारत में सद्धर्म के प्रसारार्थ काम करते हुए देखा कि अपने नौकरी-पेशे या व्यापार-धंधे को छोड़ कर भारत आए बर्मा के अनेक विस्थापित शरणार्थियों का उनके भारतवासी भाई-बंधुओं ने, यहां तक कि एक प्रसंग में सगे पुत्र ने भी धोखा दिया और उनकी दर्दनाक दुर्गति की। जबकि दूसरी ओर यहां आकर मैं हमारे भारत के संयुक्त पारिवारिक उद्योग-धंधे में एक दिन भी सेवा देने नहीं बैठा।
तिस पर भी मेरे आने के आठ वर्ष बाद जब भाइयों का बँटवारा हुआ, तब मेरे दयालु अग्रज ने मुझे अपने बराबर का हिस्सा दिया। इतने दिनों तक मेरी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति की। जिस दिन से विपश्यना के शिविर लगने लगे और लगातार यात्रा में व्यस्त रहने लगा, तब से मुझे यात्रा और भोजन-खर्च और शिविरों में दान देने के लिए भी आवश्यक धन देता ही रहा। आते ही अपनी आफिस में नवनियुक्त हिंदी टाइपिस्ट रामप्रताप यादव को दिन-रात मेरी सेवा में लगा दिया, जो कि आज तक एक श्रद्धालु सहायक के रूप में मेरे साथ लगा हुआ है।
आरंभ में भाई बालकृष्ण अध्यात्म के भिन्न पथ का पथिक होने पर भी विपश्यना के प्रसार में मुझे उपरोक्त सहयोग देता रहा। अब तो पूर्ण आचार्य के रूप में संपूर्ण दक्षिण भारत में विपश्यना केंद्रों के संचालन का उत्तरदायित्व निभा रहा है। धर्मसेवा के काम में मेरे पुत्रों का भी उतना ही सहयोग रहा। संयुक्त परिवार के काम-धंधे से मेरे हिस्से में आये सारे व्यापार-उद्योग, रूपये-पैसे मैंने उनके हवाले कर दिये।
उन्हें प्राप्त हुए व्यापार-धंधे में एक दिन भी मैं उनके साथ नहीं बैठा। मेरीvयात्राएं तथा शिविरों में लगे रहने के अन्य आवश्यक खर्च वे उठातेvरहे हैं। मेरे स्वास्थ्य तथा अन्य सभी आवश्यकताओं की पूरीbदेखभाल करते रहे हैं। मुझे उसी अकिंचन अनासक्तभाव से धर्मसेवा करते रहने की सुविधा मिलती रही है।
मेरा अग्रज यदि मुझे आदेश देता कि पारिवारिक काम-धंधे में भागीदार होने के कारण मुझे उसमें हाथ बँटाना होगा तब भारत में विपश्यना के पुनर्जागरण और प्रसारण का पुनीत कार्य मैं कैसे कर पाता? इसी प्रकार पारिवारिक बँटवारे के समय मेरे किसी पुत्र को व्यापार-उद्योग का यथेष्ट अनुभव नहीं था। वे यदि आग्रह करते कि मैं अपने वर्षों के अनुभव का उन्हें लाभ पहुँचाऊं। उन्हें यथोचित प्रशिक्षण दूं और इसके लिए उनके साथ काम-धंधे में लग जाऊं और मैं उनकी नितांत अनुभवहीनता को जानते-समझते हुए, उनके साथ धंधे में लग जाता तब विश्व में विपश्यना फैलाने का काम कैसे कर पाता? लाखों लोगों को दुःखविमोचनी विद्या कैसे दे पाता?
अनुभवहीन रहने के कारण उन्हें प्रारंभिक व्यापार में कुछ
मार पड़ी। परंतु उन्होंने फिर भी मुझे इस जंजाल से मुक्त रखा। मैं नितांत अनासक्तभाव से अपनी लोकसेवा की जिम्मेदारी में शतप्रतिशत लगा रहा। अब वे प्रौढ़ हो चले हैं। उनकी संतान यानी मेरे पौत्र उनके साथ काम में लग गये हैं। उनका भी व्यापारिक जिम्मेदारियों से पूर्णतया मुक्त होने का समय आ रहा है।
प्रकाशन, सीडी, डीवीडी आदि का जो काम अनुज राधेश्याम देखता था उसे अब पुत्र श्रीप्रकाश देखने लगा है। इसी प्रकार यदि अन्य कोई धर्म प्रसारण के किसी क्षेत्र में निःस्वार्थभाव से सेवा करते हुए पुण्य कमाना चाहे तब मैं उसे क्यों रोकू, कैसे रोकू?
परिवार की बात करूं तो जीवनसंगिनी को कैसे भूलूं? उसके बिना अब तक की लंबी धर्मयात्रा कैसे पूरी होती? कैसे सफल होती?
भिक्षुओं में भदंत ऊ रतनपालजी का बहुत बड़ा उपकार है। अन्य सभी सहयोगियों के प्रति असीम मंगल मैत्री शिविरों की बात याद करूं तो प्रथम शिविर मुंबई में दयानंद अडुकिया और उसके पुत्र विजय अडुकिया ने लगाया । मुंबई शिविर लगने के बाद चेन्नई का पहला शिविर मेरे अग्रज ने और उत्तर में पहला शिविर मेरे मित्र साहित्यकार श्री यशपाल जैन ने लगाया। फिर तो भारत में स्थान-स्थान पर शिविर लगने लगे।
बोधगया में श्री द्वारको सुंदरानी ने शिविर लगवाये, जिसके एक-दो शिविरों में श्री जयप्रकाश नारायण सायंकालीन धर्मप्रवचन में श्रोता के रूप में सम्मिलित हुए और बहुत प्रभावित हुए। परंतु श्रीमती प्रभावतीजी की अस्वस्थता के कारण शिविर में भाग न ले सके। फिरभी मुझे नाशिक में हुए सर्वसेवा संघ के वार्षिक सम्मेलन में सम्मिलित कर वहां मेरा प्रवचन करवाया। इस कारण इसके अध्यक्ष श्री सिद्धराज ढड्डा सहित संघ के अनेक मुख्याधिकारी शिविरों में सम्मिलित हुए।
गांधीजी की पुत्रवधू श्रीमती निर्मला गांधी ने सेवाग्राम, वर्धा में शिविर लगवाया जिसमें गांधीजी के कई वयोवृद्ध साथी सम्मिलित हुए। शिविरार्थी प्रसन्न होकर मुझे श्री विनोबा भावे के पवनार आश्रम में ले जाकर उनसे मेरी भेंट करवाई। उनके द्वारा चुनौती दिये जाने पर विद्यार्थियों का पहला शिविर बगहा (बिहार) की एक स्कूल में लगा । कारावास के कैदियों के लिए पहला शिविर कुछ समय बाद जयपुर की केंद्रीय जेल में लगा। फिर तो इन दोनों प्रकार के शिविरों का सारे भारत में तांता लग गया। बेटी किरन बेदी ने तिहाड़ जेल में सफल शिविर लगवा कर विश्व के अनेक देशों के कैदियों को विपश्यना का लाभ लेने का मार्ग खोल दिया।
जयपुर के एक शिविर में राजस्थान सरकार के गृहसचिव श्री रामसिंह और उनकी धर्मपत्नी के लाभान्वित होने से श्री सत्येंद्रनाथ टंडनजी और श्री एस. अडवियप्पा जैसे अनेक प्रदेश प्रमुख राज्याधिकारियों ने धर्मलाभ लिया और विपश्यना विद्या को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इगतपुरी के धम्मगिरि केंद्र की स्थापना और संचालन में श्रीराम तापड़िया का प्रमुख हाथ रहा। उसके साथ पूना के श्री लक्ष्मीनारायण राठी और श्री रामसुख मंत्री तथा तोषणीवाल बंधुओं के शिविर में आने से माहेश्वरी समाज में विपश्यना का प्रवेश हुआ।
श्री शिवजी भाई, हरखचंद गाला, दीपचंद शाह, मुकुंद
बदानी, विमलचंद सुराना, डॉ. भीमसी सावला, प्रेमजी सावला, बेटी बीणा गांधी, नटुभाई एवं कौशल्या पारेख, रतीलाल और चंचल सावला, महासुख और मंजु खांधार, सुश्री शांति शाह, सुधीर शाह एवं परिवार, जयंतीलाल ठक्कर, बचुभाई शाह, स्व. रतीलाल मेहता एवं परिवार तथा अन्य अनेकों के सहयोग से जैन समाज में विपश्यना का खूब विकास हुआ।
तेरापंथ के आचार्य तुलसी ने अपने लगभग सभी साधु-साध्वियों को विपश्यना के शिविरों से लाभान्वित करवाया। इसी प्रकार प्रमुख आचार्य डॉ. शिवमुनिजी, राजगीर के उपाध्याय अमरमुनिजी, मुनिश्री अमरेंद्र विजयजी, आचार्य मुनिश्री भुवनचंद्रजी, महासती करुणाबाई तथा अन्य अनेक प्रमुख जैनाचार्यों के विपश्यना से लाभान्वित होने पर बड़ी संख्या में जैन समाज के लोग विपश्यना से लाभान्वित होने लगे।
प्रकाश बोरसे, विश्वंभर दहाट आदि के कारण मराठा क्षेत्र में धर्म फैला तो बेटी ऊषा मोडक, डॉ. धनंजय चौहान, डॉ. हमीर व डॉ. निर्मला गानला, दिनेश मेश्राम, प्रकाश महाजन, विमला महाजन, महावीर पाटिल, स्व. राजराम बेरी आदि के सहयोग से पूरे महाराष्ट्र में धर्म का प्रसार हुआ।
इसी प्रकार काश्यप धर्मदर्शी, दिगंबर धांडे, एन. वाई. लोखंडे, महाराष्ट्र सरकार में विभिन्न उच्च पदों पर नियुक्त श्री रत्नाकर गायकवाड़, श्री प्रेमसिंह मीना, श्री एस. कृष्णा आदि अनेक साधकों के सहयोग से बुद्धानुयायियों सहित, अधिकारी वर्ग को खूब धर्मलाभ मिला।
प्रो. प्यारेलाल धर, अशोक तलवार, गुरुमुख सिद्धू, राजेश गुप्ता, मंजु वैश, अशोक केला, डॉ. नारायण वाधवानी, गोपाल शरण सिंह आदि के सहयोग से उत्तरी व मध्य भारत में धर्म का प्रसार तेज हुआ।
शशिकांत और डॉ. शारदा संघवी, देशबंधु गुप्ता, सुभाषचंद्र गोयल, राधेश्याम गोयन्का, दुर्गेश एवं धनेश शाह, डॉ. रोही शेट्टी आदि ने विपश्यना के 'विशोधन' और प्रसारण में महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई।
आधुनिक इलेक्ट्रानिक मेल सुविधा, वेबसाइट बनाने और
इंटरनेट-एंट्री में योगदान देने वाले थोमस क्रिसमैन, राधेश्याम गोयन्का, प्रीति डेढिया, धनेश शाह, मि. जिनो, रामनाथ शेनाय, ब्रिहास सारथी और जयप्रकाश गोयन्का का योगदान भी कम सराहनीय नहीं है। इनके अथक प्रयास के कारण ही विपश्यना का विपुल साहित्य, तिपिटक का पूरा सेट, पत्रिकाएं और साधना संबंधी विस्तृत जानकारी वेबसाइट पर उपलब्ध हो सकी है।
डॉ. पॉल फ्लैशमैन, डॉ. सावित्री व्यास, बिल व वर्जीनिया
हैमिल्टन आदि ने साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़ कर बहुत बड़ा योगदान दिया।
मेरा एक और विशिष्ट धर्मपुत्र बिल हॉर्ट, जिसकी एक पुस्तक ने सारे विश्व में विपश्यना का डंका बजाया। अनेक
भाषाओं में इसके अनुवाद प्रकाशित हुए और होते ही जा रहे हैं। इस पुस्तक की बिक्री लाखों की संख्या में पहुंच चुकी है। उसका पुण्य बहुत महान है, जिसे मापा नहीं जा सकता।
नेपाल के यदुकुमार सिद्धि, मणिहर्ष ज्योति, उत्तमरत्न
धाख्वा, नानी मैया मानधर, आनंदराज शाक्य, डॉ. रूप ज्योति आदि, थाईलैंड के निरिंद और सूत्थी छायोडम, श्रीलंका के ब्रिडले व दमयंती रतवत्ते, म्यंमा के डॉ. (श्रीमती) के वाइन, ऊ टिं औंग, परसुराम गौतम तथा ईरान के दयूष नोजोहूर, मंगोलिया के डॉ. जे. खातनबाटर, फिलीपाइन व वियतनाम के लिए क्लॉज और नाडिया हेलविग, ताईवान के जार्ज सियाओ, आस्ट्रेलिया के पैट्रिक गिवेन विल्सन व जिनी एम. विलसन, जॉन बरचाल, स्टीव व क्रिस्टीन स्मिथ, मलेसिया, इंडोनेसिया और सिंगापुर के लिए - डॉन व शैली मैकडोनाल्ड, न्यूजीलैंड के रॉस रेनॉल्ड, यू.के. के जॉन व जोआना लक्सफोर्ड, डॉ. खिं मौं ये, कर्क व रीनेट ब्राऊन, स्टीव व ऑल्वीन स्मिथ, जर्मनी की फ्लो लेहमान, अमेरिका के बैरी व केट लैपिंग, हैरी व विवियन स्नाइडर, ब्रूस व मोरीन स्टुअर्ट, चीन के लिए- फिलिक्स ली व यू येन, दक्षिण अमेरिका के लिए- डैनियल मेयर और अर्थर निकल्स, कनाडा के जॉर्ज व कैथी पोलैंड आदि ने धर्म प्रसारण के काम में प्रमुख भूमिका निभाई।


विपश्यना प्रसार के दिनों एक महत्त्वपूर्ण घटना घटी। मैं
शिविर लगाने के लिए विश्व-यात्रा पर निकला था। जापान पहुँचा तो किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति ने लोगों को फोन कर-कर के यह सूचना फैला दी कि परम पूज्य गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन ने मेरे सिर पर से अपना वरदहस्त हटा लिया है। अब वे शिविरों में मुझे मैत्री भी नहीं देंगे।
इस सूचना से सब घबरा गये। मैं भी घबराया कि ऐसा है तो मुझे शिविर नहीं लगाने चाहिए। जापान तथा आगे के शिविर कैंसल कर देने चाहिए और घर लौट जाना चाहिए। हम दोनों बेटी सचिको के घर ठहरे हुए थे। यह अप्रिय सूचना विश्वसनीय सूत्रों से मिली थी। अतः जब मैं पूज्य गुरुदेव की परंपरा में आचार्य ही नहीं रहा तब वह हमें घर से निकाल सकती थी। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया।
जॉन बिआरी ने इस विकट परिस्थिति में सभी इकट्ठे हुए
पुराने साधकों के सामने यह प्रस्ताव रखा कि शिविर कैंसल नहीं करना चाहिए। उसने आग्रह किया कि शिविर लगे और यदि मैत्री दुर्बल पड़ गयी होगी तो आगे के शिविर भले कैंसल कर दें। हो सकता है यह सूचना दूर्भावनावश फैलायी जा रही हो। शिविर लगने के पहले कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। शिविर लगा और बहुत सफल रहा।
सब ने कहा - मैत्री पहले से अधिक सबल थी, दुर्बल नहीं। आभार मानता हूं जॉन बिआरी का, जिसने यदि आग्रहपूर्वक शिविर कैंसल नहीं होने दिया। यदि ऐसा होता तो शिविर लगने ही बंद हो जाते। शिविर लगा तब उन सब को और मुझे भी पूर्ण विश्वास हो गया कि पूज्य गुरुदेव का मैत्रीपूर्ण वरदहस्त मेरे सिर पर अवश्य है। आगे के शिविर निर्विघ्न सफलतापूर्वक लगते रहे। इस घटना को जब-जब याद करता हूं, तब-तब इनके प्रति मन असीम मंगल मैत्री से भर उठता है।


उत्तरी अमेरिका में मेरा पहला शिविर लगा। शिविर समापन पर मुझे विदित हुआ कि शिविर के आरंभ में कई नये साधकों से शिविर के लिए कुछ पैसे लिए गये। यह जान कर मुझे बहुत दुःख हुआ। क्योंकि यह हमारी धर्म बांटने की शुद्ध परंपरा के बिल्कुल विपरीत था। पिछले दस वर्षों तक भारत में अनेक शिविर लगाते हुए ऐसा कभी नहीं हुआ था।
शिविर-व्यवस्थापकों ने कहा कि शिविर लगाने के लिए उनके पास धन नहीं था। यह बहुत बुरा हुआ। यदि शिविर लगाने के लिए प्रारंभ में आवश्यक धन न हो तब शिविर नहीं लगाने चाहिए। मैंने फैसला किया कि अब मैं अमेरिका में शिविर लगाने नहीं आऊंगा। यह जान कर बेटी केट प्राट ने भविष्य में शिविर लगाने के लिए आवश्यक धनराशि दान में दी और नियमित शिविर लगने लगे। इसे याद करता हूं तो बेटी केट प्राट के प्रति मन मोद और मैत्री से भर उठता है।


इंगलैंड में शिविर लग रहा था। भारत की भांति पश्चिमी देशों में भी शिविर-पर-शिविर की मांग आती जा रही थी। मैं अकेला कहां-कहां, कितने शिविर लगा सकता था। विपश्यना में पके अनेक शिष्य विपश्यना सिखाने योग्य हो गये थे। पर हर रोज का प्रवचन देना उनके लिए कठिन था।
फ्रांस का जॉन क्लोड सी और अमेरिका के शिकागो के डॉ. सुखदेव सोनी ने प्रस्ताव रखा कि मेरे प्रवचनों के विडियो बना लिये जायँ, जिसे उन साधकों को दे दिया जाय, जिन्हें मैं सहायक आचार्य के रूप में नियुक्त करूं । उन दोनों ने इस योजना को सफल बनाने के लिए आवश्यक व्यवस्था की। इससे सद्धर्म के फैलने का मार्ग खुला ।
परंतु यह सिस्टम ‘सिकाम' विडियो का था, जिसका उपयोग अन्य देशों में नहीं हो सकता था। फिर भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य आरंभ तो हुआ । इसलिए इन दोनों को याद करके मन गद्गद हो उठता है।
अमेरिका में शिविर लगाने गया तो वहां एक पुराने साधक
थोमस क्रिसमैन ने कहा कि वह उससे 'वीएचएस' सिस्टम के विडियो तैयार कर देगा, जो सारे विश्व में चलेगा। उसने यह कर दिखाया और आज सैंकड़ों सहायक आचार्य तैयार कर दिये गये। धर्म की गंगा अनेक देशों में प्रवाहमान हो गयी। धर्मपुत्र थोमस के पुण्य का कोई माप नहीं।
सभी प्रकार के ऑडियो-विडियो कैसेट, सीडी आदि के
टीचिंग-सेट और ट्रांस्कृप्ट आदि संभाल कर रखने और वितरित करने का काम रूथ और लैरी ने बखूबी निभाया। अब इन्हें अत्यधिक सुरक्षित रखने की समुचित व्यवस्था कर दी गयी है।
और मेरे धर्मपुत्र डॉ. धनंजय चव्हान और डॉ. रोही शेट्टी
अपने परिवार की जिम्मेदारी निभाते हुए और अपनी आजीविका की कुर्बानी करके एक दिन, दो दिन नहीं, अनेक वर्षों तक मेरी और धर्म की सेवा करते रहे हैं।
सभी सहयोगियों और साधकों की पुण्य पारमिताएं पुष्ट होती जायँ । सब का मंगल हो! सब का कल्याण हो! सब के प्रति असीम मंगल मैत्री!
मंगल मित्र,
सत्य नारायण गोयन्का





विपश्यना पत्रिका संग्रह 05, 2008
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!