प्रिय ईश्वरचंद, सप्रेम मंगलकामना ।
हम शील, समाधि और प्रज्ञा में अधिक से अधिक पुष्ट हों, सचमुच धर्म की अनंत शक्तियां हमारी ओर दौड़ी चली आती हैं। जब-जब हम अपने मन को धर्म-पथ पर चलने के लिए तैयार करने का संकल्प करते हैं, तब-तब ये सारी शक्तियां हमारे लिए पाथेय बन जाती हैं..........
तुम्हारा 30 मार्च का पत्र मिला। तुम सब यथाशक्ति विपश्यना का अभ्यास कर रहे हो और रविवार को सामूहिक साधना भी, जिससे सुख-शांति और प्रसन्नता की अनुभूति होती है, यह जान कर मन संतुष्ट-प्रसन्न हुआ।
यह सच है कि गृहस्थ जीवन में अनेक प्रकार के उतार चढ़ाव आते हैं जो विपश्यना में पुष्ट होने में कठिनाई पैदा करते प्रतीत होते हैं। लेकिन इन कष्टों से जूझते हुए घुटने नहीं टेकना ही वस्तुतः विपश्यना साधना को सुदृढ़ करना है। गृहस्थ जीवन से घबराना उचित नहीं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि घर से बेघर होकर आदमी जब गृहस्थ की सारी जिम्मेदारियों को उतार फेंकता है तब उसे अंतर्मुखी होकर साधना के अभ्यास के लिए अधिक अवसर मिलता है। उसकी अनेक कठिनाइयां अपने आप दूर हो जाती हैं। लेकिन जिस समाज में गृहस्थों में वस्तुतः धर्म नहीं जागा हो, उस समाज में कोई व्यक्ति संन्यास ले कर अपना मंगल साधना चाहे तो यह भी सरल नहीं है। उस क्षेत्र में भी कठिनाइयां सामने आती हैं। ऐसी स्थिति में बाधाओं का सामना करते हुए गृहस्थ जीवन में ही धीरे-धीरे धर्म-पथ पर आगे बढ़ते जाना चाहिए।
नए संस्कार बनने बिल्कुल बंद हो जायँ, ऐसा कोई चमत्कार नहीं हो जाता। सारा अभ्यास इसी दिशा की ओर ले जाने के लिए है कि कुछ क्षण तो ऐसे आने लगें जिनमें सही माने में नए संस्कार नहीं बना रहे हैं। ऐसे क्षण प्रभूत मात्रा में पुराने संस्कारों का क्षय करने में स्वतः ही कारण बन जाते हैं।
सांसारिक जीवन में साधक को व्यावहारिक दृष्टिकोण रखना चाहिए। किन्हीं सांसारिक कठिनाइयों के कारण या किसी के अन्याय, अनीतिपूर्ण व्यवहार के कारण यदि हमारी सुरक्षा खतरे में हो तो एक सीमा तक क्षांति (सहनशीलता) का भाव रखना आवश्यक है। परंतु इसके बाद एक समय ऐसा भी आता है जबकि भावावेश के अधीन हुए बिना दृढ़तापूर्वक
अनीति और अन्याय का सामना करना होता है। किसी के प्रति द्वेष- दुर्भावना रखते हुए नहीं, बल्कि उसकी भी मंगलकामना चाहते हुए ही।
विश्वास है उस क्षेत्र के सभी साधक विघ्न-बाधाओं के बावजूद धर्म का अभ्यास नहीं छोड़ेंगे। अंततोगत्वा सफलता मिलेगी ही। हर संघर्ष हमें धर्म में पुष्ट करने वाला हो, हर असफलता हमें और दृढ़ता के साथ धर्म-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा और पराक्रम प्रदान करने वाली हो, इस उत्साह के साथ कदम-कदम आगे बढ़ते ही जाना चाहिए।
सचमुच धर्म की अनंत शक्तियां हमारी ओर दौड़ी चली आती हैं। जब-जब हम अपने मन को धर्म-पथ पर चलने के लिए तैयार करने का संकल्प करते हैं, तब-तब ये सारी शक्तियां हमारे लिए पाथेय बन जाती हैं।
साधक वहां धूमधाम से बुद्ध-जयंती मनाना चाहते हैं और उस समय स्वयं-शिविर लगाना चाहते हैं। मैं समझता हूं बुद्ध-जयंती मनाए जाने का इससे बेहतर तरीका और कुछ हो ही नहीं सकता। बुद्ध-जयंती भगवान बुद्ध के सम्मान के लिए है, उनके पूजन के लिए है। और उनका पूजन इसी प्रकार किया जाना चाहिए- इमाय धम्मानुधम्मपटिपत्तिया बुद्धं पूजेमि। धर्म और अनुधर्म का प्रतिपादन करते हुए ही हम बुद्ध का सम्मान कर सकते हैं, बुद्ध की सही वंदना करते हैं, बुद्ध का सही पूजन करते हैं, और इसलिए सही माने में बुद्ध-जयंती मनाते हैं।
जो लोग इस अवसर पर एकत्र हो रहे हों उनसे मेरा यही संदेश कहना चाहिए कि बुद्ध-जयंती का अवसर अन्य त्यौहारों की तरह आमोद-प्रमोद भरे उत्सव- समारोह जैसा नहीं हो जाना चाहिए। केवल वाणी-विलास और बुद्धि-विलास तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि लोगों के मन में यह प्रेरणा जागनी चाहिए कि हम शील, समाधि और प्रज्ञा में अधिक से अधिक पुष्ट हों, तभी बुद्ध-जयंती मनाने का महत्त्व है, तो ही बुद्ध-जयंती मनाने की सफलता है।
सभी साधकों के प्रति समस्त मंगल मैत्री लिए हुए,
साशिष, सत्यनारायण गोयन्का
विपश्यना पत्रिका संग्रह, अप्रेल 2017 में प्रकाशित।
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
भवतु सब्ब मगंलं !!