I Became an Arya in the True Sense
म्यंमा, बर्मा, ब्रह्मदेश या स्वर्णभूमि उस देश का नाम है, जहां मेरा जन्म हुआ। राजधानी यांगों (रंगून) से उत्तर लगभग 148 मील दूर एक स्थान है जियावाड़ी। इसके उत्तर-पश्चिम में शिरीष, नारियल, आम, पीपल और बरगद आदि के हरे-भरे वृक्षों से आच्छादित, हरीतिमा-युक्त शीतल शांत वातावरण में स्थित एक छोटा-सा गांव "न्योविंदा' अर्थात पीपल-वृक्ष वाला गांव है, जहां मेरा बचपन बीता। गांव के पूर्व थोड़ी दूर पर रंगून-मांडले सड़क तथा लगभग समानांतर चलती रेलवे लाइन। दूर तक फैले सपाट मैदान के पार क्षितिज को छूता 'करेनी योमा” पर्वत! यहीं बाल-सूर्य की लालिमा को निहारा करता। प्रत्यूष का थका हुआ सांध्यकलीन सूर्य गांव के पश्चिम करीब दो-तीन मील की दूरी पर स्थित ‘पेगूयोमा' पर्वत के पीछे छुप जाता, जिसके दक्षिणी छोर पर रंगून में विश्वविख्यात 'श्वेडगोन' पगोडा है।
इस गांव के पश्चिम थोड़ी दूरी पर करीब चालीस-पचास परिवारों वाला एक छोटा-सा मूल बर्मी जाति के लोगों का गांव, मानो मखमल की हरी चादर ओढ़े नवोढ़ा (लज्जालु दुलहन) जैसे चुपचाप बैठा हो। दोनों गांवों के बीच मेरी कृषि-भूमि, उसके पास एक अति पावन, निर्मल, 'बुद्ध विहार', जहां नित्य प्रातःकाल बरमी ध्वनि मुखरित होती
'नमोटत्त बगवाटो अरहाटो तम्मा तम्बुद्धत्त' अर्थातनमो
तस्स भगवतो अरहतो सम्मा सम्बुद्धस्स!
'नमोटत्त बगवाटो अरहाटो तम्मा तम्बुद्धत्त' अर्थातनमो
तस्स भगवतो अरहतो सम्मा सम्बुद्धस्स!
मैं सातवीं कक्षा में था, जो नौवीं के समकक्ष होती। इन्फैंट ए तथा बी के बाद पहली कक्षा शुरू होती और सातवीं बोर्ड परीक्षा की कक्षा होती, जिसके लिए स्वाध्याय की छुट्टी थी। मैं गांव के निकट उक्त विहार में गया और वहां के बड़े भिक्षु से मिला। स्वाध्याय के लिए उनसे एक कमरे का निवेदन किया। उन्होंने एक छोटी-सी लगभग 5x5 फीट की कुटिया, जो ऐसे एकांत स्थान पर थी जहां जाकर मन स्वतः शांत हो जाय, उसमें अध्ययन करने की अनुमति दी। वह कुटीर उनका अपना ध्यान-कक्ष था। बांस से बने कलापूर्ण नितांत नीरव उस कक्ष का उपयोग उन भिक्षुप्रवर के सिवाय अन्य कोई नहीं करता था। परंतु पता नहीं क्यों उन्होंने अतिशय कृपा करके मुझे उसमें पढ़ने की अनुमति दे दी।
सातवीं कक्षा में जितनी बुद्धि थी और माता-पिता, गांव-घर तथा जियावाड़ी में बसे हुए बीस-बाईस हजार भारतीय लोगों की परम्परागत मान्यता से यही समझ बनी थी कि हम भारतीय सर्वश्रेष्ठ होते हैं और बर्मी लोग निम्न । उनका खान-पान मांसाहारी है और हमारा शुद्ध सात्त्विक शाकाहारी। कुल मिलाकर 'वे हेय और हम उच्च'- इसी कुत्सित मानसिकता से सभी भारतीय ग्रस्त थे।
सातवीं कक्षा में जितनी बुद्धि थी और माता-पिता, गांव-घर तथा जियावाड़ी में बसे हुए बीस-बाईस हजार भारतीय लोगों की परम्परागत मान्यता से यही समझ बनी थी कि हम भारतीय सर्वश्रेष्ठ होते हैं और बर्मी लोग निम्न । उनका खान-पान मांसाहारी है और हमारा शुद्ध सात्त्विक शाकाहारी। कुल मिलाकर 'वे हेय और हम उच्च'- इसी कुत्सित मानसिकता से सभी भारतीय ग्रस्त थे।
मेरे गांव के लोग अपेक्षाकृत उनसे धनी थे। हम सब के पास कुछ-न-कुछ कृषि-योग्य भूमि थी, जबकि बर्मी परिवारों में से किसी-किसी के पास ही जमीन थी। भिक्षु की उस कुटिया में स्वाध्याय करते समय मेरे मन में द्वंद्व उठा कि इस बर्मी गांव के लोग इतने गरीब हैं, फिर भी इन्होंने इतना बढ़िया साफ-सुथरा भव्य बौद्ध विहार बनवाया है। मांडले से संगमरमर की गौतम बुद्ध की चमचमाती हुई मूर्ति लाकर स्थापित की है। गांव के बालक यहां पढ़ते हैं, विहार में ही रहते हैं, दिन-रात अध्ययन करते हैं। प्रातः चार साढ़-चार बजे से रात्रि नौ साढ़े नौ बजे तक इनकी दिनचर्या निश्चित है। ये भिक्षु भी कितने शांत और निर्लिप्त हैं। दोपहर के पूर्व भिक्षाटन से प्राप्त भोजन पर निर्भर बर्मी गृहस्थ लोग माह में चार बार (दोनों पक्षों की अष्टमी, अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन) यहां आकर उपोसथ-व्रत रखते हैं। इसके ठीक विपरीत मेरे गांव की पूर्व दिशा में एक 'कालीमाई का चौरा' तथा उसी के साथ एक ‘भैरव बाबा का पिंड', थोड़ा हट कर हनुमानजी का प्रतीक एक पिंड', उससे थोड़ी दूर पर 'ग्राम देवता का पिंड'। कुल मिलाकर सब कुछ अत्यंत संकुचित और अनाच्छादित स्थान, झाड़-झंखाड़ से भरपूर, रख-रखाव से अति दूर । वर्ष में कोई तीज-त्योहार पर लोग जाकर पूजन-अर्चन कर लें, प्रसाद चढ़ा दें। उसके बाद तो वहां केवल जीव-जंतुओं का ही साम्राज्य। इन सब के बावजूद हम अपने आपको महान एवं उच्च मानते हैं और बर्मी जाति के लोगों को निम्न तथा गया-गुजरा क्यों समझते हैं?
उच्च शिक्षा का अवसर:
जब तक मौलमीन कॉलेज जाने का अवसर आया, तब तक मैं 'हिंदी साहित्य सम्मलेन', प्रयाग की 'साहित्य-विशारद' परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका था। अब तक सनातन धर्मावलंबी परिवार के कर्मकांडों से मोह भंग हो चुका था। आर्य समाज की बातें जँचने लगी थीं। रेलगाड़ी से पेगू होते हुए मौलमीन गया। उस रास्ते में दोनों ओर जहां देखो वहां स्तूप, विहार तथा भगवान गौतम बुद्ध की भव्य मूर्तियां । भगवान बुद्ध भारत में जन्मे, बर्मा कभी आये नहीं, फिर भी उनकी ऐसी कौन-सी विशेषता है जो यहां की जनता की रग-रग में रच-बस गयी है? यही प्रश्न मेरे युवा मानस में बार-बार उठने लगा।
जब तक मौलमीन कॉलेज जाने का अवसर आया, तब तक मैं 'हिंदी साहित्य सम्मलेन', प्रयाग की 'साहित्य-विशारद' परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका था। अब तक सनातन धर्मावलंबी परिवार के कर्मकांडों से मोह भंग हो चुका था। आर्य समाज की बातें जँचने लगी थीं। रेलगाड़ी से पेगू होते हुए मौलमीन गया। उस रास्ते में दोनों ओर जहां देखो वहां स्तूप, विहार तथा भगवान गौतम बुद्ध की भव्य मूर्तियां । भगवान बुद्ध भारत में जन्मे, बर्मा कभी आये नहीं, फिर भी उनकी ऐसी कौन-सी विशेषता है जो यहां की जनता की रग-रग में रच-बस गयी है? यही प्रश्न मेरे युवा मानस में बार-बार उठने लगा।
उत्तुंग पर्वत शिखर की तराई में स्थित मौलमीन कॉलेज और उसके समीप ही "टौ हांई फया' अर्थात "पर्वतवृत्त विहार पगोडा'' एक दिन मैं अपने मित्रों के साथ वहां पहुँचा । स्तूप, विहार, बुद्ध-प्रतिमाएं तथा वहां की संपूर्ण कलाकृति देख कर मन में दो प्रकार के विचार उठे-- प्रथम यह कि व्यर्थ का अपव्यय करके अकर्मण्य लोगों के रहने का आश्रय-स्थल के सिवाय यहां और क्या है? परंतु तत्क्षण यही विचार फिर बिजली के समान कौंधा कि भारत का वह बुद्ध संत बर्मा-वासियों को इतना भा क्यों गया? इतना पूजनीय कैसे बन गया? कोई छोटी-मोटी बात तो इनको इतनी भव्य इमारतें, गुफाएं, विहार, स्तूप आदि बनाने के लिए प्रेरित नहीं कर सकती थी। बारह विद्यार्थियों की हमारी मित्र-मंडली पूरा तनासरिन छिरा घूम आयी। जहां गये वहीं स्तूप, विहार एवं बुद्ध की भव्य प्रतिमाएं। बुद्ध की जो भव्य प्रतिमा मेरे गांव में थी उसकी अपूर्व प्रशांति मन में घर कर चुकी थी, फिर भी रूढ़िवादिता के कारण मेरा मन आर्य संस्कृति के हवन-पूजन, वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत के सामने बुद्ध की शिक्षा को तुच्छ और हेय ही मानता रहा।
उत्तरी बर्मा का तो कहना ही क्या? बर्मा सचमुच स्तूपों और विहारों का देश है। एक बार हम लोग अपने विभाग के सभी विद्यार्थी मौलमीन से सालवीन नदी के मुहाने पर स्थित 'बीलू द्वीप पर पर्यटन के लिए गये। प्राकृतिक सौंदर्य का अपार भंडार, समुद्र के बीच वह द्वीप भी उन्हीं स्तूपों, विहारों तथा बुद्ध प्रतिमाओं से जगमगा रहा था। जहां गया वहीं भव्य आतिथ्य, मानो उन गृहस्थों के लिए अतिथि भगवान ही हो। इनका आतिथ्य भी कितना निर्विकार, स्नेहिल, सद्भावनापूर्ण, निश्छल एवं निष्कपट है। मेरा खोजी मन फिर इसी उधेड़-बुन में लग गया कि बुद्ध में कुछ विशेष बात अवश्य रही होगी, जिसे समुद्री द्वीप पर बसे मोन जाति के लोग भी इतने करीब से जानते हैं और हम समीप रह कर भी कितने अनभिज्ञ हैं?
मौलमीन रहते हुए जब भी पास वाले गांव के ल्हाश्वे परिवार के घर जाता, वह तुरंत अपनी पत्नी को संबोधित करता-- ‘सुनती हो! कॉलेजियन विद्यार्थी आया है-- केला लाना, सादा चाय लाना, पान की मंजूषा लाना आदि-आदि । छोटा-सा गोल टेबल, उसके चारों ओर जमीन पर बिछी चटाई । उसी पर बैठ कर हम स्वल्पाहार करते। शुद्ध शाकाहारी आतिथ्य। यह बात केवल ल्हाश्वे करता हो सो नहीं। चाहे जिसके घर जाओ, वही आतिथ्य करके अपने आपको धन्य मानता। फिर केवल मेरा ही सत्कार होता तो कहता कि शायद मैं कॉलेजियन हूं। नहीं, आगंतुक कोई भी उनके घर पहुँच जाय, उसकी आवभगत वे समान रूप से करते थे। यदि कभी रात्रि को ठहरना पड़ा तो क्या मजाल कि अपने उपयोग का बिस्तर आप को दें। उनके यहां मेहमानों के लिए अलग से बिस्तर, तकिया, चटाई आदि लपेट कर सदा तैयार ऊपर टंगा हुआ रखा रहता। यह मात्र एक स्थान विशेष की बात नहीं, बल्कि संपूर्ण देश के सामान्य गरीब ग्रामीण गृहस्थों तक की यही रीति थी। मैं जहां गया- विशेषकर गांवों में, यही संस्कृति, यही सभ्यता देखी। क्या यह संस्कृति बुद्ध-शिक्षा की ही उपज नहीं है? यही प्रश्न मेरे मन-मानस को भीतर ही भीतर कुरेदता रहता था।
मौलमीन कॉलेज में दो वर्ष रहा। उसके बाद रंगून विश्व विद्यालय में दाखिला हुआ। अब तक पूर्ण 'आर्य समाजी' बन गया था। प्रति रविवार आर्य समाज मंदिर में जाना, वहां हवन-यज्ञ करना, आर्य समाजी भजन गाना, व्याख्यान माला में भाग लेना (अब तक 'साहित्य रत्न' भी पूरा कर चुका था), साहित्य गोष्ठियों में जाना, रंगून के लब्ध-प्रतिष्ठ सत्पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त करना, “आर्य युवक जागृति'' पत्रिका की सेवा करना, आदि कार्यों ने मुझे अध्यात्म के क्षेत्र में अध्ययनशील और कर्मठ बना दिया था। यहां भी विश्व विख्यात श्वेडगोन पगोडा, रंगून नगर के मध्य में स्थित सुले फया पगोडा, विश्व शांति पगोडा- जहां छठा संगायन हुआ था, रंगून के अंचल में स्थित अनेक बड़े-बड़े बुद्ध विहार आदि की कला-कृतियों और धार्मिक प्रतिष्ठानों को देख कर जहां मन 'बुद्ध' के प्रति आदर एवं श्रद्धा से नतमस्तक होता, वहीं दूसरी ओर भीतर ही भीतर मेरा अहं सिर उठाता कि जो भी हो; आर्य संस्कृति, आर्य धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है; हिंदू धर्म ही जगत-गुरु है आदि-आदि। क्योंकि मेरे अंतर्मन में यह बात घर कर गई थी-- 'कहां यह सामान्य बौद्ध धर्म और कहां मेरे, महान हिंदू धर्म वाली आर्य संस्कृति!' लेकिन हवन यज्ञ से, मंत्रोच्चार के साथ हविषा को अग्नि में समर्पित करने से, मेरा अंतर्मन संतुष्ट होता हो, यह बात भी नहीं थी। भीतर झांक कर देखता तो पाता कि मन मानस में उतना ही कल्मष है, उतनी ही कालिमा है।
हमारी संस्कृति और व्यवसाय :
जियावाडी और चौतगा में कुल मिला कर 25-30 हजार भारतीय 1885 ई० से ही वहां बसे हैं। इन दोनों स्थलों को छोड़ कर शेष ब्रह्म देश में भी भारतीयों की संख्या कोई कम नहीं थी। परंतु सभी भारतीय मूल के प्रवासी एक बात में समान थे कि “धनोपार्जन करना है। जियावाडी और चौतगा के लोग मुख्यतः कृषक थे। लेकिन चाहे कृषक हों या नगरवासी व्यापारी, उनको अपने धंधे से ही सरोकार था । बर्मी सभ्यता एवं संस्कृति के बारे में सोच-विचार करना उनके लिए निकम्मी बात थी । कतिपय भारतीय अपवाद स्वरूप भी थे। परंतु सामान्य रूप से वे भी उदासीन ही थे। बस चिंतन-मनन किया या बुद्धि-विलास कर लिया। हमारी पीढ़ी ने शिक्षा के क्षेत्र में अतिशय उन्नति की और सभी की इच्छा यही कि डाक्टर या इंजीनियर बनें। मेरे अपने समय का या इससे पूर्व (1964) का एक भी विद्यार्थी ऐसा नहीं मिलेगा जिसने बर्मी साहित्य पढ़ने में रुचि दिखाई हो । एक भी छात्र/छात्रा नहीं जिसने बर्मा का धार्मिक या पालि साहित्य लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास किया हो। मैं स्वयं भी उन्हीं में से हूं। मैंने जीव-विज्ञान लेकर बी.एस.सी. किया लेकिन मेडिकल में प्रवेश नहीं मिला, अन्यथा डाक्टर बनने की तमन्ना थी। मेरी न कभी पालि साहित्य पढ़ने की इच्छा हुई और न बुद्ध-शिक्षा अपनाने की । ऐसे में वहां रहते हुए जब यह अफवाह सुनाई दी कि भारतीय समाज के लब्ध-प्रतिष्ठ शीर्षस्थ नेताओं में से एक माननीय श्री सत्यनारायण गोयन्का जी बौद्ध हो गये हैं, तो उनके तथाकथित बौद्ध होने की बात सुन कर मन में बड़ी पीड़ा हुई। मैं माननीय श्री गोयन्का जी को छठवीं कक्षा से सुनते आया था। और यह भी कि ''यदि बर्मा में किसी पर लक्ष्मी एवं सरस्वती दोनों एक साथ प्रसन्न हैं तो वे हैं श्री सत्यनारायण जी गोयन्का''-- यह विरुद (कथन) पूरे बर्मा में प्रचलित था। संयोग से एक बार रंगून आने पर उनके घर गया तब देखा कि उनके बौद्ध होने की सारी बातें निरर्थक हैं। वे मुझे सच्चे सनातनी भारतीय ही लगे । मुझे श्री गोयन्का जी प्रथम दर्शन में ही देवोपम लगे। थे । यद्यपि तब तक मैं नहीं जानता था कि वास्तविक धर्म क्या है?
जियावाडी और चौतगा में कुल मिला कर 25-30 हजार भारतीय 1885 ई० से ही वहां बसे हैं। इन दोनों स्थलों को छोड़ कर शेष ब्रह्म देश में भी भारतीयों की संख्या कोई कम नहीं थी। परंतु सभी भारतीय मूल के प्रवासी एक बात में समान थे कि “धनोपार्जन करना है। जियावाडी और चौतगा के लोग मुख्यतः कृषक थे। लेकिन चाहे कृषक हों या नगरवासी व्यापारी, उनको अपने धंधे से ही सरोकार था । बर्मी सभ्यता एवं संस्कृति के बारे में सोच-विचार करना उनके लिए निकम्मी बात थी । कतिपय भारतीय अपवाद स्वरूप भी थे। परंतु सामान्य रूप से वे भी उदासीन ही थे। बस चिंतन-मनन किया या बुद्धि-विलास कर लिया। हमारी पीढ़ी ने शिक्षा के क्षेत्र में अतिशय उन्नति की और सभी की इच्छा यही कि डाक्टर या इंजीनियर बनें। मेरे अपने समय का या इससे पूर्व (1964) का एक भी विद्यार्थी ऐसा नहीं मिलेगा जिसने बर्मी साहित्य पढ़ने में रुचि दिखाई हो । एक भी छात्र/छात्रा नहीं जिसने बर्मा का धार्मिक या पालि साहित्य लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास किया हो। मैं स्वयं भी उन्हीं में से हूं। मैंने जीव-विज्ञान लेकर बी.एस.सी. किया लेकिन मेडिकल में प्रवेश नहीं मिला, अन्यथा डाक्टर बनने की तमन्ना थी। मेरी न कभी पालि साहित्य पढ़ने की इच्छा हुई और न बुद्ध-शिक्षा अपनाने की । ऐसे में वहां रहते हुए जब यह अफवाह सुनाई दी कि भारतीय समाज के लब्ध-प्रतिष्ठ शीर्षस्थ नेताओं में से एक माननीय श्री सत्यनारायण गोयन्का जी बौद्ध हो गये हैं, तो उनके तथाकथित बौद्ध होने की बात सुन कर मन में बड़ी पीड़ा हुई। मैं माननीय श्री गोयन्का जी को छठवीं कक्षा से सुनते आया था। और यह भी कि ''यदि बर्मा में किसी पर लक्ष्मी एवं सरस्वती दोनों एक साथ प्रसन्न हैं तो वे हैं श्री सत्यनारायण जी गोयन्का''-- यह विरुद (कथन) पूरे बर्मा में प्रचलित था। संयोग से एक बार रंगून आने पर उनके घर गया तब देखा कि उनके बौद्ध होने की सारी बातें निरर्थक हैं। वे मुझे सच्चे सनातनी भारतीय ही लगे । मुझे श्री गोयन्का जी प्रथम दर्शन में ही देवोपम लगे। थे । यद्यपि तब तक मैं नहीं जानता था कि वास्तविक धर्म क्या है?
सद्धर्म से संयोग :
राजनैतिक विडंबना कहिये या अप्रत्याशित घटना । उस स्वर्ण-भूमि के विछोह को सहना पड़ा, उसे त्यागना पड़ा। छूट गयी शस्यश्यामला प्यारी जन्म-भूमि । 22 नवंबर 1970 को भारत आया । सौभाग्य मानूंगा कि कुछ अतिशय दुःखद घटनाओं ने मुझे भारत आने के तीन, सवा तीन माह बाद ही 1 मार्च 1971 को विपश्यना साधना में शामिल होने की परिस्थिति पैदा कर दी। श्री सत्यनारायण गोयन्का जी तो 1969 में ही बर्मा से भारत आ चुके थे। उनके द्वारा संचालित 28 वां शिविर मुंबई की नेमानी बाड़ी धर्मशाला में लगा था। विपश्यना साधना के इस 10 दिवसीय शिविर में से गुजरना मेरे जीवन का अद्भुत अनुभव रहा। मेरी कायापलट हो गयी, मैं निहाल हो गया। अब सही माने में समझा कि आर्य संस्कृति क्या होती है। अपने सभी प्रश्नों का सही माने में उत्तर पा लिया था। इस शिविर ने मुझे सचमुच आर्य बना दिया। मैं विकार विमुक्त तो नहीं हुआ लेकिन विकारों से मुक्त होने का एक पथ पाया था, एक विधि पायी थी।
राजनैतिक विडंबना कहिये या अप्रत्याशित घटना । उस स्वर्ण-भूमि के विछोह को सहना पड़ा, उसे त्यागना पड़ा। छूट गयी शस्यश्यामला प्यारी जन्म-भूमि । 22 नवंबर 1970 को भारत आया । सौभाग्य मानूंगा कि कुछ अतिशय दुःखद घटनाओं ने मुझे भारत आने के तीन, सवा तीन माह बाद ही 1 मार्च 1971 को विपश्यना साधना में शामिल होने की परिस्थिति पैदा कर दी। श्री सत्यनारायण गोयन्का जी तो 1969 में ही बर्मा से भारत आ चुके थे। उनके द्वारा संचालित 28 वां शिविर मुंबई की नेमानी बाड़ी धर्मशाला में लगा था। विपश्यना साधना के इस 10 दिवसीय शिविर में से गुजरना मेरे जीवन का अद्भुत अनुभव रहा। मेरी कायापलट हो गयी, मैं निहाल हो गया। अब सही माने में समझा कि आर्य संस्कृति क्या होती है। अपने सभी प्रश्नों का सही माने में उत्तर पा लिया था। इस शिविर ने मुझे सचमुच आर्य बना दिया। मैं विकार विमुक्त तो नहीं हुआ लेकिन विकारों से मुक्त होने का एक पथ पाया था, एक विधि पायी थी।
अब तक स्थितप्रज्ञता की बातें केवल किताबों में पढ़ा करता था। अनासक्त होने के बारे में ग्रंथ पढ़ता था, कैवल्य ज्ञान के संबंध में चर्चा करता था, वेद-उपनिषद के ऋषियों की ऋचायें पढ़ी थीं। लेकिन इन सब ने केवल सिद्धांत दिया था, बौद्धिक दर्शन दिया था। उसने धर्म के सैद्धांतिक पक्ष को एक हद तक उजागर भी किया था, इसका अवमूल्यन नहीं करता। परंतु कोई व्यक्ति विकारों से मुक्त होकर स्थितप्रज्ञ होने की विधि भी सिखाता है, इसी जीवन में धर्म के व्यावहारिक पक्ष को भी उजागर करता है; यह बात कल्पनातीत थी। राग, द्वेष, मात्सर्य से भरा हुआ मानस लिए विकारों से ग्रसित एवं दुःखी था। पहली बार अनुभव किया कि सौ में से एकाध प्रतिशत तो छुटकारा पाया। सबसे बड़ी बात यह हुई कि एक विधि हाथ लग गयी। इस विधि पर चल कर क्रमशः सौ-में-से-सौ प्रतिशत विकार मुक्त हुआ जा सकता है, यह दृढ़ता जागी । प्रश्नों के घूघट के पट खुल गये ।
सम्राट अशोक और गुरु-शिष्य परंपरा :
प्रियदर्शी अशोक के गुरुदेव महामोग्गलिपुत्ततिस्स थेर ने ब्रह्मदेश में सोण और उत्तर दो अरहंत भिक्षुओं (थेरों) को भेजा था। उन दोनों संतों ने उस सुवर्णभूमि में विपश्यना की विधि का सम्यक रूप से बीज-वपन किया था जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी तेईस सौ वर्षों तक पनपता रहा, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता रहा। गुरु-शिष्य परम्परा से भदंत लैडी सयाडो तक जीवित रहा। फिर उन्हीं की कृपा से यह विपश्यना विद्या गृहस्थ आचार्य सया तै जी और आचार्य सयाजी ऊ बा खिन को मिली और उनसे पूज्य गुरुदेव श्री सत्यनारायण गोयन्का जी को। अब यह सारे संसार के दुःखियारे लोगों का कल्याण कर रही है। केवल प्रवचनों या धर्म-उपदेशों ने बर्मी जनता को नहीं बदला। इससे बदल भी नहीं सकता था। बदला धर्म के व्यावहारिक पक्ष ने, अनुभवजन्य ज्ञान ने । बर्मा ही क्यों संपूर्ण एशिया के देशों को बदल डाला। जिसे भारतीय संस्कृति कह कर मेरा मन संकुचित हुआ था अब समझा कि यही तो मानव धर्म था। सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक धर्म था। इसे जो धारण करे वही सुख-शांति पाये, निहाल हो जाय ।
प्रियदर्शी अशोक के गुरुदेव महामोग्गलिपुत्ततिस्स थेर ने ब्रह्मदेश में सोण और उत्तर दो अरहंत भिक्षुओं (थेरों) को भेजा था। उन दोनों संतों ने उस सुवर्णभूमि में विपश्यना की विधि का सम्यक रूप से बीज-वपन किया था जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी तेईस सौ वर्षों तक पनपता रहा, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता रहा। गुरु-शिष्य परम्परा से भदंत लैडी सयाडो तक जीवित रहा। फिर उन्हीं की कृपा से यह विपश्यना विद्या गृहस्थ आचार्य सया तै जी और आचार्य सयाजी ऊ बा खिन को मिली और उनसे पूज्य गुरुदेव श्री सत्यनारायण गोयन्का जी को। अब यह सारे संसार के दुःखियारे लोगों का कल्याण कर रही है। केवल प्रवचनों या धर्म-उपदेशों ने बर्मी जनता को नहीं बदला। इससे बदल भी नहीं सकता था। बदला धर्म के व्यावहारिक पक्ष ने, अनुभवजन्य ज्ञान ने । बर्मा ही क्यों संपूर्ण एशिया के देशों को बदल डाला। जिसे भारतीय संस्कृति कह कर मेरा मन संकुचित हुआ था अब समझा कि यही तो मानव धर्म था। सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक धर्म था। इसे जो धारण करे वही सुख-शांति पाये, निहाल हो जाय ।
इस शिविर ने मेरे जीवन को आमूल चूल परिवर्तित कर दिया। अब माननीय श्री गोयन्का जी मेरे लिए पूज्य गुरुदेव थे। पहली बार मेरे मन में अपने समस्त शिक्षा-गुरुओं के प्रति, मित्रों के प्रति, बर्मा-वासियों के प्रति कृतज्ञता का भाव जागृत हुआ था। अहं का सहस्रांश ही पिघला था फिर भी जो प्रश्न बर्मा में रहते हुए मेरे मन में जागृत हुए थे, यहां उन सब का समाधान मिल गया था। उस देश के प्रति जो स्नेह, प्यार, आदर अब भारत आकर उमड़ा वह वहां रहते हुए कभी नहीं उमड़ा था। उसे छोड़ चुकने के कारण नहीं, बल्कि सही माने में भारतीय अध्यात्म जगत और वस्तुतः समस्त जीव-जगत के सर्वश्रेष्ठ संत गौतम बुद्ध और उनके सिखावन को आचरित कर बर्मा वासियों में जो परिवर्तन आया था, उसे अनुभव करके जानने के कारण। उसे स्वयं चखने के कारण।
बर्मा वासियों की रग-रग में जो शील सदाचार है- मन को वश में करने की जो विधि है; चित्त को निर्मल करने की जो विद्या है, भले थोड़े-से लोगों में ही थी (शेष कर्म-कांडी हो गये थे), वह समझ में आयी । बुद्ध ने जो सिखाया वह मात्र शील-सदाचार का कोरा उपदेश नहीं था। वह तो अपने साढ़े तीन हाथ की काया में अनुभूति के स्तर पर मन को वश में करते हुए उसे नितांत निर्मल करने की विधा थी, विद्या थी जो हर तबके के लोगों का काया-पलट करती हुई; उनके हाड़-मांस में रच-बस गई है। अब समझ में आया कि स्वर्ण भूमि की सामान्य ग्रामीण जनता ने किन बातों से प्रेरित होकर गांव-गांव में विहार, गुफाएं और चैत्य निर्मित किये हैं। बुद्ध ने जो व्यावहारिक धर्म सिखाया था उसे अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनुभूति के स्तर पर जीवन में उतार सकता है। इसी करुणा से प्रेरित उस भिक्षुप्रवर ने सातवीं कक्षा के मेरे जैसे छात्र को अध्ययन करने के लिए वह कक्ष दे दिया जिसमें वे स्वयं ध्यान करते थे। वे छुआ-छूत को मानने वाले कोई महंत नहीं, बल्कि शील, समाधि, प्रज्ञा को जानने वाले धर्मप्राण भिक्षु थे। उनके मन में केवल करुणा थी। अब समझा उनके आतिथ्य सत्कार को, सद्भाव और स्नेह को । बात-बात पर उनकी जुबान कर "अनिस्सा, फया" मुखरित होता था । अनिस्सा यानी अनिच्च, अनित्य । ठोकर लगी तो उनके मुँह से 'अनिस्सा''- अनित्य है, यही शब्द निकलता था। यह सदियों से उनके मन-मानस के अंतराल में बस गया है। उस प्रकार के अरहंतों से वह स्वर्ण भूमि हमेशा फलती-फूलती रही है। वहां की जनता ऐसे लोगों को देखते आ रही है। प्रत्यक्षतः ऐसे अरहंत संत वहां रहे हैं जो सचमुच अनासक्त और स्थित-प्रज्ञ का जीवन जीते रहे हैं।
वहां की जनता का भोलापन समझा, उनकी संतुष्टि का राज समझा। समझा उनकी समता एवं जीवन के प्रति साक्षीभाव को । अरे भाई, उनको ज्ञात है- “सब्बे सखारा वयधम्मा', सभी संस्कार व्यय धर्मा है। उत्पन्न होना नष्ट हो जाना, उत्पाद होना व्यय हो जाना, यही ध्रुव धर्म है। फिर इसके प्रति चिपकाव क्यों! यह उनके लिए अनुभवजन्य है, भले थोड़े लोग यंत्रवत ही बोलते हों परंतु यह सैद्धांतिक धर्म भी उनमें भीतर तक स्थित है। उनके लिए यह दर्शन शास्त्र और बुद्धिविलास का विषय नहीं है। वहां की आम जनता का जन-मानस किसी की उन्नति से ईष्र्या नहीं करता। वह समतापूर्ण जीवन जीता है। उसके लिए जीवन में समग्र रूप से संतोष है। जितना है उतने में संतुष्ट हैं। यह उत्कृष्ट संस्कृति मूलतः भारत की बुद्ध-परंपरा की उपज है जो मानव मात्र के लिए उपयोगी है। इसको उस पड़ोसी देश ने दो-ढाई हजार वर्षों से संभाल कर रखा। केवल सैद्धांतिक पक्ष यानी, परियत्ति ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक पक्ष पटिपत्ति को भी संभाल कर रखा।
भारत के आध्यात्मिक जगत और राजनीति का जो स्वर्ण युग कहलाता है - वह सम्राट अशोक के पूर्व के कुछ सौ वर्ष तथा उसके पश्चात के कुछ वर्षों का इतिहास है। यदि भारत के इतिहास से उक्त पांच-सात सौ वर्ष निकाल दिये जायें तो न भारत जगतगुरु कहलायेगा और न ही उसका स्वर्णिम इतिहास उजागर होगा। यही तो संपूर्ण विश्व की सांस्कृतिक धरोहर है, विरासत है, विश्व धरोहर है। बुद्ध वाणी को पालि साहित्य कहते हैं। यह पालि भाषा में है। बर्मा की धर्म भाषा भी पालि है। पालि का आधार प्राप्त करके बर्मी लिपि में वह सारी वाणी भरी पड़ी है।
पूज्य गुरुदेव ने गुरुवर सयाजी ऊ बा खिन के चरणों में 14 वर्षों तक बैठ कर जिस भारतीय धरोहर का व्यावहारिक अनुशीलन किया, वह आज के विश्व के लिए कितनी प्रासंगिक है, यह विगत 27-28 वर्षों में प्रमाणित हो चुका है। मैं भी अपने पूज्य गुरुवर के सान्निध्य में लगभग 26 वर्षों से विपश्यना का अभ्यास करते आ रहा हूं। उन्होंने मुझे जो सत्साहित्य पढ़ने तथा अनुवाद करने के लिए दिया, उनमें से कतिपय बर्मी शास्त्रीय ग्रंथ भी हैं। उनमें से थोड़े से साहित्य का अनुवाद ही यह प्रमाणित करता है कि संपूर्ण बर्मी साहित्य में भारत का अतीत, उसका भूगोल, उसके नगर, उसकी कहानियां और उसका उत्कृष्ट अध्यात्म प्रामाणिक रूप से संभाल कर रखा गया है। भारत तथा बर्मा का प्राचीन ऐतिहासिक संबंध कितना सुदृढ़ रहा है, घनिष्ठ रहा है, यह सारा कुछ उजागर होने लगता है।
यह विद्या प्राप्त करके तथा ऐसे संस्थान में सेवा प्रदान करके मैं धन्य हुआ । मेरा मानव जीवन सार्थक हुआ। इस विद्या के प्रचार प्रसार से संपूर्ण मानवजाति का मंगल हो, यही धर्म कामना है!
राम अवध वर्मा,
मार्च, 1997 (दिवंगत विपश्यना आचार्य श्री वर्माजी ने 'विपश्यना विशोधन विन्यास' में सेवा देते हुए लगभग 65 छोटी-बड़ी पुस्तकों एवं अनेक पत्रकों, यात्रा-विवरणों और लेखों आदि का बरमी से हिंदी में अनुवाद करके स्वयं टंकित किया, जो यहां के शोध-विभाग तथा अन्य अनेक लोगों के लाभार्थ बहुत उपयोगी हैं।)
अप्रैल 2015 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
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🌷I Became an Arya in the True Sense🌷
Early Childhood:
Myanmar or Burma or The Golden Land is the country where I was born in the village of Nyovinda, near Jiyawadi about 147 miles north of the capital city Yangon in a hamlet redolent with coconut, mango, banyan and shirish trees and a natural tranquil atmosphere. Nyovinda means ‘the place of the banyan tree’. Nearby to the east was the Yangon - Mandalay highway with railway tracks running parallel to it.
Beyond the flat plains of this area far on the horizon were the Kareni Yoma mountains where I used to gaze at the pink glow of the rising sun. In the evening it returned to rest behind the Peguyoma Mountains. On southernmost edge of this mountain is the world renowned Shwedagon Pagoda.
Another village of about 40 - 50 Burmese families nestled in the green tranquil land, a short distance from my village. Between these hamlets were our farmland and a pristine, serene Buddha Vihara from where every morning I could hear the chants that went …. Namo tassa bhagavato arahato sammāsambuddhassa.
One time when I was in seventh standard, while I was on study leave during board exam time, I went to the vihara and met the senior monk requesting him for a quiet room to study in. He gave me permission to study in a tiny hut in a remote, quiet corner of the vihara. The esthetically crafted tranquil bamboo hut happened to be his meditation place but no one else used the retreat. With profound compassion for me he allowed me to study in that room.
🌷Youthful Beliefs🌷
From what I had absorbed through my youthful mind, from my parents and about 22,000 Indians living in the area, was the belief that Indians were superior to the Burmese. They were meat eaters while we were vegetarians besides other factors which weighed in our favour. We firmly believed in their cultural inferiority. Yet I wondered how these people, inferior as their culture was, built such magnificent stupas, viharas and statues of the Buddha! What could have motivated them to create these exalted structures on such a large scale as they did! Why indeed did that Saint of India, the Buddha, have such a profound impact on these people even though he never visited Burma! What was it about him!
Even though the powerful statue of the Buddha in my village had made a deep impact on me, yet my dogmatic mind considered the Buddha’s Teachings as inferior to the pujas, and hawans as well as the Upanishads, Ramayana and other scriptures of the Aryan Hindu culture.
However I continued to be struck by the awe inspiring stupas and viharas that dotted the countryside. Once with a group of friends I roamed the Tanasarin area and I marvelled, once again at the now familiar sight of magnificent stupas and viharas. Indeed, north Burma is filled with them.
Moulmein College where I studied was nestled in a valley surrounded by mountains. Nearby on the mountain was a quiet vihara. One day I went there with my friends. Upon seeing the serene beauty of the place I thought: what a wasteful sanctuary for lazy people! Instantly the following thought arose: certainly there is more to it than I understand. Why dṣs Prince Gautama of India appeal so much to these people! Why is He so deeply worshipped, inspiring them to such fine creations! Another time a group of students went to Bilu Kyun Island situated in the Salween River. The exquisite island sparkled not just with beauty but, once again with beautifully made viharas and statues. While travelling I was greeted with warm and sincere hospitality wherever I went, a guest was truly a god for the Burmese. From where did these values come! My enquiring mind sought an answer to what these simple Buddha worshipping Mon tribal villagers knew about Him that we didn’t.
While at college, whenever I visited the Lha Shwe family in the neighbouring village, they would greet me with bananas, tea, ‘betel nut box’ etc. A small table would be laid out around which a mat was spread. We would sit and enjoy our simple vegetarian fare.
Not just the Lha Shwe’s but wherever one went, the villagers honoured the guest very warmly. In case oneneeded to spend the night anywhere, a pillow, mat and bedding were always rolled and hung up in welcoming readiness. This was not an isolated instance but a way of life all over the countryside in Myanmar. Wherever I went, especially in villages, this was the custom. Was this the outcome of the Buddha’s Teachings? This question continued to baffle me.
After two years at Moulmein College I joined Yangon University. By now I was disillusioned by Hindu dharma with its rites and rituals and I had become an Arya Samaj (Hindu reformist movement) follower. Every Sunday I would go to the Arya Samaj temple and perform yagna, sing bhajanas, contribute to their magazine, visit renowned spiritual people, and attend literary meets. These activities had made me a spiritual seeker.
Busy as I was with my life as an Arya Samaj follower, I could however not ignore the world famous Shwedagon Pagoda, Sule Pagoda and many other viharas, including the World Peace Pagoda where the Sixth Saªgāyana gathering had taken place right in the heart of Yangon. Filled with these dhamma vibrations, I would bow down in reverence; yet still my ego whispered, the Aryan Hindu culture is the best, Hindu dharma is the teacher of the world.
It was not that my inner being was satisfied with my current spiritual practice because whenever I looked within I could see the impurities that lurked there.
Since long back a large number of Indians had settled in Myanmar and were by and large prosperous. By 1885, about 25,000 – 30,000 Indians had settled in Jiyawadi and Chautaga. They were mostly farmers. The Indian Diaspora had one thing in common: to focus on earning a livelihood. To dwell on Burmese culture was a waste of time. My generation studied hard and aspired towards higher education. Nearly everyone wanted to be an engineer or a doctor. Possibly there was not one student at that time (around 1964), who showed an inclination towards Burmese literature or studying Buddha’s Teachings. No one opted to study Burmese religion or Pali literature including me. I studied biology and wanted to become a doctor though I did not get an admission in the medical college.
🌷Introduction to Vipassana🌷
Around this time a rumour started that a leading light of the Indian community, one Mr. S.N. Gṣnka had become a Buddhist. It disturbed me. I had been hearing his talks since I was in sixth standard. One day when I happened to go to his residence in Yangon, I met him and found that the rumours of his becoming a Buddhist were unfounded and I was relieved. I found him to be a true Sanātani Hindu. I was always impressed by him and his spiritual understanding, though of course I didn’t yet understand true dhamma.
An unexpected turn of events brought about a sudden and unbearable separation from Myanmar. I had to leave my beloved motherland and come to India in November 1970. Call it a stroke of luck that some incredibly painful events in life compelled me to attend a Vipassana camp in March 1971 a few months after landing in India. Shri Satyanarayan Gṣnka had already come to India in 1969 and the 28th Vipassana camp was about to begin under his guidance in Bombay. The experience of those 10 days was magical. I felt totally transformed and blessed. I had at last found the answers to my questions. Now I understood the meaning of Arya Culture. Indeed the experience made me an Arya in true sense. Certainly I was not yet free of defilements, but I had found the way out of them. Filled as I was with anger, desires and frustration I was suffering, but I felt that I was perhaps free of at least a fraction of my misery. I was confident that by walking this path I could be free of all miseries. Truth was revealed and I had the answers.
So far I had only read about equanimity of mind. I had read scriptures on detachment and used to discuss the ultimate truth of the Vedas and Upanishads. I had read the writings of Rishis (Saintly persons) of yore. I now felt that these had given me only theoretical knowledge. These are not to be devalued but the fact that someone actually teaches the way out of defilements, teaches how to become equanimous and reveals the practical aspect of Dhamma in this life here and now; this was beyond my imagination.
🌷Ashoka and the Tradition of Teacher to Pupil🌷
Emperor Ashoka’s teacher Moggaliputtatissa Thera had sent two fully liberated monks Sona and Uttara to Myanmar (Burma). These two masters had planted the seed of Vipassana in the Golden Land, and this tradition continued to flourish in an unbroken chain from teacher to pupil for 2,300 years until the time of Ledi Sayadaw.
Ledi Sayadaw then spread these teachings to the householder Saya Thet Gyi and the chain continued from him to Sayagyi U Ba Khin and was then passed on to Shri S.N. Gṣnka, all three of them being highly respected Teachers.
Now Vipassana is healing and helping suffering masses of the world’s humanity. Mere lectures did not change the people of Myanmar. They could not! What transformed them was the practical aspect of Dhamma, the experiential wisdom of Dhamma. This was not just in Myanmar, it changed people in many other Asian countries, and now around the world.
The Vipassana camp had transformed my life. Now Gṣnkaji was my guru. Yet I was filled with gratitude towards my previous teachers, friends and the Burmese people that had contributed to my growth – I was grateful to them all. I had never felt the kind of love for Myanmar previously that I felt after arriving in India, not because I had left there, but because of the wholesome changes that I had witnessed in the Burmese people owing to the world’s finest spiritual master, the Buddha. Now in India I had tasted the same nectar. Now I understood the meaning of ‘true dhamma'; applicable to all, and for all times. Truly a blessing for all those who practice it.
I understood the meaning of Vipassana, the technique to control and purify the mind that seemed so natural in Burmese people; albeit not in everyone. The Buddha did not give mere theoretical teachings, He taught to control the mind in order to purify it at the deepest experiential level.
Flowing ceaselessly for 2500 years in Myanmar the teachings of the Buddha seem to have permeated people’s very being. People make efforts to practice true dhamma and live an equanimous life. unenvious of others’ success, they work at being peaceful and contented with their lot. I understood their equanimity and witnessing nature of mind. They seem to know the import of ‘sabbe sankhārā vayadhamma’ – all sankhārās are passing away. Arising and passing away – such is the eternal nature of existence. This is an experiential truth for them not just a theoretical knowledge, even if it remains alive within relatively few hearts. I understood finally what inspired the simple, rural folks to build viharas, stupas and meditation caves in village after village.
The teachings of the Buddha can be imbibed by anyone as per his or her level of understanding. It had inspired that compassionate bhikkhu who let the small boy study in his meditation hut. He was not a so called high saint with his ritualistic beliefs but a Dhammiko bhikkhu who understood the essence of Sīla, samādhi, paññā. I could now see the depth of his compassion and hospitality.
The glorious teachings and tradition of the Buddha was spread from India by the efforts of selfless bhikkhus but was kept untarnished by the neighbouring nation for 2,500 years; not just in its theoretical aspect, but in its practical aspect as well – pariyatti and paμipatti. Buddha’s teachings were maintained in the Pali language which has also been maintained in Myanmar. Thus all the sacred texts are well preserved in Myanmar in Pali.
India’s golden period spiritually and politically is the period ranging from a few hundred years prior to Emperor Asoka’s time and some years after him. Without this 500 – 700 year period of India’s history, India would neither be considered the spiritual head of the world nor would its ‘golden period’ be evident. This is the cultural - spiritual legacy of the entire world.
Acharya Gṣnkaji practiced reverentially with his teacher Sayagyi U Ba Khin for 14 years and then has been distributing the teachings in India and around the world for the past 28 years (March 1997) which are proving so very relevant and beneficial to the world today.
Guruji asked me to study and translate a number of classic Dhamma texts, including Burmese classical texts. Just a few translations of these texts reveal to mehow magnificent India’s history is, its geography, stories of its lands and above all its glorious spiritual traditions. All have been carefully preserved in Burmese literature. The texts also reveal the depth of the ties between India and Myanmar since ancient times.
I was blessed to have been able to receive an Exalted Dhamma and to have been able to serve the Dhamma mission. My human life has fulfilled its true purpose.
May the entire humanity be benefitted by the spread of Pure Dhamma!
-Ram Avadh Verma.
March - 1997.
March - 1997.
(Shri Ram Avadh Verma, who died a few years ago, was a Vipassana teacher. He had also worked sincerely for the Vipassana Research Institute (VRI) and translated about 65 books, small articles, travelogues etc. from Burmese into Hindi which continue to benefit research students and many others.)