HOW TO BOW..!
1) प्रणाम करते हुए पहली बार झुकने के पूर्व साधक अपने सिर के सिरे(Top of head) पर उदय- व्यय की तरंगो की अनुभूति करे और अनित्यबोध जगाते हुए नमस्कार करे।
2) दूसरी बार इसी उदय-व्यय वाली संवेदना के आधार पर दुखबोध जगाते हुए नमन करें।
3) तीसरी बार अनात्म बोध जगाते हुए ही नमन करे।
🌷 तो ही सही माने में नमस्कार हुआ, नही तो यंत्रवत(mechanical) कर्मकांड(ritual) हो गया।
यही प्रज्ञापूर्वक नमन है, यही सही वंदना है, सही पूजन है, सही सम्मान है।
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🌹गुरूजी, किसी का वंदन कैसे करें, पूजा कैसे करें?
🌹गुरूजी, किसी का वंदन कैसे करें, पूजा कैसे करें?
उत्तर--पूजन अर्चन, मान सम्मान दो प्रकार के होतें हैं।
एक तो आमिष यानी सांसारिक जो अत्यंत सुखद फलदायी है।
दूसरा निरामिष यानी धर्माचरण के आधार पर किया गया पूजन जो और अधिक सुखद फलदायी है।
एक तो आमिष यानी सांसारिक जो अत्यंत सुखद फलदायी है।
दूसरा निरामिष यानी धर्माचरण के आधार पर किया गया पूजन जो और अधिक सुखद फलदायी है।
🍁जैसे माता पिता अपनी संतान को अपने से अधिक सांसारिक कार्यकुशलता में दक्ष हुआ देखकर अत्यंत संतुष्ट प्रसन्न होते हैं, वैसे ही एक धर्माचार्य अपने शिष्य को
धर्मचर्या में प्रवीण हुआ देखकर अत्यंत संतुष्ट प्रसन्न होता है।
साधना की गहराईओं का प्रशिक्षण देने वाला आचार्य अपने शिष्यो को साधना के आधार पर नमन करना सिखाता है।
धर्मचर्या में प्रवीण हुआ देखकर अत्यंत संतुष्ट प्रसन्न होता है।
साधना की गहराईओं का प्रशिक्षण देने वाला आचार्य अपने शिष्यो को साधना के आधार पर नमन करना सिखाता है।
💐मेरे पूज्य गुरुदेव अपने शिष्यो को धर्ममयी वंदना करने का महत्त्व बताते थे।हम जब उन्हें पंचांग प्रणाम करते थे यानि दोनों घुटने, दोनों हाथ और सिर फर्श को छुआकर और फिर हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे तो कभी कभी वे पूछ बैठते थे- कैसे प्रणाम किया रे? यंत्रवत या धर्मवत?
यंत्रवत प्रणाम तो सब करते हैं।
यंत्रवत प्रणाम तो सब करते हैं।
🍁परंतु एक पके हुए विपश्यी साधक को विपश्यना के आधार पर धर्मवत नमन करना चाहिये।
विपश्यना करते करते एक अवस्था आती है जब सारा मृण्मय शरीर चिन्मय हो जाता है।
ठोस लगने वाला पार्थिव शरीर परमाणुओ के पुंज के अनुरूप तरंगित हो जाता है। शरीर का सारा ठोसपना, सारी सघनता ख़त्म हो जाती है।केवल अत्यंत सूक्ष्म प्रकम्पन ही प्रकम्पन।
तो गुरुदेव पूछते थे कि नमन करते हुए इन उर्मिल संवेदनाओ को महसूस कर रहे हो या नही। यह उर्मिल सम्वेदनाएँ ब्रह्मरन्ध्र के स्थान पर हों या नासिकाग्र के स्थान पर हों, या हृदयविंदु के स्थान पर हों या फिर सारे शरीर में।
विपश्यना करते करते एक अवस्था आती है जब सारा मृण्मय शरीर चिन्मय हो जाता है।
ठोस लगने वाला पार्थिव शरीर परमाणुओ के पुंज के अनुरूप तरंगित हो जाता है। शरीर का सारा ठोसपना, सारी सघनता ख़त्म हो जाती है।केवल अत्यंत सूक्ष्म प्रकम्पन ही प्रकम्पन।
तो गुरुदेव पूछते थे कि नमन करते हुए इन उर्मिल संवेदनाओ को महसूस कर रहे हो या नही। यह उर्मिल सम्वेदनाएँ ब्रह्मरन्ध्र के स्थान पर हों या नासिकाग्र के स्थान पर हों, या हृदयविंदु के स्थान पर हों या फिर सारे शरीर में।
🌻कहिं भी होती हुई इस संवेदना को जानते हुए वंदना करें तो पुरानी भाषा में कहते थे- वेदजातो कतनजली।
अतः शरीर तथा चित्त की उर्मिलता को अनुभव करते हुए, और इन उर्मिओ का जैसा स्वभाव है उसको समझते हुए नमन किया तो
विपशयनामयि धर्मवत वंदना हुई।
अतः शरीर तथा चित्त की उर्मिलता को अनुभव करते हुए, और इन उर्मिओ का जैसा स्वभाव है उसको समझते हुए नमन किया तो
विपशयनामयि धर्मवत वंदना हुई।
🌺गुरुदेव द्वारा पूछे गए इस प्रश्न को लेकर एक बार मेरे मन में चिंतन चला कि गुरुदेव जब बदले में जब हमे मंगल मैत्री देतें हैं, आशीर्वाद देते हैं तब वे भी धर्मवत ही देते होंगे।
जैसे गुरुदेव ने मेरे मन की बात जान ली और तुरंत कहा, ' जैसे मै तुम्हे धर्मवत नमन करने को कहता हूँ वैसे ही मै भी धर्मवत मंगल मैत्री के आशीर्वाद देता हूँ।
हृदयक्षेत्र में भवंग बिंदु के स्थान पर अनित्य बोधिनी तरंगो का अनुभव करते हुए 'मंगल हो, कल्याण हो '
यह आशीर्वाद देता हूँ।
मैंने देखा कि इसलिये उनकी मंगल मैत्री सामान्य मंगल मैत्री के मुकाबले बहुत प्रभावी होती थी, बलवती होती थी, फलवती होती थी।
जैसे गुरुदेव ने मेरे मन की बात जान ली और तुरंत कहा, ' जैसे मै तुम्हे धर्मवत नमन करने को कहता हूँ वैसे ही मै भी धर्मवत मंगल मैत्री के आशीर्वाद देता हूँ।
हृदयक्षेत्र में भवंग बिंदु के स्थान पर अनित्य बोधिनी तरंगो का अनुभव करते हुए 'मंगल हो, कल्याण हो '
यह आशीर्वाद देता हूँ।
मैंने देखा कि इसलिये उनकी मंगल मैत्री सामान्य मंगल मैत्री के मुकाबले बहुत प्रभावी होती थी, बलवती होती थी, फलवती होती थी।
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"Having tasted the Dhamma, he had realized its value. Filled with gratitude, he naturally wished to pay respects; but he had understood that actually one bows down not to a personality but to the Teaching, the Truth, for which the teacher is only a vehicle."
"Having tasted the Dhamma, he had realized its value. Filled with gratitude, he naturally wished to pay respects; but he had understood that actually one bows down not to a personality but to the Teaching, the Truth, for which the teacher is only a vehicle."
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🌷 Question: What are the benefits of bowing down to pay respect?
Goenkaji: In the eyes of most people when you bow down to somebody you pay respect to that person, and that is all there is to it. For a Vipassana meditator it is really worthwhile keeping the attention at the top of the head and bowing down to somebody who is giving mettā.
I remember my teacher instructed us how to bow down: The first time should be with awareness of sensations at the top of the head and the understanding of anicca (impermanence), the second time should be with the understanding of dukkha (suffering), and the third time should be with the understanding of anattā (lack of self).
At times when we bowed down, he would ask, “Did you bow down properly?”
When you are observing anicca in this area you understand, “Look, everything is changing.”
When you observe dukkha you understand, “Whatever is changing is a source of dukkha; it can’t be a source of happiness.”
With anattā you understand, “There is no ‘I’ in this, no ‘mine’, it is just a mind-matter phenomenon.”
So the way to bow down is with understanding and awareness of sensations at the top of the head.