🌷Dhamma son of Myanmar🌷
Modern-day Asoka.
-Venerable Bhante Ashin Nyanissara.
Modern-day Asoka.
-Venerable Bhante Ashin Nyanissara.
(संगाई, बरमा के प्रसिद्ध भिक्षु सितगू सयाडो (भदंत जाणीसारजी) पूज्य गोयन्काजी के बहुत बड़े प्रशंसक हैं। उनके नेतृत्व में पूज्य गोयन्काजी के अस्थि-विसर्जन के समय बरमा में रंगून, मचीना और मांडले में हजारों लोग एकत्र हुए। मांडले में सैकड़ों भिक्षु-भिक्षुणियों ने धम्ममण्डल वि. के. से पमादी जेटटी तट तक अस्थि-कलश की यात्रा में निम्न गाथा का सस्वर पाठ किया/ पांच बड़ी नौकाओं पर सवार होकर इरावती नदी के मध्य में चारों ओर से गोलाकार घेरा बनाकर सब लोगों ने एक हजार प्रदीप प्रवाहित कर श्रद्धांजलियां अर्पित की। कलश-यात्रा आरंभ करने के पूर्व केंद्र पर संघदान का आयोजन किया गया था। उपस्थित भिक्षुसंघ और गृहस्थों को संबोधित करते हुए उन्होंने निम्न शब्दों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।)
अनिच्चा वत सखारा, उप्पादवयधम्मिनो।
उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं खूपसमो सुखो।।
-- सचमुच सारे संस्कार अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियां, वस्तू, व्यक्ति अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना, यह तो इनका धर्म ही है, स्वभाव ही है। विपश्यना साधना के अभ्यास द्वारा उत्पन्न होकर निरुद्ध होने वाले इस प्रपंच का जब पूर्णतया उपशमन हो जाता है-- पुनः उत्पन्न होने का क्रम समाप्त हो जाता है, उसी का नाम परम सुख है, वही निर्वाण-सुख है।
उप्पज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं खूपसमो सुखो।।
-- सचमुच सारे संस्कार अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियां, वस्तू, व्यक्ति अनित्य ही तो हैं। उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना, यह तो इनका धर्म ही है, स्वभाव ही है। विपश्यना साधना के अभ्यास द्वारा उत्पन्न होकर निरुद्ध होने वाले इस प्रपंच का जब पूर्णतया उपशमन हो जाता है-- पुनः उत्पन्न होने का क्रम समाप्त हो जाता है, उसी का नाम परम सुख है, वही निर्वाण-सुख है।
कुशीनारा के दक्षिण-पश्चिम में जब भगवान का परिनिर्वाण हो - रहा था तब तावतिंस से शक्र देवताओं सहित इस पृथ्वी पर (मनुष्यलोक में) उतरे और भिक्षुसंघ के सामने इसी गाथा का पाठ किया। महाब्रह्मा सहित बड़ी संख्या में ब्रह्मागण एकत्र होकर पुष्पांजलि अर्पित किए। उस दिन बहुत से भिक्षुओं का संघ भगवान को अंतिम श्रद्धांजलि देने एकत्र हुआ था। ठीक उसी तरह जैसे आज हम श्री गोयन्काजी को श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्र हुए हैं। आयुष्मान सारिपुत्र और महामोग्गल्लान पहले ही निर्वाण प्राप्त कर चुके थे। आयुष्मान महाकाश्यप जो शासन का काम आगे बढ़ाने वाले थे, आ नहीं पाये थे। इसलिए पार्थिव शरीर की दाह-क्रिया का भार आयुष्मान अनुरुद्ध संभाल रहे थे।
तब महाब्रह्मा सम्पति ने एक गाथा का पाठ किया, देवराज शक्र ने एक गाथा का पाठ किया, भदंत अनुरुद्ध ने दो गाथाओं का पाठ किया और आयुष्मान आनंद ने एक गाथा का पाठ किया। इस प्रकार भगवान के पार्थिव शरीर का अंतिम दर्शन करते हुए सब लोगों ने प्रणाम किया।
आचार्य श्री गोयन्काजी की मृत्यु मुंबई, भारत में हुई। वहां उनका दाह-संस्कार किया गया। वे मांडले के नागरिक थे और उन्हें अपनी मातृभूमि से बड़ा प्रेम था। वे म्यांमा के एक कट्टर हिंदू परिवार में पैदा हुए परंतु बाद में विपश्यना के समर्थक और प्रबल प्रचारक हो गये । विपश्यना के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी क्योंकि विपश्यना ने उनके दुःखों को दूर किया था। विपश्यना के प्रति उनकी श्रद्धा दो बातों को लेकर थी- एक तो सयाजी ऊ बा खिन, जिन्होंने उन्हें सांसारिक चिताओं और दुःखों से मुक्त किया और उनके गुरु सया तै जी तथा उनके भी गुरु भदंत लैडी सयाडो, जिन्होंने गृहस्थ आचार्य-परंपरा का द्वार खोला।
दूसरी बात यह कि श्री गोयन्काजी म्यंमा के भिक्षुसंघ के प्रति बहुत कृतज्ञ थे, जिसने इस परंपरा को 2500 वर्षों तक शुद्धरूप में संभाल कर रखा। यह एक ऐसा आभार था जिसे साधारण बरमी भिक्षुसंघ नहीं समझ सका, जबकि भारतीय गोयन्काजी ने इसके महत्त्व को अच्छी तरह समझा। इन्हीं तथ्यों ने श्री गोयन्काजी को भारत में विपश्यना-केंद्र स्थापित करने की प्रेरणा दी और पूरे विश्व में विपश्यना के प्रचार-प्रसार के लिए प्रेरित किया। मैंने स्वयं यह बात श्री गोयन्काजी से कहीं और अनेक अवसरों पर दूसरों को भी बताया कि सम्राट अशोक के बाद श्री गोयन्काजी ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने धम्म का प्रसार भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में किया।
वस्तुतः मैंने उनको कम-से-कम तीन बार कहा कि आप आधुनिक अशोक हैं। इस पर उन्होंने कहा, "अशोक से मेरी तुलना नहीं की जा सकती। हां, उसी बड़ी परंपरा से एकाकार होकर मैं अपना जीवन जीना चाहता हूं।" दो बार उन्होंने ऐसा ही कहा, परंतु तीसरे अवसर पर जब हम दोनों मुंबई के समुद्रतट पर टहल रहे थे, पुनः मैंने उनकी तुलना अशोक से की तो वे सिर्फ मुस्कराये, ठीक उसी तरह जैसा कि आप इस चित्र में देख रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि भारत में आज बीस बरमी संघाराम हैं, लेकिन आपकी तरह कोई एक भी विपश्यना केंद्र स्थापित नहीं कर सका।
हां, इसके पहले आचार्य आयुष्मान महसि सयाडो और टांग पुलु सयाडो ने ही केंद्र स्थापित किए। उसके बाद की तुलना गोयन्काजी से नहीं की जा सकती। इसीलिए कहता हूं कि आप आज के अशोक हैं। और वे सिर्फ मुस्कराये।
उन्होंने कहा भारत धम्म की जन्मभूमि है लेकिन आज शुद्ध धर्म यहां से लुप्तप्राय हो गया है। हम सब की जवाबदेही बनती है कि हम उसे पुनर्जीवित करें। मैंने जानबूझ कर उनसे पूछा कि धम्म से उनका क्या तात्पर्य है? उन्होंने कहा धर्म एक अनुशासन है, विचारधारा है, एक विधि है, एक तकनीक (प्रविधि) है। जब तक सत्य का पता न चल जाय, जीवन-मरण के अंतहीन चक्कर में पड़ कर दुःखमय जीवन जीते रहेंगे।
आदरणीय लोगो, गोयन्काजी का जाना अशोक का जाना है। गोयन्काजी क्या गये, आधुनिक अशोक चले गये । उनके जाने से संसार की दोनों आंखें चली गयी। संसार अंधा हो गया। सारी दुनिया दुःखी है, प्रभावित है-- अंग्रेज, अमेरिकन, अरब आदि सभी। श्री गोयन्काजी ऐसे थे जो कट्टर मुस्लिम को भी शिविर में बैठाते थे, जो यह विश्वास करते हैं कि सिर्फ अल्लाह का वचन ही सत्य है। उन्होंने इन लोगों को अपने विपश्यना केंद्रों में जगह दी और इजरायल के यहूदियों को भी । इसीलिए मैं कहता हूं कि इनके चले जाने का अर्थ है अशोक की तरह एक धर्मदूत का चला जाना। एक ऐसे व्यक्ति का चला जाना जिसने , दुनिया को आंखें दीं। अब मुझे यह कलश-यात्रा आरंभ करने की अनुमति दें और इस दौरान शक्र द्वारा गायी गयी उस गाथा को भी । समझ ले - अनिच्चावत सखारा...।।
सखार- कर्म, चित्त, ऋतु और आहार का मिश्रण है। ऐसे ही भौतिक पदार्थों से बना यह भवन भी अनित्य है। इसे हम धर्मगांव कह सकते हैं क्योंकि यहां धर्मोपदेश होता है। यदि हम यहां भोजन की बिक्री करें तो यह रेस्तरां हो जायगा। यदि यहां राजा और रानी रहें तो यह राजमहल हो जायगा। यदि यहां माल बेचें तो यह सुपर मार्केट (बाजार) बन जायगा। लेकिन यह वस्तुतः है क्या? यह ईंट, लोहा, लकड़ी, सीमेंट का सम्मिश्रण ही है। यह घर भी है, महल भी है, चिड़ियाघर भी और शौचलय भी। यह सभी के लिए एक समान है। चीनी, अंग्रेज, भारतीय, बरमी; ब्रह्म, देव, बिल्ली, मुर्गी या कुत्ते के लिए भी। इन सबों के रूप, नाम तथा हेतु- ये तीनों हैं। इन तीनों का मिश्रण ही सङ्खार है। इन तीनों का गुण, धर्म स्वभाव जैसा ऊपर कहा गया, उत्पाद और व्यय है, बनना और बिगड़ना है। व्यय के बाद उत्पन्न होता है और फिर व्यय होता है। इस प्रकार यह सिलसिला अनंत चक्र वालों तक चलता रहता है।
विपश्यना क्या है? यह एक विधि है। हम ध्यान को अपने भीतर केंद्रित करते हैं, उत्पाद-व्यय का अन्वेक्षण करते हैं। यह एक ऐसी सच्चाई है जो हमारे शरीर के भीतर अनुभव की जाती है। जो उत्पन्न होता है वह नष्ट होता और नष्ट होने के बाद पुनः उत्पन्न होता है। यदनिच्चं तं दुक्खं- जो अनित्य है वह दुःख है। अर्थात जहां अनित्यता है, वहां दुःख है और जो अनित्य और दुःख है वह अनात्म ही है। उसे 'मैं-मेरा' नहीं कह सकते। अतः अनित्य, दुःख और अनात्म अलग-अलग नहीं हैं। वे तीनों एक हैं। अनित्यता किसमें है? उत्पाद और व्यय में। तो विपश्यना में क्या देखते हैं? जो सच्चाई है उसे देखते हैं। वास्तविक सच्चाई क्या है? ये तीन मूल बातें- नाम, रूप और हेतु । इन तीन मूल बातों पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करना उत्पाद-व्यय की क्रिया को उजागर करना है और इससे होने वाले दुःख को समझना है। इसे समझने पर अनात्म समझ में आता है और यह भी कि आप कितने असहाय हैं। आपका वश इन तीनों पर बिल्कुल नहीं है। इस प्रकार ध्यान करने से नाम-रूप से बने इस शरीर के प्रति आसक्ति धीरे-धीरे जाने लगती है। यही हम सब के भीतर का सत्य है।
इस सत्य का ज्ञान देने वाले भगवान बुद्ध को प्रणाम करते हुए देवराज शक्र ने उपरोक्त गाथा से वंदन किया, ऐसे ही अन्य सब ने अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये। हमें भी श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए यही कहना है कि निर्वाण और संसार में बहुत दूरी नहीं है। निर्वाण आप से उतना दूर नहीं है। इसे एक उदाहरण से समझें।
उदाहरण स्वरूप इरावती नदी का जल इस किनारे के तट को। दूसरे किनारे के तट से अलग करता है। जब नदी भरी रहती है तब दोनों तट की दूरी बहुत होगी। लेकिन जब जल-स्तर कम होता है तब तटों की दूरी कम होती जाती है। और अंत में नदी में जब जल नहीं रहता तब दोनों तट एक हो जाते हैं। अर्थात दोनों तटों के बीच दीवार नहीं होती, व्यवधान नहीं होता। एक तट से दूसरे तट की यात्रा अखंड हो जाती है, आसान हो जाती है।
यह तथ्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। हमें अपने अंतर को आस्रव-जल से नहीं भरना चाहिए । इसी आस्रव से भरी हुई जलराशि के कारण हम उस पार के तट निर्वाण को नहीं देख पाते। निर्वाण वस्तुतः शरीर (संसार) के साथ-साथ चलता है। आस्रव के कारण दो अलग-अलग तट दिखते हैं। विपश्यना इस क्लेश-जल को प्रज्ञारूपी घड़े से उलीचती है। निर्भर करता है कि किसी विपश्यना केद्र में जाकर कितना जल | उलीचा है आपने दस दिनों में। जल को बढ़ने न दे तो धीरे-धीरे उस तट के नजदीक होते ही जायेंगे। जब सारा जल निःशेष हो जायगा, दोनों तट एक हो जायेंगे। संसार और निर्वाण एक हो जायेगा।
जो समय हमारे पास है उसमें इतना ही कहा जा सकता है।
आज हमें आचार्य श्री गोयन्काजी की अस्थियों का विसर्जन इरावती नदी में करना है तो हमलोग भी इसी गाथा का पाठ करेंगे, उनको अंतिम बार प्रणाम करने के लिए। इसके अतिरिक्त और कोई पाठ नहीं, कोई कविता नहीं । हमलोग केवल इसी का पाठ करते रहेंगे और अपने अंदर की अनुभूतियों को भी देखते रहेंगे। अनिच्चावत सखारा...।
आज हमें आचार्य श्री गोयन्काजी की अस्थियों का विसर्जन इरावती नदी में करना है तो हमलोग भी इसी गाथा का पाठ करेंगे, उनको अंतिम बार प्रणाम करने के लिए। इसके अतिरिक्त और कोई पाठ नहीं, कोई कविता नहीं । हमलोग केवल इसी का पाठ करते रहेंगे और अपने अंदर की अनुभूतियों को भी देखते रहेंगे। अनिच्चावत सखारा...।
अक्तूबर 2014 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
🌷Dhamma son of Myanmar🌷
Modern-day Asoka.
-Venerable Bhante Ashin Nyanissara.
Modern-day Asoka.
-Venerable Bhante Ashin Nyanissara.
The most venerable monk Sitagu Sayadaw (Bhante Nyanissara) of Sagaing, Myanmar, has great regard and metta for the late Principal Vipassana Teacher S.N. Goenkaji.
With the Sayadaw’s metta, thousands of people gathered for the last-rites ceremonies for Goenkaji in Rangoon, Mandalay and Myitkyina (the origin of River Irrawady).
The ceremonial procession started from the Dhamma Mandala Vipassana center in Mandalay, to the banks of the Irrawady River at the Panmadee Jetty. It included a great many monks and nuns who melodiously chanted Dhamma verses. On the Irrawady five large barges loaded with people cruised into in a circular formation, and set afloat a thousand lamps dedicated to Goenkaji.
🌷Before this procession started, at a sangha-dana (a ceremoney during which alms, including robes are offered to monks) the venerable Bhante Nyanissara addressed the assembled congregation of monks and nuns with the following words:
“ Aniccavata Sankhara, uppadavayadhammino; Uppajjitvā nirujjhanti, tesaṃ vūpasamo sukho."
Indeed all sankharas are impermanent. Everything that arises –circumstances, material objects, people – has the nature of impermanence.
To arise and pass away is their true characteristic, their inherent nature.
With the practice of Vipassana, one observes the phenomena of this arising and passing until it is extinguished – there is no more arising.
This is ultimate peace, this is nibbana (liberation, enlightenment).
🌷During the Buddha’s parinibbāna, Sakka descended from his Tāvatimsa abode along with other devas and recited the above verse. Mahabrahma along with his assembly of Brahmas showered flowers to pay homage. A large number of bhikkhus had congregated to pay their last respects to the Buddha.
Almost in the same way as we have gathered here to pay our last respects to Goenkaji.
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🌷At the time of the Buddha’s parinibbāna, the Ven. Mahakassapa, who was filled with the volition to preserve the Buddha’s beneficial teachings, was unable to attend. The responsibility of lighting the pyre of his physical remains was therefore on the Ven. Anuruddha Following that, Mahabrahma Sahampati, Sakka – the king of devas, and the Ven. Ananda each gave a Dhamma verse, whereas the Ven. Anuruddha recited two Dhamma messages. In this way, all those present paid respects to the earthly remains of the Buddha.
🌷Respected Goenkaji passed away in Mumbai, India, which is where he was cremated.
He was born in Mandalay and deeply loved his motherland Myanmar. Although born in a staunch Hindu family, he later embraced Vipassana and became its prominent advocate. His immense faith in Vipassana arose from the fact that Vipassana helped him come out of his suffering.
Two factors firmly established his faith.
1) One was that Sayagyi U Ba Khin freed him from the woes and trappings of his worldly life. Additionally Sayagyi’s teacher, the Ven. Saya Thet Gyi, and in turn his teacher, the Ven. Ledi Sayadaw opened the doors to appointing teachers for the laity (householders).
2) The other factor was that Goenkaji was deeply grateful to the Sangha (order of monks) of Myanmar, for their diligence in preserving the Dhamma for 2,500 years in its pristine form.
The Burmese Sangha has somehow failed to fathom this gratitude the way Goenkaji, an Indian national, grasped it.
It was this gratitude that inspired Goenkaji to establish a Vipassana center in India and spread the noble teaching of Vipassana to the rest of the world.
Vipassana Research Institute - http://www.vridhamma.org/en2014-10