🌹संप्रदाय ना धर्म है (दोहे)
आओ मानव मानवी, चलें धरम की राह ।
कितने दिन भटकत फिरे, कितने दिन गुमराह ॥
धर्म न हिंदू बौद्ध है, सिक्ख न मुस्लिम जैन ।
धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन ॥
तीरथ तीरथ भटकते, हुआ न चित्त विशुद्ध ।
दंभ चढ़ाया शीश पर, हुई मुक्ति अवरुद्ध ॥
कर्मकांड को धर्म जो, समझ रहा नादान ।
मिले कहां से धरमफल, धरम हुआ निष्प्राण ॥
कर्मकांड ना धर्म है, धर्म न बाह्याचार ।
धर्म चित्त की शुद्धता, करुणा सेवा प्यार ॥
जाति वर्ण का, गोत्र का, चढ़ा शीश अभिमान ।
शुद्ध धरम को छोड़ कर, भटक गया नादान ॥
जिसके सिर पर चढ़ गया, संप्रदाय का भूत।
करे धर्म के नाम पर, काली ही करतूत ॥
धर्म सार पाया नहीं, छिलके पकड़े रूढ़।
संप्रदाय को धर्म जो, समझ रहा वह मूढ़॥
संप्रदाय ना धर्म है, धर्म न बने दीवार ।
धर्म सिखाए एक ता, धर्म सिखाए प्यार ॥
संप्रदाय या जाति का, जहां भेद ना होय।
शुद्ध सनातन धर्म है, वंदनीय है सोय॥
गुण तो धारण ना कि या, रहे नवाते माथ।
बहा धर्म रस, रह गया, फूटा बरतन हाथ ॥
भाई भाई में चले, घात और प्रतिघात ।
कहां राम आदर्श है? कोरी मिथ्या बात ॥
करे बुद्ध की वंदना, धारण करे न धर्म।
बिना धर्म धारण किए, कटें नहीं दुष्कर्म ॥
शुद्ध धर्म जग में जगे, तो हो सब खुशहाल ।
संप्रदाय जब प्रमुख हो, तो हो सब बदहाल ॥
देख बिचारे धर्म की, कैसी दुर्गति होय।
लड़ें धर्म के नाम पर, पाप प्रफुल्लित होय ॥
जटा-जूट माला तिलक , हुए शीश के भार ।
भेष बदल कर क्या मिला, मन के मैल उतार ॥
हुआ धरम के नाम पर, कैसा नर संहार ।
धिक धिक ऐसे धरम को, लाख बार धिक्कार ॥
हिंदू मुस्लिम बौद्ध सिक्ख, कहां हुए गुमराह ।
कत्ल करें निर्दोष का, यह तो मजहब नांहि ॥
वह ना सच्चा धरम है, ना सच्चा ईमान ।
जिससे करुणा प्यार को, खो बैठे इंसान ॥
शुद्ध धर्म से टूटती, संप्रदाय दीवार ।
जो धारे उसके लिए, खुले मुक्ति के द्वार ॥
संप्रदाय अनहित करे, धर्म करे कल्याण ।
धर्म धार मंगल सधे, तन मन पुलकित प्राण ॥
सबके मन जागे धरम, संप्रदाय से दूर।
बैर भाव सबके मिटें, भरे प्यार भरपूर ॥
जन जन के मन प्यार की, गंगा बहे पुनीत ।
यह मजहब की सीख है, यही धरम की रीत ॥
कुदरत का कानून है, सब पर लागू होय।
जाति गोत्र का, वर्ण का, पक्षपात ना होय॥
हिंदू मुस्लिम पारसी, बौद्ध ईसाई जैन ।
मैले मन दुखिया रहे, कहां नाम में चैन ॥
दुर्मन मन दुखिया रहे, किसी जाति का होय ।
सुमन सदा सुखिया रहे, किसी वर्ण का होय॥
संप्रदाय से संत की, होवे ना पहचान ।
जिसके मन मैत्री जगे, संत उसी को जान ॥
शुद्ध धरम का शांति पथ, संप्रदाय से दूर।
शुद्ध धरम की साधना, मंगल से भरपूर ॥
हिंदू हो या बौद्ध हो, मुस्लिम हो या जैन ।
शुद्ध धरम का जो पथिक , वही सुखी दिन रैन ॥
मन के मैल उतार ले, जो चाहे सुख चैन ।
मैले मन दुखिया रहे, बौद्ध होय या जैन ॥
जाति वर्ण का, वर्ग का, जहां भेद ना होय।
जो सबका, सबके लिए, शुद्ध धरम है सोय॥
धर्म न मंदिर में मिले, धर्म न हाट बिकाय ।
धर्म न ग्रंथों में मिले, जो धारे सो पाय॥
मंदिर मस्जिद भटकते, किसे मिला भगवान?
सेवा करुणा प्यार से, मनुज बने भगवान ॥
सत्य धर्म तो एक है, फिरके हुए अनेक ।
फिरकों के आवेश में, छूटा धर्म विवेक ॥
पुस्तक पढ़ पंडित हुआ, कैसा चढ़ा गुमान।
खुले न अंतर के नयन, मिला न सच्चा ज्ञान ॥
मत कर, मत कर बावले! मत कर वाद-विवाद ।
खाल बाल की खींच मत, चाख धर्म का स्वाद ॥
संप्रदाय ही प्रमुख है, धर्म हो गया गौण ।
सरल सत्य व्यवहार को, यहां पूछता कौन?
संप्रदाय ना धर्म है, धर्म न बने दिवार।
धर्म सिखाए एकता, धर्म सिखाए प्यार ॥
बढ़ा धर्म के नाम पर, संप्रदाय पुरजोर ।
जन जन मन व्याकुल हुआ, दुख छाया सब ओर ॥
संप्रदाय का मद बढ़े, धर्म तिरोहित होय।
अपना भी अनहित करे, जन जन अनहित होय॥
संप्रदाय होवे प्रमुख, धर्म गौण जब होय ।
तभी धर्म के नाम पर, खून-खराबा होय॥
यह कैसा मजहब अरे, कैसा धरम इमान!
क़त्ल कि ये जिसके लिए बेकसूर इंसान ॥
तेरे दीन ईमान का, क्या यह है मजमून ।
देख बहाया भूमि पर, बेकसूर का खून ॥
अरे धरम के नाम पर, लोग बहायें खून ।
समझ न पाये, धरम तो कुदरत का कानून ॥
कैसा तेरा ईश्वर, कैसा रब्ब खुदाय ?
तू जिसके ही नाम पर, खून बहाता जाय ॥
क्या यह तेरा धर्म है, क्या ऋषियों की रीत?
जला दिये जीवित जहां, निरपराध भयभीत ॥
भूला सच्चे धरम को, भूल गया ईमान ।
भूल गया इंसान हूं, बन बैठा हैवान ॥
वह ना सच्चा धरम है, ना सच्चा ईमान ।
जिससे मन के प्यार को, खो बैठे इंसान ॥
जहां जाति का, वर्ण का, जहां गोत्र का नाज़ ।
धरम न टिक पाए वहां, अहंकार का राज॥
संप्रदाय का धर्म से, तालमेल ना खाय।
एक सदा उलझावता, एक सदा सुलझाय॥
जब जब मनुज समाज में, जातिवाद बढ़ जाय।
तब तब मंगल धरम के , फूल सभी कुम्हलाय॥
बँधे जाति से, वर्ण से, तो हो धर्म मलीन ।
संप्रदाय से जब बँधे, होय धर्मबल क्षीण ॥
जात-पांत के फेर में, छुटा धरम का सार ।
सार छुटा, निस्सार ही, बना शीश का भार ॥
संप्रदाय की बेड़ियां, जात-पांत जंजीर ।
धर्मचक्र से कट गयी, दूर हुई भव पीर ॥
जात-पात, कुल-गोत्र या, वर्ण-भेद ना होय ।
जो जो चाखे धरम रस, सो सो सुखिया होय ॥
धर्मगंग से ही धुले, संप्रदाय के लेप।
उखड़े कल्पित मान्यता, चित्त होय निर्लेप ॥
धरम जगे फिर मनुज में, बने मनुज भगवान।
सेवा करुणा प्यार से, धन्य होय इंसान ॥
निर्भयता, निर्वैरता, सच्चा धर्म अकाल ।
जागो सच्चे धर्म में, जागे सोहि निहाल ॥
गुरुवाणी अनमोल है, अमृत भरा अपार ।
धोवे मन के मैल को, जगे परस्पर प्यार ॥
घर घर में सबके जगे, सत्य धर्म की लोय।
चित्त निखालिस शुद्ध हो, तभी खालसा होय ॥
भूलें बीती बात सब, सुधरें सब व्यवहार ।
बैर-भाव सारा मिटे, जन मन जागे प्यार ॥
सब बंदों से प्यार कर, मजहब का फरमान ।
बेकसूर को मार मत, बन सच्चा इंसान ॥
हिंदू मुस्लिम बौद्ध सिक्ख, छूटे नहीं ईमान ।
प्यार हमारा धर्म है, हम सच्चे इंसान ॥
जन जन के मन प्यार की, गंगा बहे पुनीत ।
यह मजहब की सीख है, यही धर्म की रीत ॥
द्वेष अग्नि पर प्यार की, अमृत वर्षा होय।
सबका मन शीतल करे, सबका मंगल होय॥
नमन करूं मैं धर्म को, संप्रदाय से दूर।
जो धारे हित सुख सधे, मंगल से भरपूर ॥
-सत्य नारायण गोयन्का
आओ मानव मानवी, चलें धरम की राह ।
कितने दिन भटकत फिरे, कितने दिन गुमराह ॥
धर्म न हिंदू बौद्ध है, सिक्ख न मुस्लिम जैन ।
धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन ॥
तीरथ तीरथ भटकते, हुआ न चित्त विशुद्ध ।
दंभ चढ़ाया शीश पर, हुई मुक्ति अवरुद्ध ॥
कर्मकांड को धर्म जो, समझ रहा नादान ।
मिले कहां से धरमफल, धरम हुआ निष्प्राण ॥
कर्मकांड ना धर्म है, धर्म न बाह्याचार ।
धर्म चित्त की शुद्धता, करुणा सेवा प्यार ॥
जाति वर्ण का, गोत्र का, चढ़ा शीश अभिमान ।
शुद्ध धरम को छोड़ कर, भटक गया नादान ॥
जिसके सिर पर चढ़ गया, संप्रदाय का भूत।
करे धर्म के नाम पर, काली ही करतूत ॥
धर्म सार पाया नहीं, छिलके पकड़े रूढ़।
संप्रदाय को धर्म जो, समझ रहा वह मूढ़॥
संप्रदाय ना धर्म है, धर्म न बने दीवार ।
धर्म सिखाए एक ता, धर्म सिखाए प्यार ॥
संप्रदाय या जाति का, जहां भेद ना होय।
शुद्ध सनातन धर्म है, वंदनीय है सोय॥
गुण तो धारण ना कि या, रहे नवाते माथ।
बहा धर्म रस, रह गया, फूटा बरतन हाथ ॥
भाई भाई में चले, घात और प्रतिघात ।
कहां राम आदर्श है? कोरी मिथ्या बात ॥
करे बुद्ध की वंदना, धारण करे न धर्म।
बिना धर्म धारण किए, कटें नहीं दुष्कर्म ॥
शुद्ध धर्म जग में जगे, तो हो सब खुशहाल ।
संप्रदाय जब प्रमुख हो, तो हो सब बदहाल ॥
देख बिचारे धर्म की, कैसी दुर्गति होय।
लड़ें धर्म के नाम पर, पाप प्रफुल्लित होय ॥
जटा-जूट माला तिलक , हुए शीश के भार ।
भेष बदल कर क्या मिला, मन के मैल उतार ॥
हुआ धरम के नाम पर, कैसा नर संहार ।
धिक धिक ऐसे धरम को, लाख बार धिक्कार ॥
हिंदू मुस्लिम बौद्ध सिक्ख, कहां हुए गुमराह ।
कत्ल करें निर्दोष का, यह तो मजहब नांहि ॥
वह ना सच्चा धरम है, ना सच्चा ईमान ।
जिससे करुणा प्यार को, खो बैठे इंसान ॥
शुद्ध धर्म से टूटती, संप्रदाय दीवार ।
जो धारे उसके लिए, खुले मुक्ति के द्वार ॥
संप्रदाय अनहित करे, धर्म करे कल्याण ।
धर्म धार मंगल सधे, तन मन पुलकित प्राण ॥
सबके मन जागे धरम, संप्रदाय से दूर।
बैर भाव सबके मिटें, भरे प्यार भरपूर ॥
जन जन के मन प्यार की, गंगा बहे पुनीत ।
यह मजहब की सीख है, यही धरम की रीत ॥
कुदरत का कानून है, सब पर लागू होय।
जाति गोत्र का, वर्ण का, पक्षपात ना होय॥
हिंदू मुस्लिम पारसी, बौद्ध ईसाई जैन ।
मैले मन दुखिया रहे, कहां नाम में चैन ॥
दुर्मन मन दुखिया रहे, किसी जाति का होय ।
सुमन सदा सुखिया रहे, किसी वर्ण का होय॥
संप्रदाय से संत की, होवे ना पहचान ।
जिसके मन मैत्री जगे, संत उसी को जान ॥
शुद्ध धरम का शांति पथ, संप्रदाय से दूर।
शुद्ध धरम की साधना, मंगल से भरपूर ॥
हिंदू हो या बौद्ध हो, मुस्लिम हो या जैन ।
शुद्ध धरम का जो पथिक , वही सुखी दिन रैन ॥
मन के मैल उतार ले, जो चाहे सुख चैन ।
मैले मन दुखिया रहे, बौद्ध होय या जैन ॥
जाति वर्ण का, वर्ग का, जहां भेद ना होय।
जो सबका, सबके लिए, शुद्ध धरम है सोय॥
धर्म न मंदिर में मिले, धर्म न हाट बिकाय ।
धर्म न ग्रंथों में मिले, जो धारे सो पाय॥
मंदिर मस्जिद भटकते, किसे मिला भगवान?
सेवा करुणा प्यार से, मनुज बने भगवान ॥
सत्य धर्म तो एक है, फिरके हुए अनेक ।
फिरकों के आवेश में, छूटा धर्म विवेक ॥
पुस्तक पढ़ पंडित हुआ, कैसा चढ़ा गुमान।
खुले न अंतर के नयन, मिला न सच्चा ज्ञान ॥
मत कर, मत कर बावले! मत कर वाद-विवाद ।
खाल बाल की खींच मत, चाख धर्म का स्वाद ॥
संप्रदाय ही प्रमुख है, धर्म हो गया गौण ।
सरल सत्य व्यवहार को, यहां पूछता कौन?
संप्रदाय ना धर्म है, धर्म न बने दिवार।
धर्म सिखाए एकता, धर्म सिखाए प्यार ॥
बढ़ा धर्म के नाम पर, संप्रदाय पुरजोर ।
जन जन मन व्याकुल हुआ, दुख छाया सब ओर ॥
संप्रदाय का मद बढ़े, धर्म तिरोहित होय।
अपना भी अनहित करे, जन जन अनहित होय॥
संप्रदाय होवे प्रमुख, धर्म गौण जब होय ।
तभी धर्म के नाम पर, खून-खराबा होय॥
यह कैसा मजहब अरे, कैसा धरम इमान!
क़त्ल कि ये जिसके लिए बेकसूर इंसान ॥
तेरे दीन ईमान का, क्या यह है मजमून ।
देख बहाया भूमि पर, बेकसूर का खून ॥
अरे धरम के नाम पर, लोग बहायें खून ।
समझ न पाये, धरम तो कुदरत का कानून ॥
कैसा तेरा ईश्वर, कैसा रब्ब खुदाय ?
तू जिसके ही नाम पर, खून बहाता जाय ॥
क्या यह तेरा धर्म है, क्या ऋषियों की रीत?
जला दिये जीवित जहां, निरपराध भयभीत ॥
भूला सच्चे धरम को, भूल गया ईमान ।
भूल गया इंसान हूं, बन बैठा हैवान ॥
वह ना सच्चा धरम है, ना सच्चा ईमान ।
जिससे मन के प्यार को, खो बैठे इंसान ॥
जहां जाति का, वर्ण का, जहां गोत्र का नाज़ ।
धरम न टिक पाए वहां, अहंकार का राज॥
संप्रदाय का धर्म से, तालमेल ना खाय।
एक सदा उलझावता, एक सदा सुलझाय॥
जब जब मनुज समाज में, जातिवाद बढ़ जाय।
तब तब मंगल धरम के , फूल सभी कुम्हलाय॥
बँधे जाति से, वर्ण से, तो हो धर्म मलीन ।
संप्रदाय से जब बँधे, होय धर्मबल क्षीण ॥
जात-पांत के फेर में, छुटा धरम का सार ।
सार छुटा, निस्सार ही, बना शीश का भार ॥
संप्रदाय की बेड़ियां, जात-पांत जंजीर ।
धर्मचक्र से कट गयी, दूर हुई भव पीर ॥
जात-पात, कुल-गोत्र या, वर्ण-भेद ना होय ।
जो जो चाखे धरम रस, सो सो सुखिया होय ॥
धर्मगंग से ही धुले, संप्रदाय के लेप।
उखड़े कल्पित मान्यता, चित्त होय निर्लेप ॥
धरम जगे फिर मनुज में, बने मनुज भगवान।
सेवा करुणा प्यार से, धन्य होय इंसान ॥
निर्भयता, निर्वैरता, सच्चा धर्म अकाल ।
जागो सच्चे धर्म में, जागे सोहि निहाल ॥
गुरुवाणी अनमोल है, अमृत भरा अपार ।
धोवे मन के मैल को, जगे परस्पर प्यार ॥
घर घर में सबके जगे, सत्य धर्म की लोय।
चित्त निखालिस शुद्ध हो, तभी खालसा होय ॥
भूलें बीती बात सब, सुधरें सब व्यवहार ।
बैर-भाव सारा मिटे, जन मन जागे प्यार ॥
सब बंदों से प्यार कर, मजहब का फरमान ।
बेकसूर को मार मत, बन सच्चा इंसान ॥
हिंदू मुस्लिम बौद्ध सिक्ख, छूटे नहीं ईमान ।
प्यार हमारा धर्म है, हम सच्चे इंसान ॥
जन जन के मन प्यार की, गंगा बहे पुनीत ।
यह मजहब की सीख है, यही धर्म की रीत ॥
द्वेष अग्नि पर प्यार की, अमृत वर्षा होय।
सबका मन शीतल करे, सबका मंगल होय॥
नमन करूं मैं धर्म को, संप्रदाय से दूर।
जो धारे हित सुख सधे, मंगल से भरपूर ॥
-सत्य नारायण गोयन्का
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आवाहन: मै धम्म सेवक, प्रेमसागर गवळी आपसे विनम्र आवाहन करता हू, इस ऑनलाईन ब्लॉग के माध्यम से मुझे धम्म सेवा करणे का अवसर प्राप्त हुआ । नये, पुराने साधको को इस विपश्यना धम्म ब्लॉग का लाभ मिल रहा है । गुरुजी बताते है धरम का मार्ग मंगल का मार्ग, इस मार्ग मे हर कदम पर कल्याण है ।
भाइयों इस काम को आगे बढाने के लिये, विपश्यना, धम्म की जानकारी अधिक से अधिक जरूरतमंग लोगो तक पहुंचाने के लिये हमे आर्थिक सहयोग की आवश्यकता है । आप हो सके तो आपकी इच्छा के अनुसार कोई भी अमाऊंट दे सकते हो ।
धम्म सेवक होने के नाते वैयक्तिक तौर पे यह अपील की है ।
मंगल हो !