पूज्य गुरुजी से जुड़ी कुछ यादें...

🌹पूज्य गुरुजी से जुड़ी कुछ यादें🌹


जो भी सौभाग्यशाली व्यक्ति पूज्य गुरुजी और धम्म-माताजी के संपर्क में आया, उस पर उनका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और आज भी कायम है। हम उन्हें व्यक्तिगत रूप से मिले हों या न मिले हों, किंतु उनकी शिक्षा और टेप्स की रिकॉर्डिंग अमूल्य निधि के रूप में हमारे पास है और वही सर्वोपरि है। वही हमारे लिए उनसे मिलने का सही मार्ग है।
अब जब वे हमारे बीच नहीं हैं तो नए-नए साधकगण जिनका गुरुजी से संपर्क नहीं हुआ, उनकी प्रबल जिज्ञासा होती है और वे पूछते हैं कि गुरुजी कैसे थे? अरे, वे तो उत्कृष्ट व प्रखर व्यक्तित्व धारण किये हुए धम्म-ऊर्जा से परिपूर्ण, हमारे लिए धर्मबीज स्वरूप सर्वत्र हैं। कुछ लोग पूछते हैं कि क्या यह व्यक्ति सचमुच ऐसा ही था, जैसा हमें प्रवचनों में दिखाई देता है? "हां", हमारा सटीक-सा जवाब होता है। और सच भी है- यह हँसमुख प्रेमभरा मधुर व्यक्तित्व वाला व्यक्ति वैसा ही है। एक महान कारुणिक, अपूर्व शांति और सुरक्षा की भावना से भरपूर, औरों में धर्म के प्रति आस्था जागृत कर पाने की क्षमता रखने वाला व्यक्ति वैसा ही है जैसा हमें वीडियो के माध्यम से दिखायी देता है। सचमुच वैसा ही है।
उनकी शिक्षा में हमें सब कुछ मिल जाता है। उनके पीछे-पीछे दौड़ने की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई। हमारा पहला शिविर सन 1976 में उनके टेप के माध्यम से ही संचालित हुआ था, मगर उनका आभास सतत बना रहा और तब से ही वे हमारे मार्गदर्शक बन गए। हालांकि यह हमारा सौभाग्य है कि जब वे 1979 में ब्रिटेन आए तब उनसे मिलना संभव हो सका। उसके बाद तो उनसे कई मुलाकातें हुईं- जब भी हम लंबे शिविरों के लिए भारत आते अथवा जब वे विदेश की यात्रा पर आते। अब जब याद करते हैं तब अपना बहुत बड़ा सौभाग्य मानते हैं कि उनके साथ रहकर एक सेवक के रूप में शिविरों में योगदान देने का मौका मिला और बाद में शिविर-संचालन में सहायक आचार्य के रूप में। यद्यपि हमारे जीवन पर उनका बहुत गहरा प्रभाव था, परंतु उनकी छोटी-छोटी वे बातें जो वे कहते अथवा करते थे, उनके व्यक्तित्व को विशेष उजागर करती हैं और उनसे हमें बहुत बड़ी सीख मिलती है।
एक दिन हमने उनसे सयाजी ऊ बा खिन के बारे में पूछ लिया। हमें। याद नहीं कि उन्होंने उस वक्त क्या कहा था परंतु इतना जरूर याद है कि उनकी नजरें कहीं खोई हुई यादों में समा गईं । हम टकटकी लगाए उन्हें देख रहे थे और ऐसा लगा मानो उनकी आंखें अपनी ही गहराइयों में पैठ गईं और उनमें प्रतिबिंबित हुआ उनका अपने गुरुजी के प्रति गहन श्रद्धा व आभार का भाव । कभी-कभी मात्र एक नजर हजार शब्दों से भी अधिक कह जाती है। वही नजर हमें गुरुओं की उस शृंखला से जोड़ देती है जो बुद्ध पर जाकर टिक जाती है।
गुरुजी एक ऐसी अचल अकंपित शक्ति लिए हुए थे जिसके कारण वे अनेक कठिनाइयों में भी अडिग रहे । उनका व्यवहार सभी के साथ एक-सा ही रहता था, फिर सामने वाला व्यक्ति चाहे किसी भी समाज या परिवेश का क्यों न हो। और तो और, सामने वाले का व्यवहार भी गुरुजी के प्रति कैसा भी क्यों न हो, परंतु गुरुजी का व्यवहार कभी नहीं बदलता था।
प्रारंभिक समय की बात है। सन 1981 में ब्रिटेन में धम्मकक्ष के लिए एक बड़ा सामियाना (टेंट) लगाया गया था। शाम का समय था, पांचवे दिन का प्रवचन चल रहा था। बीच में ही एक साधक तेजी से पैर पटकता हुआ, हाथ हिलाता हुआ, धम्मसीट की ओर आता हुआ दिखाई दिया। वह गुरुजी पर जोर-जोर से चिल्लाने लगा। सेवक और व्यवस्थापक खड़े हो गए। मगर वह व्यक्ति किसी तरह रुक नहीं रहा था और गुरु जी को बुरा-भला कहता रहा।
गुरुजी मुस्कराये। चेहरा बिल्कुल शांत था। उन्होंने उस व्यक्ति को बैठने का इशारा किया, पर वह टस से मस नहीं हुआ, बल्कि गुरुजी की ओर पीठ करके खड़ा हो गया और हाल में बैठे लोगों से कहने लगा- “आप सभी लोग मिलकर विद्रोह करें।” गुरुजी शांति से मुस्कुराते हुए बैठे रहे। आखिरकार वह व्यक्ति आगे बढ़ा और जिस गति से आया था, उसी गति से पैर पटकता हुआ हाल के बाहर जाने लगा। जाते-जाते उसने रेनेट के पीछे बैठी अपनी प्रेमिका से पूछा, मैं जा रहा हूं, क्या तुम मेरे साथ चल रही हो..? उस लड़की ने जवाब दिया 'नहीं' । अंततः वह उसी गति से शिविर छोड़कर चला गया।
निश्चित रूप से यह घटना अन्य साधकों के लिए अप्रिय और परेशानी पैदा करने वाली थी। कुछ लोग अस्थिर भी दिखे। किसी ने प्रश्न किया, गुरुजी अब क्या करेंगे? गुरुजी क्या करेंगे, कुछ भी तो नहीं। उनके और माताजी के कारुणिक चेहरे पर मुस्कान बरकरार थी और व्यवधान से जो प्रवचन रुका हुआ था, उसे फिर वहीं से शुरू कर दिया। प्रवचन ने ऐसी गति पकड़ी मानो कुछ हुआ ही नहीं था।
उस शिविर के दौरान एक सेवक प्रवचनों की रिकॉर्डिंग कर रहा था और उस जमाने की प्रचलित बहुत बड़ी टेप का इस्तेमाल कर रहा था। टेप में वह तथाकथित घटना भी रिकॉर्ड हो गई। बाद में वह सेवक उसे काट कर, ठीक करके दिखाना चाहता था जहां पर उसने बरसना शुरू किया था। और ऐसा करना मुमकिन भी था क्योंकि गुरुजी ने ठीक वहीं पर से प्रवचन की डोर थामी थी, जहां पर यह व्यवधान आया था। मानो कुछ हुआ ही नहीं। इतना समता भरा नियंत्रित मानस!
और बात यहीं खत्म नहीं हुई। यह शिविर खेतों के बीच एक किसान के निवास-स्थल पर लगा हुआ था जिसमें अनाज का भंडारण होता था। कई छोटे-बड़े कमरे थे जो समूह में जुड़े हुए थे। ऊपर के एक कमरे में रेनेट सोई हुई थी और उसकी बगल में सोई थी उस विक्षिप्त व्यक्ति की प्रेमिका। रेनेट अभी अर्ध जागृत अवस्था में ही थी कि उसने सुना एक सेविका धीमे कदमों से ऊपर आई और उस लड़की के कानों में फुसफुसाई- गुरुजी जानना चाहते हैं कि तुम्हारे मित्र का नाम क्या है? ताकि वे उसे मैत्री दे सकें।
1980 के दशक में अगले 4 वर्षों तक गर्मियों में ब्रिटेन में गुरुजी के बड़े-बड़े शिविर लगे, जिनमें भाग लेने हेतु पूरे यूरोप से लोग आए। अब याद करत हैं तो उस समय की कई घटनाएं मानस पटल पर उभर कर आती हैं। शिविर का चौथा दिवस था। अभी-अभी गुरुजी ने साधकों को विपश्यना देते हुए सिर के सिरे पर जाने का अनुदेश दिया था, ठीक उसी समय एक भयंकर गर्जना के साथ बादल गरजने लगे और सारी बत्तियां गुल हो गईं। मगर गुरुजी का शांत वक्तव्य अनवरत जारी रहा, मानो कुछ हुआ ही नहीं। सब ने सिर के सिरे पर तीव्र संवेदना महसूस की, मानो जिंदगी में अब कोई बड़ा बदलाव आने वाला था। फिर कुछ दिनों बाद उसी शिविर में पीछे बैठी एक साधिका जोर-जोर से रोने लगी। तुरंत गुरु जी की माइक पर आवाज गूंजी- धर्म के मार्ग पर रोने को कोई स्थान नहीं।...
शिविर के दौरान कई हर्षभरे क्षण भी सामने आते थे। एक बार एक स्थानीय जिम्नेजियम जो कि 'धम्मकक्ष' में परिवर्तित किया गया था, वहां धम्म-सीट के पीछे दीवार में बने रोशनदान में एक बिल्ली ने बच्चों को जन्म दे दिया। दो प्यारे बिलौटे (बिल्ली के बच्चे) कौतूहलभरी आंखें खोल कर यदाकदा सिर उठाकर नीचे झांकने लगते और 'म्याऊं-म्याऊं' की हल्की आवाज करते । जब गुरुजी ध्यान-सत्र के समापन पर 'भवतु सब्ब मङ्गल' कहते तो हम सभी साधक 'साधु-साधु-साधु' कहते हुए आश्चर्यचकित धर्म-ऊर्जा से भर उठते। इन्हीं शब्दों की गूंज में वे बिलौटे पल रहे थे। आश्चर्य नहीं कि साधकों ने उन्हें साधु' और 'मेत्ता' नाम देकर पाल लिया। - पूज्य गुरुजी की धर्म-ऊर्जा शक्ति अद्भुत थी। सन 1994 तक गुरुजी ने लगभग 400 शिविरों का संचालन स्वयं किया था और कई बार वह साल में 20, 30 व 45 दिन के शिविर भी संचालित किये। कई बार तो एक शिविर खत्म होता और उसी दिन दूसरा शुरू हो जाता, अथवा यात्रा के लिए एक-दो दिन निकलने के बाद होता। शिविरों के बीच भी कितनी व्यस्तता! उन दिनों साधकों के प्रश्नों के अतिरिक्त वर्षों तक सभी प्रवचन और निर्देश उन्होंने स्वयं दिये। शाम के प्रवचन भी हर रोज दो बार देते एक बार हिंदी में और फिर अंग्रेजी में। कैसी अद्भुत कार्य क्षमता, कितनी करुणा और धर्म के प्रति कितना समर्पण भाव। मन में यही एक भाव कि कैसे अधिक से अधिक लोगों को धर्म लाभ मिले, उनका कल्याण हो, उनका मंगल हो।
हमें याद है एक समय जब वे ब्रिटेन आए तब रेनेट ने उनसे कहा था कि सभी सेवकों ने आपके आने से पहले केंद्र को तैयार करने में अथक परिश्रम किया है। गुरुजी ने रेनेट को जवाब दिया, हां यह तो करना ही था न ! लेशमात्र भी अकारण भावुकता नहीं कि बेचारे सेवक थक गए होंगे। गुरुजी के लिए अनवरत कार्य ही सर्वोपरि था। वे जानते थे कि धम्म में आगे बढ़ना है तो हम सबको मिल जुलकर मेहनत करना अनिवार्य है। यह तो उत्साह और समर्पणभाव से की गयी धर्मसेवा का एक सुनहरा मौका था- अपनी पुण्य-पारमी के घड़ों में कुछ बूंदें और भर लेने का! यह अपेक्षा नहीं कि कोई हमारा उपकार माने। वे कहते थे यदि तुम मुझे शुक्रिया कहोगे तो फिर मुझे तुम्हें शुक्रिया करना होगा और फिर तुम्हें..... यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा।
वे बड़ी सहजता से लोगों को सेवा के लिए उपयुक्त पद पर नियुक्त करते या सेवा का अवसर प्रदान करते थे। उदाहरणार्थ एक दिन अचानक उन्होंने हमसे कहा कि यदि तुम्हें सहायक आचार्य नियुक्त किया गया तो तुम कितने शिविरों का संचालन कर पाओगे? हम अवाक रह गए। यह अपेक्षा नहीं थी। मगर यह बात हमारे सामने साफ़ थी कि हमें कोई खास पद के लिए नहीं चुना गया है, हम कुछ विशेष नहीं है, और न ही यह बात हमारे अहं-पोषण के लिए कही गई है। बल्कि गुरुजी मात्र यह जानना चाहते हैं कि हम उनके साथ धर्म के इस कार्य में कितना योगदान दे सकेंगे?
हमसे उन्होंने पूछा नहीं था कि तुम सेवा देना चाहते हो क्या? यह एक सहज प्रस्ताव था जो इस बात को दर्शा रहा था कि वह हमारे संपूर्ण समर्पण भाव से वाकिफ हैं और जानते हैं कि जो भी कार्य हमें सौंपा जायगा, वह हमारे लिए शिरोधार्य होगा। उनके इस अनकहे विश्वास ने हमें बहुत गहराई तक छू लिया। अब समय आ गया था जबकि धम्मबीज को दूर-दूरांत देश-प्रदेशों तक रोपा जाय।
शिविरों में तरह-तरह के लोग उनके सामने आते हैं जिनमें से कोई-कोई मानसिक रूप से असंतुलित होते हैं। एक बार फ्रांस में लगे एक शिविर में एक युवक आया जिसने परिचय पत्र में अपना परिचय लिखा था- 'मानसिक दुनिया का शोधक'। जल्द ही साफ हो गया कि उसका मन असंतुलित है और शायद शिविर पूरा न कर सके। फिर भी गुरुजी ने उसे शिविर में रखा, क्योंकि वह कुछ मित्रों के साथ दूसरे देश से आया था। गुरुजी चाहते थे कि वह अकेले यात्रा न करे, बल्कि शिविर के अंत में अपने मित्रों के साथ ही लौटे। इसीलिए उसके अजीब व्यवहार से भी अविचलित रहते। सुबह 6:30 बजे गुरुजी जब धम्महाल से मैत्री-पाठ करते हुए अपने कमरे की ओर जा रहे होते, तब वह दौड़कर उनके समीप चला जाता और हाथों में छोटा-सा जंगली फूलों व पत्तियों का गुलदस्ता, जिसे वह आसपास से इकट्ठा किया होता, उन्हें देने की कोशिश करता। पर गुरुजी अपना मैत्री-पाठ जारी रखते हुए आगे बढ़ जाते। कुछ समय बाद व्यवस्थापक ने आकर सूचना दी वह साधक शिविर छोड़कर चला गया। गुरुजी मुस्कुराये और कहा, ठीक है हम तो धर्म को उन्मुक्त हाथ से बांटते हैं,
और यह परवाह नहीं करते कि किसने ग्रहण किया और कौन खाली हाथ चला गया। उनका इस संपूर्ण प्रक्रिया में रंचमात्र भी कोई निहित स्वार्थ नहीं था। भविष्य में जब हमने शिविर-संचालन का कार्यभार संभाला तब ऐसी परिस्थिति से कैसे निपटना, इसका उदाहरण हमारे सामने था। उनके साथ बिताए हुए एकएक पल अनमोल हैं। हमारे लिए वे हमेशा से समूर्त धर्म स्वरूप रहे और रहेंगे।
हमारी आखिरी भेंट एक अमिट याद की भांति हमारे साथ है। सन 2012 के वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में करीब 500 सहायक आचार्य आदि को उन्होंने खासतौर पर एकत्रित किया था। पता नहीं सब लोग यह महसूस कर सके थे या नहीं कि यह एक ऐतिहासिक मीटिंग होगी और यह उनका अंतिम उद्बोधन होगा। परंतु वे हम सभी को अंतिम बार अपनी बात कह देना चाहते थे कि संस्था का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्या स्वरूप हो, उसकी वे व्याख्या करना चाहते थे। वे सहायक आचार्य व आचार्यों के प्रश्नों का अंतिम जवाब देना चाहते थे। मुझे खूब याद है कि वर्षों के अथक परिश्रम से थकी हुई काया शायद किसी आंतरिक शक्ति से ही बची हुई थी, पर मानस तो वही तीक्षणता लिए हुए, मैत्री से भरपूर था।
अभी-अभी उनका हिंदी में एक लंबा प्रवचन समाप्त हुआ था और कुछ प्रश्नों के जवाब दिये थे। इतने में किसी ने कहा कि कृपया अंग्रेजी में भी कुछ कहें तो उनके चेहरे पर से थकान की एक परछाई गुजर गई, मगर उन्होंने अंग्रेजी में एक छोटा-सा प्रवचन अवश्य दिया।
इन सबके बीच उनकी हास्य वृत्ति सदैव बरकरार रही। वर्षों तक यह कहने के बाद भी कि शुक्रिया कहने की जरूरत नहीं होती, उन्होंने आज मजाक में कहा- “अब मेरा शुक्रिया अदा करो!” । __यद्यपि वे यह जानते थे कि हम हजार शुक्रिया कहें, मगर किसी भी प्रकार से हम हमारे धर्म-पिता का ऋण नहीं चुका सकते। बस एक ही तरीका है और वह है उनके बताए धर्म-मार्ग पर चलने का, और मुक्तहस्त से सेवा देते रहने का, ताकि उनके चलाए हुए धर्म अभियान को और गति मिले। केवल शुक्रिया कह देना काफी नहीं है। हर 10-दिवसीय शिविर के अंत में जिस गुरु-दक्षिणा दिये जाने की बात वे करते हैं वह यही है कि अनवरत अभ्यास जारी रहे एवं हरएक प्राणी को मैत्री से आप्लावित करने की कोशिश होती रहे। हर एक प्राणी में एक प्राणी वे भी हैं। उनको भी मैत्री मिलेगी। कितनी अद्भत कहानी ऐसे धर्म-पिता की, जिनके हम सदैव ऋणी रहेंगे। सब का मंगल हो!
- कर्क एवं रीनेट ब्राउन, यू. के.
(अंग्रेजी लेख से अनुवादित)
अक्तूबर 2019 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित