संवेदना और चित्त के विकार

विपश्यना का साधक अंतर्मुख होकर, अपने मन को शरीर की सीमा के भीतर ही रखता हुआ, सिर से पांव तक यात्रा करता है और हर अंग में हो रही भांति-भांति की संवेदनाओं का तटस्थ, जागृत, सतत निरीक्षण करता है। प्रथमतः उत्सुकतावश और प्रयोग के तौर पर यह अभ्यास करता है। आगे जाकर अपने चित्त में होने वाले ईष्ट एवं मौलिक परिवर्तनों को स्वयं महसूस करता है तो श्रद्धा जागती है। श्रद्धा के बल पर अभ्यास और आगे बढ़ता है। अंततोगत्वा यह परिवर्तन क्यों और कैसे हुआ, यह खुद ही अपनी अनुभूति द्वारा जान लेता है।


किंतु प्रारंभ में, साधना करते हुए भी, साधक के मन में प्रश्न उठता है कि संवेदनाओं के निरीक्षण-पृथक्करण से मन के विकार कैसे निकलेंगे? अन्य लोग भी उसके सामने यह प्रश्न रख देते हैं। कल्याणमित्र श्री गोयन्काजी अपने प्रवचनों में इसका समाधान करते ही हैं। इसी बात को हम यहां समझने का प्रयत्न करेंगे।
संवेदनाओं का ज्ञान करना, हमारे अपने अचेतन चित्त के क्षेत्र में उतरने का अभ्यास क्रम है। हमारा जागृत चेतन चित्त जिन संवेदनाओं को महसूस नहीं कर पाता, उन सब को हमारा अचेतन चित्त प्रतिक्षण महसूस करता जाता है और साथ-साथ उनके प्रति प्रिय-अप्रिय का भाव जगा कर प्रतिक्रिया भी किये जाता है। प्रतिक्रिया या तो राग की या फिर द्वेष की ही होती है। ये राग-द्वेष जब जागृत(चेतन) चित्त में प्रकट होते हैं तब हमें और आसपास के लोगों को पता चलता है कि हमने राग-द्वेष की प्रतिक्रिया की। राग-द्वेष का उद्भव प्रथमतः अचेतन में होता है और संवेदनाओं की अनुभूति को लेकर ही होता है।
विपश्यना हमें सूक्ष्म से सूक्ष्म संवेदना और उनके परिणामरूप सूक्ष्म से सूक्ष्म राग-द्वेषादि विकारों तक ले जाती है। दूसरे शब्दों में हमारे जागृत चित्त को भी इन अचेतन, सूक्ष्म क्रियाओं को जानने लायक बना देती है।
अचेतन में जागे रागादि विकार चेतन चित्त पर उतर आते हैं तब तो इनका बल बहुत बढ़ गया होता है। फलस्वरूप वाणी और काया भी उनकी लपेट में आ जाती है। हम कुछ भी कर या बोल देते हैं। कभी-कभी चेतन चित्त को किसी तरह समझा-बुझा कर शांत कर भी देते हैं तो ऐसे समय ये राग-द्वेष वस्तुतः खत्म नहीं हुए होते बल्कि उनको दबा देने से वापस अचेतन चित्त के पैदे में जाकर बैठ जाते हैं। ये फिर कभी भी सिर उठा सकते हैं।
_ विकारों को जहां खुली छूट देनी विनाशकारी है, वहां उनको दबाना भी कम अनर्थकारी नहीं है। कोई-कोई साधना-प्रणाली इन विकारों को दमन करना सिखाती है, तो कोई प्रणाली उनका रूपांतरण करना सिखाती है। कोई तो साधना की ओट में विकारों को बेरोक टोक छूट देने तक भी जाते हैं।
विपश्यना विकारों को दबाना नहीं सिखाती। छूट देना भी नहीं कहती। पलायन या रूपांतरण भी नहीं कराती । यह तो विकारों का सामना करना सिखाती है। राग-द्वेष के अनेक रूपों को टुकड़े कर-करके देखना और उनकी जड़ें सदा के लिए उखाड़ देना - यही विपश्यना का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को सिद्ध करने में संवेदनाओं का उपयोग एक माध्यम के रूप में होता है।
विकार अरूपी, अमूर्त हैं। उनको कैसे देखें? उनका पृथक्करण कैसे करें? इस गुत्थी को सुलझाना है । हर एक विकार (चिंता, भय, वासना, इच्छा इत्यादि) के साथ ही साथ शरीर में उससे संबंधित जीव-रासायनिक क्रिया होती है। इस शारीरिक परिवर्तन को हम भीतर से सतत महसूस करते रहते हैं। अजागृत(अचेतन) मन लगातार इसको जानता रहता है और प्रतिक्रिया भी करता जाता है। संगृहीत संस्कारों के मुताबिक हर एक संवेदना का,घटना का,वस्तु का और व्यक्ति का मूल्यांकन और फिर अंधी प्रतिक्रिया करना - यही अजागृत चित्त का काम है। जैसे -किसी व्यक्ति को देख कर गुस्सा आया, शरीर की ग्रंथियां सक्रिय हुईं, हार्मोस प्रवाहित हुए, हमारा शरीर गरम हो गया, कांपने लगा, हाथ उठ गया या कुछ बोल दिया।
मन में विकार, शरीर में हलचल -ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ऐसा नहीं है कि हिंसा, झगड़ा, भय जैसे मोटे-मोटे विकारों के वक्त ही शारीरिक क्रिया होती है। वस्तुत: छोटे-मोटे सभी विकार, विकल्प, संकल्प के समय शरीर के स्तर पर हलचल होती ही है। इसको अजागृत मन ‘फील करता है, जागृत मन को तो बहुत देर के बाद मालूम होता है।
विपश्यना कासाधक शरीर के स्तर पर जो भी घटित होता है - कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो - चाहे उसे जान लेने की दक्षता सिद्ध करता है । सिर से पांव तक यूं ही चक्कर नहीं काट रहे । हमारे जागृत मन को इन अचेतन क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के प्रति भी सचेत रहना सिखा रहे हैं। क्या हो रहा है, इसे जानना और समझना है। फिर जानकारी और समझदारी के आधार पर प्रतिक्रिया की आदत से बाहर आना है।
ये संवेदनाएं विकारों का ही मूर्त रूप हैं। विकार अमूर्त, अदृश्य हैं, मगर उनकी वजह से जन्म लेने वाली संवेदनाएं मूर्त्त, स्थूल, आकलनीय हैं। उन्हें देखना यानी उनके प्रति सावधान होना रहना अशक्य नहीं है । साधक विकारों को दबाता नहीं, उन्हें संवेदना के रूप में शरीर पर प्रकट होने देता है। दूसरी ओर, उन्हें बाह्य जीवन में व्यवहृत भी नहीं होने देता । शील-सदाचार की सीमा बरकरार रखता है। वह इन विकारों का ही संवेदनाओं (सेंसेशन्स) के जरिये दर्शन करना शुरू करता है । न छूट, न पलायन, न दमन, न रूपांतरण । विकारों का सामना ही करता है। वह भीतर से तटस्थ, निर्लिप्त रहने का प्रयास करता है। यही 'समता' है। इस 'दर्शन' से तत्कालीन जागे हुए विकार को बढ़ावा नहीं मिलता। इतना ही नहीं, क्रमश: पुराने संस्कार भी क्षीण होते चले जाते हैं। लोग जिसको बदलना अशक्य मानते हैं आदमी का वह 'स्वभाव' भी इस अभ्यास से बदलता जाता है।
आगे बढ़ा हुआ साधक सीधे मन का -अमूर्त विकारों का भी निरीक्षण करता है। उस समय भी संवेदनाओं का ज्ञान तो संलग्न रहता ही है। जब तक मन और शरीर जुड़े हुए हैं, तब तक संवेदनाएं रहेंगी। करना यह है कि इन संवेदनाओं की वजह से हम राग न जगा लें, द्वेष न जगा लें। संवेदनाओं को जाने अवश्य पर इनको महसूस करते समय तटस्थ, अलिप्त रह जायँ - यही सच्ची समता है। इसी से नये कर्म बँधते नहीं और पुरानों की निर्जरा होती जाती है। संवेदनाओं से बेखबर रहने पर जो समता या तटस्थता होगी, वह मूर्च्छित अवस्था की, बेहोशी की समता है। अंध, बधिर की तरह हमारे भीतर क्या हो रहा है उससे अनजान, मूढ़, बेहोश बन कर अंधकार में पड़े नहीं रहना है। ऐसी अचेत, अज्ञान अवस्था में राग-द्वेष की अनुभूति ऊपरी स्तर पर दिखाई न भी देती हो, परंतु वह एनेस्थेसिया की-सी अवस्था है, जिसमें पीडा तो होती है पर पीडा का भान नहीं होता।
साधक स्थूल व सूक्ष्म संवेदनाओं के प्रति तटस्थ कैसे रह सकता है ? शरीर और मन के वास्तविक स्वभाव का ज्ञान ही समता रखने में सहायक होता है। शरीर और शरीर में होने वाली ये संवेदनाएं अनित्य हैं । तुरंत बदल जाती हैं। ये ‘मेरे आधीन' नहीं, ये 'मेरा स्वरूप' नहीं, ये ‘मेरी' नहीं - इस सत्य का बोध जागृत रहता है तो समता रखनी आसान हो जाती है। पुराने संस्कार संवेदना के साथ चित्त-शरीर पर प्रकट होते जायेंगे, साधक समता से देखता चला जायगा तो उनकी निर्जरा होती जायगी। यही विपश्यना यानी “विशेष रूप से देखना” है। सब का मंगल हो!
- मुनिश्री भुवनचंद्र
जुलाई 1997 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

Premsagar Gavali

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