गृहस्थ धर्म [धम्मिक सुत्तं]



गहढवत्तं पन वो वदामि, यथाक रो सावको साधु होति।
न हेस लडभा सपरिग्गहेन, फ स्सेतुं यो के वलो भिक्खुधम्मो॥

कोई परिग्रही [गृहस्थ] संपूर्ण रूप से भिक्षु धर्म का परिपालन नहीं कर सकता। अतः मैं तुम्हें गृहस्थ धर्म बताता हूं कि पालन करने वाला श्रावक गृहीसज्जन बन जाता है, सत्पुरुष बन जाता है।
पाणं न हने न च घातयेय्य, न चानुजा हनतं परेसं ।
सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं, ये थावरा ये च तसा सन्ति लोके ॥

न स्वयं किसी प्राणी की हत्या करे,न कि सीसे करवाए और न ही दूसरों को हत्या करने की अनुमति दे । संसार में जितने भी स्थावर व जंगम प्राणी हैं, सब के प्रति हिंसा त्याग दे।
ततो अदिन्नं परिवज्जयेय्य, किञ्चि क्वचि सावको बुज्झमानो।
न हारये हरतं नानुजञा, सब्बं अदिन्नं परिवज्जयेय्य ॥
और फिर समझदार श्रावक बिना दी हुई किसी अन्य की कोई वस्तु ग्रहण करना छोड़ दे। न चुराए, और न ही किसी को चुराने की अनुमति दे। सब प्रकार की चोरी का सर्वथा परित्याग कर दे।
अब्रह्मचरियं परिवज्जयेय्य, अङ्गारकासु जलितंव विजू।
असम्भुणन्तो पन ब्रह्मचरियं, परस्स दारं न अतिक्क मेय्य ॥

समझदार व्यक्ति अब्रह्मचर्य को जलते हुए अंगारों से भरे गढे की तरह त्याग दे। और यदि ब्रह्मचर्य का पालन असंभव हो तो पर-स्त्री गमन तो न ही करे।
सभग्गतो वा परिसग्गतो वा, एक स्स वेको न मुसा भणेय्य।
न भाणये भणतं नानुजा , सब्बं अभूतं परिवज्जयेय्य ॥

सभा या परिषद में जाकर एक-दूसरे के लिए न झूठ बोले, न बोलवाए और न बोलने की अनुमति ही दे। सब प्रकार के मिथ्या भाषण को सर्वथा त्याग दे।
मज्जञ्च पानं न समाचरेय्य, धम्म इमं रोचये यो गहट्ठो।
न पायये पिवतं नानुजञा, उम्मादनन्तं इति नं विदित्वा ॥

जो गृहस्थ सद्धर्म का इच्छुक है उसे चाहिए कि मदिरा को उन्मादजनक समझ कर उसे न स्वयं पिये, न पिलाये और न ही पीने की अनुमति दे।
मदा हि पापानि क रोन्ति बाला, कारेन्ति च पि जने पमत्ते ।
एतं अपुञायतनं विवज्जये, उम्मादनं मोहनं बालक न्तं ॥

मूढ़ लोग मद के कारण ही पापकर्म करते हैं और अन्य मद-प्रमत्त लोगों से कराते हैं। इस पाप के स्थानों को त्याग दे, जो कि उन्मादक है, मोहक है और बालरंजक है याने मूर्खो को प्रिय है।
पाणं न हने न चादिनमादिये, मुसा न भासे न च मज्जपो सिया।
अब्रह्मचरिया विरमेय्य मेथुना, रत्तिं न भुजेय्य विकालभोजनं ॥

प्राणी-हत्या न करे,चोरी न करे,झूठ न बोले और मदिरापान न करे। अब्रह्मचर्य, मैथुन से विरत रहे और रात्रि में विकाल भोजन न करे।
मालं न धारे न च गन्धमाचरे, मञ्चे छमायं व सयेथ सन्थते ।
एतं हि अट्ठङ्गिक माहुपोसथं, बुद्धेन दुक्खन्तगुना पकासितं ॥

न माला धारण करे और न सुगंधि का सेवन करे । मंच पर सोये या जमीन पर या कंबल-सतरंजी पर । इसे अष्टांगिक उपोसथ याने अष्टशील कहते हैं। दु:ख-पारंगत बुद्धों द्वारा यह प्रकाशित किया गया है।
ततो च पक्खस्सुपवस्सुपोसथं, चातुद्दसिं पञ्चदसिञ्च अट्ठमि ।
पाटिहारियपक्खञ्च पसनमानसो, अट्ठमुपेतं सुसमत्तरूपं॥

प्रत्येक पक्ष की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अष्टमी तथा अन्य पर्व के दिनों में शुद्ध चित्त से इन अष्ट-उपोसथ शील धर्मों का सम्यक प्रकार से पालन करे।
ततो च पातो उपवुत्थुपोसथो, अनेन पानेन च भिक्खुसङ्ख ।
पसन्नचित्तो अनुमोदमानो, यथारहं संविभजेथ विञ्जू॥

समझदार व्यक्ति उपोसथ व्रत धारण कर प्रातःकाल मुदित मन से श्रद्धापूर्वक भिक्षु संघ को, संतों को अन्न और पेय का यथाशक्ति दान करे।
धम्मेन मातापितरो भरेय्य, पयोजये धम्मिकं सो वणिज्जं ।
एतं गिही वत्तय'मप्पमत्तो, सयम्पभे नाम उपेति देवेति॥

अपने को किसी धार्मिक व्यवसाय में लगाये और धर्मपूर्वक माता-पिता का पोषण करे। जो गृहस्थ अप्रमत्त होकर इस प्रकार सदाचरण करता है वह स्वयं प्रभ देवों में जन्म लेता है।

जुलाई 1996 हिंदी पत्रिका में प्रकाशित

Premsagar Gavali

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