
१―आटानाटिय (भूतो-यक्षो से) रक्षा । (१) सातो बुद्धो को नमस्कार । (२) चारो महाराजो का वर्णन । (३) रक्षा न माननेवाले यक्षो को दंड । (४) प्रबल यक्षो का नाम स्मरण ।
२―आटानाटिय-रक्षा की पुनरावृत्ति ।
ऐसा मैने सुना―एक समय भगवान् राजगृहके गृध्रकूट पर्वतपर विहार करते थे ।
तब, चारो लोकपाल महाराज (अपने) यक्षो, गन्धर्वो, कूष्मांडो, और नागो की बडी भारी सेना लेकर, चारो दिशाओ मे रक्षको को बैठा, योद्धाओ की टोलियो को नियुक्त कर, रात बीतने पर, प्रकाशमान हो, सारे गृध्रकूट पर्वत को प्रकाशित करते जहाँ भगवान थे, वहॉ गये । जाकर भगवान को अभिवादन कर बैठ गये । कितने भगवान का समोदन कर, कितने भगवान को अञ्जलिबद्ध प्रणाम कर, कितने नाम और गोत्र सुनाकर, और कितने चुपचाप एक ओर बैठ गये ।
१―आटानाटिय (भूतों-यक्षों से) रक्षा
एक ओर बैठे वैश्रवण (कुबेर) महाराज भगवान से बोल―“भन्ते । कितने ही बडे बडे यक्ष आप पर अश्रद्धावान् (अप्रसन्न) है, और कितने श्रद्धावान्, कितने मध्यम यक्ष आप पर अश्रद्धावान् (अप्रसन्न) है, और कितने श्रद्धावान्, कितने नीच यक्ष आप पर अश्रद्धावान् (अप्रसन्न) है, और कितने श्रद्धावान् । भन्ते । जो इतने यक्ष आप पर अप्रसन्न है, सो क्यो ?
(क्योकि) भगवान् जीव-हिंसा न करने के लिये धर्मोपदेश करते हे, चोरी न करने के लिय० । भन्ते । जो यक्ष जीव-हिंसा से विरत नही है, चोरी से विरत नही है, उन्हे यह अप्रिय और मन के प्रतिकूल मालूम होता है । भन्ते । भगवान के श्रावक जंगल मे एकान्तवास करते है ० । (किन्तु) वहॉ जो बडे बडे यक्ष रहते है, वे भगवान के इस प्रवचन से अप्रसन्न है । भन्ते भिक्षुओकी, भिक्षुणियोकी ० उपासक, उपासिकाओ की रक्षा, अ-पीडा और सुख-पूर्वक विहार करने के लिये उन लोगो को प्रसन्न रखने को भगवान् आटानाटिय रक्षा का उपदेश करे ।
भगवानने मौन से स्वीकार किया । तब वैश्रवण महाराज ने भगवान की स्वीकृति जान उस समय यह आटानाटिय रक्षा कही―
(१) सातो बुद्धोको नमस्कार
“चक्षुमान, श्रीमान् विपश्यो को नमस्कार हो ।
सर्व भूतानुकम्पी शिखी को नमस्कार हो ॥१॥
स्नातक तपस्वी विश्वभू को नमस्कार हो ।
मार-सेना को छिन्न-भिन्न कर देने वाले क्रकुच्छन्द को नमस्कार हो ॥२॥
ब्रह्मचारी कोणागमन ब्राह्मण को नमस्कार हो,
सभी प्रकार से विमुक्त काश्यप को नमस्कार हो ॥३॥
आगिरस श्रीमान् शाक्यपुत्र को नमस्कार हो
जिनने सब दुखो के नाश करने वाले धर्म का उपदेश किया ॥४॥
और जो दुसरे भी यथार्थ ज्ञान पा निर्वाण को प्राप्त हुये है,
वे सभी महान् निर्भय आस्त्रव-रहित (अर्हत्) सुने ॥५॥
वह देव मनुष्यो के हितके लिये है ।
उन विद्याचरणसम्पन्न, महान् और निर्भय गौतम को नमस्कार करते है ॥६॥
(२) चारों महाराजोंका वर्णन
१—धृतराष्ट्र—जहॉ से महान् मण्डलवाला, आदित्य, सूर्य उगता है,
जिसके कि उगने से रात नष्ट हो जाती है ॥७॥
जिस सूर्य के उगने से कि दिन कहा जाता है,
(वहाँ एक) गम्भीर जलाशय, नदियो के जलवाला समुद्र है ॥८॥
उसे वहॉ नदी-जलवाला समुद्र समझते है ।
यहाँसे वह पूर्व दिशा मे है—ऐसा उसके विषय मे लोग कहते है ।
जिस दिशा को कि वह यशस्वी महाराजा पालन करता है ॥९॥
(वह) गन्धर्वो का अधिपति है, उसका नाम धृतराष्ट्र है,
गन्धर्वोके आगे हो नृत्य गीत मे रमण करता है ॥१०॥
उसके बहुत से पुत्र एक नामवाले सुने जाते है,
और एकानवे (पुत्र) महाबली इन्द्र नामवाले है ॥११॥
वे भी बुद्ध, आदित्य-वंशज निर्भय महान् बुद्ध को देख
दूर ही से नमस्कार करते है—हे पुरुष श्रेष्ठ । पुरुषोत्तम । तुम्हे नमस्कार हो ॥१२॥
तुम कुशल से समीक्षा करते हो, अमनुष्य (देवता) भी तुम्हे प्रणाम करते है—
हम लोग ऐसा सदा सुनते है, इसी से ऐसा कहते है ॥१३॥
जिन (विजयी) गौतम को प्रणाम करो, जिन गौतम को हम प्रणाम करते है ।
विद्या-आचरण-सम्पन्न गौतम बुद्ध को हम प्रणाम करते है ॥१४॥
२—विरुढक-जीव-हिंसक, रुद्र, चोर, शठ, और चुगलखोर,
पीछे मे निन्दा करने वाले प्रेतजन कहे जाते है, वे जहाँ (रहते है) ॥१५॥
वह (स्थान) यहॉ से दक्षिण दिशा मे है—ऐसा लोग कहते है ।
उस दिशा को ये यशस्वी महाराज पालन करते है ॥१६॥
(वह) कूष्माडो के अधिपति है, उनका नाम विरुढक है,
वह कूष्माडो को आगे हो के नृत्य गीत मे रमण करते है ॥१७॥
उसके बहुत से पुत्र एक नामवाले सुने जाते है,
और एकानवे (पुत्र) महाबली इन्द्र नामवाले है ॥१८॥
वे भी बुद्ध, आदित्य-वंशज निर्भय महान् बुद्ध को देख
दूर ही से नमस्कार करते है—हे पुरुष श्रेष्ठ । पुरुषोत्तम । तुम्हे नमस्कार हो ॥१९॥
तुम कुशल से समीक्षा करते हो, अमनुष्य (देवता) भी तुम्हे प्रणाम करते है—
हम लोग ऐसा सदा सुनते है, इसी से ऐसा कहते है ॥२०॥
जिन (विजयी) गौतम को प्रणाम करो, जिन गौतम को हम प्रणाम करते है ।
विद्या-आचरण-सम्पन्न गौतम बुद्ध को हम प्रणाम करते है ॥२१॥
३—विरुपाक्ष-जहाँ महान् मंडलवाला आदित्य सूर्य अस्त होता है,
जिसके कि अस्त होने से दिन नष्ट हो जाता है ॥२२॥
जिस सूर्यके अस्त हो जाने से रात कही जाती है ।
वहाँ (एक) गम्भीर जलाशय, नदी जलवाला समुद्र है ॥२३॥
उसे वहाँ ० पश्चिम दिशा दिशा मे है—ऐसा लोग कहते है । ॥२४॥
(वह) नागोका अधिपति है, उसका नाम विरुपाक्ष है ।
वह नागो के आगे हो, नृत्य गीत मे रमण करता है ॥२५॥
उसके बहुत से पुत्र एक नामवाले सुने जाते है,
और एकानवे (पुत्र) महाबली इन्द्र नामवाले है ॥२६॥
वे भी बुद्ध, आदित्य-वंशज निर्भय महान् बुद्ध को देख
दूर ही से नमस्कार करते है—हे पुरुष श्रेष्ठ । पुरुषोत्तम । तुम्हे नमस्कार हो ॥२७॥
तुम कुशल से समीक्षा करते हो, अमनुष्य (देवता) भी तुम्हे प्रणाम करते है—
हम लोग ऐसा सदा सुनते है, इसी से ऐसा कहते है ॥२८॥
जिन (विजयी) गौतम को प्रणाम करो, जिन गौतम को हम प्रणाम करते है ।
विद्या-आचरण-सम्पन्न गौतम बुद्ध को हम प्रणाम करते है ॥२९॥
४—वैश्रवण—जहाँ रमणीय उत्तर-कुल और सुदर्शन सुमरु पर्वत है,
जहाँ पर मनुष्य परिगह-रहित, ममता-रहित उत्पन्न होते है ॥३०॥
वे न बीज बोते है, और न हल जोतते है ।
वे मनुष्य अकृष्ट-पच्य (स्वंय उत्पन्न) शाली को खाते है ॥३१॥
फन और भूसी से रहित, शुद्ध और सुगन्धित,
चावल को दूध मे पकाकर भोजन करते है ॥३२॥
बैल की सवारी पर सभी ओर जाते है ।
पशु की सवारी पर सभी और जाते है ॥३३॥
स्त्रीको वाहन (सवारी) बना, सभी ओर जाते है ।
पुरूषको वाहन बना सभी ओर जाते है ॥३४॥
कुमारी ० कुमार को वाहन बना सभी ओर जाते है ।
उस राजा की सेवा में यानो पर सवार होकर सभी दिशाओ से आते है ॥३५॥
उस यशस्वी महाराज के पास हस्तियान, अश्वयान,
और दिव्ययान, प्रासाद और शिविकाये है ॥३६॥
उनके नगर आटानाटा, कुमिनाटा, परकुसिनाटा,
नाटसुरिया, परकुसितनाटा—अन्तरिक्षमे बने है ॥३७॥
उसके उत्तर मे कपीवन्त और दूसरी ओर जनौध, (तथा) निन्नावे दूसरे नगर है ।
अम्बर, अम्बरवती नामक नगर है, आलकमन्दा नामकी (उनकी) राजधानी है ॥३८॥
मार्ष । कुबेर महाराज की राजधानी निसाणा नाम की है ।
इसीलिये कुबेर महाराज वेस्सवण (वैश्रवण) कहे जाते है ॥३९॥
ततोला, तत्तला, ततोतला, ओजसि, तेजसि, ततोजसि,
अरिष्टनेमि, सूर, राजा अन्वेषण करते प्रकाशते है ॥४०॥
वहाँ धरणी नामक एक सरोवर है, जहाँ से जल लेकर,
मेघ वृष्टि करते है, और जहाँ से वृष्टि प्रसरित होती है ।
सागलवती (भागलवती) नामक सभा है, जहाँ यक्ष लोग एकत्रित होते है ॥४१॥
वहाँ नाना पक्षि-समूहो से युक्त नित्य फलने वाले वृक्ष है,
जो मयूर, कौञ्च, कोकिल आदि (पक्षियो)के मधुर कूजनसे व्याप्त रहते है ॥४२॥
वहाँ जीव जीव शब्द करते है, और आठवे, चित्रक (शब्द करते है) ।
वनोमे कुकुत्थक, कुलीरक, पोक्खरसातक, शुक, सारिका, दयडमान और बक शब्द करते है ।
वहॉ सदा सर्वकाल कुबेर की नलिनी शोभायमान रहती है ॥४३-४४॥
‘यहाँ से उत्तर दिशामे है’—ऐसा लोग कहते है,
जिस दिशा को कि वह यशस्वी महाराज पालन करते है ॥४५॥
यक्षो के अधिपति है, उसका नाम वैश्रवण है ।
वह यक्षो के आगे हो, नृत्य गीत मे रमण करता है ॥४६॥
उसके बहुत से पुत्र एक नामवाले सुने जाते है,
और एकानवे (पुत्र) महाबली इन्द्र नामवाले है ॥४७॥
वे भी बुद्ध, आदित्य-वंशज निर्भय महान् बुद्ध को देख
दूर ही से नमस्कार करते है—हे पुरुष श्रेष्ठ । पुरुषोत्तम । तुम्हे नमस्कार हो ॥४८॥
तुम कुशल से समीक्षा करते हो, अमनुष्य (देवता) भी तुम्हे प्रणाम करते है—
हम लोग ऐसा सदा सुनते है, इसी से ऐसा कहते है ॥४९॥
जिन (विजयी) गौतम को प्रणाम करो, जिन गौतम को हम प्रणाम करते है ।
विद्या-आचरण-सम्पन्न गौतम बुद्ध को हम प्रणाम करते है ॥५०॥
(३) रक्षा न मानने वाले यक्षो को दण्ड
“मार्ष । यह आटानाटिय रक्षा भिक्षु , भिक्षुणियो, उपासक, उपासिकाओ की रक्षा के लिये है । जो कोई भिक्षु, भिक्षुणि, उपासक, उपासिका इस रक्षा को ठीक से पढेगा और धारण करेगा, उसके पीछे यदि अमनुष्य—यक्ष, यक्षिणी, यक्ष का बच्चा, यक्ष की बच्ची, यक्ष-महामात्य, यक्ष-पार्षद, यक्ष-सेवक, गन्घर्व ०, कूष्माण्ड ०, नाग ० बुरे चित्त से चले, खडे हो, बैठे, सोये, तो मार्ष । वह अमनुष्य मेरे ग्राम मे या निगम मे सत्कार, गुरुकार न पावेंगे ।
मार्ष । वह अमनुष्य मेरी आलकमन्दा राजधानी मे रहने नही पावेंगे, और न वह यक्षो की समिति में जा सकेंगे ।
मार्ष । दुसरे अमनुष्य उससे रोटी-बेटी का सम्बन्ध हटा लेंगे, बहुत परिहास करेंगे, खाली बर्तन से उसका शिर भी ढँक देंगे । उसके शिर के सात टुकडे कर देगे ।
“मार्ष । कितने अमनुष्य चण्ड, रुद्र और तेज स्वभाव के है । वे न तो महाराजाओ को मानते है, न उनके अघिकारियो (पुरुष) को, और न अघिकारियो के अघिकारियो को । मार्ष । वे अमनुष्य महाराजो के बागी (अवरुद्ध) कहे जाते है मार्ष । जैसे मगघराज के राज्य मे महाचोर (डाकू) है, वे न तो राजा को मानते है, न राजा के अघिकारियो को ० । वे महाचोर डाकू राजा के बागी कहे जाते है । मार्ष । उसी तरह चण्ड, रुद्र ० अमनुष्य है, जो न तो महाराजाओ को मानते है, न उनके अघिकारियो ० । ० वे महाराजाओ के बागी कहे जाते है ० ।
(४) प्रबल यक्षो का नाम-स्मरण
“मार्ष । कोई भी अमनुष्य—―यक्ष या यक्षिणी ०, गन्घर्व ०, कुम्भण्ड ० या नाग ०, द्वेषयुक्त चित्त से भिक्षु, भिक्षुणि, उपासक, उपासिका के पीछे जाय तो इन यक्षो, महायक्षो, सेनापतियो और महासेनापतियो को पुकारना चाहिये, टेर देनी चाहिये, चिल्लाना चाहिये—―यह यक्ष पकड रहा है, शरीर मे प्रवेश कर रहा है, सताता है, ० बहुत सताता ० । ० डराता ० । ० बहुत डराता ० । यह यक्ष नही छोडता । किन यक्षो, महायक्षो, सेनापतियो, महासेनापतियो को (पुकारना चाहिये) ? —
“इन्द्र, सोम, वरुण, भारद्वाज, प्रजापति, चन्दन, कामश्रेष्ठ, घण्डु और निर्धण्डु ।।५१।।
प्रणाद (पनाद), श्रौपमन्यव, देवसूत मातलि, गन्घर्व चित्रसेन और देवपुत्र राजा नल ।।५२।।
सातागिर, हैमवत, पूराणक, करती, गुड, शिवक१, मुचलिन्द, वैश्वामित्र और युगन्धर ।।५३।।
गोपाल, सुप्परोघ, हिरि, नेत्ति, मन्दिय, पञ्चाल चण्ड आलवक२,
पर्जन्य (पज्जुन्न) सुमन, सुमुख, दधिमुख, मणि (भद्र) मणिचर, दीर्घ और सेरिसिक ।।५४।।
“इन यक्षो, महायक्षो, सेनापतियो, महासेनापतियो को पुकारना चाहिये, टेर देनी चाहिये —―० यह यक्ष पकड रहा है ० ।
“मार्ष । यह आटानाटिय-रक्षा भिक्षु, भिक्षुणियो, उपासक, उपासिकाओ की रक्षा, अ-पीडा और सुख-पूर्वक विहार करने के लिये उन लोगो को प्रसन्न रखने को भगवान् आटानाटिय रक्षा का उपदेश करे ।
।
“मार्ष । अब हम लोग जायेंगे, हम लोगोको बहुत काम है, बहुत करणीय है ।”
जैसा महाराजो । तुम काल समझते हो (वैसा करो) ।”
तब चारो महाराज आसन से उठ, नमस्कार कर, प्रदक्षिणा कर अन्तर्घान हो गये । वे यक्ष भी आसन से उठ, नमस्कार कर, प्रदक्षिणा कर अन्तर्घान हो गये ।
प्रथम भाणवार ॥१॥
२―आटानाटिय-रक्षा की पुनरावृत्ति
तब भगवान ने उस रात के बीतने पर भिक्षुओ को संबोधित किया―
“भिक्षुओ । रात को चारो लोकपाल महाराजा ० जहाँ मै था वहाँ आये । ० बैठ गये । ० वैश्रवण महाराज ने कहा-भन्ते । कितने बडे बडे यक्ष... ० ....आसनसे उठ अन्तर्घान हो गये ।
“भिक्षुओ । आटानाटिय-रक्षा को पढो, ग्रहण करो, धारण करो । भिक्षुओ । आटानाटिय
रक्षा भिक्षुओ, भिक्षुणियो, उपासक, उपासिकाओ की रक्षा, अ-पीडा अविहिंसा और सुखपूर्वक विहारके लिये सार्थक है ।”
भगवान ने यह कहा । सतुष्ट हो भिक्षुओ ने भगवान के भाषणका अभिनन्दन किया ।
32. आटानाटिय-सुत्त (३।६) दीध-निकाय