
अगस्त 2000 के अंत में एक लंबे दिन के अपराहन का समय था। न्यूयार्क के संयुक्त राष्ट्र के मुख्य सभा भवन में सहस्राब्दि विश्व शांति शिखर सम्मेलन के प्रतिनिधि श्रांत एवं क्लांत होकर बैठे थे। यह संयुक्तराष्ट्र में धार्मिक तथा आध्यात्मिक नेताओं का प्रथम विश्व सम्मेलन था और यहां बात-चीत करते-करते लोग कटुता पर उतर आये थे। कोई सहमति नहीं बन पायी थी | प्रतिनिधिगण धर्मांतरण के प्रश्न पर एक दूसरे का कड़ा प्रतिरोध कर रहे थे। कुछ प्रतिनिधि तो इस प्रथा के बिल्कुल विरुद्ध थे और अन्य प्रतिनिधियों ने, जो बड़े (समुदाय के) धर्मों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, इस विचार को अस्वीकार कर दिया था। राजनेताओं के बीच भी वर्षों से इसी तरह का विचार-विमर्श चलता रहा था | आज आध्यात्मिक नेता भी उन लोगों से कुछ अधिक नहीं कर पाये थे।
सत्र के अंत में एक कम जाना-पहचाना व्यक्ति मंच पर बुलाया गया। वे मंच पर एक सहायक के सहारे गये। उनके चांदी के से उजले बाल चमक रहे थे और उन्होंने भारत में सिला हुआ एक सुंदर सूट पहन रखा था। उन्होंने सब को सम्मान देते हुए बड़ी भीड़ को गण्यमान्य लोग वहां उपस्थित थे उन सब का ध्यान अपनी ओर खींच लिया, जब कहा'
धर्म तभी धर्म है जब वह लोगों को जोड़े | जब लोगों को जोड़े नहीं, वरन विभाजन करे तब वह धर्म नहीं है। धर्म मनुष्यों को तोड़ता नहीं, बल्कि जोड़ता है।
” तालियों की गड़गड़ाहट के साथ इन शब्दों के वक्ता का जोरदार स्वागत किया गया। ये बाते उन बातों की तरह नहीं थीं, जिन्हें लोग दिन भर बोल और सुन रहे थे। ये बातें कुछ भिन्न थीं, अतः प्रतिनिधियों ने इन्हें ध्यान से सुनना प्रारंभ किया।
वक्ता ने पुनः कहना आरंभ किया- ‘यहां धर्मातरण के पक्ष और विपक्ष में बहुत बातें कहीं गयीं। मैं धर्मातरण के पक्ष में हूं, विपक्ष में नहीं। परंतु धर्मातरण एक संगठित धर्म से दूसरे संगठित धर्म में नहीं होना चाहिए। धर्मातरण होना चाहिए दुख से सुख में, दासता से मुक्ति में, क्रूरता से करुणा में। आज के युग में ऐसे ही धर्मातरण की आवश्यकता है।”
वक्ता के एक-एक शब्द पर तालियां बजती रहीं और उनका स्वागत किया जाता रहा।
अब वक्ता ने विषयवस्तु पर बड़े उत्साह से तथा जोर देकर कहना आरंभ किया। यदि मेरा मन अशांत है, क्रोध, घृणा, ईष्र्या तथा वैमनस्य से भरा है तो मैं संसार को शांति कैसे दे सकता हूं ? इसीलिए तो संसार के संतों ने, ऋषि-मुनियों ने कहा कि अपने आपको जानो | यह जानना केवल बौद्धिक स्तर पर न हो, भावनात्मक अथवा भक्ति के स्तर पर भी न हो, बल्कि यह वास्तविक स्तर पर हो, सच्चाई के स्तर पर हो। जब आप अनुभूति के स्तर पर अपने बारे में सत्य को जानेगे तब बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जायगा। तब आप प्रकृति के सार्वभौम तथा विश्वजनीन नियम को (या ईश्वर को) जान सकेंगे, जो सब पर समान रूप से लागू होता है। जब मैं अपनी ओर देखता हूं और पाता हूं कि मैं क्रोध कर रहा हूं, ईष्र्या कर रहा हूं, किसी से वैर कर रहा हूं तब समझता हूं कि जिस बात को मैं अपने अंदर जगा रहा हूं, उसका पहला शिकार मैं स्वयं ही हूं। पहले मैं अपनी हानि करता हूं बाद में किसी दूसरे की हानि करता हूं l यदि मै अकुशल धर्मो से मुक्त हो जाऊ तो प्रकृति या परमेश्वर मुझे तत्काल इनाम या पुरस्कार देने लगता है। मैं बड़ी शांति अनुभव करता हूं।
‘मैं अपने को हिंदू कहूं या मुस्लिम, क्रिश्चियन कहूं या जैन, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मनुष्य तो मनुष्य है। मनुष्य का मन तो मनुष्य का मन है। इसलिए धर्मातरण होना चाहिए लेकिन मन के स्वभाव का। मन की अशुद्धता से मन की शुद्धता में। यही वास्तविक धर्मातरण है जो अति आवश्यक है। और कुछ नहीं।”
घंटी बज चुकी थी। यह इस बात का संकेत था कि वक्ता का समय समाप्त हो गया है। परंतु उन्होंने अपने देश के एक सम्राट का संदेश देने के लिए समय मांगा | उद्धरण देकर और एक-एक शब्द का अर्थ बताते हुए वक्ता ने कहा "हर धर्म प्रेम, करुणा और सद्भाव की बात करता है। ये बातें सभी धर्मो की नींव हैं। बाहरी छिलके भिन्न-भिन्न हैं। सार को महत्व दो तो झगड़ा होगा ही नहीं। किसी धर्म की निंदा न करो | हर धर्म के सार को महत्व दो तभी सच्ची शांति और सामंजस्य स्थापित होगा।' यहां जिस शासक का उल्लेख किया गया है वह भारत का महान सम्राट अशोक था, जिसने यह संदेश दिया था | धार्मिक सहिष्णुता के लिए यह उसका संसार में प्रथम आह्वान था जो 2000 वर्ष पूर्व किया गया था। और आज इस संदेश को देने वाले दूत थे श्री सत्यनारायण गोयन्का, जिन्होंने अशोक को महानायक के रूप में देखा। इन्होंने अपना सारा जीवन अंतरिक शांति प्राप्त करने की विधि सिखाने में बिता दिया।
प्रारम्भिक जीवन
ऐसा संदेश देने वाले श्री गोयन्काजी का जन्म 1924 में मांडले में हुआ, जो उस समय म्यंमा की राजधानी हुआ करता था। इनके जन्म के 50 से कुछ कम वर्ष पहले राजा थिबाव को ब्रिटिश सरकार ने गद्दी से हटा कर, देश से निर्वासित कर दिया था। इसके शीघ्र बाद इस देश में बड़ी संख्या में भारत के अनेक लोग अपनी रोजी-रोटी की खोज में म्यंमा आये। उनमें से एक अठारह वर्षीय नवयुवक श्री बसेसरलाल गोयन्का भी थे जो इनके पितामह (बाबा) थे। अधिकांश आप्रवासियों की तरह वे भी यहां धन कमाने आये थे। वे एक अच्छे, मेहनती, ईमानदार और आध्यात्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। यद्यपि वे हिंदू थे, लेकिन शीघ्र ही उन्होंने म्यंमा के लोगों तथा उनकी परंपराओं के प्रति गहरी आत्मीयता विकसित कर ली। श्री बसेसरलालजी के मन में म्यंमा के लोगों के प्रति जो आदरभाव था वही भाव उन्होंने अपने पोते में पैदा किया | श्री गोयन्काजी के अनुसार जब वे छोटे थे तब उनके बाबा उन्हें वहां के प्रसिद्ध महाम्या मुनि पगोडा ले जाया करते थे, जो मांडले शहर के परिसर में था। वहां वे आंखें मूंद कर बैठते और चुपचाप ध्यान करते। इस बीच बच्चा वहां शांति एवं धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता और देखता रहता। वहां के गहन शांतिपूर्ण वातावरण का प्रभाव उस पर भी पड़ता रहता। इस प्रकार बच्चे में म्यंमा के प्रति आदर एवं सम्मान का जो भाव था वह अपनी मातृभूमि के प्रति गहरे प्रेम में बदलता चला गया और उसके दीर्घ जीवन में कभी कम नहीं हुआ।
बालक बड़ा हुआ और (रंगून में) स्कूली शिक्षा में आगे बढ़ता हुआ, हाईस्कूल की परीक्षा में पूरे म्यंमा में प्रथम आया। यद्यपि आगे पढ़ने की बात आकर्षक थी लेकिन आगे न पढ़ कर, ये अपने पारिवारिक कपड़े के व्यवसाय में लग गये। तब दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका आयी। जब 1942 में जापानियों ने म्यंमा पर धावा किया तब गोयन्काजी अपने परिवार के एक बड़े समूह का नेतृत्व करते हुए पहाड़ और जंगल के रास्ते उन्हें भारत लाये। ये लोग उन हजारों लोगों से अधिक भाग्यशाली थे जो इस कठिन यात्रा में रास्ते में ही मर गये।
युद्ध के वर्षों को उन्होंने दक्षिण भारत में बिताया। यहां एक मित्र ने उन्हें नया व्यवसाय आरंभ करने में सहायता की। जापानियों की हार और म्यंमा से पुनः पीछे हटने के बाद ये लोग म्यंमा लोट गये ,उस समय श्री गोयनका जी कि उम्र बीस से ऊपर थी। शीघ्र ही उन्होंने व्यापार में अपनी जन्मजात प्रवृति दिखलायी और भारतीय समुदाय के वे नेता हो गये। लेकिन जैसा कि अक्सर कहते रहते थे, धन तथा समाज में ऊंचे स्थान प्राप्त कर भी उन्हें शांति नहीं मिली। बल्कि मानसिक तनाव बढ़ने लगा और ऐसा माइग्रेन (सिरदर्द) हो गया कि जब भी दर्द होता उन्हें मोर्फिन का ऊँचा डोज लेना पड़ता l गोयनका जी जापान गये, यूरोप तथा अमेरिका गये। बड़े-बड़े डॉक्टरों की सलाह ली, लेकिन वे भी उन्हें माइग्रेन से मुक्त नहीं कर सके।
विपश्यना के बारे में जाना
तब उनके एक मित्र ने उन्हें उत्तरी यांगों (रंगून) में स्थित "इंटरनेशनल मेडिटेशन सेंटर" जाने के लिए कहा, जिसकी स्थापना सयाजी ऊ बा खिन ने कुछ ही वर्ष पूर्व कि थी l ऊ बा खिन का जन्म एक गरीब में हआ था। लेकिन वे अपनी प्रतिभा के कारण म्यंमा सरकार के एक बड़े सरकारी अफसर हुए। वे अपूनी सत्यनिष्ठा, ईमानदारी तथा प्रभावकारिता के लिए सुविख्यात और प्रसिद्ध थे। साथ ही अब वे उस विपश्यना के एक गृहस्थ आचार्य थे, जो आत्मदर्शन की एक विधि है और जो म्यंमा में वस्तुत: प्राचीनकाल से बौद्ध भिक्षुओं की गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा सुरक्षित रखी गयी है।
श्री गोयन्काजी ने मित्र की बात मान ली और ध्यान केद्र पर जाकर वहां क्या सिखाया जाता है, उसे जानने की योजना बनायी। जब ये सयाजी ऊ बा खिन से मिलने पहुँचे तब सयाजी ने इन्हें देखते ही यह बात जान ली कि विपश्यना आचार्य के रूप में उनका जो मिशन है वह यही व्यक्ति पूरा कर सकता है।
इसके बावजूद सयाजी ने पहले दस दिवसीय शिविर में इन्हें बैठने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि गोयन्काजी ने साफ-साफ कहा था कि वे मईग्रेन से मुक्त होना चाहते है l इस पर सयाजी ने कहा तुम इस विधि के मूल्य को घटा रहे हो l यह कह कर कि तुम एक शारीरिक रोग से मुक्त होना चाहते हो l यहाँ आओ तो मन को तनाव तथा दुख से मुक्त करने आओ, शारीरिक रोग तो अपने आप चले जायेंगे।"
गोयन्काजी मान गये परंतु फिर भी कुछ महीनों तक शिविर में नहीं गये| बड़ी हिचकिचाहट के बाद उन्होने सन 1955 में पहला शिविर किया। यद्यपि दूसरे दिन उनको भाग जाने की इच्छा हुई लेकिन वे दृढप्रतिज्ञ हुए, अध्यवसाय किया और उन्हें जो लाभ मिले, उसके बारे में कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। हर प्रात:कालीन वंदना में सयाजी ऊ बा खिन के प्रति उनकी गहरी कृतज्ञता प्रकट होती रहती है।
इसके बाद के वर्षों में श्री गोयन्काजी नियमित रूप से अंतर्राष्ट्रीय साधना केंद्र जाते रहे और परिवार के बहुत से सदस्यों को विपश्यना के शिविर में बैठाया। विपश्यना साधना के साथ-साथ वे अपने व्यवसाय का काम-काज भी देखते थे | लेकिन 1963 में जीवन में एक नया मोड़ आया, जबकि नई स्थापित म्यंमा की मिलिट्री सरकार ने राष्ट्रीयकरण का प्रोग्राम आरंभ किया। एक ही रात में गोयन्काजी को उन उद्योग-धंधो से हाथ धोना पड़ा जिन्हें उन्होंने स्थापित किया था तथा उस धन से भी जो उन्होंने कमाया था | उनका नाम भी पूंजीपतियों की उस सूची में था, जिन्हें फांसी पर चढ़ाया जाना था। उस स्थिति को उन्होंने हँसते-हँसते स्वीकार किया। उनके उद्योग-धंधों में लगे मजदूरों को उन्होंने अपने देश की भलाई के लिए कठोर श्रम करने का आहवान किया |
"यदि प्रकृति की यही इच्छा है तो मेरे शरीर का अणु-अणु इस पवित्र धरती के कण-कण में समा जाय। और यदि प्रकृति चाहती है कि मैं अधिक दिनों तक जीवित रहूं तो मेरे जीवन की प्रत्येक सांस मेरी मातृभूमि के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही हो।" (ये भाव उन्होंने अपने राजस्थानी दोहों में भी व्यत किये हैं।)
स्वर्णिम वर्षं
अंततः जीवन पर मेंडराने वाला खतरा टल गया | अर्थात फांसी पर लटकाये जाने वाले लोगों की सूची से इनका नाम हटा लिया गया। श्री गोयन्काजी ने उस जीवन में प्रवेश किया, जिसे वे स्वर्णिम वर्ष कहते थे। काम-धंधे की जवाबदेहियों से मुक्त उन्होंने अपना ज्यादा से ज्यादा समय अपने प्रिय आचार्य के पास बैठ कर साधना करने में बिताना शुरू किया। वे उस धर्म में लीन हो गये जो वस्तुतः मुक्ति का मार्ग है। अपने लिए वे इससे अधिक कुछ नहीं चाहते थे। परंतु सयाजी ऊ बा खिन की योजना कुछ भिन्न थी। उन्हें प्राचीन काल की वह भविष्यवाणी याद आयी, जिसमें कहा गया था कि बुद्ध के 2500 वर्षों बाद उनकी शिक्षा बर्मा से भारत लौटेगी और फिर वहां से संपूर्ण विश्व में फैलेगी।
इस भविष्यवाणी को चरितार्थ करने के लिए ऊ बा खिन की हार्दिक इच्छा भारत जाकर बुद्ध की शिक्षा के सार "विपश्यना को उसकी जन्मभूमि में स्थापित करने की थी। परंतु दुर्भाग्यवश 1960 के दशक में म्यंमा सरकार अपने किसी नागरिक को सामान्यतः विदेश जाने की अनुमति नहीं देती थी। लेकिन श्री गोयन्काजी भारतीय मूल के थे, अतः इन्हें अनुमति दी जा सकती थी।
भारत से विश्व में
समय पक चुका था, ऐसा श्री गोयन्काजी को महसूस हुआ। प्राचीन भविष्यवाणी थी कि म्यमां से धर्म भारत लौटेगा। यह भविष्यवाणी तो सच हो गयी थी। लेकिन भविष्यवाणी यह भी थी कि धर्म भारत से पूरे विश्व में फैलेगा। यह भविष्यवाणी पूरी होनी थी।
इस कार्य को पूरा करने के लिए श्री गोयन्काजी को भारत से बाहर अन्य देशों में जाना आवश्यक था। लेकिन श्री गोयन्काजी के पास जो बरमी पासपोर्ट (पारपत्र) था वह केवल भारत के लिए था। उन्होंने बहुत प्रयास किया, पर अन्य देशों में जाने की अनुमति नहीं मिली। नहीं चाहते हुए भी उन्हें नागरिकता बदलनी पड़ी और मातृभूमि से पुनः नाता तोड़ना पड़ा, लेकिन विश्व का धर्मदूत बनने क लिए यह आवश्यक था।
उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि भारतीय नागरिक बनना और नया पासपोर्ट पाना भी इतना आसान नहीं था | पहले तो गुप्तचरों ने पता लगाया कि श्री गोयन्काजी धम्मगिरि में करते क्या हैं। हर कदम पर विलम्ब हो रहा था। लेकिन अंतत: सारी बाधाएं दूर जहाज पर सवार हुए। म्यमां से भारत आने के ठीक 10 वर्ष बाद वे यहां से विदेश गये।
फ्रांस में उस वर्ष श्री गोयन्काजी ने दो शिविर संचालित किये | इसके बाद एक कनाडा में तथा दो शिविर यूनाईटेड किंगडम में संचालित किये | बड़ी संख्या में पुराने साधक आये। लेकिन वैसे लोग भी बहुत थे जिन्होंने पहले विपश्यना नहीं की थी। इसके बाद जाड़े में कुछ लोग धम्मगिरि आये। दो दशकों तक यही क्रम चलता रहा। इस बीच हर वर्ष श्री गोयन्काजी भारत से बाहर जाते। केवल यूरोप और उतरी अमरीका ही नहीं बल्कि जापान, ताइवान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, श्रीलंका, थाईलैंड आदि अनेक देशों में गये और अंतत: 1990 में वे पहली बार अपनी मातृभूमि म्यमां भी लौट सके। धीरे-धीरे इन देशों में तथा अन्य देशों में विपश्यना केन्द्र खुले। सब जगह विपश्यना सीखने तथा अभ्यास करने का अवसर प्रदान किया गया - ठीक वैसे ही जैसे कि श्री गोयन्काजी सिखाते हैं। उन्हीं नियमों के अनुसार सर्वत्र विपश्यना सिखायी जाने लगी।
एक नया केंद्र बिंदु
श्री गोयन्काजी का मिशन काफी प्रगति कर चुका था, लेकिन अब उनके सामने एक नयी समस्या थी कि इतनी बड़ी संख्या में विपश्यना सीखने वाले लोगों को वे कैसे सिखा सकेंगे ? अब तक वे अकेले सिखाते थे। बड़े शिविरों की भी एक सीमा थी। अमुक संख्या में ही साधकों को व्यक्तिगत रूप से निर्देशित कर सकते थे। एक ही उत्तर था कि सिखाने वालों की संख्या बढ़े। अत: 1981 के अंत में अपने प्रतिनिधिस्वरूप उन्होंने पुराने पके हुए साधकों को प्रशिक्षण देकर सहायक आचार्य के रूप में नियुक्त करना प्रारंभ किया। उनसे कहा गया कि वे रिकार्डेड निर्देशों और प्रवचनों के अनुसार शिविर संचालित करें। यह उचित ही था कि एक सहायक आचार्य द्वारा पहला शिविर यात्रियों की अतिथिशाला, बर्मी विहार, बोधगया में संचालित किया गया जहाँ श्री गोयन्का जी ने बहुत समय बिताया था। यों कुछ महीनों के अंदर ही पूरे विश्व में ऐसे शिविर संचालित किये जाने लगे |
आज 1200 से अधिक सहायक आचार्य हैं जो प्रति वर्ष लगभग 2500 से अधिक शिविरों का संचालन करते हैं जहां लगभग 150,000 लोग 160 से अधिक स्थायी केद्रों पर तथा अस्थायी केन्द्रों पर विपश्यना सीखने आते हैं। 1994 से प्रारंभ कर श्री गोयन्का जी ने बहुत अनुभवी सहायक आचार्यो को आचार्य के रूप में नियुक्त किया। पूरे विश्व में लगभग 300 आचार्य हैं जो विश्वभर के विपश्यना केन्द्रों तथा अन्य विपश्यना शिविरों के कार्यक्रम निर्देशित कर रहे हैं।
सहायक आचार्यो कि नियुक्ति ने गोयन्का जी को अन्य बड़ी योजनाओं पर ध्यान केन्द्रित करने में समर्थ बनाया। उन्होंने अब अपना अधिक समय सार्वजनिक भाषण देने तथा किन्हीं विशेष अवसरों पर भाषण देने में लगाया । जैसे कि 2000 में वल्र्ड इकोनामिक फोरम, डावोस, स्विट्जरलैंड और अगस्त 2000 में विश्व शांति सम्मेलन, यू.एन.ओ. में भाषण दे कर लोगों को चकित किया | उन्होंने 'विपश्यना विशोधन विन्यास ' की स्थापना की। यहां पालि भाषा में पाये जाने वाले बुद्ध के उपदेशों के सारे प्राचीन ग्रंथ देवनागरी लिपि में प्रकाशित करवाये एवं विभिन्न लिपियों में इनकी सीडी बनवाकर लोगों को मुफ्त उपलब्ध करवाया l दिल्ली के तिहाड़ जेल में तथा अन्य सुधार गृहों में निरंतर संचालित विपश्यना शिविरों से वहां के कैदियों में तथा लोगों में क्या क्या सुधार हुए इसका भी निरीक्षण करते रहे। अप्रैल 1994 में तो उन्होंने एक हजार कैदियों का शिविर संचालित किया तथा बाल-शिविर भी संचालित किये।
उन्होंने विपश्यना तथा बुद्ध की शिक्षा पर विस्तार से लिखा। मुंबई के निकट ‘ग्लोबल विपश्यना पगोडा' के निर्माण के लिए लोगों को प्रेरित किया l स्वेड़ेगोन पैगोडा कि प्रतिकृति वाले इस पैगोडा का निर्माण इसलिए किया गया कि यह बहुतों को बुद्ध की शिक्षा के बारे में जानने के लिए आकर्षित कर सके। यह म्यंमा तथा सयाजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के प्रतीक स्वरूप भी है, क्योंकि म्यंमा तथा सयाजी ने ही विपश्यना का दान भारत को वापस लौटाया |
ज्यों ज्यों वर्ष बीतते गये श्री गोयन्काजी को सम्मान तथा उपलब्धिया मिलती रही l उनको विद्या वारिधि, वर्ण कीर्ति, धर्ममूर्ति, महासद्धर्मज्योतिधर्ज, महाउपासक विपश्यनाचार्य' आदि धर्म की अनेक उपाधियां दी गयीं। म्यमा तथा श्री लंका की सरकारों ने उन्हें सरकारी अतिथि के रूप में निमंत्रित किया और उपाधियां प्रदान की। सन 2012 में भारत सरकार ने उन्हें "पद्मभूषण' (सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक) की उपाधि से सम्मानित किया। श्री गोयन्काजी लगातार यही कहते रहे कि वस्तुतः ये सम्मान और उपधिया धर्म के लिय दी गई है l
जीवन के कुछ अंतिम वर्ष
जीवन के अंतिम वर्षों में श्री गोयन्काजी का स्वास्थ्य गिर रहा था। वे व्हील चेयर पर बैठे रहते, उनकी गंभीर आवाज कमजोर हो गयी थी, विस्तार से बोलना कठिन हो गया था। यद्यपि वे रोग और जरा के दु:ख को अनुभव करते, फिर भी उन्होंने काम करना नहीं छोड़ा। जहां तक संभव था अपनी शक्ति के अनुसार वे धर्म सिखाते रहे और दुसरो को इसके अभ्यास के लिय प्रेरित करते रहे l
जैसे जैसे उनकी प्रसिद्धि बढ़ी वैसे वैसे उनका सम्मान भी बढ़ा। लोग उनको बहुत सम्मान देने लगे थे और कुछ लोग उनको पारंपरिक भारतीय गुरु के रूप में देखते थे, यद्यपि इस भूमिका से उनका कुछ भी लेना-देना नहीं था। जब वे ग्लोबल पगोड़ा पर आते तो झुंड के झुंड लोग उनके स्पर्श के लिये आते, मानो लोगों को देने के लिय उनके पास कोई जादुई शक्ति थी l लोगों के इस तरह के व्यवहार से वे खिन्न हो जाते थे क्योंकि धर्मदूत के उनके काम से इसका दूर परे का भी संबंध नहीं था। न्यूयार्क में 2002 में सार्वजनिक व्याख्यान देने के बाद उन्होंने कहा था, मैं एक आम आदमी हूं। भारत में शिक्षक को "गुरुजी कहा जाता है और श्री गोयन्काजी के कुछ शिष्य उन्हें प्यार से गुरुजी कहते भी थे। लेकिन वे कहते कि यदि उन्हें किसी अभिनाम से अभिहीत किया जाये तो उन्हें पालि भाषा में प्रयुक्त 'कल्याणमित्र' कहा जाना अच्छा लगेगा, जिसका मतलब होता है कल्याण चाहनेवाला मित्र।
वे अपने शिष्यों को फोटो लेने से रोक नहीं सके, यद्यपि वे जब कैमरा उनकी ओर करते तो श्री गोयन्काजी उन्हें यह कह कर चिढाया करते कि क्या मेरा बहुत सा फोटो आपके पास नही है l वे अपने फोटो के बारे में मजाक तो कर लेते, परंतु उन्होंने साधना कक्ष में या विपश्यना केन्द्रों के अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अपना फोटो टांगने या लगाने कि अनुमति कभी नही दी l
(केवल कार्यालय छोड़कर)। जब पूछा जाता कि क्या उन्हें बोधि की प्राप्ति हुयी तो उनका उत्तर होता जितना-जितना मैंने अपने मन को क्रोध, घृणा और द्वेष से मुक्त किया है, उतना-उतना मैंने बोधि की प्राप्ति कर ली है l उन्होंने यह दावा कभी नही किया कि उन्होंने किसी विशेष अवस्था कि प्राप्ति कर ली है l ज्यादा से ज्यादा वे सौम्यता से यह कहते, हां मैं उन लोगों से मार्ग पर कुछ अधिक चला हूं जो अभी मुझसे धर्म सीखने आये हैं। शिविर के अंत में बहुत से साधक उनको धन्यवाद देने आते l उनका उत्तर बराबर एक सा होता था मैं तो सिर्फ एक माध्यम हूं, धन्यवाद दो धर्म को, और कठोर परिश्रम करने के लिए अपने आप को भी |
2010 में उन्होंने कहा- जिस व्यक्ति ने धर्म यहां लाया उससे ज्यादा महत्वपूर्ण उसे भेजने वाले ऊ बा खिन हैं। बहुत पहले अशोक द्वारा भेजे गये उन धर्मदूतों के नाम को, जो भारत के पड़ोसी देश में धर्म ले गये, लोग उन्हें भूल गये हैं। परंतु अशोक को नहीं। इसलिए बुद्ध शासन के इस नये युग में लोग ऊ बा खिन को अवश्य याद रखें । लोग उन्हें याद करें या न करें - इसकी परवाह उन्हें नहीं थी।
तथापि श्री गोयन्काजी उन लोगों के लिए सदा अविस्मरणीय रहेगे जो उन्हें जानते थे |
सयाजी ऊ वा खिन ने बहुत पहले कहा था "विपश्यना का डंका अब बज चुका है।" परंतु विश्व में बहुत से लोगों को धर्म का संदेश देने वाले व्यक्ति श्री गोयन्काजी ही थे। उनके लिए वे धर्म के प्रतीक थे- यथा, प्रज्ञा, विनम्रता, करुणा, नि:स्वार्थता और उपेक्षा या समभाव के l वे अक्सर धर्मरस के मिठास कि बात करते l हाल से बाहर जाते समय “सबका मंगल हो” “सबका मंगल हो” कहते हुये ही बाहर आते। उनकी मीठी आवाज की तरह ही उनका व्यक्तित्व सदा याद रहेगा l
चाभियो का गुच्छा
यह कहानी श्री गोयन्काजी दस-दिवसीय शिविर के समापन प्रवचन में कहते हैं :- एक बूढ़ा, बहुत धनवान व्यक्ति, बुढ़ापे में विधुर हो गया। विधुर हो गया, माने घरवाली स्वर्ग सिधार गयी। और अपने यहां तो घरवाली, वही गृहलक्ष्मी। घर में जो अन्न धन भंडार, उसकी चाभियां तो उसके पास रहें। अब वह तो चली गयी। यह चाभियों का गुच्छा किसको दे? संयुक्त परिवार है. चार पुत्र हैं तो चार बहुएं हैं। चारों को तो दे नहीं सकता। तो चारों को बुलाकर कहता है- मैं परीक्षा लूगा और यह चाभी का गुच्छा उसको मिलेगा जो परीक्षा में सबसे अव्वल नम्बर, ऊँचे नम्बर ले करके आयेगी l
क्या परीक्षा लुंगा? तो ये पांच दाने, ये पांच दाने अनाज के, ये पांच दाने अनाज के - चारों को पांच-पांच दाने दे दिए, और कहा चार वर्ष के बाद आऊंगा। जो इन पांच दानों को संभाल कर रखेगी, उसको चाभी का गुच्छा। और जो पांच दाने अनाज के नहीं संभाल सकती वह इतना बड़ा अन्न-धन भंडार कैसे संभालेगी l बस यही परीक्षा है हमारी।
बूढ़ा चला गया। बड़ी बहू ने सोचा यह बूढ़ा सठिया गया। कोई बात हुई ? ये पांच दाने ? अरे, चार बरस तक, भेजा खराब हो जायगा याद करते-करते, फेंक न ! वह आयगा तो अपने भंडार में से दूसरे पांच दाने लेकर दे दूंगी - ले तेरे पांच दाने | बात खत्म हो जायगी। फेंक दिए उसने।
दूसरी ने सोचा कि बात तो ठीक है। चार बरस तक इनकी चिन्ता करना समझदारी कि बात नहीं l बुढा बड़ा अनुभवी है l बड़ा घाघ है। उसको जीवन-भर का अनुभव है। कौन जाने इन्हीं पांच दानों में कोई करामात हो, चमत्कार हो | चार वर्ष के बाद आयेगा तब कहेगा कि खा ले l और खाते ही “पुत्रवती भव” "सौभाग्यवती भव". न जाने क्या-क्या भव हो जायगा ? तो अभी क्यों न खा लू ? वह आयगा तो दूसरे पांच दाने दे दूंगी। खा गयी।
तीसरी को तो चाभी का गुच्छा दिखे। चाभी का गुच्छा चाहिए। तो अपने पूजा के कमरे में एक चांदी की डब्बी में पांचों दाने रखकर, रोज सुबह-शाम जैसे अपने देवताओं को जाकर संभाल ले, वैसे जाकर इन पांच दानों को भी संभाल ले। चार बरस तक खूब पहरेदारी की |
चौथी ने पांचों दाने लिए, घर के पिछवाड़े की जमीन साफ की। पांचों दाने बो दिए। समय पाकर पांच पौधे निकल आये | एक-एक पौधे में सौ-सौ दाने आ गये। अगले मौसम में पांच सौ के पांच सौ बों दिए। अगले मौसम जितने आये, वे बो दिए। अरे चार वर्ष में तो मनों अनाज हो गया, टनों अनाज हो गया। गोदाम भर गया।
बूढ़ा आया। सबने अपनी-अपनी राम कहानी कह सुनायी। चौथी ने कहा, महाराज! आपके पांच दाने इतने बढ़ गये, गोदाम भर गया। मजदूर लाइये और उठाइये वहां से। बूढ़े ने कहा - यह बेटी काम की। इसने संभालकर ही नहीं रखा, इसने संवर्धन भी किया।
तो इस बूढ़े ने भी पांच दाने धर्म के दिये हैं, संभालकर ही नहीं रखना, खूब संवर्धन करना। खूब संवर्धन करना। और हम तो यह चाभियों का गुच्छा भी अपने साथ नहीं ले जाते। हर एक के पास छोड़कर जाते हैं, सबके पास अपना-अपना चाभी का गुच्छा l धर्म में खुब पको, खुब पको और खोलो दरवाजा l स्वर्गीय सुख का दरवाजा भीतर खोलो। खुब पको, खुब पको ब्राह्मी आनंद का दरवाजा भीतर खोलो। खूब-खूब पको, निर्वाणीक परमसुख का दरवाजा अपने भीतर खोलो l चाभी अपने ही हाथ में है।
खूब पको धर्म में, खूब पको धर्म में। बड़ा मंगल है, बड़ा कल्याण है। बड़े भाग्य से, बड़े पुण्य से प्राप्त होता है धर्म। सबका मंगल हो!
(यह लेख विपश्यना के आचार्य मि. विलियम हार्ट द्वारा अपने आने साधको के अनुभव के आधर पर लिखा गया और २२ अक्तूबर के विपश्यना न्यूज़लैटर के अंतरराष्टीय संस्करण में सचित्र सोलाह पृष्टों में प्रकाशित हुआ l उन्ही कि अनुमति से इसका हिंदी अनुवाद विपश्यना विशोधन विन्यास द्वारा संपन्न हुआ )