
प्रतिदिन हमारे परिवार के विपश्यी सदस्य रात दस बजे तक उनके पास बैठ कर साधना करते रहते थे। कुछ दिनो बाद जिस दिन उनका शरीर शांत हुआ, उस दिन उन्होंने हमसे कहा कि सब लोग जाकर सो जाओ। रात 1 बजे नर्स ने आकर हमें जगाया और कहा कि माँ की नब्ज बिल्कुल चली गयी है । अब ये थोडी देर कीं मेहमान और है । हम उनके पास ध्यान करने लगे ।
डाँक्टरजी ने मां सयामा और सयाजी को सूचना दी। उन्हें देख बार मां ने दोनों हाथ उठा कर प्रणाम किया । नर्स ने देखा कि उनकी नब्ज अब भी नहीं चल रही है फिर हाथ कैसे उठा? कुछ देर बाद माँ ने कहा कि देता 'में बैठयी होस्यु' । यानी मुझे बैठा दो । डाँक्टरजी ने कहा कि नहीं, यह चंद मिनटों की मेहमान और है । अब इन्हें लेटे-लेटे ही प्राण त्यागने दे । फिर उनके मुँह से आवाज निकली, 'बेटा बैठी कर दो' । मैंने समझा कि यह मां की अंतिम इच्छा है, मैंने बल लगाकर बैठा दिया और पूछा कि मा 'अनिस्सा' (अनित्यबोध) है? बरमी से अनित्य को अनिस्सा' कहते है । उन्होंने झट दाहिना हाथ सिर पर ले जाकर कहा हाँ 'अनिस्सा' है । यह कहते ही उनका सिर एक और लुढक गया । यह चार बजे का समय था । उनकी शवयात्रा 8 बजे निकलने वाली थी । डॉ. ओम प्रकाश जी घर के सदस्य होने के कारण तब तक वही बैठे रहे ।
शवयात्रा के पहले पूरे शरीर को स्नान करा कर कपडे बदलने का काम उसकी बहु करती है। उसकी बहु यानी मेरी धर्मपत्नी इलायची जब उनका शरीर धोने को उद्यत हुई तब हाथ लगाते ही चोंक गयी और दौड़ती हुई बगल के कमरे से हमारे पास आकर कहने लगी कि मां तो अभी जिन्दा है। उनका घूरा शरीर गर्म है । डॉ. औम प्रकाशजी ने कहा, यह कैसे हो सकता है! हमने भलीभांति चेक किया था । चार घंटे बाद भी शरीर गर्म कैसे रह सकता है l वे पुन: चेक करने गये और देख कर वे भी चकित रह गये कि सचमुच मां का शरीर गर्म है। उनका मृत शरीर ले जाकर दाहक्रिया की गयी । लेकिन यह घटना मुझे अब तक याद है । सच ही रामीदेवी का शरीर गर्म रहा हो, यह बात आश्चर्यजनक अवश्य है, पर असंभव नहीं ।
धन्य है परम साधक श्री रामसिंहजी। उनकी सद्गति में कोई कैसे अविश्वास कर सकता है।
श्री रामसिंह जी ने मृत्यु के दस वर्ष पूर्व एक अभिलाषा पत्र (will) लिखा था । इसमें उन्होंने अपनी अनेक अंतिम अभिलाशाओ को व्यक्त किया था। जैसे-
मेरी आयु अब करीब 83 वर्ष की हो रही है । अंतिम क्षण कभी भी आ सकता है । यह उचित है कि इस विषय पर मैं अपनी स्पष्ट इच्छा, अभिप्राय - लिखित से व्यक्त कर दूं।
1 . मृत्यु का क्षण बडा शुभ और मंगल का माना जाय । यह क्षण कभी शोक का नहीं ।
2. यदि मृत्यु जयपुर के बाहर हो तो शव (body) को जयपुर लाने की आवश्यकता नहीं । वहीं दाह संस्कार कराने का निदेश दे देवें । यह संदेश उन्हें दे जिनसे मृत्यु कीं सूचना मिली है । दाह संस्कार में किसी परंपरा या रूढि का अनुसरण न करें । उन्हें संक्षिप्त से बता दे कि अंतिम संस्कार से शरीर को अग्नि से दाह करना ही है।
3. मृत्यु के बाद घर में शोक का वातावरण न बने । मेरे स्वयं के लिए भी मृत्यु की घडी मंगलदायक ही होगी । 83 वर्ष के इस जर्जर शरीर को और अधिक खींचना भारी ही लगता था । कार्य क्षमता की उत्तरोत्तर कमी हो रही थी।
4 . मेरी धर्मपत्नी, पुत्र, पुत्रियां, पुत्र-वघुओँ - सभी इस अंतिम घडी पर दुख और शोक की छाया न पड़ने दे l इस घडी को शुभ ही माने । अपने पहनने के कपडों पर या घर की सामान्य साज सज्जा पर भी शोक की छाया न झलके । कोई भी परिवार का सदस्य सिर का मुंडन न कराये है न सफेद साफा कपडे धारण करे । मेरे विचार से इससे घृणित और कुत्सित कोई अन्य परंपरा नहीं है ।
5. किस परिस्थिति में मृत्यु का क्षण आये यह कहना बडा कठिन है । मृत्यु के बाद शरीर के कपडे बदल दे । रोज-रोज के पहनने के कपडों में से ही कपडे ले ले । मृत शरीर को लकडी के सादे पाटे पर लिटा दे । अच्छा हो ध्यान कक्ष का पाटा इस काम में ले । इस पाटे पर बैठ कर खूब ध्यान किया है! अंतिम यात्रा में इसका साथ समाचीन ही होगा! ।
6. यदि जयपुर में विद्युत दाह-गृह की सुबिधा हो तो उसी का उपयोग करे । इसका सबसे बडा लाभ यह है जि पूरा शरीर अस्थियों तक भस्म हो जाता है । इसमें अस्थि-चयन की कोई विडंबना नहीं । यदि विद्युत गृह की सुविघा न हो तो जयपुर के आदर्श नगर श्मशान गृह का उपयोग करें।
7. मृत्यु से संबंधित दसवें, ग्यारहवें, बारहवें दिन किसी प्रकार के भोज की व्यवस्था न करें। न कोई परंपरागत कर्मकांड – ये सभी कुत्सित प्रथाएँ है ।
8. अनाथालय के भोजनालय में दान देकर सहयोग दें ।
(रामसिह)
श्री रामसिहजी ने जो अभिलाषा (इच्छा) पत्र लिखा था उसमें उनके शरीर की दाहक्रिया सनातनी कर्मकांड से न करवा कर, आर्यसमाज की रीति से कराने का आदेश दिया था । आर्यसमाज से विपश्यना का बहुत सामीप्य होने से कारण अनावश्यक कर्मकांडों से मुक्त है । इस अभिलाषा में उनके परिवार ने पूरा साथ दिया । परिवार के सभी सदस्य विपश्यी साधक होने के कारण उनके साथ बैठ कर साधना करते रहे। सूत्रों तथा धर्म के दोहों का पाठ चलता रहा, जिससे वातावरण धर्ममय बना रहा । कई दिनो तक भूख की पीडा के बावजूद उन्होंने मन की समता बनाये रखी और संत कबीर का यह दोहा सिद्ध किया--
देह धरे का दंड है, सव काहू को होय
ज्ञानी भुगते ज्ञान ते, रोगी भुगते रोय ।
अंतिम दिनो में उन्हें मैत्री देते हुए अपने आप से संबंधित अपना एक राजस्थानी दोहा उन्हें सुनाया-
ना मरने री लालसा, ना जीणों रो लोभ ।
समय पक्याँ तन छोड़ासू. जरा न होसी छोभ ।।
यही तो किया उस तपस्वी साधक ने। धन्य हुआ साधक और धन्य हुई विपश्यना ऐसे गम्भीर साधक को पाकर l
कल्याणमित्र .
सत्यनारायण गोयन्का
(पूज्य श्री रामसिंह जी सद्धर्म के प्रबल समर्थक थे। 18 दिसंबर, 2010 की रात 8:30 बजे जयपुर में उनका पार्थिव शरीर शांत हुआ । विपश्यना के पुनर्जागरण के इतिहास में श्री रामसिंह जी सदा अग्रिम और पूज्य माने जायेगे । उनके प्रति हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि और शत-शत नमन !)