
शांतिप्रेमी सज्जनो, सन्नारियो!
अमन-चैन चाहने वाले सज्जनो, सन्नारियो! आओ, हम शांति की बात करें, अमन-चैन की बात करें, धर्म की बात करें। धर्म में तो शांति ही शांति है। अमन-चैन ही अमन-चैन है। संसार में कितनी धार्मिक परंपराएं हैं, कितने संप्रदाय हैं, कितनी मज़हबी जमाते हैं। सब में परस्पर प्यार होना चाहिए। मोहब्बत होनी चाहिए। इसी में सबका भला है। सबका कल्याण है। पर प्यार-मोहब्बत कैसे हो ? सभी परंपराओं में कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो सब को मान्य होती हैं, जिसको सब मानते हैं। परंतु कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें सब नहीं मानते। जिन-जिन बातों को सब मानते हैं, उन्हीं को उजागर करना चाहिए। उन्हीं की चर्चा करनी चाहिए। जहां सर्वसम्मति नहीं है, एक मत नहीं है, उन बातों को हम दूर रखें, अलग रखें। उनकी चर्चा करके हमें क्या मिलेगा ? जिन बातों में कोई मतभेद नहीं है, उनकी चर्चा करेंगे तो प्यार बढ़ेगा, मोहब्बत बढ़ेगी, मैत्री बढ़ेगी।
भगवान बुद्ध के पास कभी-कभी कोई व्यक्ति किसी बात को लेकर वाद-विवाद करने आ जाता था तो वे मुस्करा कर कहते थे - अरे भाई, जिन बातों में हम एक मत हैं, चलो उनकी चर्चा करें न। जिन बातों में हम एक मत नहीं हैं, उनको एक ओर रखो। बस यही समझदारी है। यही प्यार बढ़ाने का रास्ता है। दुनिया का कोई भी संप्रदाय ऐसा नही, दुनिया का कोई मज़हब ऐसा नहीं, कोई धार्मिक परंपरा ऐसी नहीं कि जिसमें अच्छी बातें नहीं हों। अच्छी बातें सब जगह हैं। इसलिए जो अच्छी बातें हैं, हम उन्हीं को महत्त्व दें। अच्छी बातों में मतभेद नहीं हुआ करता । नेकी भी है, बदी भी है। जो-जो नेकी की बातें हैं, उनको उजागर करें। हम बगीचे में जाते हैं। वहां फूलों के अनेक पौधे हैं और हर पौधे में फूल खिले हैं। किसी में इस रंग के ,किसी में उस रंग के सब बड़े खूबसूरत हैं। सब में बहुत अच्छी सुगंध है। हम फूल को स्वीकार करें। इस पौधे का फूल है कि उस पौधे का फूल है, उसमें कोई भेदभाव नहीं । फूल तो फूल है। लेकिन यह ख्याल रखें कि हम स्वीकार करेंगे फूल को। उसी डाल पर फूल के साथ-साथ कांटे भी उगे होंगे। पर हम सारी डाल को स्वीकार नहीं करते । हम तो उस पर उगे हुए फूल को स्वीकार करते हैं। फिर यह फूल इस पौधे का है या उस पौधे का है, इससे हमको कोई लेन-देन नहीं है। फूल फूल है, सबको प्रिय है। किसी के साथ हमें अपने संबंध सुधारने होते हैं तो हम फूलों का एक बहुत सुंदर गुच्छा भेट करते हैं, कांटों की डाली नहीं। कभी कोई किसी को कांटों की डाली नहीं भेट करता, नहीं तो प्यार कैसे होगा? फूल भेंट करना है और फूल सब जगह है। आओ! फूल ही फूल देखें, कांटों को एक ओर रखें। तब देखेंगे कि कितना प्यार, कितनी मोहब्बत, कितनी मैत्री, कितनी सद्भावना अपने आप जागेगी । जागेगी ही।
सम्राट अशोक की समझदारी
भारत में भगवान बुद्ध के लगभग दो सौ वर्ष के बाद एक महान सम्राट हुआ अशोक । वह कुछ समय तक गलत रास्ते पर रहा। फिर उसे होश आया। भगवान बुद्ध की शिक्षा समझ में आयी। उस रास्ते पर चलने लगा तो वह पूर्णतया बदल गया। अब वह चाहता है। कि मेरी प्रजा में खूब सुख-शांति हो । आपस में खूब प्यार हो। इसके लिए उसने जगह-जगह शिलालेख लिखवाये । वह अपनी प्रजा को समझाता है कि अरे भाई, कभी दूसरे संप्रदाय की निंदा मत करना। सभी संप्रदायों में जो अच्छी बातें हैं, उन्हें उजागर करो । कितनी समझदारी की बात की। भारत में उन दिनों भी अनेक संप्रदाय थे, जैसे आज हैं। जो-जो बातें सब मानते हैं, सब स्वीकार करते हैं वही सही धर्म है। धर्म की बातें सब स्वीकार करेंगे । धर्म के नाम पर जब अधर्म होता है तो उसे कौन स्वीकार करेगा? तो धर्म की बातें स्वीकार करें, उसी की चर्चा करें। जहां सर्वसम्मति है, उन पर चर्चा हो। अरे! जहां सम्मति नहीं है, आपस में मतभेद है, उसे एक ओर रखें। उसकी चर्चा करेंगे तो झगड़े होंगे, फसाद होंगे, विवाद होंगे, लड़ाइयां होंगी, खून खराबा होगा, इसलिए उसे एक ओर रखें।
उस सम्राट अशोक ने भी यही कहा कि किसी दूसरे संप्रदाय की किसी बात पर निंदा मत करो । जो आदमी अपने संप्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे संप्रदाय की निंदा करता है, वह अपने संप्रदाय की कब्र खोदता है, अपने संप्रदाय का नाश करता है। यह कितनी बड़ी समझदारी की बात है। अरे, जहां-जहां अच्छाई हो, उस अच्छाई को स्वीकार करें, चाहे कहीं भी हो।
इसीलिए दो मुस्लिम भाई जब आपस में मिलते हैं तो एक कहता है - अस्सलाम वाअलयकुम । यानी आपका मंगल हो, आपकी सलामती हो, आपकी हिफाजत हो! बदले में दूसरा कहता है - वालयकुम अस्सलाम । आप का भी मंगल हो, आप भी सलामत रहो,
आपकी भी हिफाजत हो! जो सलामती देता है उसे ही मुसलमान कहते हैं। जो सलामती न दे तो मुसलमान कैसे हुआ? सब को सलामत रखे, अपने आपको भी, औरों को भी, तो सही माने में मुसलमान हुआ । मुकम्मल ईमान है तो मुसलमान है, मुसल्लम ईमान है तो मुसलमान है। अपने नाम के गौरव को बनाये रखें, खूब हिफाजत,खूब सुरक्षा! अपनी भी सुरक्षा हो, औरों की भी सुरक्षा हो, तो सही माने में मुसलमान हुए।
अरे, सभी संप्रदायों में ऐसी बात है न! कहीं देखो, मिलेंगे तो आपस में मंगल भावना लिए हुए मिलेंगे। भगवान बुद्ध की परंपरा में कहते हैं ‘भवतु सब्ब मङ्गलं'- सबका मंगल हो! ‘सब्बे सत्ता सुखी होन्तु'- सारे प्राणी सुखी हों! ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः।' अर्थात यही कहा जाता है कि सब सुखी हों! एक दूसरे की निंदा करेंगे तो सुखी कैसे। होंगे ? झगड़े-फसाद करेंगे तो सुखी कैसे होंगे ? अतः अमन चैन का रास्ता यही है कि सब के लिए मंगल कामना करें, सब के भले की । बात करें।
जद्दो-जिहाद पैगंबर साहब ने बहुत साफ़ शब्दों में कहा कि कभी किसी बेकसूर व्यक्ति की हत्या मत कर देना । किसी महिला की हत्या मत कर देना। किसी बच्चे की हत्या मत कर देना। किसी दूसरे मज़हब के पुरोहित की, पुजारी की,संत की हत्या मत कर देना। किसी मज़दूर की हत्या मत कर देना। किसी पेड़-पौधे को नुकशान न पहुँचा देना। हत्या मत कर देना । अहिंसा सिखाते हैं। जिहाद की बात है। जिहाद क्या होता है? ‘जद्दो-जिहाद' -संग्राम करना होता है, परिश्रम करना होता है, पराक्रम करना होता है। किससे संग्राम करना होता है ? हमारे अंदर जो खोट है, हमारे अंदर जो मैल है, उस मैल को दूर करने का संग्राम करना होता है। यह जद्दो-जिहाद सारे जीवन भर चलता है; सारे जीवन भर का काम है। इस मैल को नहीं निकालेंगे तो न हम सुखी होंगे और न दूसरे को सुखी होने देंगे। हम भी दुःखी रहेंगे और औरों को भी दुःखी बनायेंगे। यह जद्दो-जिहाद जीवन भर का काम है।
यही बात अपने यहां के एक और संत ने कही -‘संत संग्राम है, रात-दिन जूझना ।' जो संत है उसे सारे जीवन भर संग्राम करना पड़ता है। रात-दिन संग्राम करना पड़ता है। क्या संग्राम करना पड़ता है? क्या जद्दो-जिहाद करना पड़ता है? अपने भीतर के खोट को निकालने का। जब तक भीतर मैल है -क्रोध है, द्वेष है, दुर्भावना है, दुश्मनी है; प्यार नहीं है, मोहब्बत नहीं है -तब तक स्वयं भी दुःखी । है तथा औरों को भी दु:खी बनाता है। उस आदमी में धर्म का नामोनिशान नहीं है। उस आदमी में मज़हब का नामोनिशान नहीं है। वह सही रास्ते नहीं चल रहा, गलत रास्ते पर है। ऐसे किसी गलत रास्ते पर नहीं चल कर,सही रास्ते पर चले। सच्चाई को हमेशा ध्यान में रखे । सच्चाई ही धर्म है।
मुस्लिम भाई जब कोई काम शुरू करते हैं - जैसे भोजन शुरू करते हैं तो कहते हैं - ‘बिसमिल्लाह हिररहमा-निर्रहीम ।' क्या अलरहमान? क्या अलरहीम? परमात्मा करुणासे भरा हुआ है, दया से भरा हुआ है। उसको याद करते हैं। भगवान बुद्ध करुणा से भरे हुए हैं। उनको याद करे -“महाकारुणिकोनाथो तब मतभेद नहीं होगा। करुणा तो सबके लिए अच्छी है। हम स्वयं अपने भीतर करुणा जगायें, अपने भीतर मैत्री जगायें, सद्भावना जगायें। अरे, तो मंगल ही मंगल होगा न! हमारा भी मंगल होगा, औरों का भी मंगल होगा। जब-जब कोई आदमी अपने भीतर द्वेष जगाता है, क्रोध जगाता है, दुर्भावना जगाता है, शत्रुता जगाता है, दुश्मनी जगाता है। तब क्या होता है? भीतर ही भीतर जलने लगता है। भीतर ही भीतर बेचैन होने लगता है, व्याकुल होने लगता है। क्रोधतो करता है किसी दूसरे को व्याकुल करने के लिए, लेकिन दूसरा तो पीछे व्याकुल होगा, पहले खुद व्याकुल होने लगता है।
इस्लाम के छह स्तंभ हैं उनमें से एक स्तंभ है कि अपने आप को जानो। हमारे दो विपश्यना-शिविर कच्छ की एक मस्ज़िद में लगे। उसमें कुछ आलिम फाजिल मुस्लिम मौलवी भी बैठे। वे बड़े खुश हुए। शिविर खत्म हुआ तो हमें आ कर कहते हैं कि हमारी परंपरा में कुछ ऐसे कलाम हैं जिनका अर्थ हम अभी तक नहीं जान पाये थे। ‘मन अरफा नफ्सोहु, अरफ रब्बोहु ।' एक तो यह कि तुम अपने आप को जानो। जो अपने आप को जान जाता है, अपने आप को देख लेता है, अपनी सांस को (नफ्स) और अपने शरीर को देख लेता है, वह रब्ब को देख लेता है, परमात्मा को देख लेता है, ईश्वर को देख लेता है, खुदा को देख लेता है, अल्लाहताला को देख लेता है। अब तक हम समझे नहीं कि सांस देखने से अल्लाह को कैसे देख लेता है। अब अपने आप को देखा तो समझ में आया। सच्चाई देखने लगे तो किसी का बुरा नहीं कर सकते क्योंकि समझने लगे कि दूसरों का बुरा करने के पहले आदमी अपना बुरा कर लेता है। इंसान अपने आप को दुःखी बना लेता है। लेकिन जानबूझ कर कौन दुःखी बनना चाहेगा ?
मुस्लिम कहलाए मगर, भूल गया इस्लाम।
नहीं समर्पण शांति है, केवल थोथा नाम ॥
इस्लाम शब्द का अर्थ ही है ‘शांति', ‘समर्पण'! अपने आप को मुस्लिम कहे और यदि शांति का नामोनिशान नहीं; अशांति ही अशांति जीवन में; समर्पण नहीं, अहंकार ही अहंकार है जीवन में; तब इस शब्द का सही प्रयोग नहीं हुआ। सही प्रयोग करने के लिए शब्द का अर्थ समझे, उसके गुणधर्म को समझे और उसे अपने जीवन में धारण करे तो ही इस शब्द का गौरव है। | अपने को जान लेगा तो संत बन जायगा। इसलिए कहा –
सोइ दरबेस दास निज पायो।
यानी वही सच्चा दरबेस है, संत है, जिसने स्वयं अपना दर्शन कर लिया। जो अपने आप को जान लेता है वह रब्ब को यानी ईश्वर को जान लेता है। इसी भाव को व्यक्त करता हुआ पंजाब का एक मुस्लिम संत कहता है - अरे संत तो संत होता है; क्या हिंदू, क्या मुस्लिम, क्या सिक्ख, क्या क्रिश्चियन!जिसने मन को शांत कर लिया, निर्मल कर लिया वह संत हो गया। पंजाब का यह मुस्लिम संत कहता है -
‘हाशम तिण्हा रब्ब पछाता, जिण्हा अपना आप पछाता ।।
- जिसने अपने आप को पहचान लिया, उसने रब्ब को पहचान लिया, परमात्मा को पहचान लिया, खुदा को पहचान लिया। अरे सारी संत परंपराओं में यही बात है। ...
मंगल मित्र,
सत्यनारायण गोयन्का