अनासक्ति हैं वहीं सच्चा सुख हैं , सच्ची शांति हैं ।
सुखद - दुखद स्थिति के प्रति पुर्ण संवेदनशील और जागरुक रह कर भी अविचलित रहना ही समता हैंं । समता चट्टानी जड़ता नहीं हैं , मरघट की शांति नहीं हैं । समता नकारात्मक नहीं हैं ; मूढ़ता , मूर्छा , कुंठा नहीं हैं । कोई हमें भाजी की तरह काट जाय और हमें पता ही न चले, ऐसी अचेतन अवस्था नहीं है । यह कोई एनिस्थीसिया की सूंघनी नहीं हैं , माॅर्फिन का इन्जेक्शन नहीं हैं । पूर्ण चेतन रहें , फिर भी सम रहें तो ही सम हैं । नहीं तो गहरी नींद में सोने वाला अथवा मूर्छित अथवा मूढ़ व्यक्ति समता का दंभ भर सकता हैं ।
सुखद से प्रफुल्लित हो उठना और दुखद से मुरझा जाना ही तो वैषम्य हैं । दोनों के रहते संतुलित - समरस रहना ही समता हैं । परंतु समता हमें अशक्त और कर्मशून्य नहीं बनाती । सच्ची समता आती हैं तो प्रवृति जागती है । ऐसी प्रवृति परम पुरुषार्थ का रुप धारण करती है । परम पुरुषार्थ में अपने - पराये का भेद नही रहता । ऐसी पुरुषार्थ - प्रदायीनी समता जितनी - जितनी सबल होती हैं जीवन में उतना - उतना मंगल उतरता है । आत्म मंगल भी , जन मंगल भी । समता जितनी दुर्बल होगी उतना ही अपना भी अनर्थ होगा, औरों का भी ।
समता - धर्म जीवन - जगत से दुर भागना नहीं हैं , पलायन नहीं हैं , जीवन - विमुख होना नहीं हैं । समता धर्म जीवन - अभिमुख होकर जीना है । जीवन से दूर भाग कर आखिर कहां जायेंगे ? विषयों से दूर भाग कर कहां जायेंगे ? सारा संसार विषयों से भरा पड़ा हैं । विषय हमारा क्या बिगाड़ते हैं ? न वे हमारे शत्रु है , न मीत्र । न वे भले हैं , न बुरे । भला - बुरा हैं उनके प्रति हमारा अपना दृष्टिकोण - अनासक्त दृष्टिकोण अथवा आसक्ति दृष्टिकोण , सम दृष्टिकोण अथवा विषम दृष्टिकोण । यदि हम विषय से दूर भागने के बजाय विषयों से उत्पन्न होने वाले विकारों को समता से , अनासक्ति से देखना सीख जायँ तो उन विषयों के रहते हुए भी विकारों को निस्तेज कर ही लेंगे । समता से , अनासक्ति से देखना ही विशेषरूप से देखना है , प्रज्ञापूर्वक ( अनुभव ) से देखना हैं , सम्यक दृष्टि से देखना है । यही विदर्शना है , यही विपश्यना हैं । समतामयी विपश्यना की दृष्टि प्राप्त होती है तो "मै - मेरे " का और " राग - द्वेष " का कोहरा दूर होता है । जो जैसा है वैसा ही दीखता है । और तब हम अंध प्रतिक्रिया करना छोड़ देते हैं । समता की सदृढ़ भूमी पर स्थिर होकर हम जो कुछ करते हैं वह शुद्ध क्रिया ही होती है , प्रतिक्रिया नही । इसलिए कल्याणकारी ही होती हैं , अमंगलकारी नहीं ।
भीतर चित्तधारा में पूर्ण समता का भाव आने लगता है तो बाह्य जीवन में सहज समता प्रकट होने ही लगती हैं । बाह्य जीवन - जगत की सारी विषमताएं आंतरिक समता को भंग नहीं कर पाती । जीवन में आते रहने वाले उतार - चढा़व , बार - भाटे , बसंत - पतझड़ , धुप - छांव , वर्षा - आतप , हार - जीत, निंदा - प्रशंसा , मान - अपमान , लाभ - हानि आदि द्वंद्वों से मन विचलीत नही हो पाता । सारी स्थितियों में समरस बना रहता है ।
आंतरिक समता की पुष्टि से ही योग - क्षेम पुष्ट होता है । इसी से हजार प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी अपनी सुरक्षा का मिथ्या भय दूर होता है । जीवन में वैशारद्य आता है , निर्भयता आती है । अगले क्षण क्या हो जायगा ! इसके लिए चिंतित व्यथित , आकुल - व्याकुल नही होता । मेरे पुत्र - कलत्र , धन - दौलत , पद - प्रतिष्ठा , मान - मर्यादा , सत्ता - शक्ति , स्वास्थ्य - आयु सुरक्षित रहेंगे या नही ! इन निरर्थक चिंताओं से विमुक्ति प्राप्त होती है । प्रशिक्षण परिवर्तनशील प्रकृति को अपरिवर्तनीय बनाए रखने का प्रमत्त प्रयास , जीवन जगत की सतत प्रवाहमान धारा को रोक रखने का उन्मत्त आग्रह , पानी के बुदबुदों को मुठ्ठी में भींच कर 'मेरा' बनाए रखने का निपट - निरर्थक प्रयत्न सहज ही छूट जाता है । जीवन से कुटिलता - विषमता , खिंचाव - तनाव स्वतः दूर होने लगते हैं । परिस्थितियों की बदलती हुई लहरों पर सहजभाव से तैरना आ जाता है । नितांत कर्मशील रहते हुए भी परिणामों के प्रति उन्मुक्त निश्चिंतता आती हैं और साथ - साथ व्यवहार कौंशल्य में प्रौढता आती है । यही समता धर्म का परिणाम है । समता आती है तो मन , वाणी और शरीर के कर्मों मे शुद्धता आती है , उनमे सामंजस्य आता है । परिणामतः जीवन मे स्वस्थता आती है । वात - पीत्त - कफ में विषमता आ जाये तो शरीर रोगी हो जाय इसी प्रकार मन , वाणी और शरीर के कर्मों में विषमता आ जाय तो जीवन रोगी हो जाय । मन में कुछ हो , बोले कुछ और , करे कुछ और , तो अस्वस्थ ही हो जायेंगे । ताल - स्वर लय की समता में जैसे तन्मयता आती हैं , वैसे ही मन- वाणी- शरीर के कर्मों की समता में भी तन्मयता आती हैं । परम सुख प्राप्त होता है । समता का सुख संसार के सारे सुखों से परे श्रेष्ठ हैं ।
समता ही स्वस्थता है । मन की समता नष्ट होती है तो ही नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते है । मानसिक भी और परिणामतः शारीरिक भी । समतापूर्ण जीवन जीने वाला कलावंत व्यक्ति ही स्वस्थ जीवन जीता है । समतामय जीवन जीने वाले का अहंभाव आत्मभाव नष्ट होता है । वह अनात्म का मंगल जीवन जीता है । ' मै ' और ' तू ' का विषमताभरा एकांतीय - एक पक्षीय दृष्टिकोण टूटता हैं । समता - समन्वय का अनेकांतीय - अनेक पक्षीयदृष्टिकोण
पनपता है । विषमता आसक्ति की ओर झुकाती है । आसक्ति अतीयों की ओर झुकाती है । और अतीयों की ओर झुक जाने के कारण ही भिन्न - भिन्न प्रकार के दृष्टिदोष उत्पन्न होने लगते है । " केवल मेरी मुक्ति हो जाय , बाकी समाज भले जहन्नुम में जाय । यह पुत्र , यह कलत्र , यह भाई , यह बंधु सब बंधन है । मुझे इनसे क्या लेना - देना !
मै कैसे अपनी मुक्ति साध लूं ! इनके भले - बुरे से मुझे कोई लेन देन नहीं । " ऐसा सोचने वाला व्यक्ति अतीयों के एक अंत में उलझा रहता है । दूसरी ओर देखे " मै और मेरे " परिवार की सीमीत परिधि में आकंठ डुबा हुआ व्यक्ति अतियों के दूसरे अंत में उलझा रहता हैं । समता धर्म
मध्यम मार्ग का धर्म हैं । समता - धर्म आत्म - मंगल और पर - मंगल के समन्वय सामंजस्य का धर्म है । व्यक्ति जंगल के पेड़ - पौधें की तरह स्थावर नहीं है ।वह जंगम हैं । चलता - फिरता है और अन्य अनेक लोगों से उनका संपर्क , संबंध बना रहता है । आत्म शोधन के लिए कुछ काल एकांत वास करना और अंतरमुखी होना आवश्यक व कल्याणकारी हैं ।
परंतु इस प्रकार शोधे हुए मन का बाह्य जगत में सम्यक प्रयोग हो तो ही धर्म पुष्ट होता हैं ।
"मैं" के संकुचित बिंदु से चिपका रहने के कारण ही दृष्टि धुमिल हो जाती है कर्म - सिद्धांत की वैज्ञानिकता स्पष्ट समझ में नहीं आती । आसक्तिजन्य अतियों की ओर झुक जाता हैं और यह मानने लगता है की हर व्यक्ति केवल अपने पूर्व कर्मों से ही प्रभावित होता हैं । औरों के कर्मों से उसे कत्तई लेना - देना नहीं । जबकि सच्चाई यह हैं कि हर व्यक्ति अपने कर्मों से तो प्रभावित होता ही है । परंतु सारे समाज के कर्मों से कम प्रभावित नहीं होता । व्यक्ति अपने कर्मों का फलित पुतला तो है ही , परंतु समग्र मानव समाज की अब तक की प्रगति या प्रतिगति की विरासत भी लिए ही हुए है । हमारे कर्म हमें तो प्रभावित करते ही है , परंतु कमोबेश औरों को भी प्रभावित करते ही रहते है । हम अपने कर्मों की विरासत अपनी भवधारा की तो दे ही रहे हैं , परंतु साथ - साथ आने वाली पीढ़ियों को भी कुछ न कुछ दे ही रहे हैं । न व्यष्टि समष्टि से अछुता रह सकता हैं और न समष्टि व्यष्टि से । न व्यक्ति समाज से अछूता रह सकता हैं और न समाज व्यक्ति से । दोनों अन्योन्यश्रित हैं , एक दूसरे के पूरक हैं । व्यक्ति और समुदाय के संबंधों में समता , सामंजस्य की स्थापना ही शुद्ध धर्म का मंगल परिणाम है ।
समता पुष्ट होती है तो सामंजस्य आता है , समन्वय आता है , स्नेह - सौहार्द आता है , सहिष्णुता आती हैं । सहयोग, सद्धभाव, सहकारिता सहज भाव से ही आ जाते है । इनके लिए प्रयत्न नहीं करना पडता । ये सब नहीं आ रहे हैं तो अवश्य कुछ कमी है । अभी जीवन में सही वीपश्यना , सही समता नही आयी है । समता की साधना के नाम पर कोई छलना आयी होगी , कोई माया आयी होगी, कोई धोखा आया होगा । दार्शनिक बुद्धिविलास का एक और चमकीला लेप आया होगा । अवश्य ही अंतरमन अभी विषमता से भरा हुआ है । अपने आपको इसी कसौटी से कस कर जांचते रहना चाहिए ।
सचमुच समता पुष्ट होगी तो अपनी हानी करके भी औरों का हितसाधन ही होगा और यह सहजभाव से होगा ।
दीये की बत्ती स्वयं जलती है पर बदले में लोगों को प्रकाश ही देती है । धुप बत्ती स्वयं जलती है पर बदले में सबको सुवास ही देती है । चंदन की लकड़ी स्वयं कटती है पर बदले में सब के लिए सुरभि ही बिखेरती है । फलवाला वृक्ष स्वयं पत्थर की मार सहता है पर बदले में सबको फल ही देता है । और यह सब कुछ सहजभाव से होता है समता सहज हो जाय तो सब के मंगल का स्रोत खुल जाय ।
मंगल मित्र सत्यनारायण गोयन्काजी