साक्षीभाव



सांस और संवेदना को देखने का अच्छा अभ्यास हो जाय तो किसी भी कारण जब मन में विकार उठे तो पहला काम यह होगा की सांस की बदली हुई गति और शरीर में उत्पन्न हुई किसी भी प्रकार की जीव- रासायनिक प्रतिक्रिया

(biochemical reaction) हमे सचेत करेगी की चित्त- धारा में कोई विकार जाग रहा है।

सांस और इस सूक्ष्म संवेदना को देखने लगें तो स्वभावतः उस समय के उठे हुए विकार का उपशमन, उन्मूलन(eradication) होने लगेगा।

जिस समय हम अपने सांस के लेने और छोड़ने को साक्षीभाव से देखते हैं, अथवा शरीर की जीव- रासायनिक या विद्युत- चुम्बकीय (electromagnetic) प्रतिक्रिया को साक्षीभाव से देखतें हैं, उस समय विकार उत्पन्न करने वाले आलंबन(cause) से सहज ही संपर्क टूट जाता है।

ऐसा होना कोई वस्तुस्थिति से पलायन
(escape) नही है, क्योंकि अंतर्मन तक उस विकार ने जो हलचल पैदा कर दी, उस सच्चाई को अभिमुख होकर देख रहे हैं।

"संस्कार"

सतत (continuous)अभ्यास द्वारा अपने आपको देखने की यह कला जितनी पुष्ट होती है, उतनी ही स्वभाव का अंग बनती है, और धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आती है की विकार जागते ही नही अथवा जागते हैं तो बहुत दीर्घ समय तक चल नही पाते, या चलतें भी हैं तो पत्थर की लकीर की तरह के गहरे संस्कार अंकित नही हो पाते, बल्कि पानी या बालू पर पड़ी लकीर जैसा हल्का सा संस्कार बनता है जिससे शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है।

संस्कार जितना गहरा होता है, उतना ही अधिक दुखदायी और बंधनकारक होता है।

जितनी शक्ति से और जितनी देर तक किसी विकार की प्रक्रिया चलती है, अंतर्मन पर उसकी उतनी ही गहरी लकीर पड़ती है

Premsagar Gavali

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