विश्व विपश्यनाचार्य पूज्य गुरुजी श्री सत्यनारायण गोयन्काजी के शुद्ध धर्म के संपर्क में आने से लेकर उनके प्रारंभिक जीवन की चर्चाओं के अनेक लेख छपे। अब उनके विपश्यना आरंभ करने के उपरांत जो अनुभव हुए या उन्होंने जो शिक्षा दी उन्हें प्रकाशित कर रहे हैं। उसी कड़ी में प्रस्तुत है- आत्म-कथन भाग-2 की पंद्रहवीं कड़ीः

पहला शिविर पूरा करते ही लगभग तीन महीने के भीतर मैं भारतयात्रा पर चला आया। एक प्रसंग में गुरुदेव ने बताया था कि शुद्ध धर्म की तरंगें इतनी बलवान होती हैं कि उनका प्रभाव वातावरण में सहस्राब्दियों तक बना रहता है । बोधगया, सारनाथ, श्रावस्ती, कुशीनगर और लुंबिनी आदि जिन पुण्य स्थानों पर भगवान बुद्ध ने विहार किया था, उनकी धर्म तरंगों को स्वयं अनुभव करके देखने की कामना से मैंने यह यात्रा की। इस उद्देश्य से की गयी यह यात्रा सर्वथा सफल हुई।
यहां आने पर एक जिज्ञासा यह भी जागी कि जहां म्यंमा के एक गृहस्थ संत ने मुझे ध्यान की इतनी कल्याणकारी अनुभूतियां करवायीं, तो यहां भारत जैसे पुरातन महान देश में और अधिक गहराइयों की साधनाएं अवश्य प्रचलित होंगी। इसी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए भारत में जो भी प्रसिद्ध आश्रम थे, वहां गया, जो भी प्रसिद्ध ध्यानाचार्य थे, लगभग उन सबसे मिला।
पहले ऋषिकेश और हरिद्वार गया। वहां पहली मुलाकात एक विश्व विख्यात धर्मगुरु से हुई, जिन्होंने अस्वस्थ होते हुए भी कृपा करके मुझे समय दिया और अत्यंत प्रसन्न चित्त से मिले। उनके पूछने पर जब मैंने अपने अनुभव कह सुनाये, तब सुनते-सुनते उनके चेहरे के भाव बदलने लगे। वे बिस्तर पर लेटे-लेटे ही मुझसे बातें कर रहे थे। अंत में उन्होंने कहा, इतना मिल गया तो और क्या चाहिए? यों कहते-कहते उन्होंने मुँह फेर कर करवट बदल ली। उनके चेहरे पर अवमानना ही नहीं, अविश्वास के भाव भी स्पष्ट झलक रहे थे।
मैंने आत्म निरीक्षण करके देखा, कहीं मुझसे कोई भूल तो नहीं हुई? मेरे कथन में कहीं अहंभाव तो नहीं आया? अपनी समझ से तो अत्यंत विनम्र भाव से ही कहा, परंतु फिर भी भूल अवश्य हुई होगी। अत: निर्णय किया कि अब जिस किसी से मिलूंगा तो अत्यंत सतर्क रहूंगा। विपश्यना साधना से मुझे क्या प्राप्त हुआ, यह न कह कर म्यंमा में साधना की एक ऐसी विद्या प्रचलित है, जिसमें ऐसी-ऐसी उपलब्धियां होती हैं, यही कहूंगा।
इसके बाद मुंबई, लोनावला, मद्रास, पांडिचेरी आदि स्थानों पर अन्य-अन्य आचार्यों से मिला। भारत में लगभग तीन महीने बिताये, परंतु निराशा ही हुई। अधिकांश को तो विश्वास ही नहीं हो पाया कि ऐसी कोई आशुफलदायिनी विद्या विद्यमान है। एक ने इसे बहुत ऊंची अवस्था बतायी, पर यह नहीं कहा कि हमारे यहां इससे आगे भी कुछ सिखाया जाता है। एक ने कहा, हमारे यहां कोई ध्यान विधि नहीं सिखायी जाती। हम केवल सुविधा प्रदान करते हैं। जिसके जो मन में आये, वैसा ध्यान करे। हो सकता है भारत में अन्य धर्माचार्य भी रहे हों, जो इसके आगे की शिक्षा देते हों, परंतु मेरा ऐसे किसी योगी से संपर्क नहीं हुआ। मैं विश्वस्त होकर लौटा कि मेरे लिए विपश्यना साधना ही उपयुक्त है और नि:शंक होकर इसी में आगे बढ़ता रहा।

समय बीतता गया। मैं अपनी पारिवारिक, व्यापारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों को पहले से कहीं अधिक अच्छी प्रकार से निभाते हुए नियमित साधना में रत रहा। ऐसा संयोग हुआ कि मद्रास की एक पूर्व यात्रा में मेरे बड़े भाई बालकृष्ण, वहां आये हुए महर्षि महेश योगी से मुझे मिलाने ले गये। मिल कर मन प्रसन्न हुआ। उन्होंने बताया कि किसी श्रद्धालु ने उन्हें विश्व-यात्रा की टिकट खरीद दी है, परंतु इसके बावजूद भारत के बाहर न उनका कोई परिचित है और न कोई साधन-सुविधा। भाई बालकृष्ण और मैंने उन्हें इस टिकट द्वारा कलकत्ते से रंगून आ जाने का आमंत्रण दिया और यह आश्वासन दिया कि आगे का प्रबंध हो जायगा। सारे दक्षिण-पूर्वी और पूर्वी एशियायी देशों के लोगों से मेरे बहुत अच्छे संपर्क थे। मुझे पूर्ण विश्वास था कि आगे का प्रबंध वहां के मेरे मित्र कर देंगे। उन्हें यात्रा में कोई कठिनाई नहीं होगी।
वे रंगून चले आये। 17 दिनों तक हमारा आतिथ्य स्वीकार कर हमें कृतार्थ किया । मैं विशेष रूप से उपकृत हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि उनके कारण हमारा सारा परिवार ध्यान मार्ग में दीक्षित हुआ। मुझे विपश्यना द्वारा माइग्रेन से छुटकारा ही नहीं मिला, बल्कि मेरे स्वभाव में इतना बड़ा परिवर्तन आया, इसे देख कर भी परिवार का कोई व्यक्ति विपश्यना शिविर में जाने के लिए तैयार नहीं था। एक तो सारा परिवार कट्टर भक्तिमार्गी था, नित्य पूजा-पाठ और भजन-कीर्तन में निमग्न रहता था, दूसरे बौद्ध धर्म के नाम पर भी झिझक थी ही। महर्षि जी के प्रभाव से सबने उनसे मंत्र दीक्षा ली और ध्यान मार्ग पर चल पड़े। इस कारण आगे चल कर सब-के-सब विपश्यना की ओर सरलता से मुड़ गये। दूसरे मैंने स्वयं मंत्र के आलंबन से कभी ध्यान करके नहीं देखा था। एक अत्यंत अप्रत्याशित अवस्था में मुझे भी इसका अनुभव हुआ और इस कारण विपश्यना और मंत्र ध्यान में जो अंतर है, उसे मैं अनुभूति के स्तर पर भली-भांति समझ सका।
रंगून रहते हुए महर्षिजी मेरे साथ पू. गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन से मिलने जाया करते थे। वहां जो सिखाया जाता है, उसके बारे में उनसे चर्चा होती रहती थी। उन्होंने साधना संबंधी मेरे अनुभव भी सुने। मैंने बताया कि सारा मृण्मय शरीर चिन्मय हो उठा है, कहीं ठोसपने का नामोनिशान नहीं है। यद्यपि यह अवस्था सतत नहीं बनी रहती, परंतु ध्यान के समय और उसके बाद बहुत देर तक बनी रहती है । बीच-बीच में भी जब मन भीतर जाय, तो इसी प्रकार की अनुभूति होती है। यह सुनकर महर्षिजी ने कहा, यही तो ध्यान की अंतिम अवस्था है। इससे आगे और कुछ नहीं है। यही निरालंब अवस्था है। यहां पहुंच कर ध्यान के सारे आलंबन छूट जाते हैं। केवल चिन्मय ही चिन्मय, केवल आनंद ही आनंद। आपके गुरुजी यह क्यों नहीं कह देते कि आपको ध्यान की अंतिम अवस्था प्राप्त हो गयी है ? मैं उन्हें क्या उत्तर देता? मैं खूब जानता था कि विपश्यना में इसके आगे की अनेक अवस्थाएं हैं। मेरे अनेक गुरुभाई और गुरुबहनें इसे प्राप्त कर चुके हैं, अनेक कर रहे हैं। मैं उनसे तो क्या कहता, परंतु स्वयं खूब समझता था कि भव-विमुक्ति के मार्ग पर कई और छोटे-बड़े पड़ाव हैं। वैसे महत्त्व तो छोटे-छोटे पड़ावों का भी है, परंतु अभी तो बड़े पड़ाव भी कई हैं। अंतिम गंतव्य निरालंब अवस्था है, इसमें दो मत नहीं। परंतु फिर भी जिस अवस्था को मैं अनुभव कर रहा हूं, उसे निरालंब कैसे कहा जाय? यहां तो शरीर और चित्त और उनके संसर्ग से उत्पन्न संवेदनाएं ही अनुभूत हो रही हैं।
फस्सपच्चया वेदना- स्पर्श के आलंबन से संवेदना होती है। शरीर को चित्त स्पर्श कर रहा है और परिणामस्वरूप ये अत्यंत सूक्ष्म अवस्था की सुखद, या कहें आनंदमय अनुभूतियां हो रही हैं। वास्तविक भवातीत, लोकातीत अवस्था इससे आगे है, जहां शरीर और चित्त का अतिक्रमण हो जाता है, निरोध हो जाता है। जहां सारे ऐन्द्रिय-क्षेत्र का अतिक्रमण हो जाता है, निरोध हो जाता है। परंतु भारत में भगवान बुद्ध की शिक्षा विलुप्त हो गयी। भारत की अत्यंत प्राचीन और उन दिनों की बहुप्रचलित विपश्यना विद्या और इस विद्या का पूर्ण विवरणयुक्त साहित्य भी बिल्कुल विलुप्त हो गया। अत: उदय-व्यय से भंग तक के बड़े पड़ावों के बीच के पड़ाव और भंग के बाद इंद्रियातीत निर्वाण तक के अन्य अनेक छोटे-बड़े पड़ावों के नाम तक अपने यहां विस्मृत हो गये। उनकी अनुभूतिजन्य जानकारी की तो आशा ही क्या की जाय!
फिर भी महर्षिजी का असीम उपकार है कि उन्होंने हमारे रंगून के परिवार को ही नहीं, बल्कि वहां के अनेक भारतीयों को ध्यान मार्ग की ओर उन्मुख किया। आश्चर्यजनक घटना यह हुई कि विपश्यना विद्या से पूर्णतया संतुष्ट रहते हुए भी मैं स्वयं मंत्र के ध्यान की ओर खिंच गया। हुआ यह कि जब सारा परिवार महर्षिजी से मंत्र-दीक्षित हो गया, तब केवल देवी इलायची बची रह गयी। जब वह मंत्र में दीक्षित होने के लिए तैयार हुई तो महर्षिजी ने कहा, वे उस अकेली को मंत्र नहीं देंगे। पतिपत्नी दोनों को साथ-साथ मंत्र लेना होगा। जब मैंने उनसे निवेदन किया कि मुझे इसकी क्या आवश्यकता है, क्योंकि स्वयं आपने कहा है कि मैं साधना के अंतिम लक्ष्य तक पहुँच चुका हूं। तब उन्होंने कहा कि मैं उसके साथ मंत्र नहीं लूं, केवल साथ बैठा रहूं। इस पर मैंने स्वीकृति दे दी। साधारणतया वे साधक को धीमे स्वर में मंत्र देते हैं। पर इस बार जरा उच्च स्वर में मंत्र दिया, जिसे मैंने भी सुना। हम अतिथिशाला से उतर कर अपने निवास कक्ष में आ गये। मैंने देखा कि बिना किसी प्रयास के मंत्र मेरे सारे शरीर में गूंजने लगा। बैठा तो तीन घंटे बिना हिले डुले बैठा ही रह गया। यों बिना दीक्षा लिए ही मंत्र में दीक्षित हो गया। मेरी विपश्यना कभी नहीं छूटी, परंतु मंत्र का अनुभव करके दोनों का अंतर स्पष्टतया समझ लिया।
यों महर्षिजी ने बरमा के भारतीयों को ही नहीं, बल्कि पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करते हुए विश्व के अनेक लोगों को मंत्र में दीक्षित करके उनका बड़ा उपकार किया। उन्होंने भारत की इस मंत्र विद्या को विश्व स्वीकृत करवा कर भारत का गौरव ही बढ़ाया।
(आत्म कथन भाग 2 से साभार)
क्रमशः ...
मई 2020 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित