सम्यक दर्शन क्या है ?

प्राचीन भारत के आर्य धर्म के तीन हिस्से - शील, समाधि और प्रज्ञा। शील पालन करना बड़ा कल्याणकारी है, बड़ा मंगलकारी है। शीलवान व्यक्ति अपने आपको पीडित नहीं करता । स्वयं भी सुख का जीवन जीता है, औरों को भी सुख का जीवन जीने में मदद करता है। औरों को पीडित नहीं करना, बहुत अच्छा है, धर्म की बुनियाद है, नींव है। लेकिन कोई यह समझे कि केवल शील पालन कर लेने मात्र से मैं सारे दु:खों से विमुक्त हो जाऊंगा, सारे विकारों से विमुक्त हो जाऊगा, भवमुक्त हो जाऊगा, तो गलत बात है। ऐसा होता नहीं। भीतर के विकार तो वैसे के वैसे पड़े रह गये, उनका निष्कासन नहीं हुआ। तो शील अपने आप में अच्छा है पर इसलिए अच्छा है कि हम सम्यक समाधि का अगला कदम उठा सकें।।

सम्यक समाधि हो तो चित्त एकाग्र भी रहता है। उसकी सफाई भी शुरू हो जाती है। ऊपर-ऊपर से सफाई होते-होते, शुद्धि होते-होते एक सीमा तक गहराइयों तक भी सफाई होती है। जैसे उन दिनों के भारत में आठ प्रकार के ध्यान हुआ करते थे। प्रथम ध्यान में इतनी सफाई हुई, द्वितीय में इतनी हुई, यों करते-करते आठवें ध्यान तक पहुँचे तो मन बहुत साफ हो गया। बहुत साफ हुआ। सम्यक संबुद्ध बनने के पहले इस गृहत्यागी सिद्धार्थ गौतम ने उस समय के दो बड़े आचार्यों के पास जाकर के सातवां और आठवां ध्यान सीखा। चित्त बड़ा निर्मल भी हुआ। पर देखता है कि विकारों की जड़ें नहीं निकली। अनेक जन्मों से संचित विकारों की जो जड़ें हैं, वे अब तक कायम हैं। उनके निकले बिना पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ। तो खोज करते-करते यह विपश्यना विद्या खोज निकाली । प्रज्ञा जागी। प्रज्ञा जागती है तो ही जड़ें निकलने का काम शुरू होता है। बिना प्रज्ञा जागे कोई समझे कि मैं अपने मन को नितांत निर्मल कर लूंगा। ऐसा होता नहीं। शील हमारे दृढ़ हों, पुष्ट हों, सम्यक हों, शुद्ध हों, तो समाधि सम्यक होगी, शुद्ध होगी, बलवान होगी। तो हम देखेंगे कि प्रज्ञा जागने का काम शुरू हुआ।

मुक्ति-पथ के आठ अंग – तीन अंग शील के अंतर्गत आये, तीन अंग समाधि के अंतर्गत आये। बाकी बचे हुए दो अंग प्रज्ञा के अंतर्गत आते हैं - सम्मासङ्कप्पो और सम्मादिट्ठि। 'सङ्कप्पो' - संकल्प-विकल्प अभी भी चल रहे हैं। विचार-वितर्क अभी भी चल रहे हैं। आवश्यक नहीं कि पहले चित्त बिल्कुल निर्विकल्प हो जाय, बिल्कुल निर्विचार हो जाय तभी प्रज्ञा जागनी शुरू होगी। ऐसा नहीं होता। अभी विचार चल रहे हैं लेकि न विचारों में एक तब्दीली आने लगी, एक परिवर्तन आने लगा, अच्छे के लिए आने लगा।
जैसे नया-नया साधक किसी तपोभूमि पर आकर काम शुरू करताहै तो बेचारा क्या करे? काम शुरू करता है तो जो विचार उठते हैं, बड़े मैल लिए हुए विचार उठते हैं। विकारों के विचार उठते हैं क्योंकि वैसा ही संग्रह कर रखा है। बहुत संग्रह कर रखा है। किसी ने क्रोध ही क्रोध के विकार इकटे कर रखे हैं। अब तो सारा काम ऐसा है कि इसमें मन का आपरेशन शुरू हुआ और जहां फोड़े का आपरेशन शुरू हुआ कि पीप निकलनी शुरू हुई। अरे, पीप ही निकलेगी फोड़े में से गुलाब जल कहां से निकलेगा? आपरेशन शुरू हुआ तो जो मैल ऊपर-ऊपर था वह फूटकर के आगे आने लगा, उभर कर आने लगा। बहुत क्रोध का भाव है तो चिंतन में, संकल्प-विकल्प में क्रोध ही क्रोध, हिंसा-प्रतिहिंसा की भावना, प्रतिशोध की भावना ही उभरेगी। उसने ऐसा कर दिया, उसने ऐसा कह दिया। उससे ऐसा बदला लेंगे, उससे ऐसा बदला लेंगे। वैसे ही वैसे विचार।
किसी में भय के संस्कार बहुत अधिक हैं तो जैसे ही काम शुरू किया, इस बात का भय, उस बात का भय। किसी में काम-वासना का बहुत गहरा संस्कार है, तो काम शुरू कि या तो वासना जागी, वासना जागी। ये विकार जो बहुत गहरे-गहरे हैं, इन विकारों की जो मोटी-मोटी परतें मानस पर हैं, फूटने लगी, उभरने लगीं। तो चिंतन उसी प्रकार का होने लगा। एक दिन बीता, दो दिन बीते, तीन दिन बीते तो देखता है, अरे, अब विचारों में परिवर्तन आने लगा। वे जो गंदे विचार थे, विकारों से भरे हुए विचार थे उनका उभरना ठीक था। विचार उभर रहे हैं, हम अपना काम कर रहे हैं, सांस को देख रहे हैं। विचार उभर रहे हैं, हम अपना काम कर रहे हैं, सांस को देख रहे हैं। तो धीरे-धीरे उनकी परतें उतरती जाती हैं, उतरती जाती हैं। संकल्प-विकल्प अभी भी चलते हैं, विचार अभी भी चलते हैं पर अब धर्म-संबंधी विचार आने लगे, हिंसा-प्रतिहिंसा के विचार नहीं, वासना के विचार नहीं। अब तो -धर्म ऐसा होता है, ऐसे धर्म पर मैं चल रहा हूं। यह मार्ग अच्छा है।... इसी का चिंतन चलता है पर चिंतन तो चलता ही है। कभी-कभार कोई विकार भी जागता ही है पर उतना गहरा नहीं। जैसे सूरज उगा है और उसके सामने बहुत मोटे-मोटे काले-काले बादल हैं तो अंधकार ही अंधकार । बादल हटने लगे। काले-काले बादल हटे। घने-घने बादल हटे। अब जरा सफेद-सफेद बादल हैं। तो बादल तो अब भी हैं। लेकिन प्रकाश मालूम होने लगा, जरा प्रकाश मालूम होने लगा। बस, इसी तरह जहां संकल्पसम्यक हुए कि प्रज्ञा की ओर बढ़ने लगा। इसीलिए इसको प्रज्ञा का एक अंग कहा कि पहले हमारे विचार तो शुद्ध हों।
अब इसके बाद अगला कदम होगा - सम्मादिट्ठि माने सम्यक दर्शन । बहुत भ्रांति पैदा करने वाला है यह शब्द । 'दर्शन' शब्द ही अपने आप में बहुत भ्रांतियां पैदा करताहै, बहुत भ्रांतियां पैदा करता है। आज तो करता ही है, पच्चीस-छब्बीस शताब्दियों पूर्व के भारत में भी बहुत भ्रांति पैदा करने वाला । भाषा कितनी ही समृद्ध क्यों न हो और उस समय के भारत की भाषाएं तो बहुत समृद्ध, विशेषकर के अध्यात्म के क्षेत्र की भाषा बड़ी समृद्ध । लेकिन कितनी ही समृद्ध हो जाय फिर भी उसकी एक सीमा होती है। किसी-किसी मामले में बेचारी कंगाल हो जाती है। उसे और शब्द नहीं मिलते। तो बहुत बार ऐसा होता है कि एक ही शब्द अनेकार्थी हो जाता है, उसके अनेक अर्थ होते हैं।
उन दिनों के भारत में भी दर्शन शब्द के अनेक अर्थ थे, आज भी अनेक अर्थ हैं। एक बड़ा प्रचलित अर्थ तो यह कि दर्शन माने देखना। आंख खोल करके देखा, कोई रूप देखा, कोई रंग देखा, कोई रोशनी देखी, कोई आकृति देखी। यह देखना, यह दर्शन - सम्यक दर्शन से इसका दूर-परे का भी संबंध नहीं। इसमें नहीं उलझना चाहिए। यह रूप, रंग, रोशनी, आकृति देखने का दर्शन 'दर्शन' नहीं
एक और अर्थ, जो ध्यान के क्षेत्र में चलता था, अध्यात्म के क्षेत्र में चलता था। अनेक प्रकार के ध्यान होते हैं, आज भी करते हैं, उन दिनों भी करते थे। कल्पनाओं के ध्यान होते हैं। आंख बंद करके किसी देवी की, देवता की,ईश्वर की,ब्रह्म की,अल्लाह-ताला की या बुद्ध की, महावीर की या अपने गुरु अथवा किसी संत की -उसकी आकृति मन में लाकर के ध्यान करता है। भले उसने वह आकृति देखी नहीं, कभी वह रूप देखा नहीं। किसी चित्रकार ने अपनी कल्पना से वह चित्र बना दिया, अब उसके लिए वह काल्पनिक चित्र ही उसकी साधना का आधार बन गया। किसी मूर्तिकार ने अपनी कल्पना से कोई मूर्ति बना दी, अब वह मूर्ति इसकी कल्पना का आधार बन गयी । या किसी साहित्यकार ने शब्दों में कोई चित्र बैंचा, उसको पढ़ते-पढ़ते एक काल्पनिक चित्र उभर आया और उसका ध्यान करने लगा। यों कल्पना का ध्यान है। जैसा भी है। अपने मन पर एक छाप है - अमुक देवी का रूप ऐसा है, अमुक देवता का रूप ऐसा है। जिसको मैं ईश्वर कहता हूं उसका रूप ऐसा है। जिसको ब्रह्म कहता हूं उसका रूप ऐसा है। जिसको आत्मा कहता हूं उसका रूप ऐसा है, इत्यादि-इत्यादि । अब उसका ध्यान कर रहा है।
ध्यान का एक नियम यह कि बार-बार, बार-बार जिस किसी रूप या आकृति या रंग या रोशनी का ध्यान करेंगे और करते जायेंगे, करते जायेंगे तो एक ऐसी अवस्था आयेगी कि उसका बाह्य प्रक्षेपण होने लगेगा। जिसकी छाप मन पर पड़ी हुई थी, अब वह बंद आंखों के सामने दीखने लगेगा। उस देवी का रूप दीखने लगेगा, उस देवता का रूप दीखने लगेगा, उस ईश्वर का रूप दीखने लगेगा, उस ब्रह्म का रूप दीखने लगेगा, उस आत्मा का रूप दीखने लगेगा। यह अपने अनुभव से भी जानता हूं और अनेक साधक जो विपश्यना के शिविरों में आते हैं और साधना करते हुए अपना अनुभव सुनाते हैं उससे भी स्वीकार करता हूं। यह बाह्य प्रक्षेपण होने लगा। धर्म की पूरी समझ नहीं है तो साधक इससे बड़ा प्रसन्न होता है। अरे, मुझे देवी के दर्शन हो गये, मुझे देवता के दर्शन हो गये, मुझे ईश्वर के दर्शन हो गये। मुझे मेरी आत्मा के दर्शन हो गये। हम कहते हैं, यह हो गया, बड़ी अच्छी बात । लेकिन फिर भी अपने शरीर के बारे में क्या सच्चाई है उसे जान । अपने चित्त के बारे में क्या सच्चाई है उसे जान । तेरे भीतर विकारों का उद्गम कहां हो रहा है उसे जान । उसका संवर्धन कैसे हो रहा है उसे जान और उस पर रोक लगा करके उसका निष्कासन कैसे हो, इसको जान । यह तेरे काम की बात । तो यह जो रूप का दर्शन हुआ, आकृति का दर्शन हुआ, रोशनी का दर्शन हुआ, सम्यक दर्शन से उसका कोई लेन-देन नहीं है। कतई लेन-देन नहीं है। भ्रम में न पड़ जायें।
दर्शन का एक और अर्थ जो कि बहुत ही भ्रांति पैदा करने वाला, बहुत भ्रांति पैदा करने वाला। उन दिनों भी और आज भी दर्शन कहते हैं फिलोसॉफ को। कोई दार्शनिक मान्यता -इस परंपरा की यह फिलोसॉफिक मान्यता, उस परंपरा की वह फिलोसॉफिकल मान्यता। अब उस मान्यता का ध्यान कर रहा है। तो जिस फिलासॉफीको जो संप्रदाय, जो परंपरा मान रही है उस परंपरा में जन्मा हुआ व्यक्ति, उस परंपरा में पला हुआ व्यक्ति, उस परिवार में, उस समाज के माहौल में यही सुनता आया कि यही फिलोसॉफी सत्य है, यही दार्शनिक मान्यता सत्य है। उसको और सारी बातें झूठ लगती है। यही सत्य है, क्योंकि उसके इतने मोटे-मोटे लेप लगा लिए। बचपन से बुद्धि पर लेप लगते-लगते इतना गहरा विश्वास हो गया कि बस यही ठीक है, बाकी सब गलत हैं। जो हमारी दार्शनिक मान्यता है वह सम्यक है। जो औरों की दार्शनिक मान्यताएं हैं, सब मिथ्या हैं, भरमाने वाली, नरक की ओर ले जाने वाली हैं। हमारी दार्शनिक मान्यता मुक्ति की ओर ले जाने वाली है। यह दार्शनिक मान्यता, यह दार्शनिक मान्यता, भिन्न-भिन्न परंपराओं की भिन्न-भिन्न दार्शनिक मान्यताएं। भिन्न-भिन्न संप्रदायों की भिन्न-भिन्न दार्शनिक मान्यताएं। तो भाई, किसे सम्यक कहे? किसे मिथ्या कहे? और इसको लेकर के जो लड़ाई-झगड़े, जो वाद-विवाद, जो तर्क-वितर्क , तो धर्म कहां रहा? बड़ी भ्रांति पैदा की। दर्शन शब्द का यह अर्थ बहुत भ्रांति पैदा करने वाला हुआ । इसीलिए कभी-कभी यह कहता हूं कि दर्शन शब्द का यह अर्थ धर्म का बड़ा विरोधी है। इन दोनों का कोई ताल-मेल नहीं बैठता। तो क्या है सम्यक दर्शन?
दर्शन शब्द का एक और अर्थ जो प्राचीन भारत में अध्यात्म के क्षेत्र में बहुत प्रयोग किया जाता था। अब धीरे-धीरे उसे भूल बैठे। उन दिनों दर्शन का अर्थ होता था -अनुभव करना। किसी भी सच्चाई को अनुभूति पर उतारे तो दर्शन हुआ, साक्षात्कार हुआ, अपनी अनुभूति पर उतरा। सच्चाई वह की वह होगी। किसी दूसरे की अनुभूति पर उतरी तो उसके लिए दर्शन है। उसे दर्शन हुआ। मेरी अनुभूति पर उतरी, तो मेरे लिए दर्शन हुआ। तो स्वयं मेरी अनुभूति पर जो सच्चाई उतर रही है वह दर्शन । उसे ही आज की भाषा में कहे -'देखना'। उन दिनों की भाषा में उसी को दर्शन भी कहते थे, ‘पश्यना' भी कहते थे। आज कहते हैं 'देखना'। तो जैसे इस शब्द के सही अर्थ की गूंज आज भी कभी-कभी सुनाई देती है। पूरी तरह लोग नहीं समझ पाते पर गूंज है जब कोई कहता है कि अरे, खाकर तो देख। तो खाकर क्या देखे? खाकर उसका रंग देखे? उसका रूप देखे? अरे, यह रसगुल्ला खाकर देख, बहुत मीठा है। अरे, तू खाकर के अनुभव कर इसका,बहुत मीठा है। उसका रूप और रंग थोड़े ही देखना है। यह शर्बत पीकर देख, बहुत मीठा है, बड़ा स्वादिष्ट है। तो पीकर क्या देखे? उसका रंग देखे? उसका रूप देखे? अरे, पीकर तू स्वयं अनुभव कर, कितना अच्छा है। चख कर तो देख । यह संगीत बड़ा मधुर है। अरे, सुन कर तो देख। तो सुन कर क्या देखे? रंग देखे? रूप देखे? आकृति देखे? अनुभव कर । इसे सुन करके स्वयं अनुभव कर । यह दृश्य देख कि तना सुंदर है, कितना मनोरम है! देख, तो अनुभव कर केवल उसका रूप और आकृति देख के नहीं रह जाय । यह देख, परफ्यूम कितना सुगंध वाला है! अरे, सूंघ करतो देख! तो सूंघ कर क्या देखे? उसका रंग देखे? उसका रूप देखे? उसकी आकृति देखे? अनुभव कर, यह सही अर्थ हुआ। यह कल्याणकारी अर्थ हुआ। साधना के क्षेत्र का यही अर्थ कि अनुभूति पर उतार । रंग, रूप, रोशनी, आकृति से लेनदेन नहीं है। स्वयं अपनी अनुभूति पर उतरे।
जो सच्चाई मेरी अपनी अनुभूति पर उतर रही है वह मेरे लिए सम्यक दर्शन है और वह जो ज्ञान जगाती है वही सम्यक ज्ञान है। पोथियों वाला ज्ञान ज्ञान नहीं है, अपनी अनुभूतियों के बल पर जागा हुआ ज्ञान ज्ञान है। जो अनुभूति सिद्धार्थ गौतम को हुई उस अनुभूति से जो ज्ञान उसे जागा, जो बोधि उसे जागी, उससे केवल एक व्यक्ति मुक्त हुआ, दूसरा नहीं। और वह व्यक्ति सिद्धार्थ गौतम, वही मुक्त हुआ। और भी जो-जो लोग मुक्त हुए, अपनी अनुभूति से सत्य का साक्षात्कार करके मुक्त हुए। पुस्तकें पढ़ करके ,ग्रंथ पढ़ करके कोई व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति बुद्ध नहीं बन सकता। कोई व्यक्ति अरहंत नहीं बन सकता।कोई व्यक्ति स्थितप्रज्ञ नहीं बन सकता। कोई व्यक्ति अनासक्त नहीं बन सकता। कोई व्यक्ति वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह बन ही नहीं सकता। अनुभूतियों पर सच्चाई उतरे । अनुभूतियों पर सच्चाई उतरे तो प्रज्ञा जागने लगी। कल्याण का मार्ग खुलने लगा। वह तब होगा जबकि बाकी सारा काम भी अनुभूतियों पर उतार रहे हैं।
शील, सदाचार का केवल वर्णन करके रह जायँ, शील ऐसा होता है, सदाचार, ऐसा होता है। उसका उपदेश दे करके रह जायें । ऐसे शील पालन करना चाहिए, ऐसे सदाचार पालन करना चाहिए। उसे स्वीकार करके रह जायँ । हां, हां करना तो चाहिए, बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है। लेकि न करे नहीं। करे नहीं तो दर्शन नहीं हुआ। उस शील-सदाचार की अनुभूति अपने जीवन में नहीं हुई। तो कल्याण नहीं हुआ। सम्यक दर्शन नहीं हुआ। समाधि ऐसे होती है, ऐसे होती है। चित्त को ऐसे एकाग्र करना चाहिए। अवश्य करना चाहिए। हां, हां करनाही चाहिए, बड़ी अच्छी बात है। बड़े कल्याण की बात है। अरे, कि यातो नहीं ना! अनुभूति पर नहीं उतरा ना! तो सम्यक नहीं हुआ ना! तो अनुभूति पर उतरे।
यों शील-सदाचार को जो अनुभूति पर उतारता आ रहा है, समाधि को जो अनुभूति पर उतारता आ रहा है, वह प्रज्ञा को अनुभूति पर उतारने लायक हो गया। अब अनुभूति के बल पर, स्वानुभूति के बल पर उसका ज्ञान जाग रहा है। अरे, जो स्वानुभूति के बल पर ज्ञान जागता है भारत की पुरानी भाषा में उसी को तो प्रज्ञा कहते थे। प्रज्ञा' शब्द का शाब्दिक अर्थ यही है कि प्रत्यक्ष ज्ञान । परोक्ष ज्ञान नहीं, अपरोक्ष ज्ञान, प्रत्यक्ष ज्ञान । जो ज्ञान मेरी अपनी अनुभूति से जाग रहा है वह मेरा अपना ज्ञान है। कि सी दूसरे का ज्ञान मेरे लिए खाद का काम कर सकताहै, खाद्य का नहीं। मेरे अपने ज्ञान को जगाने में सहायक हो सकता है, प्रेरणादायक हो सकता है, बल दे सकता है, मार्गदर्शन दे सकता है। पर जगाना तो अपना ज्ञान होगा। अपना ज्ञान जितना-जितना जागेगा, उतना-उतना दर्शन सम्यक होता चला गया। और यह ज्ञान, यह अनुभूति ऐसी जागी कि शरीर और चित्त के प्रपंच को पूरी तरह जान गया। शरीर और चित्त के सारे क्षेत्र को अनुभूति पर उतार लिया। तो खूब समझ गया, कैसे विकार जागते हैं? कहां जागते हैं? उन्हें कैसे रोका जा सकताहै? उनका संवर्धन कैसे रोका जा सकता है? उनका निष्कासन कैसे किया जा सकता है?
यों जानते-जानते, विकारों से छुटकारा पाते-पाते सारे क्षेत्र को देखते-देखते , अपने चित्त को शुद्ध करते-करते हुए उस अवस्था पर पहुँच जाता है कि जहां शरीर और चित्त के परे का सत्य, वह परम सत्य, उसका साक्षात्कार हो जाता है। शरीर और चित्त की सच्चाई का दर्शन माने शरीर और चित्त की सच्चाई की अनुभूतियों का काम इसलिए कर रहे हैं कि इसके प्रति कितना गहरा तादात्म्य स्थापित कर लिया? इस शरीर के प्रति “मैं, मेरा", कितना गहरा तादात्म्य और कितनी गहरी आसक्ति! ऊपर-ऊपर से हजार कहता है, यह नश्वर है, यह भंगुर है, अरे, इसमें क्या पड़ा है? यह नि:सार है लेकिन कितनी गहरी आसक्ति! इसी प्रकार इस चित्त के क्षेत्र को मैं, मैं, मेरा, मेरा, कितना तादात्म्य स्थापित कर लिया और कितनी गहरी आसक्ति कर ली! ऊपर-ऊपर से हजार कहता है, बुद्धि से खूब कहता है, अरे, यह मन तो जड़ है, इसमें क्या पड़ा है? यह तो नश्वर है, हम खूब समझते हैं। लेकिन जानता नहीं, कोरी बातें करता है। अब जानने लगा। प्रज्ञा से जानने लगा। देख, कितना नश्वर है? देख, कितना नश्वर है? तो उसके प्रति जो आसक्ति थी वह टूटती है। अरे, इसलिए कर रहे हैं।
कोई आदमी कायस्थ क्यों होता है? इसलिए कि काया के भीतर ही तो सारे विकार उपज रहे हैं। काया के भीतर ही आसक्तियां जाग रही हैं और काया के प्रति जाग रही हैं, चित्त के प्रति जाग रही हैं। उससे हमें छुटकारा लेना है। कैसे छुटकारा लेंगे? उससे दूर भाग करके थोड़े ही लेंगे? उसका सामना करेंगे।देख, यह ऐसी काया, इतनी नश्वर, इतनी भंगुर, इतनी परिवर्तनशील! इसमें मेरा कोई अधिकार नहीं और उसके प्रति इतनी गहरी आसक्ति हो गयी! यह चित्त इतना नश्वर, इतना भंगुर। इसके प्रति इतनी आसक्ति पैदा हो गयी! यह आसक्ति टूटते-टूटते चित्त निर्मल होता है। इस सारे अनित्य क्षेत्र का दर्शन करते-करते,अनित्य क्षेत्र की अनुभूति करते-करते चित्त को निर्मल करते-करते उसका अतिक्रमण कर देता है, उसके आगे चला जाता है। तो चित्त और शरीर के परे की अवस्था, सारे इंद्रिय-जगत के परे की अवस्था, इंद्रियातीत अवस्था, अरे, उसकी अनुभूति हो जाती है। जो नित्य है, जो शाश्वत है, जो ध्रुव है। सारा काम इसी के लिए कर रहे हैं कि कैसे नित्य, शाश्वत, ध्रुव का दर्शन हो जाय? दर्शन हो जाय माने रूप, रंग का दर्शन नहीं, अनुभूति हो जाय। बड़ा मंगल होता है। शील इसीलिए पालन करना है कि सम्यक समाधि हो । सम्यक समाधि इसीलिए कर रहे हैं कि प्रज्ञा जागे और प्रज्ञा द्वारा चित्त को निर्मल करते-करते सारे अनित्य क्षेत्र से आसक्ति तोड़ते-तोड़ते नित्य, शाश्वत, ध्रुव का साक्षात्कार कर लें। अरे, इसी में तो मंगल समाया हुआ। जो इस मुक्ति के मार्ग पर चले, विशुद्धि के मार्ग पर चले, दर्शन के मार्ग पर चले, उसका मंगल ही मंगल, कल्याण ही कल्याण, स्वस्ति ही स्वस्ति, मुक्ति ही मुक्ति, मुक्ति ही मुक्ति ॥
कल्यानमित्र,
~सत्यनारायण गोयन्का
(जी-टीवी पर क्रमशः चौवालीस कड़ियों में प्रसारित पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों की बारहवीं कड़ी)
Jan 2000 विपश्यना हिंदी पत्रिका में प्रकाशित

Premsagar Gavali

This is Premsagar Gavali working as a cyber lawyer in Pune. Mob. 7710932406

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