तथागत अतुलनीय
एक समय भगवान् नालन्दा के प्रावारिकास्रवन में साधनाहेतु विराजमान थे। उस समय आयुष्मान् सारिपुत्र भगवान् के पास गये। जा कर उन्हें प्रणाम कर एक ओर बैठ गये। ...यों बोले- 'भन्ते ! आप भगवान् पर मेरी दृढ़ आस्था हो गयी है; क्यों कि, भन्ते ! ज्ञान (सम्बोधि) में आप भगवान् से बढ़ कर कोई न हुआ है, न आगे होगा, न अभी वर्तमान में है।"
'सारिपुत्र ! तुमने निर्भयता से बहुत ऊँची (महत्त्वपूर्ण) बात कह दी है। एक ही वाक्य में सबको समेट लिया। तथा यह सिंहनाद कर रहे हो 'भन्ते! आप भगवान् पर मेरी दृढ़ श्रद्धा हो गयी है... पूर्ववत्... न अभी वर्तमान में है?"
"ऐसी बात नहीं है, भन्ते!"
"तो क्या, सारिपुत्र! तुमने अतीत में हुए सभी अर्हत् सम्यकसम्बुद्धों के विषय में स्वचित्त से जान लिया है कि वे भगवान् ऐसे शील वाले, ऐसे धर्म वाले, ऐसी प्रज्ञा वाले तथा ऐसी साधना करने वाले या ऐसे विमुक्त थे?"
"नहीं, भन्ते!"
"तो क्या, सारिपुत्र! भविष्य में जो अर्हत् सम्यकसम्बुद्ध होंगे उन के विषय में ...पूर्ववत्... विमुक्त होंगे?"
"नहीं, भन्ते!"
"तो क्या, सारिपुत्र ! जो वर्तमान में जो अर्हत् सम्यकसम्वुद्ध है उन के विषय में स्वचित्त से यह जान लिया है कि वे भगवान् ऐसे शील वाले, ऐसे धर्म वाले, ऐसी प्रज्ञा वाले तथा ऐसी साधना करने वाले एवं ऐसे विमुक्त है?"
"नहीं, भन्ते!"
"तो, सारिपुत्र ! जब तुम अतीत, अनागत एवं वर्तमान अर्हत् सम्यकसम्बुद्धों को अपने चित्त से नहीं जान पाये हो, तब क्यों निर्भय हो कर यह इतनी ऊँची बात कह रहे हो, एक ही वाक्य में सब को समेट रहे हो, तथा यह सिंहनाद कर रहे हो?"
"भन्ते ! मैने अतीत, अनागत एवं वर्तमान के अर्हत् सम्यकसम्बुद्धों को तो अपने चित्त से नहीं जाना है, किन्तु इन के 'धर्मविनय' को भली भाँति समझ लिया है। जैसे, भन्ते! किसी राजा का कोई सीमान्त नगर हो जिसके द्वार पर परकोटे सुदृढ हों, जिस के अन्दर जाने के लिये एक ही द्वार हो। उस पर नियुक्त द्वारपाल चतुर एवं बुद्धिमान् हो, जो अज्ञात लोगों को उसमें न जाने दे तथा ज्ञात लोगों को ही अन्दर आने दें। वह उस नगर के परकोटे के चारों तरफ घूम कर जाँच ले, परख लें कि उस में कहीं भी ऐसा कोई छिद्र
या द्वार न हो, जिसमें से बिल्ली भी अन्दर आ सके !
तब उस (द्वारपाल) को यह धारणा बने- 'जितने भी छोटे या बड़े प्राणी हैं वे इसी मुख्य द्वार से इस नगर में आते जाते हैं; इसी तरह, भन्ते! मैने इस धर्मविनय को जान लिया है कि जितने भी अतीत सम्यकसम्बुद्ध हुए हैं वे सभी भगवान् तथागत अपने पाँचों नीवरणों का प्रहाण कर, चित्तोपक्लेशों को प्रज्ञा से दुर्बल कर, चारों स्मृतिप्रस्थानों की भावना द्वारा सुप्रतिष्ठितचित्त होकर सात बोध्यङ्गों को यथार्थतः भावना करके ही लोकोत्तर सम्यकसम्बोधि को प्राप्त हुए हैं।
इसी तरह जो अनागत में सम्यकसम्बुद्ध होंगे वे भी इसी प्रकार अपने पाँच...पूर्ववत्... सम्यकसम्बोधि को प्राप्त करेंगे। आप भगवान् ने भी इन्हीं पाँच नीवरणों का प्रहाण कर... पूर्ववत्... सम्यकसम्बोधि प्राप्त की है।"
"साधु, साधु, सारिपुत्र! साधु!
तो सारिपुत्र! तुम इसी धर्मविनय को इन भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, उपासिकाओं को भी विस्तारपूर्वक बताते रहना। सारिपुत्र ! जिन अज्ञजनों को भगवान् तथागत के विषय में विमति (सन्देह) या शङ्का होगी वह इस धर्मविनय को सुनने के बाद स्वतः दूर हो जायगी"।
संयुत्तनिकाय ।।