एक समय भगवान् (बुद्ध) मल्लों के उरुवेलकप्प नामक कस्वे में साधनाहेतु विराजमान थे। तब भद्रक नाम का ग्रामणी भगवान् के पास आया तथा उन्हें प्रणाम कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठ कर उस ने भगवान् से निवेदन किया- "भन्ते ! अच्छा हो कि आप मुझे दु:ख के उत्पाद एवं विनाश के विषय में कुछ बतावें।"
"ग्रामणि ! यदि मैं अतीत दु:ख के उत्पाद एवं विनाश के विषय में या अनागत दुःख के उत्पाद एवं विनाश के विषय में कुछ बताऊँगा तो हो सकता है तुम्हें उस पर कोई सन्देह या विमति (मतभेद) होने लगे; अतः मैं यहाँ बैठा हुआ यहाँ बैठे हुए तुम्हारे (वर्तमान) दु:ख के विषय में बताऊँगा; उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो और अपने मन में बैठा लो।""अच्छा, भन्ते!" ग्रामणी ने उत्तर दिया।
भगवान् बोले- "तो क्या मानते हो, ग्रामणि ! इस उरुवेलकप्प में क्या तुम्हारे ऐसे कुछ परिचित मनुष्य हैं जिन के किसी कारण वध या बन्धन से, हानि या अप्रतिष्ठा से तुम्हें शोक, परिदेव, दुःख दौर्मनस्य आदि उत्पन्न हों?"
"हाँ, भन्ते ! ऐसे मनुष्य यहाँ हैं जिन के वध बन्धन से... दौर्मनस्य आदि उत्पन्न हों।"
"ग्रामणि ! क्या इस उरुवेलकप्प में ऐसे भी मनुष्य हैं जिन के वध बन्धन से...तुम्हें शोक परिदेव आदि न उत्पन्न हों?"
"हाँ, भन्ते ! यहाँ ऐसे भी पुरुष हैं जिन के वध या बन्धन से... मुझे कोई शोक परिदेव आदि न उत्पन्न होंगे।"
"ग्रामणि ! क्या कारण है कि यहाँ एक के वध बन्धन से...तुम्हें शोक परिदेव आदि उत्पन्न होते हैं तथा दूसरे के वध बन्धन से...तुम्हें शोक परिदेवादि नहीं होते?"
“भन्ते ! उस में यही कारण है कि जिन उरुवेलकप्प वासियों के वध-बन्धन से... मुझे शोक परिदेवादि होते हैं उन के प्रति मेरा छन्दराग (कामना (तृष्णा) =आसक्ति) है तथा जिन उरुवेलकप्प वासियों के वध-बन्धन से...मुझे शोक परिदेवादि नहीं होते उन के प्रति मेरा कोई छन्दराग नहीं है।"
'बस, ग्रामणि ! इसी बात को तुम स्वयं अपने वर्तमान काल में उत्पन्न दुःखों के विषय में चरितार्थ कर देख लो, समझ लो। इसी तरह तुम्हें अतीत काल में जो भी
उत्पन्न हुए थे उनका मूल कारण भी यह 'छन्द' (आसक्ति) ही था। तथा जो कुछ अनागत काल में दु:ख उत्पन्न होंगे उन का भी मूल कारण यह 'छन्द' ही होगा।'
'भन्ते ! आप ने बहुत अच्छी तरह समझा दिया। भन्ते ! आप का यह कथन सर्वथा उचित है कि जो कुछ भी दु:ख उत्पन्न हो रहा है उस सब का मूल कारण यह 'छन्द' (राग) ही है।
'भन्ते ! आप की बात का निष्कर्ष यह निकला कि 'छन्द' ही दुःख का मूल है। भन्ते ! चिरवासी नामक मेरा एक पुत्र नगर के बाहर रहता है। भन्ते ! मैं प्रतिदिन प्रात: उठ कर अपने भृत्य को आदेश देता हूँ– 'जाओ! चिरवासी का कुशल समाचार ले कर आओ।' जब तक मेरा वह भृत्य चिरवासी का कुशल समाचार ले कर लौट कर नहीं आता, भन्ते ! तब तक मेरे मन में उद्विग्नता ही रहती है कि पुत्र पर कोई कष्ट न आ गया हो।"
"तो क्या मानते हो, ग्रामणि! चिरवासी कुमार के वध बन्धन से... तुम्हें शोक परिदेव आदि उत्पन्न होंगे?
"भन्ते! आप शोक परिदेव की बात कह रहे हैं। उस के वध बन्धन से...मेरे चित्त (प्राणों) पर क्या क्या बीतेगी, मैं वर्णन नहीं कर सकता। साधारण शोक परिदेव की तो बात ही क्या !"
"ग्रामणि! इस से भी तुम्हें समझ लेना चाहिये कि उत्पन्न सभी दुःखों का मूल कारण 'छन्द' है। एक बात और बताओ- ग्रामणि! जब (विवाह से पूर्व) तुम ने चिरवासी की माता को नहीं देखा था तब भी उस के प्रति यही छन्दराग (प्रेम-आसक्ति) थी?"
"नहीं, भन्ते!"
'ग्रामणि! जब चिरवासी की माता तुम्हारे पास चली आयी तब तुम्हें उस के प्रति छन्दराग हुआ? या नहीं?"
"हुआ, भन्ते!"
"तो तुम क्या समझते हो ग्रामणि ! चिरवासी की माता के वध बन्धन से...तुम्हें शोक परिदेव आदि होंगे या नहीं?"
भन्ते ! आप शोक परिदेव की बात कर रहे हैं, उन के वध बन्धन से...मेरे प्राण तक कितने सङ्कट में आ जायँगे- इस की भी आप कल्पना कीजिये !"
"ग्रामणि ! इस बात के सहारे से भी तुम समझ लो, जो कुछ भी उत्पन्न होने वाला दुःख है वह सब छन्द के कारण ही होता है। निष्कर्ष यह है कि छन्द ही दु:ख का मूल है"।
भगवान् ने यह उपदेश किया। सन्तुष्ट होकर भद्रक ने भगवान् के इस उपदेश का अभिनन्दन किया।
भद्रकसूत्र समाप्त।
संयुत्तनिकाय ।।