केवल जानना







- दिट्ठे दिट्ठमत्तं भविस्सति - देखने में मात्र देखना ही हो।
- सुत्ते सुत्तमत्तं भविस्सति - सुनने में मात्र सुनना ही हो।
इसी प्रकार सूंघने में मात्र सूंघना, चखने में मात्र चखना, छूने में मात्र छूना, और जानने में मात्र जानना ही हो।"
समझदार बाहिय दारुचीरिय ने भगवान के इस संक्षिप्त उपदेश को खूब विस्तार से समझा। आख, कान, नाक, जीभ, त्वचा और मन इन छहों इंद्रिय-द्वारों में से जिस क्षण जिस किसी द्वार पर, जिस किसी विषय का याने रूप, शब्द, गंध, रस, स्पष्टव्य अथवा विकल्प का संस्पर्श-संघात हो, उस क्षण उसी की जानकारी हो और केवल जानकारी मात्र हो कर रह जाय। जिस क्षण जो हो रहा है, उस क्षण वही जानें ।
देखना तो मात्र देखना, सुनना तो मात्र सुनना, सूंघना तो मात्र सूंघना, चखना तो मात्र चखना, छूना तो मात्र छूना, सोचना तो मात्र सोचना और केवल जान कर ही रह जायं, कोई प्रतिक्रिया न करें।
सतत अभ्यास द्वारा टुकड़े-टुकड़े करके काल के उस छोटे-से-छोटे हिस्से तक जा पहुँचे, जिसे चित्त-क्षण कहते हैं।
देखेंगे कि इस एक नन्हें-से चित्त-क्षण में एक साथ दो घटना नहीं घटतीं। परंतु काल-धारा अत्यंत तीव्र गति से प्रवहमान होती रहती है, जिससे कि एक-एक क्षण को और उस एक-एक क्षण में घटने वाली घटना को हम अलग-अलग करके जानने की क्षमता गँवा बैठे हैं। तेज चलने वाले चलचित्र-सदृश इस जीवनधारा को गतिशील ही देखते रहने के इतने आदी हो गए हैं कि इस फिल्म-रील के एक-एक चित्र को अलग-अलग देख ही नहीं पाते। इसी से दृष्टि-भ्रम होता है, मरीचिका का भान होता है। इसी से पूर्वापर संबंध जुड़ता है और प्रपंच बढ़ता है। राग-द्वेष और मोह-मूढ़ता का प्रपंच ।
यह कैसा होता है? आओ, समझे।
छह इंद्रिय-द्वारों में से जिस किसी पर इस क्षण जो घटना घटी, उसे केवल जान कर ही नहीं रह जाते, बल्कि झट संज्ञा द्वारा पहचानते हैं। संज्ञा, याने मानस का वह हिस्सा जो कि पूर्व अनुभूतियों और स्मृतियों के बल पर पहचानने का काम करता है। संज्ञा ने पहचाना कि प्रपंच आरंभ हुआ। छूट गया यह क्षण । लगे अतीत में भ्रमण करने। ऐसी अनुभूति पहले भी हुई थी या इससे मिलती-जुलती हुई थी और हुई थी तो अच्छी लगी थी या बुरी । यह मूल्यांकन होते ही प्रपंच और आगे बढ़ने लगता है।
वेदना (शरीर पर होने वाली संवेदना) सुखद या दुःखद लगने लगती है। और तब चेतना का वह भाग जिसे संस्कार कहते हैं, झट अपना काम करने लगता है। उसका काम है प्रतिक्रिया करना । इस क्षण का देखना, सुनना, सूंघना, चखना, छूना और सोचना; अच्छा लगा तो राग की और बुरा लगा तो द्वेष की प्रतिक्रिया आरंभ हो जाती है। मन भविष्य में लोट-पलोट लगाने लगता है। ऐसा हो, ऐसा न हो। यों भूतकाल की याद और भविष्य की कामना, कल्पना और चित्तधारा पर राग-द्वेष की रेल-पेल चलने लगती है।
इस क्षण जो देखना आदि हुआ उसे महज देखने आदि तक ही सीमित रखें तो न प्रपंच आरंभ होता है, न ही बढ़ता है। अनारंभी ही प्रपंच-मुक्त होता है। साधक ध्यान देता है तो देखता है कि शरीर के पांच द्वारों पर स्पर्श-संघात की अनुभूति जितनी बार और जितनी देर होती है, उसके मुकाबले मन पर होने वाली कहीं अधिक है। देखने, सुनने, सूंघने, चखने और छूने की अपेक्षा सोचने का काम कई गुना अधिक होता है।
जो घटना मन पर ही घटी, उसकी रेल-पेल तो मन पर चलती ही है, परंतु जो इन पांच कायेन्द्रियों में से किसी पर घटी, उसकी भी प्रतिक्रिया मन पर ही होती रहती है। यह सारा प्रपंच, बढ़ाव, फैलाव मन से ही होता है; क्योंकि आरंभ मन से ही होता है। जब तक हम जीवित हैं और तन-मन के छह आयतन (खिड़की-दरवाजे) खुले हैं, तब तक हर क्षण किसी-न-किसी आयतन से कुछ-न-कुछ प्रविष्ट होता ही रहता है और उसे लेकर यह पागल आरंभी मन राग-द्वेष आरंभ कर प्रपंच बनाता ही रहता है। ऐसी अवस्था में चित्त-विशुद्धि कहां? चित्त-विचित्त-विमुक्ति कहां?
क्षण-क्षण के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें अलग-अलग नहीं जानने से प्रत्युत्पन्न, याने, वर्तमान को, अतीत और अनागत से गड्डमड्ड किए रहते हैं। इससे एक और कठिनाई पैदा होती है। घटनाओं के इस तारतम्य में एक सूत्र पिरोया हुआ आभासित होता है - अहंभाव का, अस्मिताभाव का, आत्मभाव का एक अविरल सूत्र ।
इसी से एक 'मैं' का अस्तित्व उभरता है। धीरे-धीरे यह 'मैं है' कि प्रतीति 'मैं हूं' में परिवर्तित हो कर दृढ़मूल हो जाती है। यह 'मैं हूं' जिसने कि बचपन से अब तक ऐसी-ऐसी अनुभूतियां की और यह 'मैं हूं' जो भविष्य में ऐसी-ऐसी अनुभूतियां करूंगा। मैं हूं' का यह भ्रम इस अस्तित्वहीन 'मैं' के प्रति आसक्तियां पैदा करता है जो कि राग और द्वेष की अग्नि को और अधिक प्रज्वलित करता है। यह 'मैं हूं' की अविद्या ही है जो कि राग-द्वेष को, और राग-द्वेष की मोहमूढ़ता ही है जो कि 'मैं हूं' को परस्पर बलवान बनाती रहती है।
साधक अपने सतत अभ्यास द्वारा फिल्म की रील के टुकड़े-टुकड़े कर लेता है तो मैं हूं' का भ्रम टूटता है। 'मैं हूं' फिर 'मैं है' में परिवर्तित होता है और 'मैं है' केवल लोक व्यवहार के लिए रह जाता है। इसमें 'मैं' के अलग-थलग व्यक्तित्व की भ्रांति दूर होती है। एक-एक क्षण का अपने आप में अलग-अलग साक्षात्कार होने लगता है। भ्रम टूट कर वस्तुस्थिति स्पष्ट होती है। प्रज्ञा जागती है, अविद्या का सारा क्लेश दूर होता है। राग-द्वेष की नयी गांठें बँधनी बंद होती हैं और पुरानी खुलने लगती हैं।
तब देखने में देखता हूं' का भ्रम दूर होता है। देखने में मात्र देखना' ही रह जाता है। जैसे देखने में मात्र देखना, वैसे ही सुनने में मात्र सुनना, सूंघने में मात्र सूंघना, चखने में मात्र चखना, छूने में मात्र छूना रह जाता है और ऐसे ही जानने में मात्र जानना रह जाता है। ‘कर रहा हूं' या 'भोग रहा हूं' की जगह 'हो रहा है' की सच्चाई प्रकट होती है।
भोक्ताभाव और कर्ताभाव की माया विदीर्ण होती है। अहंभाव अहंकार-विहीनता में प्रतिष्ठित होता है। आत्मभाव अनात्मभाव में बदलता है। अब तक तो केवल सैद्धांतिक स्तर पर ही साधक यह मानकर चलता था कि यह काया और यह चित्त-प्रपंच 'मैं' नहीं हूं, 'मेरा' नहीं है, 'मेरी आत्मा' नहीं है। परंतु अब महज मानने की बात नहीं रह जाती।
अब तो वह स्वानुभूतियों के बल पर इस सच्चाई को स्वयं जान लेता है और उसे स्पष्ट होता है कि इन ऐंद्रिय अनुभूतियों के कारण किसी 'मैं' का अस्तित्व नहीं है और तब यह भी स्पष्ट होता है कि इन ऐंद्रिय अनुभूतियों में भी किसी 'मैं' का अस्तित्व नहीं है। न यह ऐंद्रिय अनुभूतियां किसी 'मैं' को धारण किए हुए हैं और न कोई 'मैं' इन इंद्रियों को धारण किए हुए है।
यही बात बाहिय दारुचीरिय को समझाते हुए भगवान ने कही कि जब तुम्हें "दिट्ठे दिट्ठमत्तं भविस्सति" याने देखने में देखना मात्र आदि होने लगे तो "ततो त्वं न तेन" याने इस देखने, सुनने आदि के कारण से तुम हो, भ्रांति दूर होगी और तभी "ततो त्वं न तत्थ" याने इस देखने, सुनने आदि में तुम हो, यह भ्रम भी मिटेगा।
ऐसी अहंशून्य स्थिति होते ही लोकोत्तर निर्वाण का साक्षात्कार होगा। एसेवन्तो दुक्खस्सा यही दुःखों का अंत है।
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पुस्तक : बाहिय दारुचीरिय।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!

Premsagar Gavali

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