अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए चिंतित रहना मनुष्य मन का स्वभाव बन गया है। आने वाले क्षण सुखद हों, योग-क्षेम से परिपूर्ण हो, इस निमित्त मानव भांति-भांति की शरण खोजता है, आश्रय ढूंढ़ता है, सहारा टटोलता है। परन्तु धर्म को छोड़कर न कोई ऐसी शरण है, न कोई ऐसा आश्रय है, न कोई ऐसा सहारा है जो कि उसे भविष्य के प्रति निशंक बना दे, निर्भय बना दे, योग-क्षेम से परिपूर्ण कर दे।
अतः धर्म शरण ही एक मात्र शरण है, धर्म का संरक्षण ही एक मात्र सही संरक्षण है। और धर्म वह जो हमारे भीतर जागे, धर्म वह जिसे हम स्वयं धारण करें। किसी दूसरे के भीतर जागा हुआ धर्म, किसी दूसरे द्वारा धारण किया हुआ धर्म, हमारे किस काम का? वह तो अधिक से अधिक हमें प्रेरणा प्रदान कर सकता है, विधि प्रदान कर सकता है, जिससे कि हम स्वयं अपने भीतर का धर्म जगाएं, अपने भीतर का प्रज्ञा-प्रदीप प्रज्वलित करें परन्तु हमारा वास्तविक लाभ तो स्वयं धर्म धारण करने में ही है।
अतः धर्म शरण का सही अभिप्राय आत्म-शरण ही है। तभी तो भगवान ने कहा- "अत्तसम्मा पणिधि च एतं मङ्गलमुत्तमं" यानी हमारा उत्तम मंगल इसी बात में है कि हम सम्यक प्रकारेन् अर्थात् भली-भांति आत्म-प्रणिधान का अभ्यास करें। किसी भी बाह्य शक्ति के प्रति प्रणिधान का अभ्यास तो हमें केवल मात्र कायर, परावलंबी और असमर्थ ही बना देने वाला साबित होगा।
यह आत्म-द्वीप और आत्म-शरण ही है, जो कि सही माने में धर्म-द्वीप और धर्म-शरण है। हर संकट के समय हम अपने भीतर का धर्म जगाए। अपने भीतर धारण किये हुए धर्म द्वारा एक ऐसा सुरक्षित द्वीप बनाएं जिसमें कि हमारे जीवन की डगमगाती हुई नैया सही संरक्षण पा सके, संकटों के प्रति हमारी सुरक्षा स्थिर हो सके।
हम देखते हैं कि भगवान बुद्ध के जीवनकाल में जब बड़े-बड़े महास्थविर भी रोग-ग्रस्त हो जाते थे, शारीरिक दुर्बलता के कारण मानसिक दुर्बलता के शिकार हो जाते थे, तो उनके साथी उनके समीप धर्म-सूत्रों का विशेषकर बोध्यंग-सूत्र का पाठ करते थे, जिससे कि उनकी धर्म-चेतना जागे, उनके भीतर बोधि-धर्म की प्रज्ञा जागे । इसलिए इन सूत्रों को परित्राण सूत्र भी कहा जाने लगा। रुग्ण साधकों को इन सूत्रों से जो लाभ होता था, उसका प्रमुख कारण उनके भीतर प्रज्ञा धर्म की चेतना जागृत होना ही था।
ये सूत्र तो प्रेरणा के साधन मात्र ही हुआ करते थे। विपश्यना साधना द्वारा शरीर के अणु-अणु में जिस उदय-व्यय का बोध जाग उठता है, नाम और रूप के सतत भंगमान स्वरुप का चैतन्य जाग उठता है, वही प्रज्ञाधर्म है, जो कि हमारे सब प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुखों को दूर करता है। प्रज्ञा के इस चैतन्य को जगाने के लिए कभी-कभी अनेक साधक रोगी के आस-पास बैठ कर सामूहिक विपश्यना-साधना करते हैं, जिससे कि रोगी की मंद पड़ी प्रज्ञा-चेतना नया बल प्राप्त करती रहे।
ऐसा लगता है कि कभी पुराने समय में रोगी साधक की विपश्यना-साधना की चेतना जगाने के लिए उनके हाथ में एक सूत का धागा बांधा जाता होगा और उस लंबे धागे का दूसरा छोर अन्य साधक पकड़े रखकर बोध्यंग जैसे परित्राण सूत्रों का पाठ करते होंगे तथा साधना करते होंगे, जिससे कि रोगी की सोयी हुई धर्म चेतना जाग उठती होगी।
पड़ोस के बौद्ध देशों में आज भी ऐसे रक्षा-सूत्रों को बांधकर परित्राण मंत्रों के पाठ की प्रथा कायम है। परन्तु कहीं-कहीं तो यह एक निर्जीव रूढि मात्र रह गयी है। एक अंध-विश्वास की परंपरा मात्र रह गयी है। यदि इन रक्षा सूत्रों का उपयोग करने वाले और परित्राण-मंत्रों का पाठ करने वाले सच्चे साधक अपने भीतर विपश्यना प्रज्ञा का चैतन्य जगाकर रोगी के प्रति मंगल मैत्री प्रवाहित करते हैं और यदि वह रोगी भी स्वयं विपश्यना साधक है और इन धर्म-तरंगों से उसके भीतर का प्रज्ञा-चैतन्य जाग उठता है तो निश्चय ही वह धर्म का संरक्षण पाता है इसके बिना तो यह एक निष्प्राण औपचारिकता मात्र ही है।
मुख्य बात यही है कि हम अपने भीतर की प्रज्ञा जगाएं रखें और इसके लिए समाधि द्वारा अपने चित्त की एकाग्रता पुष्ट रखें और कायिक, वाचिक दुष्कर्मो से बचते हुए अपने शील को अंखडित रखें। शील, समाधि और प्रज्ञा का यह विशुद्ध धर्म हम स्वयं अपने भीतर जितना सुरक्षित रखेंगे, यानी हम जितने-जितने धर्म-विहारी बनेंगे, उतने-उतने ही इस स्वयं पालन किये हुए धर्म द्वारा स्वयं धारण किये हुए धर्म द्वारा, स्वयं सुरक्षित किये हुए धर्म द्वारा अपना सुरक्षण, संरक्षण ही पायेंगे।
भगवान ने ठीक ही तो कहा 'धम्मो हवे रक्खति धम्मचारि' धर्मचारी की रक्षा धर्म आप ही करता है। तो अपनी सही सुरक्षा के लिए स्वयं सच्चे धर्मचारी बनें, धर्म-विहारी बनें, धर्म-पालक बनें। इसी में हमारा मंगल निहित है, भला निहित है, कल्याण निहित है।
कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयन्का





विपश्यना पत्रिका संग्रह 10, 2010
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!