फिर गुरुजी ने बड़ी शांति से पूछा, समता रहती है? मैंने राजस्थानी भाषा में बड़ी ऊंची आवाज में गुरुजी को दो गालियां दी और सोचने लगा कि अब गुरुजी उफन पड़ेंगे, (गुस्सा हो जायँगे) और धम्म सेवकों को आदेश देंगे कि इसे मार कर बाहर फेंक दो......
दो चार सेकंड गुरुजी मेरी ओर देखते हुए शायद मैत्री देते रहे। फिर बड़े प्यार से, बड़ी करुणाभरी वाणी में बोले, "बेटे, इसी कीचड़ में गिरा रहना है, ऊपर नहीं उठना है? चलो, खड़े हो जाओ और अपनी सीट पर जाकर ध्यान करो, जाओ!" जैसे गुरुजी ने बोलना शुरू किया, करुणा और प्यार की धारा से मेरा तन-मन भीग गया.......
धम्मसिन्धु, बाड़ा (मांडवी कच्छ) के केन्द्र के नये धम्म हॉल के उद्घाटन कार्यक्रम में तीन दिन का विपश्यना शिविर रखा गया था। कई गणमान्य विपश्यना आचार्य इस शिविर में शामिल हुये थे। मैं भी इसमें शामिल हुआ था।
शिविर समापन के बाद सब आचार्य इकट्ठे हो कर धर्म की तथा कुछ व्यावहारिक बातें कर रहे थे। उस समय मैं समीप बैठ कर सारी बातें सुन रहा था। इतने में एक आचार्य ने एक सहायक आचार्य से कहा कि आप पहली बार शिविर में कैसे शामिल हुये और शिविर कैसा रहा? कृपया आप हम-सबको बताइए।
पहले तो वे नहीं बतलाना चाहते थे लेकिन सभी आचार्यगण ने दबाव डाला तो वे पहले शिविर में कैसे शामिल हुए और क्या-क्या किया इसका विस्तार से यों बयान किया - “मैं पहले बड़ा खराब आदमी था। कई खराबियां जीवन में पनपती चली गयीं थीं। सारे दिन मुँह में गुटका रख कर चबाया करता था। सामान्य बातों में भी मेरे मुँह से खराब गालियां निकलती रहती थीं। सफल व्यवसाय का अभिमान भी शिर पर सवार था। साधु-संतों का कभी आदर नहीं करता था।
एक दिन मेरे एक मित्र ने शिर्डी और आसपास घूमने जाने का प्लान बनाया। दोनों निकल पड़े। नासिक पहुँचने के पहले ही मित्र ने कहा- यहां रास्ते में इगतपुरी में ध्यान का एक बड़ा अच्छा केन्द्र है। वहां भी देखते चलें, बड़ा मजा आयगा। मैंने कहा- घूमना तो है ही, चलो वहां भी जायें।
धम्मगिरि जाकर मित्र ने कुछ फार्म भरे और मुझे कहा कि शाम होने को है तो रात यहीं पर रुकेंगे, कल यहां से निकल जायेंगे और फार्म पर मेरा हस्ताक्षर भी ले लिया। मित्र ने समझाया कि यदि यहां रुकना है तो हमारे सारे वेल्युएबल दे देने पड़ेंगे और गुटका आदि भी।
मैंने मित्र को गालियां देकर कहा कि यदि यहां गुटका खाने नहीं देते हैं तो तू मुझे यहां लाया ही क्यों? मित्र ने बड़े धीरज के साथ मुझे समझा कर शिविर में शामिल करवा दिया। शाम को मौन और ध्यान प्रारंभ हो गया। दूसरे दिन सुबह 4-00 बजे जगाया गया। मैं मन-ही-मन गालियां देने लगा। फिर भी हॉल में जाकर थोड़ा ध्यान किया।
सुबह का नाश्ता करने के बाद यहां से निकल जाने के लिए मैं मित्र को ढूंढ़ने लगा, लेकिन वह तो न जाने कहां गायब हो गया, मिला ही नहीं। जैसे-तैसे सारा दिन थोड़ा-थोड़ा ध्यान करता रहा। शिविर खुद गुरुजी संचालन कर रहे थे। जब-जब गुरुजी ध्यान की सूचना देते, मैं अंदर से जल उठता था और गुरुजी को मन ही मन गालियां देता था।
शाम को गुरुजी ने धर्म प्रवचन दिया, वह बहुत अच्छा लगा। थोड़ा-थोड़ा धर्म समझ में आया। फिर भी चिड़चिड़ाया रहता और ध्यान करते-करते यही सोचता कि भाग जाना है, भाग जाना है। ऐसी ही मनःस्थिति में चार दिन बीत गये। चौथे दिन विपश्यना दी गयी। पांचवे दिन गुरुजी ने साधकों को चेकिंग करने की तैयारी करवाई।
रोज भाग जाने की तो सोच ही रहा था, लेकिन वेल्युएबल कहां से वापस पाना है वह मालूम नहीं था इसलिए असंमजस में रहा करता था। अब मैंने तय कर लिया कि यहां से निकलने का एक मौका है। जब चेकिंग में मेरी पारी आयेगी तब मैं गुरुजी को दो चार गालियां दे दूंगा, तो जो धम्म सेवक हैं वो मुझे पीटेंगे और बाहर धकेल देंगे, बस यही मुझे करना चाहिए।
चेकिंग के लिए मेरी पारी आयी, गुरुजी ने मुझसे पूछा, ध्यान होता है? मैंने गुरुजी के सामने देख कर थोड़ी ऊंची आवाज में कहा, नहीं होता है। गुरुजी ने आगे कहा, संवेदना देख पाते हो? मैंने गुरुजी के सामने आंखे बड़ी करके ऊंची आवाज में कहा, कहा न, नहीं मिलती है। फिर भी गुरुजी ने बड़ी शांति से पूछा, समता रहती है? मैंने राजस्थानी भाषा में बड़ी ऊंची आवाज में गुरुजी को दो गालियां दी और सोचने लगा कि अब गुरुजी उफन पड़ेंगे, (गुस्सा हो जायँगे) और धम्म सेवकों को आदेश देंगे कि इसे मार कर बाहर फेंक दो। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
दो चार सेकंड गुरुजी मेरी ओर देखते हुए शायद मैत्री देते रहे। फिर बड़े प्यार से, बड़ी करुणाभरी वाणी में बोले, "बेटे इसी कीचड़ में गिरा रहना है, ऊपर नहीं उठना है? चलो, खड़े हो जाओ और अपनी सीट पर जाकर ध्यान करो, जाओ!" जैसे गुरुजी ने बोलना शुरू किया, मेरा सारा शरीर संवेदनाओं से भर गया। करुणा और प्यार की धारा में तन-मन भीग गया। खड़ा होकर बड़ी शांति से अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। बाकी के सारे दिन बड़ी गंभीरता से साधना करता रहा।
गुटका की तलब और खराब की आदतें जीवन में से जैसे निकल ही गयीं। नियमित साधना करने लगा। सारा जीवन बदल गया। शठ से संत बन गया। शुद्ध धर्म की सेवा में लग गया। गुरुजी ने मुझे विपश्यना का असिस्टेंट टीचर बनाया। हो सके इतनी धर्म की सेवा करने लगा हूं।
सही मायने में गुरुजी और माताजी ने मुझे कीचड़ में से निकाल कर कमल पर बैठा दिया, बस अब तो धर्म की सेवा ही करनी है। सभी आचार्यगण को साधुवाद किया।”
बी. के. राठोड़, गांधीनगर
पुस्तक: पूज्य गुरुजी एवं माताजी के बारे में साधको के संस्मरण, विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!