🌷The Wondrous Benefits of Dhamma Service 🌷
मैं 1986 में प्रथम बार विपश्यना के एक दस दिवसीय शिविर में सम्मिलित हुआ था। नि:संदेह मैं अपने इस प्रथम शिविर में कौतूहलवश ही गया था क्योंकि मेरे पिताजी इस विद्या का अभ्यास 1971 से ही करते आ रहे थे। मैं संभवतः अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए ही शिविर में शामिल हुआ था कि आखिरकार मेरे पिताजी सुबह शाम एक-एक घंटे करते क्या है ?
इतना ही नहीं बल्कि साल में एक दो बार दस दिनों के लिए भी यह कह कर जाते थे कि वे ध्यान-शिविर में जा रहे हैं। मेरा मन-मानस तभी से इस उधेड़-बुन में लगा था कि यह किस प्रकार की विद्या है। कि किसी बंद कमरे में बैठकर ध्यान किया जाता है। मैं जब स्वयं इस दस दिवसीय शिविर से गुजरा तब मेरे कौतूहल का समाधान ही नहीं हुआ, बल्कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्वयं अपने अनुभव से जानने का अवसर प्राप्त हुआ। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि मेरे पिताजी जो ध्यान करते हैं वह सचमुच कल्पनाओं, कर्मकांडों, रूढ़िवादी मान्यताओं और सम्प्रदायवाद से नितांत परे वास्तविकता पर आधारित स्वयं के अनुभव से जानने की विद्या है।
इतना ही नहीं बल्कि साल में एक दो बार दस दिनों के लिए भी यह कह कर जाते थे कि वे ध्यान-शिविर में जा रहे हैं। मेरा मन-मानस तभी से इस उधेड़-बुन में लगा था कि यह किस प्रकार की विद्या है। कि किसी बंद कमरे में बैठकर ध्यान किया जाता है। मैं जब स्वयं इस दस दिवसीय शिविर से गुजरा तब मेरे कौतूहल का समाधान ही नहीं हुआ, बल्कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्वयं अपने अनुभव से जानने का अवसर प्राप्त हुआ। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि मेरे पिताजी जो ध्यान करते हैं वह सचमुच कल्पनाओं, कर्मकांडों, रूढ़िवादी मान्यताओं और सम्प्रदायवाद से नितांत परे वास्तविकता पर आधारित स्वयं के अनुभव से जानने की विद्या है।
यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। इसके बाद इस विद्या को लेकर मैंने पिताजी से कोई सवाल नहीं किया। हां, यह अवश्य था कि मैं साधना की निरंतरता को सुबह-शाम कायम नहीं रख सका, जबकि यह अच्छी तरह जान गया था कि विद्या का असली लाभ तो तभी मिलेगा जब हम सुबह-शाम की साधना के अभ्यास को जारी रखेंगे। वर्ष 1996 में शिविर में शामिल होने का पुनः अवसर प्राप्त हुआ तो बड़े मनोयोग से दृढ़ संकल्प के साथ परिश्रम किया और पर्याप्त लाभ पाया । इस शिविर के बाद पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण के साथ मैने अपनी सुबह-शाम की साधना की निरंतरता को आज तक कायम रखा है। विपश्यना के दस दिवसीय शिविर से गुजरने के बाद कमो-बेस हर व्यक्ति को इस विद्या का लाभ मिलता ही है। मैं स्वयं भी इससे बहुत लाभान्वित हूं।
इस विद्या के दैनिक अभ्यास से मेरे जीवन में कई तरह का बदलाव आया और समय-समय पर सकारात्मक लाभ भी मिला। मैने खूब सुना एवं पढ़ा था कि इस विद्या के अभ्यास के साथ धर्मसेवा का और भी लाभ होता है। कई वर्षों पूर्व सेवा दी थी पर तब इतना गंभीर नहीं था। संभवतः औपचारिकता पूरी करने के लिए किया हो, कुछ स्पष्ट नहीं कह सकता। श्रद्धेय गुरुजी की वाणी हमेशा कानों में गूंजती रहती है कि धर्म हमारे जीवन में उतरने लगा या नहीं। यही हमारे धार्मिक होने का सही मूल्यांकन है। पिछले कुछ माह से धर्मसेवा देने की भावना मन में प्रबल हो रही थी। इसी बीच “धम्मपाल" भोपाल में धर्मसेवा देने का अवसर मिला। मैंने अपना सौभाग्य माना और 13 सितंबर 2016 को सेवा देने के लिए पहुँच गया। इस केंद्र पर पहली बार गया था। शहर के कोलाहल से दूर पहाड़ियों से घिरी हुई प्रकृति की गोद में अत्यंत सुरम्य, सुंदर व नितांत शांत वातावरण में स्थित यह केंद्र सचमुच हर प्रकार से एक आदर्श ध्यान केंद्र है।
कुल 34 पुरुष और 21 महिलाओं का शिविर सायंकाल आरंभ हुआ। मैं पूर्ण समर्पित भाव से सेवा में लग गया। कोर्स मैनेजर के रूप में कई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वहन करना था। श्रद्धेय गुरुजी द्वारा बताये गये “धर्मसेवा” के दिशा-निर्देशों के ऑड़ियों को पहले दिन ध्यान से सुना। उन दिशा-निर्देशों के अनुसार कार्य करने के लिए आवश्यक था कि मेरा स्वयं का मन मानस संतुलित एवं सहनशील हो । अतः मेरे लिए सर्वप्रथम आवश्यक यह था कि मैं स्वयं अपनी समता एवं मन की शांति को कायम रखूं। अतः मैंने प्रथम दिन ही मन में संकल्प किया कि पूरे शिविर के दौरान प्रतिदिन कम से कम तीन घंटे ध्यान अवश्य करूंगा। समर्पित भाव से सेवा देने के लिए ध्यान का बल आवश्यक है ताकि पूरे दस दिनों तक प्रतिदिन प्रातः 4 बजे से रात्रि के 10 बजे तक समयबद्ध नियम-नियमावली के अनुरूप साधक-साधिकाओं के ध्यान में किसी प्रकार का कोई व्यवधान न हो ओर न ही मेरी किसी भी गतिविधि से साधकों के ऊपर उसका प्रतिकूल असर पड़े। क्योंकि नये साधक-साधिकाएं हमेशा हमारा ही अनुकरण करते हैं।
धर्ममय वातावरण में नियमित ध्यान के कारण मन में सभी के प्रति पूर्ण मैत्री का भाव बना और मेरा संकल्प सफल हुआ । साधक एवं साधिकाओं को सुबह से शाम तक तपते हुए देखकर मन सचमुच मुदित हो उठता था। मन में स्वतः एक भाव जागता था कि मेरी सेवा का अंश मात्र भी यदि इन साधक-साधिकाओं के तप में सहायक है तो इससे बढ़कर और कुछ भी नहीं। यूं तो सामान्य जीवन जगत में भी सभी किसी न किसी रूप में सेवा करते ही रहते हैं। पर उन सेवाओं में कहीं न कहीं अपना कोई स्वार्थ छिपा होता है, बदले में कुछ पाने की भावना निहित होती है। लेकिन यहां विपश्यना केंद्र पर धर्मसेवा के बदले मुझे जो हासिल हुआ वह सचमुच मेरे लिए अकल्पनीय था। 24 सितंबर 2016 को जब साधक-साधिकाओं का मौन टूटा तो उनके चेहरों की मुस्कुराहट एवं संतोष का भाव देखकर मेरा मन द्रवित हो उठा, मैत्री एवं करुणा स्वतः निःसृत होने लगी ।
साधकों को ध्यान का जो लाभ मिलना था वह तो उन्हें मिला ही, पहली बार मुझे जीवन में ऐसा लगा मानों मैंने सही माने में नि:स्वार्थ भाव से कोई सेवा की है। पूज्य गुरुजी के प्रति मेरा मन मानस असीम कृतज्ञता से भर उठा। पूज्य गुरुजी ने तो धर्म की सेवा में ही अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया था। उन्होंने तो अपने जीवन के पचास से भी अधिक वर्ष “लोकसेवा”, “धर्मसेवा" में ही लगा दिया और सचमुच पराकाष्ठा तक धर्म की सेवा की। उनके द्वारा की गई ‘लोकसेवा एवं ‘धर्मसेवा' का स्मरण करके मेरी आंखों से अश्रुधारा बह रही थी। स्वयं के लिए तपना अवश्य ही कल्याणकारी है लेकिन अन्यों के तप में सहायक होने का लाभ तो उससे भी कहीं अधिक है, यह इस शिविर में सेवा देकर मैंने स्वयं के अपने अनुभव से जाना।
यदि मैं यह कहूं कि यह ‘धर्मसेवा' मेरे लिए एक मील का पत्थर साबित हुई तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। धर्म-सेवा का जो प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त हुआ वह क्रमशः निम्नवत है।
1. धर्मसेवा देते हुए मैं स्वयं दस दिनों तक शील, समाधि, प्रज्ञा का अभ्यास करता रहा तभी उपस्थित साधक-साधिकाओं के शील, समाधि, प्रज्ञा के अभ्यास में सहायक हो सका। हां, मैं आर्य मौन का पालन नहीं कर रहा था क्योंकि एक धर्मसेवक के रूप में मुझे अपने सहयोगी धर्मसेवकों एवं सहायक आचार्य के साथ समय-समय पर बात करना होता था जो कि धर्म सेवक के लिए आवश्यक है।
2. धर्मसेवा देते हुए मुझे स्वयं क्षण-प्रति-क्षण ज्यादा जागरूक एवं सजग रहने का अवसर मिला क्योंकि मेरी थोड़ी-सी लापरवाही या आलस्य साधक साधिकाओं के तप में बाधा उत्पन्न कर सकती थी। उदाहरण के तौर पर प्रातः 4 बजे धम्म-हाल का ताला खोलना एवं जहां आवश्यक है वहां की बत्तियों को यथासमय जलाना, बुझाना आदि नितांत आवश्यक कार्य था। इस जिम्मेदारीपूर्ण कार्य से मुझे सतत जागरूक एवं सजग रहने में बल मिला। प्रातःकालीन होने वाले आलस्य एवं प्रमाद से काफी हद तक दूर हो पाया।
3. शिविर के दौरान कुछ एक साधकों को नियम तोड़ते देखा तो उन्हें कई बार करुणचित्त से हाथ जोड़कर आग्रह किया कि वे ऐसा न करें, लेकिन फिर भी उसकी पुनरावृत्ति उन साधकों से हो ही जाती थी। ऐसी स्थिति में धर्मसेवक को बड़े धैर्य एवं विवेक के साथ मन में करुणा की भावना रखते हुए मैत्री चित्त से वर्ताव करना होता है। इन परिस्थितियों में मैं अपने मन मानस को धैर्य एवं विवेक के साथ संयमित रखने में पूर्णतः सफल रहा, यानी, मैं नितांत क्षमाशील बनने में सफल हुआ।
4. इस धर्मसेवा का एक और प्रत्यक्ष लाभ जो मुझे मिला वह था- मेरा अहंभाव पिघला, “मैं-मेरे' का भाव कमजोर हुआ। शिविर समापन होते-होते मेरे मानस से यह भाव पूरी तरह पिघल गया कि ‘मैंने सेवा दी या मेरे द्वारा सेवा दी गयी। इसके विपरीत मन में यह भाव जागा कि सेवा मैंने दी नहीं, बल्कि सेवा पायी। दस दिनों तक पूज्य गुरुदेव की वाणी से प्रभावित इस शुद्ध धर्ममय वातावरण में रहने एवं धर्म-तरंगित भोजन पाने का सौभाग्य मिला।
5. सेवा देते हुए धर्मसेवकों को भी एक दिन तपने का अवसर प्राप्त होता है। इस दस दिवसीय शिविर के दौरान सेवा देते हुए मुझे भी एक दिन उन सभी साधक-साधिकाओं के साथ सुबह 8 बजे से सायंकाल 5 बजे तक तपने का अवसर प्राप्त हुआ। मैंने अनुभव किया कि इसका लाभ उतना ही होता है जितना कि दस दिवसीय शिविरों में तपने का होता है।
6. मैंने पाया कि नि:स्वार्थ भाव एवं शुद्ध चित्त से ऐसे धर्म-केंद्रों पर सेवा देते हुए कमोबेस हम उन दसों पारमिताओं (दान, शील, नैष्क्रम्य, सत्य, प्रज्ञा, वीर्य, अधिष्ठान, मैत्री, क्षांति एवं उपेक्षा) का कुछ अंशों में ही सही, उनका संवर्धन अवश्य करते हैं जिनका सिद्धार्थ गौतम ने अपरिमित मात्रा में, असंख्य कल्पों तक किया था। मैंने स्वयं अनुभव किया कि इन ध्यान-केन्द्रों पर सेवा देते हुए अपनी पारमिताओं को बढ़ाने का यह सबसे अच्छा अवसर होता है।
7. धर्मसेवा के परिणाम स्वरूप मन उन सभी सम्यक संबुद्धों, बुद्धों, अरहंतो, संतों एवं संपूर्ण गुरु-शिष्य परंपरा के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है जिनके परिश्रम एवं पुरुषार्थ के फलस्वरूप हमें यह मुक्तिदायिनी विद्या आज शुद्ध रूप में प्राप्त हुई है। ऐसे ही इस अनुपम धर्म एवं संघ के प्रति भी मन कृतज्ञता से भर जाता है।
8. विपश्यना केंद्रों के निर्माण से लेकर उनके रखरखाव में जितने भी लोगों का योगदान रहा है, जितने भी लोग अभी नि:स्वार्थ भाव से योगदान दे रहे हैं, उन सब के प्रति मेरा मन मानस कृतज्ञता से भर गया। आज उन्हीं सब की सेवा एवं योगदान के प्रतिफल स्वरूप हमें इतने आरामदेह सुविधा-संपन्न ध्यान केंद्र उपलब्ध हैं।
9. इस धर्मसेवा से मेरा आत्मबल बढ़ा, मन में समर्पण का भाव जागा और मजबूत हुआ। अपनी साधना की निरंतरता को कायम रखते हुए भविष्य में भी इसी प्रकार ध्यान केंद्रों पर सेवा देने की भावना को बल मिला। यह किसी औपचारिकता के लिए नहीं बल्कि अपने स्वयं के कल्याण एवं मंगल के लिए।
धर्मसेवा देकर हम स्वयं अपने ऊपर एहसान करते हैं अपना ही भला साधते हैं। अतः स्वयं अपने भले के लिए अपने समर्पणभाव को और मजबूत करने के लिए विपश्यना के पथ पर चलने वाले सभी व्यक्तियों को साल में कम से कम एक दस-दिवसीय शिविर में नि:स्वार्थ भाव से सेवा अवश्य ही देनी चाहिए। एक बार पुनः अपनी कृतज्ञता परम पूज्य गुरुदेव श्री गोयन्का जी के प्रति, जिनके अथक परिश्रम एवं पुरुषार्थ के प्रतिफल स्वरूप यह मुक्तिदायनी विद्या आज हमें अपने शुद्ध रूप में प्राप्त हुई तथा इस परंपरा के आदि गुरु भगवान बुद्ध से प्राप्त इस विद्या की शुद्धता को जीवित रखने वाले गुरु-शिष्य परंपरा के सभी गुरुजनों एवं वर्तमान के सभी आचार्यों के प्रति, जो दृढ़संकल्प के साथ धर्म की शुद्धता को कायम रखने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं, उन सबों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूं।
धर्मसेवा देकर हम स्वयं अपने ऊपर एहसान करते हैं अपना ही भला साधते हैं। अतः स्वयं अपने भले के लिए अपने समर्पणभाव को और मजबूत करने के लिए विपश्यना के पथ पर चलने वाले सभी व्यक्तियों को साल में कम से कम एक दस-दिवसीय शिविर में नि:स्वार्थ भाव से सेवा अवश्य ही देनी चाहिए। एक बार पुनः अपनी कृतज्ञता परम पूज्य गुरुदेव श्री गोयन्का जी के प्रति, जिनके अथक परिश्रम एवं पुरुषार्थ के प्रतिफल स्वरूप यह मुक्तिदायनी विद्या आज हमें अपने शुद्ध रूप में प्राप्त हुई तथा इस परंपरा के आदि गुरु भगवान बुद्ध से प्राप्त इस विद्या की शुद्धता को जीवित रखने वाले गुरु-शिष्य परंपरा के सभी गुरुजनों एवं वर्तमान के सभी आचार्यों के प्रति, जो दृढ़संकल्प के साथ धर्म की शुद्धता को कायम रखने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं, उन सबों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूं।
-- धर्मसेवक अरविंद.
फरवरी 2017 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
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🌷The Wondrous Benefits of Dhamma Service 🌷
I first joined a 10 day Vipassana camp in 1986. My desire to attend the course was purely out of curiosity as my father had been practicing Vipassana since 1971. I wanted to know what my father did in his daily meditation morning and evening sitting for an hour with closed eyes. Not only that, he also would leave home periodically, saying he was going to a meditation camp. I always wondered what is it that makes one sit in a closed room with closed eyes. But when I experienced this technique myself, I was not only able to satisfy my curiosity but also understand the true meaning of Dhamma at an experiential level. I could see that what my father practiced was far from an indulgence in imagination, empty rituals, obsolete beliefs or sectarianism – rather I could see that it was a way to know oneself through one’s own experiences. As such, this was my finest achievement of life.
After undergoing this experience, I did not pose a question to my father regarding sadhana ever again. However I could not keep up the daily practice of sitting morning and night in meditation though I had understood well that the benefit will come with daily practice. I got another opportunity to sit a course in 1996. This time I went with firm resolve to put forth my best effort and I certainly gained benefit. This time, after returning home, I started sitting daily morning and evening and have been able to keep up the practice with total faith and surrender. Everyone benefits, some less, some more from meditation courses; I certainly have benefitted immensely. With daily practice, positive changes started coming in my life. I had heard very often and also read that besides meditation, Dhamma service too benefits a person. Many years ago I had given service in a camp but then I was not so serious. Perhaps I had gone just to fulfill some perceived formalities, I cannot say. But during the past few months, the desire to give service in a camp has been growing stronger with respected Goenkaji’s words ringing in my ears – ‘the only way to know whether we are growing in Dhamma is to see whether it is manifesting in our lives or not.’
🌷 Recently I got an opportunity to offer my Dhamma service in Dhamma Pal, Bhopal.
I considered it my good fortune and reached Bhopal on 13th Sept 2016. I was visiting Dhamma Pal for the first time. Far from the cacophony of the city, the centre surrounded by hills is a serene, beautiful and silent place – truly an ideal spot for quiet meditation. The course started with 34 men and 21 women.There were many responsibilities on me as a course manager and I began with total earnestness. First I listened to respected Goenkaji’s instructions carefully to know how best I could serve. I had understood that as a Dhamma worker my mind should remain balanced and patient in order to serve to the best of my capacity. It was vital that I maintain my equanimity. Hence I resolved to sit for at least three hours daily in meditation. I knew meditation would give me strength to fulfill my duties with a feeling of quiet surrender; so that from morning 4 am till 10 at night, there was no impediment in the meditators’ strict routine and they were not disturbed in any way due to a small shortcoming on my part. I knew that new meditators often looked towards servers to emulate. Gratefully I accomplished my task well, as I was able to maintain the feeling of metta for all. The daily practice in this Dhammic environment also helped immensely. Seeing people meditating silently from morning to evening, my heart would be filled with joy. A thought would float in my heart that even if a tiny fraction of my service is helping them in ripening of their tapas, then nothing else can be more important. In life, often people do offer their assistance, but behind that help there may lurk a selfish motive, an unspoken expectation to gain something. But what I had gained in this Dhamma centre in return for my service was unimaginable. When the meditators broke their silence on 24th Sept 2016, my heart was filled with joy upon seeing their smiles and looks of satisfaction. A feeling of metta and compassion flowed unimpeded towards them. The meditators of course gained what they did, but I felt that for the first time in my life I had offered my service totally selflessly. I was filled with immeasurable gratitude towards Guruji who had dedicated his entire life to Dhamma service. In the span of more than fifty years he touched immeasurable heights of Dhamma service. Gratitude flowed when I thought of his selfless service to Dhamma. Ripening in Dhamma is certainly beneficial, but to become a vehicle of someone else’s ripening is so much more beneficial; I learned this from my experience and to say that it proved to be a milestone for me will not be an exaggeration.
🌷 There were some real benefits that I gained from this Dhammaseva: Benefits of Dhamma Service
1. While serving for ten days, I sincerely practiced sila, samadhi and pañña so that I could truly be of help in the meditators’ efforts at practicing sila, samadhi and pañña. Yes, I was not observing silence, since as a Dhamma worker I was required to interact with co-workers and assistant teachers for smooth flow of daily tasks.
2. While serving, I was able to practice conscious awareness from moment to moment, since a small slip on my part out of sheer laziness or unawareness could have created a disturbance in the meditators sadhana. For instance, it was imperative that the doors of the meditation hall be opened at 4 a.m. sharp and lights be lit without fail. This responsibility taught me to be constantly aware and I was able to shake off slothfulness in getting out of bed early in the morning.
3. I noticed some meditators broke discipline, and despite requesting them not to do so smilingly and with folded hands, they would continue to repeat it. In such situations, a service provider is expected to act without reacting and with total patience, metta and compassion. I am glad to say that in such situations, I was able to remain calm, balanced and forgiving.
4. One more benefit that I gained from serving was that my ego melted, the feeling of ‘me and mine’ weakened. By the end of the course, the feeling of ‘I gave this service’ had totally melted; instead, I felt that I did not give service but rather I received the service. For ten days I was blessed to dwell in this pure environment redolent with Dhamma and with Guruji’s vibrant energy.
5. Dhamma servers, while giving their services get a day to meditate. I too got the opportunity to meditate with other meditators from 8 a.m. till 5 p.m. I felt the benefit gained from this equals the benefits obtained from a ten-day course.
6. I also felt that while giving seva selflessly and with pure heart in centres, we are able to add to the ten paramis which were gained by Siddhartha Gautama, the Buddha in immeasurable proportions over uncountable kappas. From my experience I felt that giving seva in such centres is the best opportunity to increase our paramis even fractionally.
7. While serving, my heart was filled with profound gratitude towards Samma Sambuddhas, Arahants, saints and the very sound tradition of guru discipleship. Their unflinching efforts resulted in the priceless treasure of this liberating technique reaching us in its pure form. My heart was also filled with gratitude towards Dhamma and Sangha.
8. I was also filled with gratitude towards all those whose contributions helped in the creation of such centres, in their upkeep and maintenance, and towards those who continue to give their service. Thanks to their efforts and contributions that we are able to meditate in comfortable environment today.
9. With Dhamma service, my inner strength increased and a feeling of surrender arose. A resolve to offer my service in Dhamma centres in the future too strengthened in my mind while maintaining the continuity of my own practice. This was not to fulfill some vacuous formality, but for my own growth and welfare. By giving Dhamma service for others, we give service to our own self as well. Hence, for one’s own benefit and to strengthen the feeling of total surrender, all those who walk the path of Dhamma must offer their service selflessly in a camp at least once a year. Once again, I express my gratitude towards the most respected guru, Shri Goenkaji whose unflinching efforts resulted in us getting this blessed knowledge in its pristine form; I also express my gratitude towards the lineage of teachers who, having obtained this knowledge from the Buddha and others kept it alive through the teacher–disciple lineage, and also the present teachers who are ever vigilant to maintain the purity of Dhamma; I express my heart-felt gratitude towards them all.
-Arvind Verma.
(Vipassana Newsletter In the tradition of Sayagyi U Ba Khin, as taught by S. N. Goenka Vol. 27, No.2, 10 February, 2017.)