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यह शरीर का भी ताप नहीं है क्योंकि साधक को इसका तापमान शरीर के तापमान से कहीं अधिक महसूस होता है। शरीर का तापमान हो तो लगभग वही तापमान सतत बना रहना चाहिए। पर ऐसा नहीं होता। कुछ देर के लिए किसी-किसी साधक को यूं लगता है जैसे उसका सारा शरीर जलती भट्ठी में झोंक दिया गया है। साधक उस समय साधना बंद कर दे, बहिर्मुखी हो जाय, किसी अन्य प्रवृत्ति में लग जाय तो सारी तपन दूर हो जाती है। साधना शुरू करते ही फिर वैसी ही तपन महसूस होने लगती है।
समझदार गंभीर साधक हो तो ऐसे समय इस ताप के प्रति अनित्य बोध और तटस्थभाव बनाए रखता है। इसके प्रति जरा भी प्रतिक्रिया नहीं करता तो देखता है कि देर-सबेर सारी तपन समाप्त हो जाती है। परिणामत: बहुत शीतलता महसूस होती है। ऐसी आंतरिक शीतलता, जैसी पहले कभी नहीं अनुभव की।
न तो यह तपन शरीर की स्वाभाविक तपन है और न मौसम की और न ही यह शीतलता शरीर की स्वाभाविक शीतलता है और न मौसम की। यह पूर्वसंचित मनोविकारों की तपन है जो तटस्थ स्वभाववाली विपश्यना साधना के कारण उभरती है और तटस्थता बनाए रखें तो सहजभाव से उसका निरोध हो जाता है, उपशमन हो जाता है। विपश्यना की समता से ही इन पूर्व कर्म संस्कारों की उदीर्णा होती है, निर्जरा हो जाती है, इनका क्षय हो जाता है।
इन कर्म संस्कारों के ताप की जितनी निर्जरा हो जाय, उतनी-उतनी सुख-शांति साधक महसूस करता है।
“उपज्जित्वा निरुज्झन्ति, तेसं वूपसनो सुखो”।
साधना के दौरान अनेक साधकों को इस भीतरी तपन की वजह सारी रात नींद नहीं आती। साधक ना-समझ होना है तो इसकी वजह से व्याकुलता पैदा करके अपने आपको अनिद्रा का रोगी बना लेता है। परंतु यदि समझदारी से तटस्थभाव बनाए रखता है तो यही अंतरतप उसके कल्याण का कारण बन जाता है।
पूर्वसंचित कर्मबीजों को इस अंतरतप से भून लेता है। उनके अत्यधिक दुःखद परिणामों से सदा के लिए छुटकारा पा लेता है। और जब इस अंतरतप के समापन पर शीतलता महसूस होती है तो साधक सुख की नींद सोता है। ऐसा अनुभव अनेक साधकों को होता ही रहता है।
जो साधक सभी कर्मकांडों और दार्शनिक मान्यताओं के जंजालों को छोड़कर धीरज के साथ अनन्यभाव से विपश्यना के अभ्यास में लग जाता है वह और भी गहराइयों से अपने अंतर्मन में दबे हुए गहरे संस्कारों को उभारकर उनका उपशमन करते हुए इंद्रियातीत अवस्था की अनुभूति कर लेता है। अनित्यधर्मा इंद्रियजगत को पार कर नित्यधर्मा निर्वाण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है।
वाण कहते हैं जलने को। निर्वाण माने वह अवस्था जहाँ तृष्णा की जलन समाप्त हो जाय। ऐसी अवस्था में जो शीतलता की अनुभूति होती है वह सामान्य शीतलता से कई गुना अधिक होती है। ऐसे "तण्हानं खयमज्झगा” की अवस्था को पहुँचे हुए साधक के लिए ही भगवान बुद्ध ने शीतलीभूत या शीतीभूत जैसे शब्द का प्रयोग किया है। उनके लिए भव ताप का नामोनिशान नहीं रहा।
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ऐसी ही एक मुक्त, अर्हन्त अवस्था प्राप्त भाग्यशालिनी साधिका की कथा।
भगवान के जीवनकाल की एक घटना।
लिच्छवी गणराज्य के वैशाली नगर में रहने वाली एक क्षत्रिय कुल की सदृहिणी। धर्म की कल्याणकारिणी वाणी सुनकर मन में वैराग्य जागा परंतु पति की मनोनुकूलता न देखकर गृहस्थी में रहते पत्नी धर्म ही निभाती रही।
एक दिन रसोई घर में भोजन पकाते हुए जिस हंडिया में शाक पकाना था उसमें तरल झोल डालना भूल गयी। सूखा शाक, गर्म पेंदे से लगकर जल-भुन गया। इसे देखकर उसके मन में एकाएक बड़ा धर्म संवेग जागा। अनित्य है, अनित्य है, सारे संस्कार अनित्य हैं। इसमें आस्वादन का रस न डाला जाय तो ये भी इस शुष्क शाक की भांति जल-भुनकर नष्ट हो जायेंगे। अब काम-भोग का रसास्वादन असह्य हो उठा।
पत्नी में तीव्र वैराग्य की भावना जागी देख पति ने इस बार उसका साथ दिया। उसे प्रसन्नतापूर्वक भगवान के आश्रम में छोड़ आया। महाप्रजापती गोतमी ने उसे प्रव्रज्या दी। विपश्यना सिखाई। दृढ़ पराक्रम से साधना करती हुई वह साधिका कृतकृत्य हुई, अहँत हुई वीतराग हुई।
साधना के दौरान कामराग के संस्कारों की जो तपन जागी थी उसका उमशमन हुआ। आंतरिक शीतलता प्राप्त हुई। पहले जो रात-रात भर बेचैनी रहती थी, वह अब दूर हुई।
भगवान ने उसके पूर्व की तथा वर्तमान की स्थिति को देखकर यह जो आह्लादकारी उदान वचन कहे, वही यह साध्वी बार-बार उल्लासपूर्वक दुहराया करती थी।
“सुखं सुपाहि थेरिके, कत्वा चोळेन पारुता।
उपसन्तो हि ते रागो, सुक्खडाकं व कुम्भिय"न्ति ॥"
[ स्थविरके! तू सुख की नींद सो। अपने हाथ से बुने हुए वस्त्र को ओढ़कर तू परम शांति लाभ कर । क्योंकि कढ़ाई में पड़े शुष्क शाक की तरह तेरे सारे राग अब दग्ध हो गए हैं, शांत हो गए हैं। ]
भगवान की यह कल्याणकारिणी हर्ष वाणी सभी साधक साधिकाओं के लिए प्रबोधन का कारण बने और सभी अपने-अपने संचित संगृहीत संस्कारों को विपश्यना साधना की आग द्वारा तप्त करके परम शांति की अनुभूति प्राप्त करें। दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पा लें। यही हमारे मंगल का उपाय है।
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पुस्तक: विपश्यना पत्रिका संग्रह (भाग-5)
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!