धर्मदान के चालीस वर्ष पूरे हुए। बीते हुए दिनों पर नजर दौड़ाता हूं तो देखता हूं कि एक पैंतालीस वर्षीय प्रौढ़ युवक अपनी प्यारी जन्मभूमि म्यंमा को छोड़ कर भगवान बुद्ध के पावन चरणों से पवित्र हुई भारतभूमि आया। गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन यह बार-बार कहा करते थे कि सदियों पहले भारत ने हमें विपश्यना धर्म के अनमोल रत्न का दान दिया। हम भारत के चिर ऋणी हैं। हमने यह महान विद्या यथावत शुद्ध रूप से सँभाल कर रखी, जबकि दुर्भाग्यवश भारत ने इसे पूर्णतया गँवा दी। म्यंमा पर भारत का यह जो अनमोल ऋण है, इसे हमें आदरपूर्वक वापस लौटाना है।
भारत में लुप्त हुई विपश्यना के पुनर्जागरण के लिए वे स्वयं आना चाहते थे। परतु किन्ही कारणों से यह संभव नहीं हो सका। तब उन्होंने 1969 में जून महीने के अंतिम सप्ताह में मुझे इस । पुरातन परंपरा का विधिवत आचार्य स्थापित किया और भारत का ऋण चुकाने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी सौंपा। मैं भौचक्का रह गया। यद्यपि बुद्धवाणी और विपश्यना विद्या में मुझे भलीभांति प्रशिक्षित किया जा चुका था और विपश्यना के शिविर लगाने की भी यत्किंचित ट्रेनिंग दी जा चुकी थी, तथापि मैं इस गंभीर और महत्त्वपूर्ण दायित्व के लिए अपने आपको सर्वथा अनुपयुक्त समझता था। मुझे झिझकते हुए और टालमटोल करते हुए देख कर गुरुदेव ने मुझसे दृढ़ शब्दों में कहा- क्यों घबराते हो? तुम अकेले थोड़े ही जा रहे हो? धर्म के रूप में मैं भी तुम्हारे साथ जा रहा हूं। इस समय भारत में पूर्व पुण्यपारमी संपन्न ऐसे अनेक व्यक्तियों ने जीवन धारण किया हुआ है जो स्वयं तुम्हारी ओर खिंचे चले आयेंगे। धर्म की ओर खिंचे चले आयेंगे। तुम्हें रंचमात्र भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। धर्म अपना काम स्वयं करेगा। अब बुद्ध-शासन के 2500 वर्ष भी पूरे हो चुके हैं । उपयुक्त समय आ गया है । ऋण तो चुकाना ही है। भारत में विपश्यना का पुनर्जागरण होना ही है। यह महत्त्वपूर्ण कार्य तुम्हारे हाथों होगा। निश्चित होकर जाओ।
उनका आदेश पाकर दो-चार दिनों के पश्चात ही मैं भारत के लिए रवाना हो गया। परंतु निश्चित तो नहीं ही हो पाया। चिंता थी कि मुझे धर्मगुरु कौन स्वीकारेगा? मेरा रूप-रंग और वेष-भूषा भी धर्मगुरु सदृश नहीं है। न सिर पर जटाजूट, न चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ, न मुंडित सिर, न शरीर पर पीतवस्त्र । मैं एक साधारण बरमी गृहस्थ नागरिक था। बरमा से अध्यात्म की अनमोल विद्या लेकर आया था। मिथ्या दिखावा करने के सर्वथा विरुद्ध था। अपनी बरमी लुंगी और अंगी (छोटा अंगरखा) का पहनावा त्यागने के लिए प्रस्तुत नहीं था। इस वेषभूषा में मुझ जैसे अनजान व्यक्ति को कौन धर्मगुरु स्वीकार करेगा?
भारत आने पर मुंबई में अपने पारिवारिक घर में उतरा। देखा वहां किसी को विपश्यना में रंचमात्र भी रुचि नहीं है। परिवार के सभी सदस्य विपश्यना के विपरीत किसी अन्य साधना-पथ पर आरूढ़ हैं। स्वभावतः विपश्यना के शिविर लगाने में वे साथ दें, इसकी तनिक भी उम्मीद नहीं है। पहला शिविर भी कैसे लगेगा? कहां लगेगा? कौन लगायगा? शिविर में कौन बैठेगा? इसके कारण निराशा, हताशा और उदासी मानस पर छाने लगी थी।
दूसरी या तीसरी रात थी। निराशाभरी उदासी में सोया था कि यकायक रोशनी की एक किरण फूटी। आंख खुलते ही होश आया कि शिविर लगाने वाला मैं कौन हूं? यह तो धर्म का काम है। वह अपना काम स्वयं करेगा।
सुबह होते ही कुछ मित्र-परिचित मिलने आये। साधना के शिविर की चर्चा चल पड़ी। मैंने कहा स्थान कहां है जहां शिविर लगे? हो तो भी व्यवस्था कौन करेगा? तिस पर भी मेरे साथ दस दिन कौन बैठेगा?
इसे सुनते ही आये हुए मेहमानों में से एक दयानंद अडुकिया ने तपाक से कहा कि आप इसकी चिंता न करें । स्थान का प्रबंध में करूंगा और शिविर की सारी व्यवस्था भी। यह सुनते ही बरमा से आया हुआ मेरा एक घनिष्ठ मित्र कांतिलाल गो. शाह ने कहा कि शिविर में और कोई बैठे या न बैठे, मैं जरूर बैठूँगा और साथ में एक-दो मित्रों को भी लाऊंगा।
धर्म ने अपना काम किया और पहला शिविर लगना आसान हो गया। दयानंद अडुकिया ने व्यवस्था संभाली और उसका पुत्र विजय अडुकिया शिविर में सम्मिलित हुआ। कांतिलाल के साथ उसका मित्र बी.सी. शाह आया और सबसे बड़ी बात यह हुई कि जिनकी जरा भी संभावना नहीं थी, उस ममतामयी पूज्य मां के साथ, पूज्य पिताजी भी इस शिविर में बैठने के लिए राजी हो गये। इसी प्रकार कुछ अन्य सगे-संबंधी बैठे और कुल 13 लोगों का प्रथम शिविर सुचारुरूप से संपन्न हो गया। प्रिय दयानंद ने बहुत अच्छा प्रबंध किया। भारत में विपश्यना के पुनरागमन के इतिहास में दयानंद अडुकिया और कांतिलाल गो. शाह का नाम सदा याद किया जायगा।
पहला शिविर पूरा होते ही मैं मद्रास गया। वहां बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ। वहां बड़े भाई बालकृष्ण में प्यारभरा भायपभाव जागा । स्वयं भी विपरीत मार्ग में उलझा हुआ और उसका सारा परिवार भी उसी मार्ग में जकड़ा हुआ था। तिस पर भी उसने अपने अनुज का मान रखने के लिए कई सार्वजनिक प्रवचन करवाए और शिविर भी लगवाया। मैं धन्य हुआ। इस शिविर में कुछ परिवार के लोगों के साथ भाई चौथमल का पुत्र श्यामसुंदर भी सम्मिलित हुआ।
कुछ एक शिविर फिर मुंबई की धर्मशाला में लगे । तत्पश्चात मैं उत्तर भारत गया। वहां मेरे अभिन्न मित्र साहित्यकार श्री यशपाल जैन ने बिड़ला मंदिर की अतिथिशाला में शिविर लगवाया। इसके बाद तो उत्तर भारत में शिविरों का तांता लग गया।
14वां शिविर बोधगया के समन्वय आश्रम में लगा, जिसमें अनेक भिक्षुओं के साथ मेरे पुराने मित्र अनागारिक मुनींद्र सम्मिलित हुए, जिन्होंने धाराप्रवाह के प्रथम अनुभव से प्रभावित होकर पूज्य गुरुदेव को रंगून एक भावभीना पत्र लिखा।
उत्तर भारत में स्थान-स्थान पर शिविर लगते रहे, जिनमें 2-4 विदेशी भी भाग लेते रहे। मैं उनको अलग से संक्षेप में अंग्रेजी में अपने प्रवचन और साधना संबंधी निर्देश समझाता जिससे वे संतुष्ट प्रसन्न होकर गंभीरतापूर्वक तपते थे।
20वें शिविर के लिए कुछ विदेशी साधकों ने मांग की कि उनके लिए शिविर अंग्रेजी में लगाया जाय। परंतु मैंने अस्वीकार कर दिया। क्योंकि भारतीयों के शिविरों में आये 2-4 विदेशियों को
अलग से समझाना एक बात थी, जबकि पूरा शिविर केवल विदेशियों के लिए अंग्रेजी में चलाना मेरे लिए अशक्य था। मैं अंग्रेजी में धाराप्रवाह प्रवचन नहीं दे सकता था। उन्होंने पूज्य गुरुदेव से रंगून में शिकायत की। गुरुदेव का मेरे पास कठोर आदेश आया कि मैं उनके लिए शिविर अवश्य लगाऊं। भाषा की कठिनाई धर्म दूर करेगा। मैं झिझकता हुआ गुरुदेव के आदेश पर शिविर लगाने डलहौजी गया। पहले दिन शाम का प्रवचन केवल 15 मिनट, दूसरे दिन आध घंटा और तीसरे दिन से तो हिंदी की भांति अंग्रेजी में घंटे भर धाराप्रवाह प्रवचन देने लगा। मुझे स्वयं बड़ा आश्चर्य हुआ। यह धर्म का प्रताप और गुरुदेव की मंगल मैत्री ही थी। शिविर अत्यंत सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
इसके बाद भारतीय गृहस्थ, भिक्षु तथा संन्यासियों के साथ बड़ी संख्या में विदेशी युवक-युवतियों का तांता लगने लगा। मैं बड़ी सरलता से हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में शिविर लगाने लगा। इससे विदेशियों की बहुत भीड़ लगने लगी। इनमें से एक था डैनियल गोलमैन, जो आगे जाकर अमेरिका के लब्धप्रतिष्ठ वाणिज्य और उद्योगपतियों का प्रसिद्ध सलाहकार हुआ। इन्हीं दिनों जोसफ गोल्डस्टीन और शैरोन साल्जबर्ग भी सम्मिलित हुए, जो आगे जाकर अमेरिका में अपनी ओर से विपश्यना सिखाने लगे।
शील, समाधि और प्रज्ञा के वास्तविक अभ्यास ने जिस प्रकार मुझे आकर्षित किया था, वैसे ही सब को अपनी ओर बैंचने लगा। क्योंकि इसमें किसी प्रकार के वाद-विवाद को कोई स्थान नहीं था, किसी प्रकार की सांप्रदायिक मान्यता को स्वीकारने का कोई दुराग्रह नहीं था। शुद्ध वैज्ञानिक विद्या सब को आकर्षित करने लगी।
डलहौजी में बड़ी संख्या में विदेशियों के अनेक शिविर लगे। एक शिविर में एक वृद्ध पादरी और दो वृद्धा साध्वियों ने भाग लिया। वे वस्तुतः यह देखने आये कि कहीं मैं उनके अनुयाइयों को बहका तो नहीं रहा हूं। वैसे उन्होंने यह सच्चाई भी समझ रखी थी कि विपश्यी साधकों ने एल.एस.डी. तथा अन्य मादक पदार्थों को छोड़ दिया है। अनेक साधक उन्मुक्त यौन-संबंधों से भी मुक्त हो गये हैं। यह सब विपश्यना के शिक्षण से ही हुआ। हिप्पीकल्ट में आकंठ डूबे हुए युवक-युवतियों में यह सुधार उन्हें स्वीकार्य था, फिर भी धर्मांतरण का कांटा उनके मन में समाया हुआ था।
स्वानुभव से शिविर का परिणाम देख कर वे बहुत प्रभावित हुए। इसलिए शिविर के अंत में वृद्धा मदर मैरी ने उठ कर कहा“गोयन्का, तुम तो क्रिश्चियनिटी सिखा रहे हो, जबकि नाम बुद्ध का ले रहे हो।”
इस शिविर के पश्चात भारत के शिविरों में ईसाई पादरी और साध्वियां बड़ी संख्या में आने लगे। अब तो मुंबई में एक केंद्र में केवल उनके लिए ही शिविर लगते हैं। अब तक 5-6 हजार पादरी
और साध्वियां विपश्यना शिविरों से लाभान्वित हो चुके हैं और अधिकों को प्रशिक्षित करने का कार्य अनवरत चल रहा है।
डलहौजी में विदेशियों के एक शिविर में मेरे मित्र यशपाल जैन और विष्णु प्रभाकर भी आ गये। दोनों इस प्रशिक्षण से बहुत प्रभावित हुए। श्री यशपालजी जैन की तेरापंथ संघ-प्रमुख आचार्यश्री तुलसी जी से बहुत घनिष्ठता थी। उन्होंने उनसे इस विद्या की बहुत प्रशंसा की । मुझे उनसे मिलवाया भी। आचार्यजी विधि की शुद्धता से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपने प्रमुख आचार्य मुनिश्री नथमलजी तथा कुछ अन्य प्रमुख साधु-साध्वियों के लिए दिल्ली में शिविर लगवाये। सब ने इस विद्या की पवित्रता को खूब सराहा। परिणामस्वरूप उन्होंने लाडनूं के “तुलसी अध्यात्म नीडम्" में विपश्यना के दो शिविर लगवाये, जिनमें उनके लगभग सभी मुनि
और साध्वियों ने लाभ लिया। आगे जाकर आचार्य श्री तुलसीजी का शरीर शांत होने पर युवाचार्य महाप्रज्ञ (मुनिश्री नथमलजी) तेरापंथ के प्रमुख आचार्यश्री बने। वे विपश्यना के चार शिविरों में भाग ले चुके थे। उन्होंने विपश्यना में कुछ फेर-बदल किया और उसे समानार्थी “प्रेक्षा ध्यान” के नाम से सिखाने लगे।
स्थानकवासी श्रमणसंघीय चतुर्थ पटधर के प्रवर आचार्य डॉ. शिवमुनिजी और पार्श्वचंद्रगच्छ संघ के प्रमुख मुनियों में मुनिश्री अमरेंद्रविजयजी, मुनिश्री भुवनचंद्रजी, मुनिश्री पार्श्वचंद्रजी ने अनेक शिविर लिये, परंतु उनके द्वारा विपश्यना में कोई फेर-फार करने की सूचना नहीं मिली। उपाध्याय श्री अमरमुनिजी के साथ 'वीरायतन' की व्यवस्थापिका साध्वीश्री चंदनाजी ने राजगीर में और पूना की दूसरी शाखा 'नवल वीरायतन' में भी शिविर लगवाए। इसी प्रकार अनेक गच्छ के अनेक मुनियों और साध्वियों ने न केवल विपश्यना से स्वयं लाभ उठाया बल्कि वे दूसरों को भी प्रोत्साहित करते रहे।
50वां शिविर महात्मा गांधी आश्रम, सेवाग्राम, वर्धा में गांधीजी की पुत्रवधू निर्मलाजी ने लगवाया। इसमें गांधीजी के कुछ एक सहयोगी भी सम्मिलित हुए। शिविर के अंत में वे मुझे श्री विनोबा भावेजी के आश्रम ले गये। वहां उन्होंने मुझे चुनौती दी कि विपश्यना की सफलता को वे तभी स्वीकारेंगे जब कि जेल के कैदियों में सुधार हो। मैंने चुनौती स्वीकार की परंतु सरकारी जेल-नियमों के कारण उस समय कोई शिविर नहीं लग पाया। जेल का शिविर वस्तुतः 109 वें शिविर में सम्मिलित होने वाले राजस्थान के तत्कालीन गृहसचिव श्री रामसिंहजी के प्रयास से संभव हुआ।
उन्होंने सारे नियमों में ढील देते हुए कैदियों का पहला शिविर जयपुर की केंद्रीय जेल में लगवाया और उसके आश्चर्यजनक परिणाम ने सारे विश्व की जेलों में विपश्यना शिविर के दरवाजे खोल दिये। दिल्ली की तिहाड़ जेल में बेटी किरन बेदी ने अनेक शिविर लगवाये और अब वहां एक केंद्र भी खुल गया है। अनेक देशों की जेलों में शिविर लगे और लग रहे हैं। म्यंमा की सरकार ने भी जेलों में विपश्यना शिविर लगवाये और विपश्यना केंद्र भी खोल दिये।
भारत में प्रारंभिक 7-8 वर्षों में लोग धर्मशालाओं, स्कूलों, मंदिरों, उपाश्रयों, विहारों; गिरजाघर, मस्जिद, दरगाह आदि में अनेक प्रकार की असुविधाओं को झेलते हुए भी विपश्यना शिविरों में आते थे। शिविर के सारे नियमों का पालन करते हुए साधना करते थे। सन 1976 में इगतपुरी में और हैदराबाद में क्रमश: श्रीराम तापडिया और श्री रतीलाल मेहता ने विपश्यना केंद्रों का निर्माण करवाया। तदनंतर भारत और विदेशों में अनेक विपश्यना केंद्रों का निर्माण होने लगा।
भारत के प्रथम दस वर्षों के कुल 165 शिविरों में 16,496 लोग सम्मिलित हुए। उनमें मुनि, भिक्षु, संन्यासी, पादरी आदि साधु-साध्वियां; हिंदू, मुस्लिम, जैन, सिक्ख, ईसाई, पारसी आदि भारतीय व विदेशी गृहस्थ युवक-युवतियां; धनी, निर्धन; काले, गोरे, भूरे और पीले; सभी प्रकार के श्रद्धालुजन शिविरों में सम्मिलित हुए। उन्होंने मुझ जैसे अनजान, अपरिचित व्यक्ति के शिविरों में भाग लिया और मुझे धर्मदान देने का सुअवसर प्रदान किया। मैं उनमें से एक-एक का आभारी हूं।
शिविरों में कुछ लोग ऐसे भी आये जो आधी-अधूरी विद्या सीख कर अपनी ओर से कुछ जोड़-तोड़ कर विपश्यना सिखाने लगे। कुछ ऐसे चेहरे भी सामने आते हैं जो किसी न किसी कारणवश मुझसे दूर होकर या तो किसी अन्य प्रकार की साधना करने लगे या फिर साधना से ही मुँह मोड़ लिया। मैं उन सब का भी आभारी हूं, क्योंकि उन्होंने भी अपने जीवन के अनमोल दस दिन तो मुझे दिये। बहुत बड़ी संख्या में ऐसे साधक भी हैं जिन्होंने विपश्यना विद्या को शुद्ध रूप में अपना लिया और इसका भारत तथा विदेशों में प्रचार-प्रसार करने लगे। मैं उनका भी अत्यंत आभारी हूं।
भारत तथा विश्व में अब तक 147 विपश्यना केंद्र खुल चुके हैं। लगभग 2000 प्रशिक्षित आचार्य अंग्रेजी और हिंदी तथा अन्य भाषाओं में नियमित रूप से विश्व भर में सामान्य तथा बाल-शिविर लगा रहे हैं। मेरे शब्दो में दिये गये प्रशिक्षण का 58 भाषाओं में अनुवाद हुआ और उन सब भाषाओं में शिविर लगने लगे हैं। मैं इन सब आचार्यों, व्यवस्थापकों तथा धर्मसेवकों का आभारी हूं। आज भारत तथा विदेशों में लगभग 1600 शिविरों से 80,000 लोग प्रति वर्ष लाभान्वित हो रहे हैं। यह संख्या प्रतिवर्ष बढ़ रही है। इन्हीं के कारण आज “विश्व विपश्यना पगोडा" अस्तित्व में आ सका है। इसके लिए प्रिय सुभाषचंद्र और उसके परिवार ने महत्त्वपूर्ण भूमि का दान दिया और साधक तथा अन्य श्रद्धालुओं ने मिल कर पगोडा का निर्माण किया।
भगवान ने कहा- सब्बदानं धम्मदानं जिनाति...। (धम्मपद-354, तण्हावग्गो) अर्थात सब दानों में धर्म का दान श्रेष्ठतम है। मैं यह अनमोल धर्मरत्न भारत लेकर लाया, परंतु यदि यहां कोई मुझसे यह धर्मदान लेता ही नहीं तब यह श्रेष्ठतम पुण्य मुझे कैसे प्राप्त होता? इसलिए भी मैं एक-एक व्यक्ति का आभारी हूं।
इसके अतिरिक्त इन्होंने इस पुरातन भविष्यवाणी को भी चरितार्थ किया कि बुद्ध शासन के 2500 वर्ष पूरे होने पर सद्धर्म बर्मा से भारत आयेगा। यहां के लोग इसे स्वीकार करेंगे, तब विश्व भर में फैलेगा।
इन सबों को याद करके मन कृतज्ञता से भर उठता है। यदि इन्होंने दस दिन का समय न दिया होता तो विश्वभर में मेरे पास साधना सीखने कौन आता? इसलिए इनका उपकार मानता हूं और चाहता हूं कि एक बार वे सब फिर मुझसे मिलें ताकि मैं उनके समक्ष अपन हृदय के कृतज्ञताभर उद्गार प्रकट कर सकू। बड़ी इच्छा है कि जो भी साधक इस पत्रिका या लेख को पढ़े और वह यदि किसी ऐसे साधक को जानता हो जो कि प्रथम दस वर्षों (1969 से 1979) में मेरे पास कभी विपश्यना का एक भी शिविर ले चुका हो, वह उसे रविवार, 17 जनवरी, 2010 को होने वाले ग्लोबल विपश्यना पगोडा, गोराई (बोरीवली) के “कृतज्ञता सम्मेलन" में अवश्य ले आये।
हार्दिक आमंत्रण भारत में प्रथम दस वर्षों में लगे विपश्यना शिविरों में भाग लेकर मुझे कृतार्थ करने वाले सभी साधकों को “कृतज्ञता सम्मेलन" में भाग लेने के लिए मैं सहृदय आमंत्रित करता हूं।
आभार व्यक्त करते हुए,
स. ना. गोयन्का
Aug 2009 विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित