स्थाई पीड़ा का उपचार और विपश्यना साधना


[ लेखक : डॉ. जार्ज पोलैंड - क्यूबेक , कनाडा ]
विपश्यना साधना का उद्देश्य मन को दुःख से मुक्त करना है, न कि रोगों की निवृत्ति। फिर भी साधना और वैद्यक का एक साझा लक्ष्य है, और वह यह कि रोगी के कष्ट का निवारण। चिकित्सक इस कष्ट निवारण के लिए भिन्न-भिन्न प्रयोग करता है। प्रत्येक चिकित्सा पद्धति में इस लक्ष्य कीप्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न ढंग हैं। परंतु मूलतः सब का एक ही तरीका है कि कष्ट के कारण का पता लगाना और उस कारण को दूर करना; इससे स्वयंमेव कष्ट का निवारण हो जायगा। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी!
किसी भी आकस्मिक संक्रामक रोग का उपचार करते हुए डॉक्टर रोग के मूल कारण को खोजता है, जिसके निवारण से रोगी चंगा हो जाय। इसके साथ-साथ वह रोगी की पीड़ा और कष्ट को कम करने के उपायों का भी प्रयोग करता है। मान लीजिए रोगी के गले में खराबी है। सूजन और पीड़ा तथा ज्वर है तो डॉक्टर उस रोग को उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं (bacteria) का नाश करने के लिए जीवाणुनाशक औषधियां (antibiotics) देता है और उनके साथ ज्वर कम करने और पीड़ा कम करने के हेतु पीड़ा-नाशक दवाएं भी देता है- जैसे क्रोसिन, ऐस्परिन आदि आदि । इस क्रिया के मिले-जुले प्रभाव से रोगी स्वस्थ हो जाता है।
परंतु स्थाई अथवा चिरकालिक पीड़ा के रोगी को इससे भिन्न प्रकार के उपचार का आश्रय लेना पड़ेगा। इस समूह के रोगी किसी असाध्य रोग से ग्रसित होते हैं, जिसके कारण वह पीड़ा बार-बार होती है अथवा स्थाई होती है। अब चूंकि रोग असाध्य है तो उसके मूल कारण के निवारण का प्रश्न ही नहीं उठता और रोगी की सहायता के लिए कोई दूसरा उपाय ढूंढना होगा।
इस उपाय की तलाश करने के पहले हमें पीड़ा या कष्ट और दुःख या क्लेश का भेद समझना होगा। कष्ट या पीड़ा एक शारीरिक संवेदना है जो कम या अधिक होती है और दुःख या क्लेश एक मानसिक स्थिति है, जो उस पीड़ा की संवेदना के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है । दूसरे शब्दों में कहे तो जो हम वास्तव में अनुभव करते हैं उस संवेदना में तथा जो हम चाहते हैं वैसी स्थिति में जो भेद है यही दुःख या क्लेश है। पीड़ा की अनुभूति तो है ही, पर हम चाहते हैं कि वह वैसी न होकर हमारे मनचाही हो; बस, यही दुःख या क्लेश की वजह है। यह जो प्रतिक्रिया है दुःख के प्रति, वही उस स्थाई पीड़ा की जनक है। यह शारीरिक पीड़ा या कष्ट अब मानसिक पीड़ा या दुःख बन जाती है और एक दुष्चक्र की स्थापना हो जाती है।
सामान्यतया शारीरिक पीड़ा के शमन करने के लिए ऐसी दवाएं दी जाती हैं कि रोगी उस पीड़ा को अनुभव न करे। पीड़ा तो है ही, क्योंकि उसका कारण मूल रोग कायम है। वह तो जायगा नहीं; परंतु उसके कारण होनेवाली पीड़ा की अनुभूति को कम करने का प्रयत्न किया जाता है। यह उपाय सराहनीय नहीं है, क्योंकि इन औषधियों के हानिकारक प्रभाव भी हैं तथा धीरे धीरे इन औषधियों की पीड़ा-शमन की क्षमता भी न्यून होती जाती है और दवा की मात्रा में बढोतरी करनी होती है। इस तरह धीरे-धीरे इन दवाओं की आदत ही लग जाती है, जिनका और भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए ज्यादा समझदारी की बात यह है कि शारीरिक पीड़ा-निवारण के बजाय मानसिक दुःख-निवारण किया जाय।
इस दुःख-निवारण के लिए आवश्यक है कि रोगी इस पीड़ा को साक्षी-भाव से देखना सीखे। जैसी स्थिति है, उसे वैसे ही स्वीकार करे। उसके प्रति कोई प्रतिक्रिया न करे । भोक्ताभाव के बदले द्रष्टाभाव रखे। वैसे तो यह कहना आसान है और करना ज्यादा कठिन है। परंतु मैंने अपने अनुभव से देखा है कि उचित सलाह-परामर्श तथा बराबर प्रोत्साहन देते रहने से रोगी वर्तमान में जीना सीख लेता है। जैसे-जैसे वह इस पीड़ा को देखने और इसके प्रति थोड़ी-थोड़ी भी समता से रहना सीखता है, वैसे-वैसे यह अनुभव करने लगता है कि दुःख को सहने में ज्यादा सशक्त हो गया है।
मेरे रोगियों में स्थाई पीड़ा के रोगी अधिक तर गठिया (आर्थराइटिस), अधसीसी (माइग्रेन), कमर-दर्द आदि से पीड़ित होते हैं। उन्होंने हमारे पास आने के पहले पीड़ा-निवारक सभी दवाओं का पर्याप्त प्रयोग कर लिया होता है, पर निष्फल । पीड़ा पीड़ा ही बनी रहती है। हमारे चिकित्सालय में उनका जो उपचार होता है, उसमें एक्युपंचर, फिजियोथेरापि, भौतिक चिकित्सा तथा साधना (आनापान एवं विपश्यना का स्थूल अभ्यास) का सम्मिश्रण होता है। परंतु हम यहां इस प्रयोग में साधना के लाभ कीओर ही संकेत करेंगे और उसी पर बल देंगे । रोगी को आनापान (अपने श्वास-प्रश्वास की जानकारी) सिखायी जाती है, जिससे उसका मन वर्तमान में स्थित रहे। इस प्रकार उसका मन भूत और भविष्य में विचरण से विरत होता है। अर्थात, उसका ध्यान रोग की ओर से हट जाता है। रोग का ध्यान या चिंता ही मानसिक तनाव बढ़ाती है और दुःख का कारण बनती है। इस तरह श्वास-प्रश्वास का ध्यान उस तनाव को दूर करता है और परिणामस्वरूप दुःख को भी।
इसके अतिरिक्त हम Trans-cutaneous Electrical Nerve Stimulation (T.EN.S) यानी पीड़ा के स्थान पर विद्युत की हल्की तरंग (करंट) द्वारा प्रकंपन पैदा करते हैं। वह भी इतनी ही शक्ति की करंट, जो रोगी सरलता से सह सके। यह क्रिया 20-30 मिनट तक की जाती है। इसके दौरान रोगी को शरीर ढीला रखकर, निश्चल लेटे रहने को कहा जाता है और उसे सुझाव दिया जाता है कि जब मन इधर-उधर या पीड़ा की ओर जाय तो श्वास-प्रश्वास पर ध्यान करे या उस करंट द्वारा हो रहे प्रकंपन (vibration) का अनुभव करे। इस प्रकार रोगी या तो आनापान का अभ्यास करता है या फिर स्थूल संवेदना (शरीर पर होने वाले प्रकंपन) का; और धीरे-धीरे वह पीड़ा और प्रकंपन के प्रति समता में आ जाता है। उसकी जो पुरानी द्वेषपूर्ण प्रतिक्रिया करने की आदत थी, उससे छुटकारा पा जाता है। यद्यपि एक्युपंचर से भी लाभ होता है परंतु मेरे विचार से रोगी को विशेष लाभ पीड़ा के प्रति संवेदनशील और समता की भावना से ही होता है। रोगियों के अनुभव से ज्ञात होता है कि उनकी पीड़ा कम हो गयी, मानसिक तनाव और बेचैनी में भी कमी आयी है, विषाद (depression) में भी लाभ हुआ है। नींद भी अच्छी आने लगी है। मन का यह बदलाव उनके दुःख के मूल पर प्रभाव डालता है। जो लोग घर जाकर एक्युपंचर के बिना ही विद्युत तरंगों का तथा/अथवा (साधक) साधना का ही अभ्यास करते रहे, उन्हें और भी लाभ हुआ।
यह ठीक है कि विपश्यना साधना शारीरिक व्याधियों के उपचार के लिए नहीं है। फिर भी यह सत्य है कि भगवान गौतम बुद्ध एक महान वैद्य भी माने जाते थे। बुद्ध के अनुसार सब प्राणी एक असाध्य रोग से पीड़ित हैं - वह है जन्म (जाति) – जिसका व्याधि, पीड़ा और दुःख से गहन संबंध है। उन्होंने इस रोग निवारण के लिए 'धर्म' नामक औषधि का नुस्खा अढाई हजार वर्ष पहले दिया था, जो आज भी उतना ही उपयोगी है।
जो भी विपश्यना साधना उचित ढंग से करेगा, वह अवश्यमेव क्लेश से बाहर निकलेगा और दुःख से भी।
अनुवादक - डॉ. ओमप्रकाश
सी-३४, पंचशील एन्क्लेव, नई दिल्ली - १०००१७.
(लेखक डॉ. जार्ज पोलैंड, विपश्यना साधना के वरिष्ट सहायक आचार्य भी हैं। यह लेख मार्च १९९० में इगतपुरी में हुई संगोष्ठी में पढ़ा गया था।)
अक्तूबर 1990 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित