🌹 क्रिया प्रधान प्रणाली 🌹
भारत में वर्तमान युग में साधना संबंधी विविध पद्धतियां सामने आयी है। उनमें से एक पद्धति 'विपश्यना' भी है जिसने देश-विदेश में उल्लेखनीय ख्यति प्राप्त की है। यह पद्धति बड़ी ही विलक्षण है। इससे हमारे सभी विकारों का शोधन व रेचन होता है तथा हमारी सूक्ष्म शक्तियों का विकास भी एक साथ ही होता है। यह प्रणाली पूर्णतः क्रिया प्रधान है। इसमें कोई भी बात ऐसी नहीं है जो केवल विचार जगत की हो और जीवन-व्यवहार में उसका क्रियात्मक रूप न हो। कोई भी व्यक्ति यह साधना करके तत्काल लाभ उठा सकता है।
विपश्यना श्रमण संस्कृति की साधना पद्धति है। अतः ज्ञान, दर्शन व चरित्र अथवा शील, समाधि, प्रज्ञा इसके मुख्य आधार है। इसकी साधना करते समय कर्म की ग्रंथियों का बंध, उदय, उदीरणा, उपशम, क्षय, संवर, निर्जरा आदि कैसे होते है, इसका क्रियात्मक रूप तथा आज से ढाई हजार वर्ष पहले श्रमण संस्कृति में ध्यान, कायोत्सर्ग, सामायिक आदि साधनाओं के जो रूप थे, उन सब की एक झलक सामने आ जाती है।
🌹 स्वसंवेदन का अनुभव ही विपश्यना 🌹
'विपश्यना' शब्द 'वि' उपसर्ग पूर्वक ‘पश्य' धातु से बना है। ‘पश्य' का अर्थ है देखना और 'वि' उपसर्ग लगने से अर्थ हो जाता है- विशेष प्रकार से अर्थात् यथार्थ व सम्यक प्रकार से देखना । दूसरे शब्दों में कहें तो स्व संवेदना का अनुभव करना ही विपश्यना है; आत्मानुभूति की प्रक्रिया ही विपश्यना है।
विपश्यना का अर्थ है- सम्यक दर्शन। परंतु यहां देखने से अभिप्राय चर्म-चक्षुओं से देखना नहीं है प्रत्युत यथार्थ अनुभव करना है। अर्थात जो वस्तु या स्थिति जैसी है उसे वैसा ही देखना यथार्थ अनुभव करना यानी राग, द्वेष, मोह की दृष्टि से न देखना ही विपश्यना है। पदार्थों का वास्तविक स्वरूप अति सूक्ष्म है अतः उसे देखने के लिए दृष्टि भी अति सूक्ष्म चाहिए। हमारी दृष्टि अभी बहुत स्थूल को ही देखने में समर्थ है। सूक्ष्म को देखने की शक्ति इसमें नहीं है।
अभी चैतन्य व परमाणु को देखने की बात तो दूर रही, हम अपने चित्त और शरीर के भीतरी भाग सूक्ष्म शरीर व अचेतन मन की स्थिति को ही नहीं देख पाते, अनुभव नहीं कर पाते हैं। अतः विपश्यना में दर्शन की प्रक्रिया स्थूल से प्रारंभ होकर सूक्ष्मतम तक पहुँचती है। विपश्यना में देखने या अनुभव करने की क्रिया स्थूल शरीर से प्रारंभ होती है और सूक्ष्म शरीर, चेतन मन, अचेतन मन, मन की ग्रन्थियों, कामनाओं, वासनाओं, कर्म के उदय, फल देने की क्रिया, वस्तु के परमार्थ स्वरूप व शुद्ध चेतन के देखने व अनुभव करने तक पहुँचती है। विपश्यना की यह सब प्रक्रिया ध्यान साधना कही जाती है। इसमें चित्त की एकाग्रता, सतत जागरूकता, प्रगाढ़ समभाव नैरंतर्य बना रहता है।
🌹 उद्देश्य 🌹
विपश्यना साधना का उद्देश्य है - दुःख से पूर्णतया एवं सदा के लिए मुक्ति एवं अक्षय, शाश्वत सुख की प्राप्ति, जो राग, द्वेष, मोह आदि विकारों को सर्वथा अंत कर वीतराग बनने पर ही संभव है। अतः पूर्ण निर्विकार वीतराग होना ही इसका लक्ष्य है।
🌹 उपक्रम 🌹
अपने को निर्विकार बनाने के लिए, शील समाधि, प्रज्ञा की आवश्यकता होती है। अतः सर्व प्रथम इसमें निम्नांकित पाठ से साधना काल में शील पालने की दीक्षा दी जाती है - अर्थात् साधना के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, प्रमाद की त्यागरूप पंचशील की प्रतिज्ञा ग्रहण की जाती है। विपश्यना-साधना की आधारशिला शील पालन माना जाता है।
इस पद्धति में शिविर काल में भजन, कीर्तन, माला, मंत्र, नाम-जप, धूप-दीप, रूप-स्मरण आसन, प्राणायाम पढ़ाई-लिखाई आदि चित्त को एकाग्र करने के साधनों का, आलम्बनों का निषेध किया जाता है या प्रतिबंध लगाया जाता है। कारण कि इन आलंबनों से चित्त के एकाग्र होने में सहायता तो मिलती है परंतु चित्त की एकाग्रता इन आलम्बनों पर निर्भर हो जाती है। चित्त इन बाहरी आलंबनों में ही रमण करने लगता है। फलतः चित्त को इन आलंबनों को छोड़ सूक्ष्म बनाने अर्थात अंतर्द्रष्टा [आत्म-दर्शन करने वाला] बनने में बाधा उत्पन्न होती है।
इस पद्धति में साधना काल में शील की सुरक्षा व चित्त की समता को पुष्ट बनाने के लिए आमोद-प्रमोद, हंसी-मजाक, इत्र-सुगंध, शराब, धूम्रपान, पत्र-व्यवहार, देश-समाज की चर्चा करना, अखबार पढ़ना, शृंगार-प्रसाधन, इन्द्रिय व मन को उत्तेजित करने वाले भोग के साधनों से बचने पर बड़ा बल दिया जाता है। तथा इसमें सादगी, अल्प भोजन, अल्प निद्रा व मौन को अत्यावश्यक माना गया है।
समयः- साधक को प्रात: 4 बजे उठकर रात्रि के 10 बजे तक साधनारत रहना पड़ता है। खाते-पीते, बोलते-चलते समय भी साधना की निरंतरता बनाये रखने पर पूरा जोर दिया जाता है। प्रतिदिन लगभग बारह घण्टे ध्यान साधना में बैठना होता है। सामूहिक रूप से तीन बार एक-एक घण्टे बिना हिले डुले कठोर ध्यान-साधना व तपश्चरण करना भी अनिवार्य है।
स्थानः- एकांत अपनी-अपनी कोठरी में बैठकर ध्यान करना अधिक लाभकारी माना जाता है। प्रकाश आंखों पर पड़ना, पंखे की हवा लगना आदि ध्यान में बाधक हैं। अतः इनसे बचा जाता है। ध्यान में सुखासन से आंखें बंद करके बैठना होता है।
🌹 साधना का प्रथम चरण 🌹
शील दीक्षा धारण करने के पश्चात इस ध्यान-साधना में सर्वप्रथम 'आनापान सति' का अभ्यास प्रारंभ होता है। 'आनापान' का अर्थ है श्वास-प्रश्वास और ‘सति' शब्द का अर्थ है स्मृति अर्थात श्वास लेने व छोड़ने पर चित्त को जागरूक रखना, आनापान सति कहा जाता है। इसमें स्वाभाविक सहज रूप से चलने वाले श्वास-प्रश्वास को ही स्थान दिया जाता है। प्राणायाम या प्रयत्न पूर्वक दीर्घ या लघु, तेज या मंद श्वास लेने को साधना में बाधक माना जाता है।
आनापान सति का मुख्य लाभ चित्त को एकाग्र व नियंत्रित करना है। प्रश्न उपस्थित होता है कि चित्त को एकाग्र व नियंत्रित करने के लिए श्वास के आवागमन पर ध्यान लगाने को महत्त्व क्यों दिया गया है ? उत्तर में कहा जाता है कि किसी भी कार्य-सिद्धि के लिए चित्त का सबल व तीक्ष्ण होना आवश्यक है । चित्त की सबलता व तीक्ष्णता के लिए उसका एकाग्र होना आवश्यक है। कारण कि चंचल चित्त इधर-उधर दौड़ता रहता है इससे उसकी शक्ति इधर-उधर विखर जाती है और वह निर्बल हो जाता है। निर्बल चित्त राग-द्वेष के झोंकों से इधर-उधर डोलता रहता है, किसी एक निश्चित दिशा में नहीं बढ़ पाता है।
यह गति तो करता है परंतु प्रगति नहीं करता। फलतः उससे कार्य-सिद्धि की आशा नहीं की जा सकती। अतः कार्य-सिद्धि के लिए चित्त की एकाग्रता व सबलता अत्यावश्यक है। साधना में केवल चित्त की एकाग्रता ही काम नहीं देती, उसके साथ जिस साधन से वह एकाग्र हुआ है उस साधन की शुद्धता भी आवश्यक है। क्योंकि चित्त एकाग्र तो हो परंतु राग-द्वेष में भोग-संभोग में, मोह-सम्मोह में, क्रोध-लोभ में, मान-माया में, निद्रा-नशे में एकाग्र हो तो ऐसा चित्त विकारग्रस्त होता है। विकारग्रस्त चित्त की एकाग्रता से प्रशस्त उद्देश्य की सिद्धि संभव नहीं है।
कारण कि यह नियम है कि भला या बुरा जैसा साधन होता है, साध्य को भी वैसी ही सिद्धि होती है। बुरे साधन से भले साध्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतः साधना में चित्त को एकाग्रता के साथ, जिसमें चित्त एकाग्र हो, वह साधन भी ऐसा होना चाहिए जिससे राग-द्वेष मोह उत्पन्न न हों। श्वास-प्रश्वास ऐसा ही साधन है जिस पर चित्त को एकाग्र करने पर वह राग-द्वेष एवं मोह की उत्पत्ति में निमित्त कारण नहीं बनता तथा मोह, मूर्छा, निद्रा, प्रमाद को भी उत्पन्न नहीं होने देता।
श्वास पर ध्यान लगाने से सतत जागरूकता बनी रहती है और यह सर्वमान्य तथ्य है कि जागरूकता के बिना साधना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती। सजग मन वस्तु, विचार, घटना की गहराई तक देखने में अर्थात अंतर्दर्शन करने में सक्षम होता है। चंचल-चित्त वाला व्यक्ति सम्यक-दर्शन नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि श्वास के आने-जाने पर ध्यान लगाना चित्त को एकाग्र, सूक्ष्म, सक्षम, सजग बनाने का बड़ा सरल सुगम उपाय है।
🌹 साधना का द्वितीय चरण 🌹
आनापान सति से चित्त की एकाग्रता, सक्षमता, सजगता का अभ्यास हो जाने के पश्चात विपश्यना का प्रारंभ होता है। विपश्यना का अर्थ है सम्यक-दर्शन या यथार्थ अनुभव। यथार्थ अनुभव के लिए सर्व प्रथम मिथ्या मान्यताओं, कल्पनाओं और पूर्व धारणाओं को छोड़ना आवश्यक होता है। जिस प्रकार आंखों पर रंगीन चश्मा चढ़ा हुआ व्यक्ति वस्तुओं के यथार्थ रूप को नहीं देख सकता है। उसे वस्तुओं के यथार्थ रूप को देखने के लिए रंगीन चश्मे को उतारना ही पड़ता है। इसी प्रकार सम्यक-दर्शन के लिए मन को सब कल्पनाओं से मुक्त करना ही पड़ता है। अतः विपश्यना में सर्व प्रथम आवश्यक है मन का कल्पना मुक्त होना।
🌹 विपश्यना के चार अंग 🌹
विपश्यना के चार अंग हैं -
[1] काया विपश्यना
[2] वेदना विपश्यना
[3] चित्त विपश्यना
[4] धर्म विपश्यना ।
काया विपश्यना में शरीर के एक-एक भाग को देखा जाता है साथ ही शरीर से जुड़े हुए रोग, जरा, मृत्यु आदि का भी दर्शन किया जाता है। इससे शरीर से संबंधित स्थूल मोह टूटता है।
वेदना विपश्यना में शरीर के ऊपरी भाग त्वचा पर एवं शरीर के भीतर से होने वाली संवेदनाओं का अनुभव किया जाता है। इससे मन का भीतरी तल अवचल मन जाग्रत हो जाता है जिससे घटनाएं प्रत्यक्ष होने लगती हैं। शरीर के प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक परमाणु पर अनेक प्रकार की संवेदनाओं का अनुभव होने लगता है। कहीं पर वे संवेदनाएं सुखद लगती हैं, कहीं दुःखद परंतु साधक के लिए आवश्यक है कि वह उन संवेदनाओं को न अच्छा माने, न बुरा माने । वह उनसे न द्वेष करे, न राग करे। केवल समभाव से, तटस्थभाव से, निर्लिप्तता से, अनुभव करे।
इससे शरीर व मन के भीतरी तल पर स्थित सूक्ष्म ग्रंथियां खुलती है तथा समभाव के कारण नवीन ग्रन्थियों का निर्माण भी रुक जाता है। ग्रंथियों के खुलने से शरीर और मन में विद्यमान विकार दूर होते जाते हैं, हम सब प्रकार से स्वस्थ होने लगते हैं। जैसे जैसे ग्रंथियां खुलती जाती हैं, वैसे-वैसे समता भाव बढ़ता जाता है, प्रगाढ़ होता जाता है और जैसे-जैसे समताभाव प्रगाढ़ व सघन होता जाता वैसे-वैसे स्वस्थता [स्व में स्थिरता] बढती जाती है, निर्विकारता आती जाती है तथा पूर्व संचित ग्रंथियों [कर्म-संस्कारों का भेदन होता जाता है। साधक निर्ग्रन्थ बनता जाता है। इस प्रकार समता भाव का बढ़ना ग्रंथियों के निवारण में और ग्रंथियों का निवारण समताभाव के बढ़ाने में परस्पर पूरक व सहायक बनते जाते हैं।
यह साधना पद्धति पूर्ण रूपेण क्रिया प्रधान है। इसमें कथनीय नहीं के बराबर है, सब करणीय है। जैसा अंतर संगीत के गाने में और संगीत की पुस्तक पढ़ने में है, वैसा ही अंतर विपश्यना के करने में और उसके बारे में पढ़ने में है। अतः अभ्यास व स्व-संवेदन से ही विपश्यना की विशेषताओं का साक्षात्कार किया जा सकता है, पढ़कर उनका अनुमान लगाना कल्पना की ही वस्तु होगी, यथार्थ नहीं।
इस प्रक्रिया के अभ्यास में जिस क्रमिकता, निरंतरता तथा सतत जागरूकता आदि की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति किसी अनुभवी व्यक्ति के मार्गदर्शन द्वारा ही संभव है। इसमें आंतरिक अचिन्त्य शक्तियां जाग्रत हो जाती हैं जिनके नियंत्रण व संयम के अभाव में हानि होने की संभावना रहती है। अतः प्रारंभ में इसे अनुभवी व्यक्ति के निरीक्षण में ही करना अधिक उपयुक्त है।
इस पद्धति में मैत्री, प्रमोद, करुणा व मध्यस्थ भावना का भी बड़ा महत्त्व है जो जीवन-विकास के लिए अति उपयोगी है। इसमें क्षमा, सरलता, मृदुता, विनम्रता, समता आदि दैवी गुणों का विकास होता है जिसमें मानव देव बन जाता है।
🌹 विपश्यना के लाभ व विशेषताएँ 🌹
[1] यह साधना पद्धति पूर्णत: व्यावहारिक क्रिया पर आधारित है। किसी धारणा या कल्पना का इसमें कोई स्थान नहीं है। अत: कोई भी व्यक्ति इसे करके चित्त की एकाग्रता, निर्मलता, सबलता, समता, स्थितप्रज्ञता, निराकुलता व प्रसन्नता का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है।
[2] इस पद्धति का लक्ष्य अंतर के राग, द्वेष, मोह आदि विकार को दूर करना है। परंतु इन विकारों के दूर होने के साथ ही साथ इन विकारों की देन शारीरिक और मानसिक विकार [रोग] भी स्वतः दूर होते जाते हैं। वस्तुतः यह हमें समग्र रूप से एक साथ स्वस्थ [निर्विकार] बनाने वाली सरल प्रक्रिया है।
[3] यह पद्धति “कारण के अनुसार ही कार्य होता है” - इस वैज्ञानिक सिद्धांत का. पूर्ण अनुसरण करती है। इसमें भगवान, गुरु, देव आदि की चमत्कारिक शक्तिओं का किंचित भी स्थान नहीं है।
[4] यह पद्धति इस तथ्य को पूर्ण स्वीकार करती है कि प्राणी अपने सुख-दुःख का कारण स्वयं ही है और अपने ही पुरुषार्थ से सिद्धि या सफलता प्राप्त कर सकता है। अन्य व्यक्ति का पुरुषार्थ या शक्ति उसे दुःखों से मुक्ति नहीं दिला सकती। अतः यह साधक को पूर्ण स्वावलंबी बनाती है।
[5] यह शील या आचरण प्रधान है। इसमें समाधि, प्रज्ञा की उपलब्धि के लिए भी शील आवश्यक माना गया है। अतः यह शीलवान, सच्चरित्र व्यक्तित्व का निर्माण करती है।
[6] यह पद्धति व्यक्ति को शीलवान बनाती है जिससे सुंदर परिवार, सुंदर समाज व सुंदर राष्ट्र का निर्माण होता है।
[7] इससे साक्षीभाव या द्रष्टाभाव रखने का अभ्यास होता है जिससे अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का भला-बुरा कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है, चित्त में खिन्नता व हर्ष का उद्रेक नहीं होता है, हृदय सदा समता, समरस व सरसता से सिक्त रहता है।
[8] विपश्यना से मन, इंद्रिय आदि की सूक्ष्म शक्तियों का विकास होता है, जिससे व्यक्ति की कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है। फलस्वरूप वह अपने जीवन के व्यावसायिक, सामाजिक पारिवारिक आदि प्रत्येक क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक सफलता प्राप्त करता है। कारण कि वह कम समय में अधिक काम ले पाता है तथा बुद्धि तीक्ष्ण व सम हो जाने से निर्णय भी सही लेता है।
[9] विपश्यना के अभ्यास से स्मरण शक्ति व सृजन शक्ति बढ़ती है।
[10] विपश्यना के अभ्यास से मन जैसे-जैसे लगाव, आसक्ति, तनाव, अंतर्द्वन्द्व से मुक्त होता जाता है, वैसे-वैसे रक्तचाप, हृदयरोग, अपच, अनिद्रा, अस्थमा, उन्माद, अनमनापन, नीरसता, निराशा, रिक्तता, चिंता, हीनभाव, आत्महत्या के भाव आदि शारीरिक व मानसिक रोग दूर होते जाते हैं।
[11] विपश्यना से जीवन में समता-भाव व बंधन-मुक्ति के विलक्षण रस का अनुभव होता है। फिर राग, द्वेष, मोह, हिंसा, झूठ, मूर्छा, भोग-उपभोग, चोरी, जुआ, व्यभिचार, अहंकार, छल-कपट, नशा, स्वार्थपरता, संकीर्णता, कुटिलता, हृदय की कठोरता, आदि का रस या सुख-दुःखरूप प्रतीत होने लगता है।
अतः ये सब दुर्गुण, दुर्व्यसन, दुराचार, दुष्कृत्य जीवन से छूटते जाते हैं। स्वतः सेवा व त्याग की भावना जगती है जिससे चित्त सदैव शांत, प्रमुदित, आनंदित, प्रेममय रहता है। संकीर्णता के स्थान पर उदारता, द्वेष के स्थान पर प्रेम, दुर्भावना के स्थान पर सद्भावना जागती है।
[12] विपश्यना अंतर-प्रवेश की प्रक्रिया है। शनैः शनैः अंतर-प्रवेश करता हुआ साधक पूर्णतया आत्मसाक्षात्कार कर लेता है और परम-तत्त्व निर्वाण को प्राप्त हो जाता है।
[13] विपश्यना से ग्रंथि-विमोचन होता है जिससे जीवन का सर्वांगीण विकास होता है।
[14] विपश्यना से व्यक्ति जागरूकता व होश में जीने लगता है जिससे उसमें अपने वास्तविक कल्याण का मार्ग क्या है, क्या त्याज्य है, क्या उपादेय है, इसका विवेक जाग्रत हो जाता है।
[15] विपश्यना के अभ्यासकाल में दिव्य शब्द, अनहदनाद, दिव्य ज्योति, दिव्यगंध, दिव्यरस, दिव्यस्पर्श, दिव्य सूक्ष्म तरंगों से मन व तन का रोमांच व पुलकायमान होना आदि अगणित विलक्षण अतीन्द्रिय अनुभूतियां होती हैं। परंतु इन सबका इस पद्धति में कोई महत्त्व नहीं है। यह इनमें बिना अटके व बिना भटके आगे पूर्ण वीतरागता की ओर बढ़ाने के लिये प्रज्ञावान बनने पर बल देती है और प्रज्ञा की पूर्णता तक पहुँचाने का मार्ग-दर्शन कराती है।
🌹 निष्कर्ष 🌹
यह पद्धति दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में श्रमण परंपरा में प्रचलित थी। वर्तमान में इसका प्रचार लंका, बर्मा, चीन, जापान, श्याम आदि देशों के बौद्ध धर्मावलंबियों में है। भारत में इसके प्रवर्तक बर्मी नागरिक प्रसिद्ध उद्योगपति, मंगलमित्र श्री सत्यनारायणजी गोयन्का हैं। आप स्वभाव से सरल सौम्य, निस्पृह, मृदु व क्षमाशील हैं। आप पूजा आडंबर आदि से कोसों दूर हैं तथा आपने अपना जीवन जनकल्याण की भावना से सेवा में समर्पित कर दिया है।
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पुस्तक: विपश्यना पत्रिका संग्रह भाग-2
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
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✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
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