भिक्षु जीवन की सार्थकता जैसे मनुष्य शरीर के पोषण के लिए भोजन करते हैं, हितप्रद होने से औषध का सेवन करते हैं, उपकारक मित्र का सेवन करते हैं, पार जाने के लिए नौका पर सवार होते हैं, सुगंधि के लिए माला और इत्र लगाते हैं, भय से मुक्ति पाने के लिए सुरक्षित स्थान पर चले जाते हैं, आधार के लिए पृथ्वी पर खड़े होते हैं, हुनर सीखने के लिए प्रवीण व्यक्ति को खोजते हैं, यश पाने के लिए राजा की सेवा करते हैं, वैसे ही आर्यजन भिक्षु-जीवन को सार्थक बनाने के लिए धुतंग का पालन करते हैं।
धुतंग तेरह प्रकार के होते हैं जिनका व्यौरा निम्न प्रकार से है :-
(१) पंसुकूलिकंग - चीथड़ों का चीवर पहनना
(२) तेचीवरिकंग - तीन चीवर धारण करना
(३) पिण्डपातिकंग - भिक्षान्न मात्र पर निर्वाह करना
(४) सपदानचारिकंग - एक घर से दूसरे घर, बिना किसी घर को छोड़े हुए, भिक्षा ग्रहण करना
(५) एकासनिकंग - दिन में एक ही बार खाना
(६) पत्तपिण्डिकंग - भिक्षापात्र में जितना भोजन आ जाय उतना ही भोजन करना
(७) खलुपच्छाभत्तिकंग - एक बार भोजन समाप्त कर लेने के उपरांत फिर कुछ न खाना
(८) आरञिकंग - अरण्य (जंगल) में रहना
(९) रुक्खमूलिकंग - वृक्ष के नीचे रहना
(१०) अब्भोकासिकंग - खुले आकाश के तले रहना
(११) सोसानिकंग - श्मशान में रहना
(१२) यथासन्थतिकंग - यथाप्राप्त निवास-स्थान में रहना
(१३) नेसज्जिकंग - शय्या को त्याग कर केवल बैठे रहना
-परिवार ४४३, धुतङ्गवग्ग; विसुद्धिमग्ग १.२४-३६, धुतङ्गनिद्देस
इन दुष्कर नियमों को निभा पाना हर किसी के बस की बात नहीं है। इस प्रकार के व्यक्ति ही इन्हें निभा सकते हैं - श्रद्धालु, लजालु, धृतिमान, निष्कपट, उद्देश्यरत, अचंचल, सीखने के लिए तत्पर, दृढ़-संकल्प, ध्यान-बहुल और मैत्री में विहार करने वाले।
-मिलिन्दपज्हपाळि ५.४.१, धुतङ्गपज्ह
'विसुद्धिमग्ग' के प्रणेता बुद्धघोस ने इनके बारे में इतनी दृष्टियों से विचार किया है – (१) अर्थ, (२) लक्षण, (३) ग्रहण करने की विधि, (४) विभिन्न प्रकार (उत्तम, मध्यम, हीन), (५) भंग होना, (६) व्रत-रक्षण की प्रशंसा, (७) कुशल-त्रिक के रूप में वर्गीकरण, (८) समष्टिगत विवरण, तथा (९) व्यक्तिगत विवरण।
-विसुद्धिमग्ग १.२२-२३, धुतङ्गनिद्देस
इनका विधान अल्पेच्छता, संतोष आदि गुणों की वृद्धि के लिए किया गया है। ये चित्त के मैल दूर करने के लिए हैं। पर इनका संपूर्ण अभ्यास हर किसी के लिए अनिवार्य नहीं है। तथागत की सामान्य शिक्षा का पूरा बल 'मध्यम मार्ग' अपनाने पर है।
धुतंग पालन करने वालों के गुण
जो कोई धुतंग को ठीक से पालन करते हैं वे नीचे अंकित अठारह गुणों से युक्त हो जाते हैं:-
(१) उनका आचार नितांत परिशुद्ध हो जाता है;
(२) वे मार्ग को तय कर लेते हैं;
(३) अपने शरीर और अपनी वाणी पर उनका नियंत्रण होता है;
(४) उनका मानसिक आचार सुविशुद्ध होता है;
(५) उनका उत्साह बना रहता है;
(६) वे निर्भीक होते हैं;
(७) उनकी आत्मदृष्टि दूर हो चुकी होती है;
(८) उनमें हिंसा का भाव नहीं रहता है;
(९) उनमें मैत्री-भावना व्याप्त रहती है;
(१०) उनका आहार समझ-बूझ कर होता है;
(११) वे सभी जीवों से प्रतिष्ठा पाते हैं;
(१२) वे भोजन की मात्रा को जानने वाले होते हैं;
(१३) वे सदा जागरूक बने रहते हैं;
(१४) वे बिना घर-द्वार के होते हैं;
(१५) वे जहां उचित समझते हैं वहीं विहार कर लेते हैं;
(१६) वे पाप से घृणा करते हैं;
(१७) वे विवेक (एकांत) में आनंद अनुभव करते हैं;
(१८) वे सदा अप्रमत्त रहते हैं।
-मिलिन्दपज्हपाळि ५.४.१,धुतङ्गपह
पुस्तक: "महाकस्सप" भगवान बुद्ध के महाश्रावक
(धुतांगधारियों में अग्र) ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ।।