नासिक के इस विपश्यना केन्द्र में आकर मन अत्यन्त प्रसन्न हुआ, आह्लादित हुआ । विशेष कर यह देख कर कि इतनी शीघ्र यहां इतनी बड़ी संख्या में साधक और साधिकाओं ने धर्मलाभ उठाया, तो आगे जाकर और बड़ी संख्या में लाभ उठायेंगे। जहां प्रारंभ इतना अच्छा हुआ है, वहां उत्तरोत्तर उन्नति ही होगी, इसमें कोई संदेह नहीं। सारा धर्म-केन्द्र धर्म की तरंगों से तरंगित रहे, पावन तरंगों से आप्लावित रहे।
जो यहां तपने आते हैं, उन्हें अपनी बहुत बड़ी जिम्मेदारी समझनी चाहिए कि वे इस ध्यान केन्द्र पर रहते हुए शरीर या वाणी से कोई ऐसा काम नहीं कर बैठे, जिससे यहां की पवित्र धर्म-तरंगें दूषित हों । जो इस विपश्यना केन्द्र का संचालन करते हैं और भविष्य में भी संचालन करेंगे, उन्हें और अधिक सावधान रहना चाहिए। जब इस तरह के ध्यान केन्द्र बनते हैं, तो ये अल्प समय के लिए नहीं, बल्कि सदियों तक कितने लोगों के लाभ के केन्द्र होंगे। ऐसी धरती पर न जाने कितने लोगों का मंगल होगा, कितनों का कल्याण होगा। उनके लिए मुक्ति का रास्ता खुलेगा।
इसलिए सभी व्यवस्थापकों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी समझनी है कि यह धर्म के स्थान है, कोई व्यवसाय का केन्द्र नहीं। न आज और न भविष्य में। सदियों तक जो लोग इस धर्म-केन्द्र की व्यवस्था करेंगे, उन्हें खूब अच्छी तरह समझना है कि ये कही व्यवसाय का केन्द्र न बन जायँ। धर्म बहुत अनमोल होता है। यह कहीं कमर्शियल कमोडिटी न बन जाय। धर्म सब के लिए खुला होता है। जैसे ही साधकों पर कोई टैक्स लगा दिया गया कि यहां रहने का,खाने का, धर्म सिखाने का -अरे, तुम्हें कुछ तो देना होगा। ऐसी भावना आते ही व्यावसायिक केन्द्र हो गया। कोई क्या मूल्य देगा भला?
धर्म अनमोल है। जैसे ही इस पर टैक्स लगाया या कोई प्राइस-टैग लगा तो धर्म धनवानों का होकर रह जायगा । जिनके पास धन है वे अधिक से अधिक कीमत देकर भी यहां शांति प्राप्त करने की कोशिश करेंगे । परंतु शांति मिलेगी नहीं, क्योंकि जहां धर्म का व्यवसाय होता है, शांति वहां से दूर रहती है। आज या भविष्य में, कभी भूल कर भी ऐसी कोई गलती न हो जाय कि इसे कोई व्यवसाय का केन्द्र बना ले। शिविर करने के बाद साधक स्वेच्छा से जो दान देता है, वह अपने लिए नहीं, बल्कि औरों के लिए देता है। और वह अनमोल होता है। उसे जो कुछ मिला, वह इतना अनमोल है कि कोई उसकी क्या कीमत चुकयेगा ?
दान इस भाव में दिया जाता है कि जैसे मेरा लाभ हुआ वैसे औरों का भी हो। अरे! दस दिन तप करके मुझे कितनी शांति मिली! मुझे जीने की कला मिली। अब सारा जीवन सुख में जीऊंगा, शांति में जीऊंगा। ऐसा लाभ औरों को भी मिले। अरे! चारों ओर लोग कितने दुखियारे हैं। धनहीन है तो दुखियारा है ही, धनवान है तो भी दुखियारा है। पढ़ा-लिखा है कि अनपढ़ है, पुरुष है कि नारी है; किसी को किसी बात का दु:ख, किसी को किसी बात का दुःख। और यह दु:खविमोचिनी विद्या मिल जाय तो बेचारे अपने दु:खों के बाहर निकलना सीख जायेंगे। अरे! अधिक से अधिक लोगों को लाभ मिले, अधिक से अधिक लोगों को धर्म मिले, अधिक से अधिक लोगों को जीने की कला मिले। इस भाव में जो दान दिया जाता है, वह शुद्ध दान है, पवित्र दान है, क्योंकि उसमें मंगल कामना समायी हुई है। उसमें कही गरीब और अमीर का भेद-भाव नहीं होता। इन धर्म के केन्द्रों पर कभी ऐसा नहीं होगा। चाहे कोई पढ़ा-लिखा है कि अनपढ़ है, कोई इस जाति का है कि उस जाति का है, इस वर्ण का है कि उस वर्ण का है, इस गोत्र का है कि उस गोत्र का है।
अरे ! मनुष्य मनुष्य है। मानवी मां के पेट से जन्मा है तो मनुष्य है। देश भर में कहीं भेद-भाव नहीं होना चाहिए। लेकिन देश इस अवस्था पर जब पहुँचेगा तब पहुँचेगा। ये जो धर्म के केन्द्र हैं, यहां पर रंचमात्र भी भेद-भाव नहीं हो। किसी मां के गर्भ से जन्मा है, मनुष्य है; और मनुष्य है तो उसके लिए मुक्ति का रास्ता खुला है। कोई आये, सबके लिए खुला है। धर्म सार्वजनीन होता है, सब का होता है। सार्वदेशिक होता है, चाहे जहां, जो ध्यान करे उसी को लाभ मिलता है। सार्वकालिक होता है। सदा कल्याण करने वाला होता है तो ही धर्म होता है। इसे संप्रदाय न बना लें। आगे जाकर लोग यह न कहने लगे कि हमारे विपश्यीयों का एक अलग संप्रदाय है, हम औरों से अलग हैं। कभी अलग नहीं हैं। समाज में सब तरह के लोग रहते हैं, सारे संसार में सब तरह के लोग रहते हैं। सब को शांति मिले, सब को सुख मिले। सब को जीने की कला आ जाय। अपना लोक सुधार लें, अपना परलोक सुधार लें। सबके मन में यही मैत्री का भाव, करुणा का भाव रहना चाहिए। जो धर्म सीखने आये हैं, उनके मन में भी; और जो सिखा रहे हैं, जो व्यवस्था कर रहे हैं, जो सेवा कर रहे हैं उनके मन में तो और अधिक। मन में मैत्री नहीं होगी, करुणा नहीं होगी, सद्भावना नहीं होगी तो धर्म क्या सिखाओगे? अहंकार ही जगाओगे कि हमने इतने आदमियों को विपश्यना दे दी -इतनी महिलाओं को, इतने पुरुषों को। देखो, हमने ऐसे निवास स्थान बना दिये । हमने ये कर दिया, वो कर दिया। क्या कर दिया रे ? अपना अहंकार जगाने के लिए नहीं आये यहां । अहंकार से शून्य होकर काम करेंगे तो धर्म का काम करेंगे। सेवा ही सेवा है।
जो व्यक्ति यहां आकर काम करता है, चाहे वह आचार्य है, आचार्या है, चाहे कोई ट्रस्टी है; सारे के सारे धर्म-सेवक हैं। इस धरती पर आकर जो काम करता है, जो काम करेगा सेवाभाव से करेगा । वेतन के लिए नहीं, आजीविका के लिए नहीं। हर व्यक्ति धर्म-सेवक है। इसी भाव से आता है, इसी भाव से सेवा करता है कि मेरे थोड़े से सहयोग से न जाने किसक भला हो जाय, न जाने कितनों का भला हो जाय । करुणा से भरी हुई, यही मंगल भावना होनी चाहिए। सब सेवक ही हैं। धर्म की सेवा करनी है माने जो भी साधक-साधिकाएं आयें, उनकी सेवा करनी है। उन पर हुकूमत नहीं करनी है। बड़े प्यार से, बड़ी नम्रता से सेवा करनी है। वेतनभोगी की तरह नहीं।
हो सकता है कोई धर्मसेवक ऐसा हो, कोई धर्मसेविका ऐसी हो जो कि सारा समय यहां सेवा देता/देती है तो उसके भरण-पोषण के लिए, ट्रस्ट उसे कुछ दे । पर उसे वेतन नहीं मानें । कोई वेतन भोगी नहीं है। जो यहां काम करे वह धर्म-सेवक है। सबसे बड़ी भावना उसके मन में यही हो कि मुझे सेवा के पुण्य मिले। अरे कितना अनमोल होता है सेवा का पुण्य । हम किसी भूखे को अन्न देते हैं, रोटी देते हैं। उसकी भूख मिटती है, बड़ा पुण्य होता है। किसी प्यासे को पानी देते हैं। उसकी प्यास बुझती है, बड़ा पुण्य होता है। किसी रोगी को औषधि देते हैं। उसका रोग दूर होता है, बड़ा पुण्य होता है। दुनिया में जितने पुण्य हैं, धर्म देने के मुकाबले उनकी कोई तुलना नहीं । जिसको भोजन दिया, देना ही चाहिए, अच्छा काम है। पर बेचारा दूसरे दिन फिर भूखा हो गया । प्यासे को पानी दिया, फिर प्यासा हो गया। रोगी को दवा दी, फिर कोई रोग लग गया। स्थायी लाभ नहीं हुआ।
परंतु किसी को ‘धर्म’ मिल गया और वह धर्म के रास्ते चलने लगा तो उसका सदा के लिए कल्याण हो गया। अब जीवन में चाहे जैसे उतार-चढ़ाव आयें, अनचाही-मनचाही होती रहे, धर्म मिल गया। अब वह कभी व्याकुल नहीं होगा। भीतर से शांति रहेगी, सुखी रहेगा। मन का संतुलन बना रहेगा, समता बनी रहेगी। अपने जीवन की जो जिम्मेदारियां हैं उनको बहुत अच्छी तरह से निभा सकेगा । सब्बदानं धम्मदानं जिनाति -दुनिया में जितने प्रकार के दान हैं, धर्म का दान सबको जीत लेता है, क्योंकि सब से बड़ा है। जिसे धर्म का दान मिल गया उसका लोक भी सुधरा, परलोक भी। बस, हर सेवक के मन में यही भाव हो। धर्म की गद्दी पर बैठ कर आचार्य के रूप में जो धर्म सिखाता है वह तो धर्मदान देता ही है, पर जो-जो उसकी सहायता करते हैं, वे सब धर्मदान में शामिल हैं। इन सेवकों के बिना कोई टीचर, कोई आचार्य कैसे धर्म सिखायेगा? कैसे व्यवस्था होगी ? अतः धर्मसेवा का काम बहुत फलदायी होता है।
मैं देखता हूं कि स्थान-स्थान पर भोजन बनाने वाले कितने प्यार से भोजन बनाते हैं, कितने सजग होकर भोजन बनाते हैं। समय पर इतने आदमियों का भोजन तैयार होना ही चाहिए। कितनी निष्ठा है।
केवल वेतन के लिए कोई काम करेगा ऐसा? ऐसे ही जिस-जिस काम में जो-जो आदमी लगा है उसके मन में प्यार है, मैत्री है, करुणा है, सेवा का भाव है; तभी यह धर्मभूमि सचमुच धर्मभूमि है अन्यथा किसी उद्योगपति का उद्योग हो जायगा। किसी व्यवसायपति का व्यवसाय हो जायगा। धर्म का नामोनिशान नहीं रहेगा, डूब जायगा धर्म तो सदियों तक ख्याल रखना है। इसके लिए केवल इसी पीढ़ी के आचार्यों को, व्यवस्थापकों को, ट्रस्टियों को,सेवा करने वालों को ही सजग नहीं रहना है, बल्कि भविष्य में भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी सतत सजग रहना है। अरे! बहुत लंबे समय के बाद शुद्ध धर्म अपने देश में आया है। यह कायम रहे, लोक कल्याण करता रहे।
पर कैसे हो ? जो कोई भरण-पोषण के लिए कुछ लेता है तो भी यहां के जो नियम हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि वह साधक हो, कम से कम दस दिन का एक शिविर किया हुआ हो और समय-समय पर शिविर करता रहे। यहां रहते हुए भी सुबह-शाम ध्यान करता रहे। धर्म का स्थान है। कोई व्यावसायिक केन्द्र नहीं है, कोई औद्योगिक केन्द्र नहीं है। यहां कोई मालिक और नौकर नहीं है, सब सेवक हैं। सब सेवक हैं। किसी के जिम्मे यह काम दिया कि तुम धर्म की गद्दी पर बैठ कर लोगों को समझाओ कि धर्म क्या है, सिखाओ कि साधना क्या है? किसी के जिम्मे यह काम दिया कि सारी व्यवस्था की देखभाल करो। किसी के जिम्मे कोई काम, किसी के जिम्मे कोई काम, सब सेवा भाव से । मुझे अपने गुरुदेव के ध्यान-केन्द्र की याद आती है, वहां की पवित्रता आंखों के सामने आती है तो बड़ी प्रेरणा जागती है कि ऐसा ही होना चाहिए। वहां कितनी लगन से लोग सेवा करते हैं।
एक उदाहरण - बर्मा की यूनिवर्सिटी का एक असिस्टेंट प्रोफेसर, बहुत विद्वान व्यक्ति । शिविर के समय शिविर लेता है तब भी और अन्य समय भी, हम देखते थे कि वह कैसे सुबह-सुबह आकर सारी सफाई करता था; पाखानों की भी सफाई करता था। उसने अपने घर में नहीं की, लेकिन यहां करता है। सेवा तो सेवा है। लोग स्वस्थ रहें, उनको सारी सुविधाएं मिले, निश्चित होकर ध्यान करें, इसी भाव से सेवा की जाती है। सेवा का स्थान है, धर्मसेवा का स्थान है। इन बातों का खूब ख्याल रखेंगे।
धर्म की मर्यादा टूटने नहीं देंगे। धर्म सबका होता है, सबके लिए है। सबके लिए एक जैसी सेवा, एक जैसा मैत्री का भाव, सद्भावना का भाव । तो यह धरती खूब फलेगी, खूब फूलेगी । बहुत फल वाले पेड़ लगेंगे, ऐसा नहीं। वे तो अपनी जगह लगेंगे ही। यहां तो ऐसे लोग तैयार होंगे कि इस धरती पर लोगों का दूसरा जन्म होगा। मैं भी देखता हूं कि मैं दो बार जन्मा। एक बार मां की कोख से जन्मा और दूसरी बार जब धर्म मिला तब। जैसे पक्षी के दो जन्म होते हैं -एक अंडे के रूप में, फिर अंडे की खोल टूटती है तब सही जन्म होता है। ऐसे ही यहां लोगों का सही जन्म होगा। अविद्या की खोल टूटेगी । धर्म जागेगा, होश जागेगा। मंगल ही मंगल होगा, मंगल ही मंगल होगा।
खूब समझदारी के साथ, जैसे विश्वभर में अन्य ध्यान केन्द्र चलते हैं, वैसे ही खूब सेवाभाव से - कैसे अधिक से अधिक लोगों की, अधिक से अधिक सेवा हो! कैसे अधिक से अधिक लोगों का, अधिक से अधिक कल्याण हो! बस एक ही भाव, एक ही भाव । कोई धनवान आकर सेवा करता है कि धनहीन आकर सेवा करता है। कोई बहुत पढ़ा-लिखा आकर सेवा करता है कि अनपढ़ आकर सेवा करता है। कोई पुरुष सेवा करता है कि नारी सेवा करती है। कोई फर्क नहीं। चित्त की भावना कैसी है? चित्त की भावना मंगल से भरी हो! जो-जो इस धरती पर तपने आये, सबका खूब मंगल हो! खूब कल्याण हो! खूब स्वस्ति हो! सबकी मुक्ति हो!
भवतु सब्ब मङ्गलं, भवतु सब्ब मङ्गलं, भवतु सब्ब मङ्गलं!
सबका मंगल हो!
(5 मार्च, 2005 को ‘धम्मनासिका, नाशिक केंद्र पर, पुराने साधकों को पूज्य गुरुजी का संबोधन)
मई 2005 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित