सयाजी ऊ बा खिन की कीर्तिकाया (भाग-2)

(क्रमशः ...)


" एक और अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य- यह जो गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन के ऐतिहासिक स्मारक स्वरूप मुंबई में विशाल 'विपश्यना स्तूप' के निर्माण का कार्य पूरा हुआ, इसका प्रयोग केवल विपश्यना साधना के लिए ही होगा। इससे गुरुदेव के धर्म-स्वप्न को पूरा करने में सहायता मिलेगी। इसके विशाल धर्मकक्ष में हजारों की संख्या में विपश्यी साधक साधिकाएं, सामूहिक साधना का अथवा एक दिवसीय शिविर का लाभ उठाते रहेंगे। यह सहज अनुमान किया जा सकता है कि जहां 50-100 साधकों की सामूहिक साधना से साधकों को इतना लाभ मिलता है, वहां उसकी तुलना में हजारों की संख्या वाली सामूहिक साधना कितनी प्रभावी और लाभदायी होगी। 'समग्गानं तपो सुखो' यह भगवत्वाणी यहां प्रत्यक्ष प्रकट होगी, सामूहिक तपसुखदायी सिद्ध होगा।

इस स्तूप को लेकर अनजान लोगों में भ्रांतियां जागनी स्वाभाविक हैं। उनको लगता है कि यह किसी संप्रदाय विशेष का प्रतीक निर्मित हुआ है। परंतु अब जब वे देखेंगे कि इस स्तूप में विपश्यना साधना के अतिरिक्त कोई सांप्रदायिक कर्मकांड नहीं किया जा रहा, यहां धूप-दीप, नैवेद्य तथा घंटे-घड़ियाल अथवा मूर्ति-पूजन का नामोनिशान नहीं है तो उनकी यह भ्रांति स्वतः दूर होगी।
यह सच है कि बाहर से इसे एक स्तूपनुमा आकृति दिए बिना भी, दस हजार व्यक्तियों की सामूहिक साधना के लिए ऐसे एक स्तंभ-विहीन विशाल हॉल का निर्माण किया जा सकता था, फिर यह सांप्रदायिकता की भ्रांति पैदा करने वाली स्तूप की आकृति क्यों? लोगों की यह भ्रांति भी देर तक नहीं टिक पायेगी, जब वे इस सच्चाई से अवगत होंगे कि यह आकृति चिरकाल तक बर्मा के उपकार की याद बनाए रखने के लिए है। यह स्तूप उस धर्म देश के प्रति हमारी असीम कृतज्ञता का प्रतीक होगा । जब विपश्यना विद्या भारत से पड़ोसी देशों में गयी, तब वहां के लोगों ने अपने देशों में जो प्रारंभिक स्तूप बनाए, वे तत्कालीन भारत के स्तूपों की प्रतिकृति मात्र थे। वे इसीलिए बने कि जब-जब वहां के लोग उन स्तूपों को देखेंगे, तब-तब भारत के उपकार को याद कर नतमस्तक होंगे। ठीक इसी प्रकार यहां के लोग श्वेडगोन की आकृति वाले इस स्तूप को देखेंगे तो वे भी सदियों तक बर्मा के उपकार को याद करेंगे कि उस देश ने एक अनमोल धरोहर की भांति यह विद्या चिरकाल तक संभाल कर रखी और यह भी कि उस देश में गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन जैसे गृहस्थ संत जन्मे, जिनके अदम्य उत्साह के कारण यह पुरातन विधि भारत को पुनः प्राप्त हुई और यहां से विश्व के कोने-कोने में फैली, जिससे कि भारत विश्वगुरु के पुरातन विरुद को पुनः उपलब्ध कर सकने योग्य बना। इस माने में यह स्तूप हमारी कृतज्ञता का प्रतीक होगा, न कि किसी सांप्रदायिकता का। यह स्तूप वस्तुतः भारत में विपश्यना के पुनस्थापन का भव्य स्मारक होगा और सयाजी की महानता का कीर्तिस्तंभ भी।
पगोडा का निर्माण और इसकी विशेषताएं
भगवान बुद्ध की अनमोल विपश्यना विद्या और बुद्धवाणी सदियों तक विश्व के लोगों का कल्याण करती रहे, इसके लिए बुद्धवाणी में निर्देश है कि जब तक उनकी शरीर-धातु विश्व में कायम रहेगी तब तक उनकी शिक्षा कायम रहेगी और लोगों का कल्याण करती रहेगी। अतः मन में बुद्धधातु को सुरक्षित रखने का संकल्प उठा। इसके लिए परिकल्पना जगी कि एक ऐसे "ग्लोबल विपश्यना पगोडा'' का निर्माण हो, जो सदियों तक कायम रहे और साधकों को इसका व्यावहारिक लाभ भी मिलता रहे।
यह सह्याद्रि का क्षेत्र भगवान बुद्ध के समय में ही धर्मभूमि बन गया था। नाला-सोपारा का ऋषि बाहिय दारुचीरिय यहां से श्रावस्ती तक का रास्ता पैदल पार करके भगवान से मिलने गया और भिक्षाटन के समय रास्ते में ही उनसे धर्म सीख कर जीवन्मुक्त हो गया। इसी क्षेत्र का श्रावक पूर्ण धर्म में पुष्ट हुआ और भगवान द्वारा ली गयी परीक्षा में सफल होने पर यहां लौट कर लोगों को धर्म सिखाने में लग गया। सह्याद्रि क्षेत्र में बनी कान्हेरी, कार्ला, महाकाली, भाजा, अजंता-एलोरा की गुफाएं तथा अन्य अनेक धर्म के स्मारक इसी बात की ओर इंगित करते हैं कि धर्म यहां कितना फूला-फला होगा। नालासोपारा में अभी विगत दिनों हुई खुदाई में पगोडा के अवशेष मिले। इन सब से मेरा मन गोराई की ओर अधिक आकर्षित हुआ क्योंकि यहां तीन तरफ समुद्री पानी और मैंग्रोव (खारे पानी के पेड़-पौधे) हैं और एक ओर जमीन है, जहां से यह सड़क मार्ग से जुड़ा है। इसके पहले पगोडा बनाने के लिए मैंने अनेक स्थानों का निरीक्षण किया था, परंतु इसे ही सबसे अधिक उत्तम समझा।
पगोडा को चिरस्थायी बनाने के लिए पुराने पगोडाओं पर ध्यान गया । देखा कि जो पगोडा पत्थर आदि से बने हैं वे सदियों से कायम हैं, जबकि आज के सीमेंट-कोंक्रिट से बने भवन की आयु 100-200 वर्ष ही होती है। अतः आधुनिक तकनीशियनों, सहायक आचार्यों, ट्रस्टियों और साधकों की सभा बुलायी गयी। सब के सुझाव और सहयोग से सीमेंट-कोक्रिट का पगोडा बनाने की बजाय पत्थरों से बनने वाले एक भव्य एवं विशाल ग्लोबल विपश्यना पगोडा का निर्माण हुआ, जो कि लगभग 2000 वर्षों तक कायम रहेगा। यह निश्चित ही सदियों तक सयाजी ऊ बा खिन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते रहने का स्मारक होगा।
इसके निर्माण का एक कारण और भी था। सयाजी ऊ बा खिन की परिकल्पना के अनुसार पगोडा भीतर से खोखला हो, जिसके अंदर बैठ कर लोग विपश्यना साधना कर सके। इसके पहले जितने पगोडा बने, वे अधिकांशतः अंदर से ठोस थे। परंतु सयाजी ने म्यंमा में अपने विपश्यना केंद्र का जो पहला पगोडा बनवाया, उसमें साधना के लिए शून्यागार बने। उनकी इस वैज्ञानिक सोच को कायम रखते हुए विश्व भर के विपश्यना केंद्रों में जितने भी पगोडा बने, वे सब उनके रंगून-विपश्यना केंद्र के पगोडा की प्रतिकृति स्वरूप ही बने।
श्वेडगोन पगोडा की प्रतिकृति वाले इस पगोडा के परिसर में भगवान की वाणी परियत्ति, उनकी जीवनी की झांकी तथा उनकी अनमोल शिक्षा विपश्यना विद्या भी सुरक्षित रहेगी। इस कारण जो लोग यहां आयेंगे, उन्हें इस व्यावहारिक साधना की जानकारी होगी और यहां वे इसके सैद्धांतिक पक्ष को भी समझ सकेंगे। यह भी एक कारण था अद्वितीय चिरंजीवी पगोडा बनाने का।
इसके निर्माण के लिए पत्थरों को 1000-1200 किमी. दूर राजस्थान के जोधपुर से लाया गया। मंदिर बनाने वाले सोमपुरा शिल्पियों ने इन्हें इस प्रकार तराशा कि ये एक-दूसरे में गुंथे रहें और इतने बड़े पगोडा के भार को भी संभाल सकें। यह तकनीक का ही कमाल है कि 5,648.5 वर्गमीटर क्षेत्र वाले विशाल हॉल को बिना किसी स्तंभ की सहायता के बनाया गया है। इसके निर्माण में स्पेशल स्केफोल्डिंग तकनीक का उपयोग किया गया। इस प्रकार यह एक ऐसा गुंबद बन गया है, जिसमें लगभग 8-10 हजार साधक एक साथ बैठ कर ध्यान कर सकते हैं। इस माने में इसका निर्माण निश्चित ही अद्वितीय और अद्भुत है।
ग्लोबल विपश्यना पगोडा के निर्माण में प्राचीन स्थापत्यकला के साथ-साथ आधुनिक तकनीक और मशीनरी का उपयोग किया गया। भारतीय शिल्पियों ने इसका ढांचा तैयार किया तो बरमी कलाकारों ने इसकी साज-सज्जा को शोभायमान किया। पूर्वी एशियाई देशों के सहयोग से सुनहरा रंग चढ़ा तो बरमी कलाकारों ने चित्र-प्रदर्शनी को सुदर्शनीय बनाया। बरमी-सागवान (टीक) पर अनोखी चित्रकारी से भरा विश्व का दूसरा सबसे बड़ा सरकने वाला दरवाजा तथा अन्य सभी दरवाजे बरमा से बन कर आये। विश्व का सबसे बड़ा लकड़ी का दरवाजा बरमा में ही है । बरमी काष्ठ-कलाकारों ने यहां आकर इन्हें स्थापित किया। साथ ही उन्होंने ध्यान-कक्ष (डोम) की फर्श और बगल में प्रतिध्वनि-रोधी लकड़ी की पट्टियां (बरमी-सागवान) भी लगायी और सेंवारी । पगोडा की बाहरी दीवालों पर ग्रेनाइट पत्थर पर खुदे हुए धर्म के दोहे न केवल दर्शकों की आंखों को प्रिय लगते हैं, बल्कि प्रेरणादायक भी हैं। पगोडा के अंदर पर्याप्त रोशनी, पर्याप्त हवा का प्रवाह, बीच में आचार्य के बैठने का घूमता हुआ मंच, प्रतिध्वनि-विहीन साउंङ-सिस्टम, सब हमारे इंजीनियरों के मस्तिष्क की उपज है । इस प्रकार इस भव्य पगोडा का निर्माणकार्य संपन्न करने में भारतीय इंजीनियरों, बरमी कलाकारों, विश्वभर के दान-दाताओं और श्रद्धालुओं का योगदान चिर-स्मरणीय रहेगा।
पगोडा तक आने के लिए 'एस्सेल वर्ल्ड' के मुख्य द्वार के पास बने 'सांची द्वार' से अंदर आने वाली मुख्य सड़क के समाप्त होते ही, पगोडा-परिसर की बाहरी सीमा पर 'म्यंमा-द्वार' बनाया गया है। इसके दोनों तरफ बरमी संस्कृति को दर्शाते हुए दो सिंह बने हैं। इन्हें बरमी भाषा में 'छिंदे' कहते हैं। इनके आस-पास पत्थरों पर पगोडा के बारे में संक्षिप्त जानकारी उत्कीर्ण की जायगी। इस द्वार की सारी नक्काशी का काम बरमी कलाकारों द्वारा किया गया है। यहीं से, पगोडा पर जाने के लिए संगमरमर की सीढ़ियां आरंभ हो जाती हैं। सूर्य-ताप-रोधी संगमरमर की ये शिलाएं भी बरमा से आयीं।
सीढ़ियों की दोनों ओर आगंतुकों के कीमती सामान सुरक्षित रखने की सुविधा है। ऊपर जाने पर सुरक्षा-जांच के लिए आधुनिक यंत्र लगे हैं, जिन्हें पार करते हुए ही कोई व्यक्ति अंदर प्रवेश पा सकता है। जांच-कक्ष के दोनों ओर विशाल घंटों के चौक बने हैं, जिन्हें द्वारपालों की चार-चार कलात्मक मूर्तियां अपने कंधों पर टिकाए हुए है। एक और बरमा से आया हुआ 18.22 मेट्रिक टन का घंटा है तो दूसरी ओर थाईलैंड से आया हुआ गोल नगाड़ा। इनके चौक पर चढ़ कर आगंतुक इन्हें बजाने का आनंद ले सकते हैं।
भूमि तल पर सीढ़ियों के नीचे कार्यालय है । सीढ़ियों की दाहिनी ओर आगंतुकों की सुविधा के लिए फूङ-कोर्ट (आहार-कक्ष) की सुविधा है, जहां बैठ कर दीवाल पर उभार कर बनाये गये बरमी संस्कृति के भित्ति-चित्रों का आनंद लेते हुए लोग चाय-नाश्ता करके प्रसन्न होते हैं।
फूड-कोर्ट के बगल में एक एकल संगमरमर पत्थर में तराश कर बनायी गयी भगवान बुद्ध की 87.5 मेट्रिक टन वजन की अखंड मूर्ति स्थापित है, जो बरमा में तैयार करके बड़ी मुश्किलों से गुजरते हुए यहां तक लायी गयी। बरमी कलाकारों ने महीनों श्रम करके इस परिसर को और भी अनेक प्रकार की बरमी लोक-संस्कृति की कलाकृतियों से सजाया-सँवारा है।
पगोडा परिसर के अन्य आकर्षण मुख्य पगोडा के उत्तर की ओर बने छोटे पगोडा का निर्माण नमूने के रूप में सबसे पहले किया गया। इसमें उपयोग किये गये पत्थरों की भार-वहन क्षमता और शक्ति आदि का निरीक्षण-परीक्षण करक उसी अनुपात में राजस्थान के जोधपुर से आये पत्थरों द्वारा मुख्य पगोडा का निर्माण किया गया। ये दोनों पगोडा न केवल दो हजार वर्षों तक कायम रहेगे, बल्कि मौसम तथा भूकंप आदि का सामना कर सकने में भी ये सक्षम हैं।
158 वर्गमीटर क्षेत्र वाले इस छोटे पगोडा के गुंबद-कक्ष में नवागंतुकों को प्रतिदिन 25-25 मिनटों तक लगातार आनापान (विपश्यना का प्राथमिक चरण) सिखाने का काम किया जाता है, ताकि वे इसका यत्किंचित अभ्यास करके विद्या से परिचित हों और इससे लाभान्वित होकर किसी दस दिवसीय शिविर का पूरा लाभ उठाएं। इस प्रकार अपने साथ अन्य अनेकों के मंगल में सहायक बन सक। विपश्यना के साधक मुख्य पगोडा के अंदर बैठ कर कभी भी ध्यान कर सकते हैं।
पगोडा के पूर्वी द्वार (गेट नं. 1) के सामने सुंदर बगीचा है। उसमें जलदेवता के हाथ से निकलता हुआ पानी का आकर्षक फव्वारा बना है। उसके समीप ही राजस्थान से बन कर आया हुआ 16 मीटर ऊंचा अशोक स्तंभ खड़ा है। इसके ऊपर बने चारों ओर मुँह खोले सिंह भगवान बुद्ध की सिंह-गर्जना (धम्मघोस) के प्रतीक हैं। इसके बगल में कमल-ताल बनाया गया है। नीचे की ढलान पर सीढ़ीनुमा किचन-गार्डन है, जहां पर केंद्र के लिए साग-सब्जी भी उगायी जाती है। इससे परिसर की हरियाली और बढ़ जाती है।
बगीचे की दूसरी ओर पानी का कृत्रिम झरना बन रहा है। इस एम्फीथियेटर की सीढ़ियों पर बैठ कर लोग जल-प्रपात और पगोडा की बाहरी सजावट को देखने का आनंद ले सकेंगे।
परिक्रमा-पथ पर बुद्धधातु को नमस्कार करते भूदेव, जलदेव, नभदेव तथा मुख्य सीढ़ियों के अंत में बुद्धधातु को नमस्कार करते हुए सफेद गजराज की मूर्तियां भी दर्शनीय हैं।
परिक्रमा पथ के नीचे और फूड-कोर्ट के ऊपर, प्रथम मंजिल पर दर्शक-दीर्घा बनायी गयी है, जहां भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित महत्त्वपूर्ण कथाओं को चित्रों के माध्यम से सजीव किया गया है। यह चित्रावली म्यंमा से आये हुए चित्रकारों (आर्टिस्टों) ने बहुत ही लगन और श्रद्धा से प्रसिद्ध चित्रकार श्री वासुदेव कामथ के निर्देशन और निगरानी में मुझे दिखा-दिखा कर बनायी गयी। इन चित्र-कथाओं को समझने के लिए आधुनिक तकनीक द्वारा श्रव्य-यंत्रों के माध्यम से फिलहाल पांच भाषाओं में इन्हें सुन सकने की सुविधा प्रदान कर दी गयी है - यथा -- हिंदी, मराठी, अंग्रेजी, बरमी और थाई भाषाओं में से अपनी-अपनी भाषा के श्रव्य-यंत्र कान में लगा कर प्रत्येक चित्र का विवरण सुन सकते हैं।
इसी मंजिल पर नये लोगों को विपश्यना तथा बुद्ध संबंधी अन्य जानकारियां देने के लिए वातानुकूलित सभा-कक्ष की व्यवस्था की गयी है, जहां आधुनिक दृश्य-श्रव्य यंत्रों द्वारा विस्तृत जानकारी दी जाती है। समीप ही एक और सभा-कक्ष बन रहा है। धर्म-संबंधी अधिक जानकारी के लिए एक लाइब्रेरी की भी व्यवस्था की गयी है, जहां बैठ कर लोग शांतिपूर्वक पठन-कार्य कर सकते हैं।
ऐसे ही दर्शकों को पगोडा की मधुर याद संजोए रखने के लिए कुछ स्मृति-चिह्न भी उपलब्ध कराये गये हैं, जिन्हें लोग खरीद कर अपने साथ ले जा सकते हैं यथा -- पुस्तकें, ऑडियो-वीडियो सीडी-डीवीडी, पगोडा के स्मारक, टी-शर्ट इत्यादि ।
दूर से आने वाले अतिथियों के विश्राम के लिए प्रवेश-द्वार की बाई ओर भोजन, निवास की सुविधा सहित दो-दो बिस्तरों वाले 50 कमरों का चार मंजिला अतिथि-गृह बन रहा है, जो लगभग तैयार है। इसके निर्माण में बरमी एवं थाई साधकों का विशेष योगदान है।
धम्मपत्तन विपश्यना केंद्र पगोडा का निर्माणकार्य आरंभ होने पर एक प्रस्ताव आया कि विपश्यना की व्यावहारिक विद्या सिखाने के लिए यहां भी एक विपश्यना केंद्र होना चाहिए। परंतु स्थानाभाव के कारण यह असंभव लग रहा था। ऐसे में इंजीनियरों ने सुझाव दिया कि यदि बहुमंजिला इमारत में केंद्र बनाने की स्वीकृति दी जाय तो इस अत्यंत छोटे परिसर में भी लगभग 100 व्यक्तियों के लिए एक छोटे विपश्यना केंद्र का निर्माण संभव हो सकेगा। मुंबई महानगर के विशेष लोगों (एक्जीक्यूटिव्स) की मांग को ध्यान में रखते हुए तथा खाड़ी क्षेत्र होने के कारण, ऐसा केंद्र बनाने की स्वीकृति दी गयी, जिसके सभी 100 शयन-कक्षों को तथा साधना-कक्ष को वातानुकूलित बनाया गया। इस विपश्यना केंद्र का नाम रखा - धम्मपत्तन । बरमी कलाकृतियों से सज्जित इस भवन की तीसरी मंजिल पर आचार्य निवास बनाया गया है तथा साथ में रेकार्डिंग-स्टूडियो, मीटिंग-कक्ष एवं अन्य आवश्यक निवास भी। इस भवन की बाहरी साज-सज्जा बरमी स्थापत्यकला के अनुरूप इसीलिए रखी गयी ताकि यहां भी बरमा के उपकार को याद किया जा सके। यह स्थान साधना के अत्यत अनुकूल है। तीन तरफ से समुद्र और खाड़ी होने के कारण शांति, सुंदरता और हरियाली ही नजर आती है।
धम्मपत्तन के समीप बने छोटे पगोडा को साधना के लिए केंद्र से जोड़ दिया गया है। इसमें कुल 108 शून्यागार बने हैं, जो वातानुकूलित हैं। ये पुरुष-महिलाओं के लिए अलग-अलग प्रवेश-द्वार से विभक्त कर दिये गये हैं। इसके अंदर 10-दिवसीय या दीर्घकालिक साधना ही होती है। केंद्र के साधकों की सुविधा के लिए सीढ़ियों के अतिरिक्त 'लिफ्ट' की भी व्यवस्था है।
धम्मपत्तन के सामने हरी-भरी घास तथा फूल-पत्तों से सजा सुंदर बगीचा है जिसके बीच-बीच में महिला-पुरुषों को अलग-अलग टहलने के लिए चंक्रमण-पथ बने हैं। इन पर चलते हुए साधकों का मन प्रसन्न ही होता है। परिसर को सुंदर और स्वच्छ रखने के लिए सड़क के दोनों किनारों पर नारियल, खजूर तथा अन्य अनेक प्रकार के फलों के वृक्ष लगाये गये हैं।
परियत्ति भवन में पालि भाषा का अध्यापन भगवान की सारी वाणी पालि भाषा में है। इस भाषा को जीवित रखने, समझने-समझाने और उस पर विशोधन करने के लिए विपश्यना विशोधन विन्यास की स्थापना हुयी। शिविरों के दौरान साधक पालि के उद्धरण और वंदना आदि सुनते हैं तो पालि भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण स्वभावतः उन्हें समझने से वंचित रह जाते हैं। पटिपत्ति यानी साधना के व्यावहारिक पक्ष का अभ्यास करने के साथ परियत्ति, यानी, इसके सैद्धांतिक पक्ष का अभ्यास भी आवश्यक है। साधकों की इस इच्छा की पूर्ति के लिए इगतपुरी में पालि भाषा सिखाने का कार्य आरंभ किया गया था। परंतु अनेक व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण अब धम्मपत्तन केंद्र के समीप स्थित भवन को परियत्ति भवन में बदल कर, सन् 2012 से पालि की पढ़ाई एवं विशोधन का कार्य मुंबई के ग्लोबल विपश्यना पगोडा के परिसर में किया जा रहा है। पालि अध्यापन के लिए निवासीय तथा अनिवासीय दोनों प्रकार के पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं। इस संस्था को मुंबई विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. (डॉक्टरेट) तक का प्रशिक्षण देने की मान्यता मिल गयी है। इस भवन में पालि अध्ययन के उपरांत विशोधन के लिए पुस्तकालय एवं कंप्युटर-सुविधाएं भी हैं, जहां विशोधन का कार्य किया जाता है।
आओ, इस आश्चर्यजनक पगोडा और इसके परिसर की खूबियों को सदियों तक जीवित रखने का संकल्प करें और भगवान की सिखायी हुई सांप्रदायिकता-विहीन वैज्ञानिक एवं आशुफलदायिनी विपश्यना विद्या को अपना कर अपना कल्याण साधे! इसी में सब का कल्याण समाया हुआ है।
कल्याणमित्र
सत्यनारायण गोयन्का
July 2013 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

Premsagar Gavali

This is Premsagar Gavali working as a cyber lawyer in Pune. Mob. 7710932406

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