प्रज्ञावान व्यक्ति




प्रज्ञावान व्यक्ति भीड़ में सहज ही दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि वह बहुत ही शांतचित्त व एकांतसेवी होता है। लेकिन जब कोई समस्या उग्र रूप ले लेती है तब वह समझदारी में सबसे श्रेष्ठ दिखायी पड़ता है। जब सब क्रोध में जल रहे होते हैं, वह प्रेम से भरा होता है। जब लोग संकट की घड़ी में बेचैन होते हैं, वह शांत होता है। अधिक-से-अधिक पाने की छीनाझपटी में वह संतोष का भाव लिए एक ओर खड़ा मिलेगा। वह अप्रिय या कठोर स्वभाव वालों में मधुर व भयग्रस्त अथवा अनिश्चित स्वभाव वालों में दृढ़ विचारों वाला होता है।
ऐसा नहीं है कि वह जानबूझ कर भीड़ से अलग होने का दिखावा करता है बल्कि तुष्णाओं से सर्वथा विमुक्त होने के कारण वह अपने में ही समाहित होता है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि जहां दूसरे लोग उसे प्रभावित करके डिगा नहीं सकते वहां उसका शांत स्वभाव लोगों को प्रभावित करने में सक्षम होता है। उसके सौम्य व तर्कसंगत शब्दों से परस्पर विरोधी स्वभाव वाले व्यक्ति भी उसकी ओर हो जाते हैं, और जो पहले ही साथ रह रहे हैं, वे और अधिक निकट आ जाते हैं। दुःखी,भयातुर व चिंताग्रस्त व्यक्ति उससे वार्तालाप करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं। जंगली जानवर भी प्रबुद्ध व्यक्ति के मन के दयाभाव को भांप जाते हैं और उससे डरते नहीं। यहां तक कि उसके रहने का स्थान-चाहे गांव, जंगल, पहाड़ या घाटी कुछ भी हो - उसके वहां होने के कारण अधिक सुंदर दिखायी देता है।
वह हर समय न तो अपनी राय व्यक्त करता है और न ही किसी विचारधारा का समर्थन करता रहता है। वास्तव में ऐसा लगता है कि उसके कोई विचार ही नहीं हैं, इसलिए लोग उसे मूर्ख समझने की भूल भी कर बैठते हैं। जब वह परेशान भी नहीं होता और बदले की भावना से किसी को बुरा-भला नहीं कहता और न ही किसी का मजाक उड़ाता है तब तो लोग यही सोचते हैं कि सचमुच ही इसमें कोई कमी है। लेकिन वह उनके ऐसा सोचने का बुरा नहीं मानता। ऊपर से देखने में वह मूक सा लगता है लेकिन वास्तव में वह मौन रहना अधिक उपयुक्त समझता है। वह ऐसे रहता है जैसे वह कुछ भी नहीं देख रहा लेकिन वास्तव में वह सारे क्रिया-कलापों को देख रहा होता है। लोग उसे कमजोर समझते हैं लेकिन वह बहुत ही मजबूत होता है। वह जैसा भी दिखाई दे, पर वह तलवार की तेज धार के समान तीक्ष्ण होता है।
उसका चेहरा सदैव कांतिमान एवं शांत होता है क्योंकि वह न तो बीते हुए कल की और न आने वाले कल की चिंता करता है। उसके हाव-भाव, चाल-ढाल बहुत ही शालीन एवं संतुलित होते हैं क्योंकि वह अपने सब कर्मों की स्वभाव से ही पूरी जानकारी रखता है। उसकी वाणी कर्ण प्रिय होती है और उसकी बातें सभ्य, स्पष्ट व विषय के अनुरूप होती हैं। उसकी सुंदरता न तो शारीरिक और न ही वाकचातुर्य के कारण है बल्कि उसके अंतर्तम की अच्छाई के कारण है।
सामान्य लोग उफनते नाले की तरह शोरगुल करने वाले वाचाल होते हैं जबकि प्रबुद्ध व्यक्ति समुद्र की गहराई की तरह नीरव होता है। वह मौन रहना पसंद करता है एवं मौन रखने वालों की ही सराहना करता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह कभी बोलता ही नहीं। वह उन लोगों से बहत ही प्रसन्नता से धर्म चर्चा करता है जो कि वास्तव में सुनना चाहते हैं यद्यपि वह न तो प्रवचन देता फिरता है और न ही बहस या तर्क-वितर्क करता है। तथता सहित वह जितना जानता है, उतना ही प्रामाणिक व्यक्त करता है जिससे कोई विशेषज्ञ भी किसी प्रकार की त्रुटि नहीं निकाल सकता।
प्रबद्ध व्यक्ति का मन विचारग्रस्त नहीं होता है लेकिन वह निष्क्रिय भी नहीं होता। जब वह कुछ सोचना चाहता है, तब सोच लेता है और जब उसे विचारों की आवश्यकता नहीं होती,वह मन को मौन कर लेता है। उसके लिए विचार उपयोग की वस्तु है न कि कोई समस्या है। उसके जीवन में भी स्मृतियां, भावनाएं तथा विचार आते हैं लेकिन वह उन से अविचलित रहता है। उसके लिए वे सब मायाजाल हैं। वह उन्हें उठते, ठहरते व गुजरते हुए देखता रहता है। उसका मन निर्मल शून्य आकाश की तरह है जिसमें बादल आते-जाते रहते हैं लेकिन वह अपनी मूल दशा में निरभ्र, प्रांजल, विस्तीर्ण व अपरिवर्तित रहता है।
प्रबुद्ध व्यक्ति यद्यपि हर प्रकार से शुद्ध होता है तथापि वह अपने आपको किसी अन्य से श्रेष्ठ, समतुल्य या हीन नहीं समझता। दूसरे लोग जैसे हैं वैसे हैं; उनके साथ तुलना करने की या उनको परखने की कोई आवश्यकता नहीं होती। वह किसी वस्तु या व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में नहीं होता। वह किसी भी वस्तु को अच्छा या बुरा, शुद्ध या अशुद्ध, सफल या असफल नहीं मानता। उसने संसार की द्विविधता को समझ लिया है और उससे बाहर हो गया है। वह तो संसार' और 'निर्वाण' - इन दो धारणाओं से भी परे हो गया है। वह सब विषयों से परे होने के कारण हर बंधन से मुक्त है - न कोई तृष्णा, न भय, न कल्पना, न चिंता।
साभार : श्री एस.एन. टंडन जी द्वारा संकलित
धम्मथली संदेश मासिक पत्र-7 जनवरी, 2019 में प्रकाशित

Premsagar Gavali

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