दस पारमिताये




लोक के ज्ञाता, दीपंकर बुद्ध मेरे सिर के पास खड़े हो कर यह बोले-'इस उग्र तपस्या करने वाले जटिल तपस्वी को देखते हो? अब से चार असंखेम्य एक लाख कल्प के बीतने पर यह बुद्ध होगा। तथागत कपिल (वस्तु) नामक रम्य नगर से निकल कर, महान् उद्योग और दुष्कर तपस्या करेंगे। फिर अजपाल वृक्ष के नीचे बंठ खीर ग्रहण कर, नेरत्र्जरा नदी के तटपर जायेंगे। वहाँ नेरब्जरा नदी के किनारे उस खीर को खा सुसज्जित मार्ग से बोधि-वृक्ष के नीचे जायेंगे। वह अनुपम महायशस्वी (पुरुष) बोधिमण्ड की प्रदक्षिणा कर, अश्वत्थ (पीपल)-वृक्ष के नीचे बुद्ध (पद को प्राप्त) होगा। इसकी जननी, माता माया (देवी) होगी; पिता शुद्धोदन और यह गौतम होगा। इस जिन ( शास्ता) के कोलि त और उपतिष्य नाम के वीतरागी, शान्त-चित, समाधि-प्राप्त (दो) अर्हत अग्र-श्रावक होगे; और आनन्द नामक परिचारक (उपस्थायक) परिचर्या (उपस्थान) करेंगे। क्षेमा तथा उत्पल वर्णा आश्रव-रहित, वीतराग, शान्त-चित, समाधि-प्राप्त (दो) अहंत प्रधान शिष्यायें (अग्र-श्रविकायें) होंगी और उन भगवान् के बुद्ध (-पद) प्राप्ति करने का वृक्ष) बोधि) पीपल (अश्वत्थ-बोधि) कहलाएगा।"
'अनुपम महर्षि (दीपंकर) के इस वचन को सुन कर, कि यह (तपस्वी सुमेध) बुद्ध-अंकुर हैं देवता और मनुष्य प्रसन्न हुए। (उस समय) देवताओं सहित सारे दस हजार ब्रह्माण्ड घोषणा करते, ताली बजाते, हसते तथा हाथ जोड़ कर प्रणाम करते थे और (लोग सोच रहे थे) कि यदि इस (दीपंकर) बुद्ध (लोक नाथ) के काल में हम चूक गये, तो भविष्य में इस (तपस्वी सुमेध के बुद्ध होने) के समय (कृतकार्य) होंगे। जिस प्रकार नदी पार करने वाले पुरुष सामने के घाट के छूट जाने पर, नीचे के घाट से महा नदी को पार करते हैं, इसी प्रकार यदि हम सब से यह बुद्ध छूट जायेंगे, तो हम भविष्य काल में इन बुद्ध के समकालीन (उत्पन्न) होंगे।”
'तब बुद्ध तथा दस हजार ब्रह्माण्डों के देवताओं के वचन को सुन कर सन्तुष्ट, प्रसन्न हो मैने सोचा-'बुद्ध एक बात कहने वाले होते है। उनका वचन निष्फल नहीं जाता। बुद्धों का कथन असत्य नहीं होता। मैं जरूर बुद्ध होऊँगा। जिस प्रकार आकाश में फेंका हुआ ढेला. पृथ्वी पर अवश्य गिरता है. उसी प्रकार श्रेष्ठ बुद्धों का वचन अनिवार्य ( ध्रुव , शाश्वत) है। जिस प्रकार सब प्राणियों का मरना अनिवार्य है. उसी प्रकार श्रेष्ठ बुद्धों का वचन अनिवार्य है। जिस प्रकार रात्रि के बीतने पर सूर्योदय निश्चित है, इसी प्रकार श्रेष्ठ-बुद्धों के वचन (की पूर्ति) निश्चित है। जिस प्रकार बसेरे से निकलते सिह का गर्जन करना निश्चित है. उसी प्रकार श्रेष्ठ-बुद्धों के वचन (की पूर्ति) निश्चित है। जिस प्रकार गर्भ में आये प्राणियों का प्रसव निश्चित हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठ-बुद्धों के वचन (की पूति) निश्चित है।"
दस पारमिताएँ और दृढ़ संकल्प की पूजा
(१) दान परिमिता
"मै बुद्ध अवश्य होऊँगा", (इस प्रकार का) निश्चय कर, बुद्ध बनाने वाले धमों का निश्चय करने के लिये सोचा- बुद्ध बनाने वाले धर्म कहाँ है? ऊपर हैं, नीचे हैं, (वा) दस दिशाओं में हैं? इस प्रकार क्रम से सभी धर्मों ( धर्म धातुओं) पर विचार करने लगा। जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है , उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित दान-पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध ! अब से तुझे पहले दान-पारमिता पूरी करनी होगी। जिस प्रकार पानी का घड़ा उलटने पर अपने को बिलकुल खाली कर, पानी गिरा देता है, और फिर वापिस ग्रहण नहीं करता, इसी प्रकार धन, यश, पुत्र, दारा अथवा (शरीर का) अङ्ग प्रत्यङ्ग (किसी) का (भी कुछ) ख्याल न कर, जो कोई भी याचक आवे, उसकी सभी इच्छित (वस्तुओं) को ठीक से प्रदान करते हुए, बोधिवृक्ष के नीचे वैठकर तू बुद्ध-पद को प्राप्त होगा। इसलिए पहले तू दान पारमिता (की पूर्ति) के लिए दृढ़ संकल्प (-अधिष्ठान) कर।
(२) शील पारमिता
'बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही नहीं होंगे। और भी जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है, उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित शील-पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध !' अब से तुझे शील-पारमिता भी पूरी करनी होगी। जिस प्रकार चमरी (-चमरी-मृग) अपने जीवन की परवाह न कर, अपनी पूंछ की रक्षा करता है, इसी प्रकार तू भी अब से जीवन की भी परवाह न कर शील रक्षा करते हुए बुद्ध-पद को प्राप्त होगा। "(इसलिए) तू द्वितीय शील-पारमिता (की पूति)
का दृढ़ संकल्प कर।"
(३) नैष्क्रम्य पारमिता
'बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही नहीं होंगे। और भी जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है, उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित नैष्क्रम्य -पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध ! अब से तुझे नैष्क्रम्य पारमिता भी पूरी करनी होगी। जिस प्रकार कारागार में चिरकाल तक रहने वाला मनुष्य भी कारागार के प्रति स्नेह नहीं रखता, वहाँ न रहने के लिए ही उत्कण्ठित रहता है, इसी प्रकार तू सब योनियों (भवों) को कारागार सदृश ही समझ, सब योनियों से ऊब कर उन्हें छोड़ने की इच्छा कर, नैष्क्रम्य की ओर झुक। इस प्रकार तू बुद्ध पद को प्राप्त होगा। (इस लिए) तू तृतीय नैष्क्रम्य-पारमिता (की पूति) का दृढ़ संकल्प (अधिष्ठान) कर ।
(४) प्रज्ञा पारमिता
'बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही नहीं होंगे। और भी जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है, उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित प्रज्ञा-पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध ! अब से तुझे प्रज्ञा-पारमिता भी पूरी करनी होगी। उत्तम, मध्यम, अधम किसी को भी बिना छोड़े सभी पण्डितों के पास जाकर प्रश्न पूछने होंगे। जिस प्रकार भिक्षा माँगने वाला भिक्षु (उत्तम-मध्यम) हीन (सभी) कुलों में किसी को भी न छोड़ कर एक ओर से भिक्षाटन करते हुए शीघ्र ही (आवश्यक) भोजन (यापन) प्राप्त कर लेता है, इसी प्रकार तू भी सभी पण्डितों के पास जाकर प्रश्न पूछते पूछते बुद्ध-पद को प्राप्त कर लेगा।" इसलिए तू चतुर्थ प्रज्ञा-पारमिता (की पूर्ति) का दृढ़ संकल्प कर।
(५) वीर्यपारमिता
'बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही नहीं होंगे। और भी जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है, उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित वीर्य-पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध ! अब से तुझे वीर्यपारमिता भी पूरी करनी होगी। जिस प्रकार (मृग-) राज सिंह सब अवस्थाओं (ईयपिथों) में दृढ़ उद्योगी है, उसी प्रकार तू भी सब योनियों में, सब अवस्थाओं में दृढ़ उद्योगी, निरालस्य, और यत्नवान हो बुद्ध-पद को प्राप्त होगा। (इसलिए) तू पाँचवीं वीर्य-पारमिता (की पूर्ति) का दृढ़ संकल्प कर।
(६) क्षान्ति पारमिता
'बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही नहीं होंगे। और भी जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है, उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित क्षान्ति-पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध ! अब से तुझे क्षान्ति पारमिता भी पूरी करनी होगी। सम्मान और अपमान, दोनों को सहना होगा। जिस प्रकार पृथ्वी पर (लोग) शुद्ध चीज भी फेंकते हैं, अशुद्ध चीज भी फेंकते हैं। पृथ्वी सहन करती है। न तो (अच्छी चीज फेंकने से) खुश होती है, न (बुरी चीज फेंकने से) नाराज। इसी प्रकार तू भी सम्मान तथा अपमान, दोनों को सहने वाली होकर ही बुद्ध-पद को प्राप्त होगा। इसलिए तू छठी क्षान्ति-पारमिता (की पूति) का दृढ़ संकल्प कर।
(७) सत्य पारमिता
'बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही नहीं होंगे। और भी जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है, उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित सत्य-पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध ! अब से तुम्हें सत्य पारमिता भी पूरी करनी होगी। चाहे सिर पर बिजली गिरे, धन आदि का अत्यधिक लोभ हो तो भी जान बूझ कर झूठ न बोलना चाहिए। जिस प्रकार शुक्र का तारा (औषधि) चाहे कोई ऋतु हो अपने गमन-मार्ग को छोड़ कर, दूसरे मार्ग से नहीं जाता, अपने ही मार्ग से जाता है। इसी प्रकार तू भी सिवाय सत्य को छोड़, मृषावाद न करके ही बुद्धत्व को प्राप्त होगा। (इसलिए) तू सातवीं सत्य-पारमिता (की पूति) का दृढ़ अधिष्ठान कर।
(८) अधिष्टान-पारमिता
'बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही नहीं होंगे। और भी जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है, उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित अधिष्टान-पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध ! अब से तुझे अधिष्ठान पारमिता भी पूरी करनी होगी। जो अधिष्ठान ( दृढ़ निश्चय) करना होगा, उस अधिष्ठान पर निश्चल रहना होगा। जिस प्रकार पर्वत सब दिशाओं में (प्रचण्ड) हवा के झोंके के लगने पर भी, न काँपता है न हिलता है, और अपने स्थान पर स्थिर रहता है, इसी प्रकार तू भी अपने अधिष्ठान में निश्चल रहते हुए ही बुद्ध-पद को प्राप्त होगा। (इसलिए) तू आठवीं अधिष्ठान पारमिता (की पूर्ति) का दृढ़ संकल्प कर।
(९) मैत्री-पारमिता
'बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही नहीं होंगे। और भी जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है, उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित मैत्री-पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध ! अब से तुझे मैत्री-पारमिता भी पूरी करनी होगी। हित, अनहित सब के प्रति समानभाव रखना होगा। जिस प्रकार पानी, पापी और पुण्यात्मा दोनों के लिए एक जैसी शीतलता रखता है, उसी प्रकार तू भी सब प्राणियों के प्रति एक जैसी मैत्री रखते हुए बुद्ध-पद को प्राप्त होगा। (इसलिए) तू मैत्री-पारमिता (की पूर्ति) का दृढ़ निश्चय कर।
(१०) उपेक्षा पारमिता
'बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही नहीं होंगे। और भी जो जो बुद्धपद की प्राप्त में सहायक धर्म है, उन्हें भी ढूढ़ना चाहिए, यह सोचते हुए, पूर्व ऋषियों (बोधिसत्वो) से सेवित उपेक्षा-पारमिता को देखा। और मन में कहा -'पण्डित सुमेध ! अब में तुझे उपेक्षा-पारमिता भी पूरी करनी होगी। सुख और दुख में मध्यस्थ ही रहना होगा। जिस प्रकार पृथ्वी शुचि और अशुचि दोनों को (उसपर) फेंकने पर भी मध्यस्थ ही रहती है, इस प्रकार तू भी सुख, दुख दोनों में मध्यस्थ रहते हुए बुद्ध-पद को प्राप्त होगा। (इसलिए) तू दसवीं उपेक्षा-पारमिता (की पूर्ति) का दृढ़ निश्चय कर।
इसके बाद विचार किया – इस लोक में बोधिसत्वो द्वारा पुरे किये जाने वाले, परम ज्ञान परिपक्व किये जाने वाले तथा बुद्ध बनाने वाले धर्म इतने ही है। दस पारमिताओं को छोड़ कर अन्य नहीं। यह दस पारमिताएँ भी न तो ऊपर आकाश में है न पूर्व आदि दिशाओं में हैं; किन्तु मेरे हृदय के भीतर ही प्रतिष्ठित है। इस प्रकार उनके हृदय ही में प्रतिष्ठित होने (की बात) जान, सबके लिएँ दृढ़ निश्चय कर, फिर उनपर सीधे-उल्टे (अनुलोम प्रतिलोम) क्रमसे विचार करने लगा। अन्त से शुरू करके आदि तक पहुँचाता, आदि से शुरू करके अन्त तक पहुँचाता, बीच में ग्रहण करके दोनों ओर खतम करता, (तथा) दोनों सिरों से आरम्भ करके बीच में खतम करता।
अपने अंग का परित्याग 'पारमिताएँ बाहरी वस्तुओं का त्याग 'उपपारमिताएं और प्राणों का परित्याग 'परमार्थ-पारमिताएँ' (कहलाती) हैं। दस पारमिताएँ, दस उपपारमिताएँ और दस परमार्थपारमिताएँ-(इन तीसों पर) दो तेलों को मिलाने की तरह, तथा सुमेरू पर्वत की मथनी बना चक्रवाल महा समुद्र को मथने की तरह विचारने लगा।
उन दस पारमिताओं पर विचार करते समय धर्म-तेज से चार नियुत दो लाख योजन घनी यह पृथ्वी भारी शब्द कर वैसे ही कांप उठी जैसे हाथी द्वारा आक्रान्त नर्कट, अथवा पेरा जाता ऊख-यंत्र; और कुम्हार के चक्र (तथा) तेली के कोल्हू की तरह घूमी।
रम्य-नगर वासी, काँपती हुई महापृथ्वी पर नहीं खड़े रह सके; और प्रलय वायु से प्रताड़ित महान् शाल वृक्षों की तरह, मूछित हो गिर पड़े। कुम्हार के बनते हुए घड़े आदि बर्तन एक दूसरे से भिड़ कर चूर्ण विचूर्ण हो गये। भयभीत त्रसित जनता ने दीपंकर बुद्ध के पास जाकर पूछा-'भगवान् ! क्या यह नागों का विप्लव (आवर्त) है, अथवा भूत, यक्ष, देवताओं के विप्लवों में से (कोई) एक है? हम इसे नहीं जानते। सारी जनता भयभीत है। क्या इससे लोक का कुछ अनिष्ट होगा अथवा भला ? हमें यह बात बतलाइए।"
दीपंकर बुद्ध ने उनका कथन सुनकर कहा :-मत डरो, चिन्ता मत करो, यह भय का कारण नहीं। आज जो मैंने पण्डित-सुमेध के भविष्य में गौतम नामक बुद्ध होने की भविष्यवाणी की, सो वह (पण्डित-सुमेध) अब पारमिताओं पर विचार कर रहा है। उसके पारमिताओं पर विचार करते, तथा उन्हें मन्थन करते समय, धर्म-तेज से सारे दस सहस्त्र ब्रह्माण्ड एक झटके मे कांप उठे और नाद करने लगे।
दीपंकर बुद्ध के वचन को सुन कर लोगों को संतोष हुआ; और वह माला-गंधलेप ले, रम्य नगर से निकल बोधिसत्व के पास गये। माला आदि से पूजन बन्दना तथा प्रदक्षिणा कर, रम्यनगर में लौट आये। बोधिसत्व भी दस पारमिताओं पर विचार कर उत्साह पूर्वक दृढ़ संकल्प कर आसन से उठे।
तब सारे दस हजार बह्माण्डों के देवताओं ने इकट्ट हो, आसन से उठते हुए बोधिसत्व की दिव्यमाला-गंधों से पूजा कर इस प्रकार स्तुति-मंगल (पाठ) किया-‘आर्य ! तपस्वी सुमेध ! तू ने आज बुद्ध दीपंकर के चरणों में बड़ी प्रार्थना की। वह तेरी (प्रार्थना) निर्विघ्न पूरी हो। तुझे भय-रोमाञ्च न हो। तेरे शरीर को कुछ भी रोग न हो। तू शीघ्र ही पारमिताओं को पूरा कर उत्तम बुद्धपद को प्राप्त करे। जिस प्रकार फल फूल वाले वृक्ष समय आने पर फलते फूलते हैं; इसी प्रकार तू भी समय का अतिक्रमण किये बिना शीघ्र ही बुद्धपद पर पहुँचे।" स्तुतिपाठ के बाद देवता अपने अपने लोक को गये। देवताओं से प्रशंसित बोधिसत्व भी, 'मैं दस पारमिताओं को पुरा कर, चार लाख असंखेय एक लाख कल्प बीतने पर बुद्ध पद को प्राप्त होऊंगा' बडे उत्साह के साथ दृढ़ संकल्प कर, आकाश-मार्ग से हिमालय को चला गया।

Premsagar Gavali

This is Premsagar Gavali working as a cyber lawyer in Pune. Mob. 7710932406

और नया पुराने