१) शील पालन से सभी भौतिक, मानवी, दैवी और निर्वाणिक संपत्तियाँ प्राप्त/ उपलब्ध होती हैं ।
२) शील पालन से इस लोक में यश, कीर्ति, प्रशंसा, प्रसिद्धि, धनलाभ तथा परलोक में स्वर्गीय सुख प्राप्त / उपलब्ध होता हैं ।
३) शील पालन से अनेक अच्छे शीलवान, धर्मवान, सद्गुणों में परिपक्व कल्याणमित्र मिलते हैं ।
४) शील सभी कुशलताओं का उद्गम है, आधार है ।
५) शील कल्याण का जन्मदाता है,
६) शील सभी धर्मों में प्रमुख है । प्रधान है ।
७) शील दुराचरण के सामने लगी हुई सीमा-रेखा है ।
८) शील मन का संवर है ।
९) शील चित्त की अतीव प्रसन्नता है ।
१०) शील वह तीर्थ है, जहाँ सारे दुष्कर्मों के मैल धोये जाते हैं ।
११) शील ही वह स्थान है, जहाँ से निर्वाण का मार्ग शुरू होता है ।
१२) मार की सेना से अपनी रक्षा के लिए और मार-सेना को परास्त करने के लिए, ध्वस्त करने के लिए शील ही अप्रतिम बल है, अस्त्र हैं ।
१३) विकार-समूहों को ध्वस्त करने के लिए शील ही अप्रतिम और उत्तम अस्त्र है ।
१४) शील धर्मवानों का उत्तम आभूषण-अलंकरण है ।
१५) शील अपनी रक्षा के लिए अद्भुत कवच है ।
१६) विकारों के दल दल में डूबने से बचने के लिए और भवसागर को पार करने के लिए शील ही महान और मजबूत सेतु (पुल) है ।
१७) शील ऐसी श्रेष्ठतम सुगंध है, जिसकी सुरभि (सुगंध) सभी दिशाओं को प्रवाहमान होती हैं और देवलोक तक जाती हैं ।
१८) मुक्ति के मार्ग पर चलने वालों के लिए शील ही श्रेष्ठतम संबल है, सहारा है, उत्तम पाथेय है ।
१९) शील ऐसा वाहन है, की जिस पर सवार होकर दुर्गम कांतार से बाहर निकलने के लिए सभी दिशाओं में जाया जा सकता है ।
२०) मुक्ति के मार्ग पर शील श्रेष्ठतम हैं, अग्र है, प्रमुख हैं ।
२१) शीलवान लोग मृत्यु के बाद दुर्गति में नहीं जाते । *मनुष्य लोक या देवलोक* में ही जन्मते हैं ।
२२) शील में परिपक्व व्यक्ति ही *सम्यक-समाधि* में परिपक्व हो सकता है । और सम्यक-समाधि में परिपक्व व्यक्ति ही *प्रज्ञा-वान* बन सकता है । और प्रज्ञा-वान व्यक्ति ही *निर्वाण* प्राप्त कर सकता है ।
इसलिए दृढ़ संकल्प कर, दृढ़ता से शीलोंका पालन करें ।