मृत्यु मंगल

विपश्यना साधक के लिए मृत्यु मंगल है, अमंगल नही । सुहवनी है, भयावनी नही। अभिनंदनीय है, तिरस्करणीय नही । जब समय पकता है और आयु संस्कार पुरे होते है तो शरीर-च्युति अवश्यंभावी है । नियती के इस अटूट नियम को कोई नही टाल पाता । परिपक्व साधक इस अपरिहार्य मृत्यु क्षण को मुस्कुराता हुआ वरण करता है ।  चित्तधारा पर रंचमात्र भी भय नही होता, शोक नही होता, घाबराहट नही होती । मृत्यु के समय यदि पिडाए हो तो भी चित्त विचलित नही होता । जैसे अधिष्ठान मे बैठा हुआ शारीरिक पीडाए हो तो भी चित्त विचलित नही होने देता वैसे ही यदि मृत्यु के समय पिडा हो तो भी अविचलित रहता है । सजग सचेत रहता है । अनित्य बोध की चेतना बनी रहती है । ऐसे चित्त-क्षण जब च्युति होती है याने शरीर छुटता  है तो आगले क्षण की प्रतिसंधी याने आगले जीवन का प्रथम चित्त निःसंदेह किसी सद्गती के क्षेत्र मे ही होता है, दुर्गती की किंचित भी आशंका नही । 


जो साधक जब से विपश्यना मिली तब से लेकर शेष जीवन पर्यंत विपश्यना का अभ्यासी रेहता है, वह सदधर्म का पथिक है "ओपनेईको" स्वभाव मृत्यु के क्षण सहाय्यक बनकर उपस्थित हो ही जाता है ।  उन्नत भविष्य सुरक्षित होता है । सद्गती सुनिश्चित होती है ।

इसीलिये सच्चे साधक को मृत्यु का भय नही रहता । वह ना तो जीवन से घृणा करता हुआ मृत्यु की कामना करता है और न ही जीवन से आसक्त होकर मृत्यु से घबराता है । पूर्णतया विश्वस्त रहता है की मृत्यु पदन्नोती है, प्रोमोशन है । अंतः प्रसन्नता का विषय है, शोक का नही , विलाप का नही । विपश्यना साधक जीवन जिने की कला सिखता है । जीवन जिने की कला मे ही मंगल मृत्यु की कला समायी हुई है । फिर भी मरणासन्न विपशयी के निकट जो अन्य साधक हो उन्हे उसकी सहायता करनी चाहिए । सारे वातावरण को समतामयी धर्म चेतना से परिप्लावित रखना चाहिए । यदि कोई अस्थिर चित्त और दुर्बल हृदय का आंसु बहानेवाला व्यक्ती पास हो तो असे सिग्र दूर हट जाना चाहिए ताकि वह मरणासन्न व्यक्ती बहुत पका न हो तो कही अपने परिवार के किसी व्यक्ति को शोकाकुल देखकर स्वयं शोकग्रस्त न हो जाय और अपना परलोक न बिघाड ले । सभी उपस्थित साधको को चाहिये की उस समय मरणासन्न व्यक्ति के आस-पास बैठकर विपश्यना करें । अनित्यबोधनी-चेतना की धर्म तरंगो का प्रजनन करे अथवा रोगी के प्रति मंगल मैत्री करें । उस समय सारा वातावरण धर्म चेतना की विद्युत तरंगो से ही उर्मिल रहना चाहिए । 

मृत्यु के पश्चात कोई भी रोए नही, विलाप नही करे । बल्की मृतक की सद्गती पर चित्त को प्रसन्न ही रखे । उसके प्रति मंगल मैत्री ही प्रजनन करे । उसे अपना पुण्य वितरण ही  करें । इससे मृतक व्यक्ति जहाँ कही जन्मा हो , उसकी चित्तधारा मे धर्म चेतना का ही स्पर्श होता रहे, और परिणामतः उसकी चित्त चेतना प्रशांत, प्रसन्न, प्रफुल्ल रहती रहे । शोक और विलाप करने से अपने चित्त की दुःखजन्य तरंगे  अपने प्रिय मृत व्यक्ती की चित्तधारा को शोक संतप्त करती है । उसे व्याकुल बनाकर उसकी सुख शांती का हनन करती है । न स्वयं शोक संकुल हो और न ही किसी अन्य के शोक का कारण बने । स्वयं प्रसन्न चित्त रहे और अन्य की चित्त-प्रसन्नता का भी कारण बने । मंगल मृत्यु का यही विधान है । 

- मंगल मित्र सत्यनारायण गोयंका 
साभार - विपश्यना पत्रिका वर्ष ९, अंक १२

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आवाहन: मै धम्म सेवक, प्रेमसागर गवळी आपसे विनम्र आवाहन करता हू, इस ऑनलाईन ब्लॉग के माध्यम से मुझे धम्म सेवा करणे का अवसर प्राप्त हुआ । नये, पुराने साधको को इस विपश्यना धम्म ब्लॉग का लाभ मिल रहा है । गुरुजी बताते है धरम का मार्ग मंगल का मार्ग, इस मार्ग मे हर कदम पर कल्याण है । 

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धम्म सेवक होने के नाते वैयक्तिक तौर पे यह अपील की है । 

मंगल हो !
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