किसी ने मुझे ‘विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष श्री अशोक सिंहलजी द्वारा लिखित पुस्तक “श्रीमद्भगवतगीता ही आदि मनुस्मृति” की एक प्रति भेजी। पढ़ कर मन आह्लादित हो उठा। आजकल की प्रचलित मनुस्मृति को उनके द्वारा अस्वीकृत किया गया, यही अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण बात थी।
सचमुच यह ‘मनुस्मृति' ही एक ऐसी पुस्तक है जिसके कारण भारत के दो बड़े समुदायों में इतना बड़ा कटुतापूर्ण विग्रह उठ खड़ा हुआ, जिससे देश की बहुत बड़ी हानि हुई। इसके कारण ही भारतरत्न बाबासाहेब अंबेडकर को इस पुस्तक को सार्वजनिक रूप से जलाने का निर्णय लेना पड़ा।
श्री सिंहलजी द्वारा वर्तमान मनुस्मृति को नकारा जाना ही मेरे लिए उल्लास का कारण बना। उनकी उपरोक्त पुस्तक पढ़ कर मेरे निकट संपर्क में आने वाले ‘विश्व हिंदू परिषद के सहसचिव विपश्यी साधक श्री बालकृष्ण नायक को मैंने जो पत्र लिखा, उसका मुख्य अंश इस प्रकार है: -
लोक-प्रचलित ‘मनुस्मृति' ने हमारे समाज में ऊंच-नीच काजो अमानुषिक, अनैतिक और अधार्मिक विभाजन का गर्हित विधान प्रस्तुत किया, उसे मन-ही-मन गलत समझते हुए भी अपने यहां का कोई नेता खुल कर इसका विरोध नहीं कर सका। कम-से-कम ऐसा मेरे देखने में तो नहीं आया। बल्कि अपने यहां के एक शीर्षस्थ नेता ने तो इसे लोगों की भावना का प्रतीक बताया और इस प्रकार इसे न्यायपूर्ण और मान्य सिद्ध करना चाहा, जो कि मुझे अत्यंत अनुचित ही नहीं, दुःखद प्रतीत हुआ। श्री अशोक सिंहलजी ने इस दिशा में सही कदम उठाया है और मौजूदा मनुस्मृति को गलत साबित कर, समाज-कल्याण का अत्यंत प्रशंसनीय काम किया है।
किसी विशिष्ट जाति की माता की कोख से जन्म लेने मात्र से किसी व्यक्ति को उच्च और महान मान कर पूजें, भले वह तमोगुणी हो और निकृष्टक हो और किसी अन्य जाति कमां की कोख से जन्म लेने मात्र से किसी व्यक्ति को नीच और अस्पृश्य मानें, भले वह सतोगुणी हो और उत्कृष्टकर्मी हो। यह विचारधारा हमारी गौरवमयी उदात्त मानवी संस्कृति की धवल विमल चादर पर ऐसी कलंक-कालिम है जो किसी भी राष्ट्रप्रेमी का सिर लज्जा से नीचा करती है। इस कलंक-कालिम को दूर किए बिना हम अपना सिर ऊंचा नहीं उठा सकते । यह कितनी अमानुषिक विचारधारा है कि किसी पालतू कुत्ते, बिल्ली, गाय, बैल और घोड़े आदि पशु को अथवा तोता, मैना आदि पक्षी को छू कर,सहला कर, पुचकार कर,थपथपा कर हम अपवित्र नहीं हो जाते, परंतु नहा-धो कर स्वच्छ हुए और सदाचार का जीवन जीते हुए किसी मानवपुत्र को छूने से ही नहीं, उसकी छाया पड़ने से भी हम अपवित्र हो जाते हैं। इन पशु-पक्षियों के प्रवेश से हमारे मंदिर, देवालय अपवित्र नहीं हो जाते, परंतु एक स्वच्छ मानवपुत्र के प्रवेश से अपवित्र हो जाते हैं। यह कैसी विडंबनाभरी विकृत मानसिकता है। इसके रहते हम कैसे गर्व कर सकते हैं अपनी गौरवमयी उदात्त संस्कृति पर!
गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस और कवितावली जैसे ग्रंथों की रचना करके जैसे सारे समाज का, वैसे ही मेरा भी बहुत बड़ा कल्याण किया । इन ग्रंथों के पावन पात्रों का जो अनुपम चरित्र चित्रण किया वे देश की गौरवमय पुरातन संस्कृति के उत्कृष्ट आदर्श हैं। इस साहित्य ने देश के करोड़ों लोगों के हृदय पर जो अमिट छाप छोड़ी, वही मेरे मानस पटल पर भी आज तक अंकित है। और सदैव अंकित रहेगी। परंतु राम-कथा की दो बातों ने मेरे मानस को बुरी तरह झकझोरा और व्यथित किया था।
उनमें एक तो यह थी कि निरपराध सीतामाता को गर्भावस्था में, बिना किसी सेविका को साथ दिए और बिना किसी आजीविका का प्रबंध किए, हिंसक पशुओं से भरे वन में निर्दयतापूर्वक अकेली छोड़ दिया जाना। मुझे याद है कि इसे पढ़-सुन कर मैं बहुत व्यथित हुआ था। मेरा भावुक हृदय इस अमानुसिक घटना की कल्पना मात्र से सिहर उठता था। इसे सहन नहीं कर पाता था। उस समय के मेरे आदरणीय गुरुदेव ने मुझे यह कह कर शांत किया था कि यह वास्तविक घटना नहीं है। भगवान राम की पावन कथा में यह घटना बाद में जोड़ी गयी है। इसे सुन कर मैं कुछ आश्वस्त तो हुआ, परंतु फिर भी यह नहीं समझ पाया कि ऐसी गलत बात देश के सभी रामभक्तों ने स्वीकार कैसे कर ली?
दूसरी बात जिसने मुझे अत्यंत विचलित कि या वह थी तुलसीदासजी की यह चौपाई –
पूजेहि विप्र शीलगुणहीना। तदपि न शूद्र गुणज्ञान प्रवीणा ॥
मेरी प्रारंभिक पाठशाला के गुरुदेव पढ़ाई आरंभ करने के पूर्व हमसे प्रतिदिन सामूहिक प्रार्थना करवाते थे। इसके बोल थे -
हे प्रभो आनंददाता, ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को, दूर हम से कीजिए॥
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक, वीर व्रतधारी बनें ॥
उन्होंने अत्यंत कृपापूर्वक हमें सिखाया था कि सदाचरण और सद्गुणमय जीवन ही धर्माचरण है। प्रार्थना के उपरोक्त पद को मैं अपने नित्य प्रति के प्रातःकालीन भजनों में भी प्रमुख स्थान देता था। अतः जब पढ़ा कि बिना शील गुण के भी कोई पूज्य हो सकता है। और शीलवान और गुणवान हो तो भी अपूज्य, तब उन दिनों की बालसुलभ बुद्धि को यह कथन बहुत अटपटा लगा। परंतु इस शंका का भी समाधान करते हुए मेरे गुरुदेव ने समझाया कि यह तुलसीदासजी की अपनी वाणी नहीं है। किसी अन्य व्यक्ति ने इसे रामचरित मानस में जोड़ दी है। इसे महत्त्व नहीं देना चाहिए। मेरे गुरुदेव स्वयं विप्र थे। शील, सदाचार और सद्गुण संपन्न थे। मेरे लिए परम पूज्य थे। अतः उनके कहने पर उन दिनों मेरे लिए इस पद का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह गया था।
परंतु आगे जाकर युवावस्था में हिंदी साहित्य का गंभीर अध्ययन किया और हिंदी के प्रसिद्ध लेखक श्री रामचंद्र शुक्ल का ‘तुलसीदास' नामक आलोचना ग्रंथ पढ़ा तब जाना कि यह पूर्व काल से चली आ रही मान्यता है। उन्होंने चाणक्य नीति के इस श्लोक को उद्धृत किया -
पतितो पि द्विजः श्रेष्ठः, न च शूद्रो जितेन्द्रियः।
इसके साथ-साथ महर्षि दयानन्दजी सरस्वती के ‘सत्यार्थ प्रकाश में भी देखा कि यही श्लोक पाराशर स्मृति में भी दिया गया है। और देखा कि मनुस्मृति तो ऐसी धर्म-विरोधी विचारधारा से भरी पड़ी है। यही नहीं अपने यहां के अनेक पुराणों और स्मृति ग्रंथों में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी प्रसंग में यही दूषित विचारधारा मुखरित हुई है। तब लगा कि जैसे पूज्य राष्ट्रकवि मैथिलीशरणजी ने ठीक ही कहा -
नर कृत शास्त्रों के सब बंधन, हैं नारी ही को लेकर ।
अपने लिए सभी सुविधाएं, पहले से कर बैठे नर ॥
तब मन में यह भाव उठा कि इसी लहजे में मुझको भी यह कह देना चाहिए –
विप्र रचित शास्त्रों के बंधन, हैं शूद्रों को ही लेकर।।
अपने लिए सभी सुविधाएं, पहले से निश्चित ली कर॥
केवल इन धर्म-ग्रंथों में ही नहीं प्रत्युत जब हमारे समाज के व्यावहारिक जीवन में भी ऊंच-नीच और स्पृश्य-अस्पृश्य की घोर अमानवीय विषमता देखी, तब तो मेरे अंतर मन से यह विद्रोह भरी कविता फूट पड़ी –
ब्राह्मण बनिये के घर जन्मे, इससे ही क्या हम हैं महान?
हम उच्च वर्ण, हम सर्वश्रेष्ठ, ऊंचा समाज में बना स्थान ॥
चाहे हों अनपढ़ निपट मूर्ख, फिर भी पंडितजी कहलाएं।
चाहे हों कामी कुटिल किंतु, धर्मावतार का पद पाएं ॥
पुरखों से उनके पल्ले, सेवा का ही भार दिया हमने ।
वे भोले मूक मनुज उनसे, क्या-क्या ना काम लिया हमने ?
हैं अछूत अस्पृश्य नीच, उनको समाज में नहीं स्थान ।
वे जन्मजात पददलित रहें, उनका कैसा मानापमान?
हम उच्च वर्ण हैं, अतः सुरक्षित है हमको सर्वाधिकार ।
मंदिर देवालय धर्मस्थान, ईश्वर तक पर एक अधिकार ॥
सब कुएं बावड़ी अपने हैं, सड़कों तक पर चलने ना दें।
यदि वश चल जाये तो उनको, हम पृथ्वी पवन न छूने दें ॥
मैं पूछ रहा आखिर यह सब, किस न्याय-नीति के बल पर है?
हम बनें धर्म के कर्णधार, पर अनाचार में तत्पर हैं।
मैं सोचा करता कभी-कभी, क्या परमेश्वर भी मिथ्या है?
बह मूक , बधिर-सा रहे देखता, यहां हो रहा क्या-क्या है ?
हम इतना अत्याचार करें, निकले उसकी आवाज नहीं ।
धरती न फटे, नभ ना टूटे, गिरती हम पर क्यों गाज नहीं?
वह ईश नहीं, जगदीश नहीं, वह सच्चा धर्म पुराण नहीं ।
जिसके आदेशों में मानव को, है समता का स्थान नहीं ॥
मेरे मानस में ये विद्रोहभरे भाव 31 वर्ष की उम्र में भगवान बुद्ध की शिक्षा के संपर्क में आने के वर्षों पहले उमड़े थे। भगवान बुद्ध की साधना के बाद जब पहली बार उनकी वाणी में से गुजरा तब यह पढ़ कर भाव विभोर हो उठा -
न जच्चा बसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो ।
कम्मुना वसलो होति, कम्मुना होति ब्राह्मणो ॥
-न जन्म से कोई वृषल (चांडाल) होता है न ही जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। कर्म से ही कोई वृषल (चांडाल) होता है, कर्म से ही होता है ब्राह्मण।
इसे पढ़ते ही भारत की वास्तविक पुरातन गौरवमयी उदात्त संस्कृति के दर्शन हुए।
अपने धर्म-ग्रंथों में कितनी उदात्त भावनाएं भरी हुई हैं। परंतु उनमें कहीं-कहीं ऐसी गंदगी भी बिखरी पड़ी हैं जो उनकी महानता को धूल-धूसरित कर देती हैं। कोई-कोई पुस्तक तो पूरी की पूरी अधार्मिक वक्तव्यों से ही भरी है। स्वर्गीय श्री शेषाद्रीजी से इस विषय में बहुत देर तक बातें होती रहती थीं। उन्होंने स्वीकार किया कि कल्कि पुराण के प्रकाशन और वितरण पर प्रतिबंध लगा दिया जाय। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया था कि अपने धर्म-ग्रंथों में जहां-जहां भगवान बुद्ध अथवा उनकी शिक्षा के बारे में मिथ्या लांछन लगाए हैं, उन्हें क्षेपक कह कर निकाल दिया जाय।
इसी प्रकार राष्ट्रहित के लिए उचित यही है कि आधुनिक काल में प्रचलित मनुस्मृति के प्रकाशन और वितरण पर रोक लगा दी जाय और अपने धर्म-ग्रंथों में जहां-जहां जात-पांत को, ऊंच-नीच को, छूत-अछूत को बढ़ावा देने का वर्णन है अथवा जो भी अन्य अशोभनीय धर्मविरोधी वर्णन हैं, उन्हें क्षेपक कहकर निकाल दिया जाय। निकाल न सकें तो आम जनता तक यह संदेश तो पहुँचे कि हमारे धर्म-ग्रंथों में ये जो अनुचित बातें आई हैं वे सब क्षेपक हैं। हमें मान्य नहीं है। श्री सिंहलजी ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में तथा तत्पश्चात, धर्म के नाम पर ऐसे साहित्य की रचना हुई जो हमारी गौरवमयी संस्कृति के लिए शोभनीय नहीं हैं।
श्री सिंहलजी की पुस्तक पढ़ कर मेरे मन में जो आह्लाद उमड़ा उसका कारण यही था कि हमारे देश के एक प्रतिष्ठित नेता द्वारा किसी गलत मान्यता को सुधारने की एक सही प्रकार की पहल तो हुई। मैं यह भी खूब समझता हूं कि कुछ कट्टरपंथी लोग उनका विरोध भी करेंगे । ऐसे विरोध का सामना श्री सिंहलजी जैसा सबल नेता ही कर सकता है। समाज और राष्ट्र को जोड़े रखने के लिए, उसे बलवान बनाने के लिए इस प्रकार के अन्य अनेक लोक हितकारी कदम उठाने आवश्यक हैं। इस दिशा में यह जो महत्त्वपूर्ण पहला कदम उठा है वह अत्यंत सराहनीय है। इस कल्याणकारी पहल को बढ़ावा मिले, इस निमित्त मेरी प्रबल मंगल कामना है, सुभाशिष है ।
सत्यनारायण गोयन्का
मार्च 2006 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित.
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