🌹Vipassana Students Meet with the Venerable Webu Sayadaw 🌹
(जनवरी, 1976 में श्री गोयन्काजी के कुछ पाश्चात्य शिष्य (पुराने साधक), सयाजी की पांचवीं पुण्यतिथि पर, सयाजी के ध्यान केंद्र में ध्यान करने के लिए रंगून (बर्मा) गये थे। उस दौरान वे भदंत वेबू सयाडो से मिले और उनके विचार उन्होंने किसी अनुवादक की सहायता से समझा।)
अनुवादकः ये सब पंद्रह विदेशी स्त्री-पुरुष श्री गोयन्काजी के शिष्य हैं। आज (19 जनवरी, 1976) सयाजी की पांचवीं पुण्यतिथि है। आज प्रातःकाल पचास भिक्षुओं को नाश्ता दिया गया है और लगभग डेढ़ सौ साधकों को भोज पर आमंत्रित किया गया है। केंद्र पर विपश्यना शिविर करने के लिए इनका आवागमन महीने भर से चल रहा है। ये लोग केवल सात दिन के लिए बर्मा में रह सकते हैं। इसलिए सात दिन ध्यान करके बैंकॉक या कलकत्ता जा कर, यहां वापस आते हैं। इनमें से कुछ लोगों की यह दूसरी यात्रा है। तीसरी यात्रा में और भी अधिक लोग आयँगे। सयाजी की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में पूरे महीने के लिए ध्यान शिविर का आयोजन हुआ है। ये लोग विभिन्न राष्ट्रों- अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया से आये हैं और एक साधक मलेशिया से।
वेबू सयाडोः यह बिल्कुल हमारे भगवान बुद्ध के समय के जैसा है। तब भी वे सब भगवान बुद्ध के समक्ष एक ही समय आये थे। एक देश से नहीं, एक शहर से नहीं, एक जगह से नहीं, बल्कि विभिन्न देशों और शहरों से-- सभी पारमीसंपन्न लोग भगवान की वंदना करने एक साथ, एक ही जगह भगवान के समक्ष आये थे। मनुष्य हो या देव, कोई भी प्राणी उनकी वंदना करते थकते नहीं थे। प्रसन्न चित्त से उन लोगों ने बड़ी श्रद्धा से उनकी आराधना और साधना की।
सभी जीवों के प्रति असीम प्रेम, दया और करुणा का भाव रखने वाले भगवान बुद्ध ने उन्हें मार्ग दिखाया था। अच्छे और अनुशासनशील शिष्य होने के कारण उन्होंने विनीत होकर उनके उपदेशों का अनुसरण किया और जीवन में उतारा। ‘संसार' (जन्म-मरण-चक्र) में हताशा से भटकते, बाहर निकलने का मार्ग ढूंढते हुए वे अब अपनी अंतिम भव-यात्रा तक पहुँचे थे। जिसकी खोज वे संसार-संसरण करते हुए कर रहे थे, उसे अब पा लिया था। ऐसे अनगिनत लोगों ने भगवान के उपदेश के अनुसार चल कर निब्बान (निर्वाण) का साक्षात्कार किया था।
आप लोग भी उन्हीं पुराने जमाने के मुमुक्षुओं की भांति हैं। आप भी वही पाना चाहते हैं जो उन्होंने पाया था। आप में भी वही उदात्त उत्साह और तत्परता है तभी तो ऐसी पावन भूमि पर आ पाये। सभी करणीयों को करते हुए, बिना समय गंवाये यदि धर्म के अनुसार विनम्र और विनीत भाव से यह कठिन साधना करते रहे तो आप लोग जिस पावन जीवन के परम लक्ष्य के लिए प्रयासरत हैं, उसे निस्संदेह अवश्य प्राप्त करेंगे।
क्या मेरी बातें इनकी समझ में आयीं ? मुझे तो नहीं लगता।
अनुवादकः शायद एक या दो समझ पाए, भदंत। उन्होंने अमेरिका में थोड़ी-बहुत बर्मी भाषा सीखी थी। । सयाडो: सच, बहुत अच्छा! मुझे खुशी हुई। जो समझते हैं वे भगवान के उपदेशों को दूसरों तक पहुँचा सकते हैं। इस प्रकार कई लोगों को लाभ मिलेगा। है न ? तो महानुभाव! यदि आप को बर्मी भाषा और मेरी बात थोड़ी बहुत भी समझ में आती है तो बहुत काम की है। भगवान की बातों को थोड़ा भी समझ लें तो बहुत लाभ होगा। भगवान के बोले शब्द थोड़े होने पर भी थोड़े नहीं होते। उनका महत्त्व बहुत है।
कुछ है, जिसे पाने का प्रयास करते हुए आप ‘संसार' (संसार-चक्र) में भटकते रहे। यदि आप भगवान के उपदेशों को समझेंगे और उनके अनुसार चलेंगे तो उसे प्राप्त कर ही लेंगे जिसकी खोज में आप आये हैं। वह क्या है। जिसे आप अभी और हमेशा से चाहते हैं? ‘अभी से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा तात्पर्य है निकटतम वर्तमान, अर्थात यही क्षण।
आप सभी इसी क्षण सुख चाहते हैं; दु:ख से छुटकारा चाहते हैं; है न? और चाहते हैं कि 'संसार में सुख ही मिले। 'संसार में संसरण का अर्थ है। कि आप हर समय जरा, रोग और मृत्यु के अधीन हैं। इसका मतलब है घोर दु:ख। आप सब जरा, रोग और मृत्यु से भयभीत हैं; हैं कि नहीं? हां, आप डरते हैं, मैं जानता हूँ।
वास्तव में आप वहां जाना चाहते हैं, जहां ये दुःख नहीं हों। एक ऐसा स्वर्ग जहां दु:ख बिल्कुल नहीं हो। जहां जरा, रोग और मृत्यु आदि दु:खों का पूर्ण निरोध हो। संक्षेप में कहें तो ‘निब्बान’ (निर्वाण) सुख चाहते हैं। यही है। जिसके लिए आप प्रयत्न कर रहे हैं। यदि आप विनम्र और विनीत भाव से भगवान के उपदेशों का पालन करेंगे तो अपने लक्ष्य को पा ही लेंगे। है न?
आप सभी इसी क्षण सुख चाहते हैं; दु:ख से छुटकारा चाहते हैं; है न? और चाहते हैं कि 'संसार में सुख ही मिले। 'संसार में संसरण का अर्थ है। कि आप हर समय जरा, रोग और मृत्यु के अधीन हैं। इसका मतलब है घोर दु:ख। आप सब जरा, रोग और मृत्यु से भयभीत हैं; हैं कि नहीं? हां, आप डरते हैं, मैं जानता हूँ।
वास्तव में आप वहां जाना चाहते हैं, जहां ये दुःख नहीं हों। एक ऐसा स्वर्ग जहां दु:ख बिल्कुल नहीं हो। जहां जरा, रोग और मृत्यु आदि दु:खों का पूर्ण निरोध हो। संक्षेप में कहें तो ‘निब्बान’ (निर्वाण) सुख चाहते हैं। यही है। जिसके लिए आप प्रयत्न कर रहे हैं। यदि आप विनम्र और विनीत भाव से भगवान के उपदेशों का पालन करेंगे तो अपने लक्ष्य को पा ही लेंगे। है न?
वह सफलता, जिसके लिए हमेशा तरसते रहे; उसे पाकर आप अपना कार्य संपन्न कर लेंगे। हो सकता है आप एक छोटे और संक्षिप्त उपदेश से बहुत
कम समझ पाये हों। लेकिन आप लगन से उसका पालन करेंगे तो उपलब्धि छोटी नहीं होगी। वह उपलब्धि जिसके लिए आप सदियों से प्रयासरत रहे हैं। तो क्या इस उपलब्धि को छोटी मान लें? कभी नहीं? यह वास्तव में एक महान उपलब्धि है।
कम समझ पाये हों। लेकिन आप लगन से उसका पालन करेंगे तो उपलब्धि छोटी नहीं होगी। वह उपलब्धि जिसके लिए आप सदियों से प्रयासरत रहे हैं। तो क्या इस उपलब्धि को छोटी मान लें? कभी नहीं? यह वास्तव में एक महान उपलब्धि है।
उपदेश चाहे जितने ही छोटे और संक्षिप्त क्यों न हों, यदि आप उन्हें अनुभूति से समझ लेंगे और सतर्कता व निरंतरता से उनके अनुसार चलेंगे तो आनंद आपको मिलेगा ही। सारे विश्व का, समस्त मानव-जाति का कल्याण होगा, सारे देव-ब्रह्माओं का कल्याण होगा। उपदेश के छोटे होने पर भी उपलब्धि महान है। आप जो चाहते थे, वह मिल गया। क्या ऐसा नहीं है? बिल्कुल है। तो महानुभाव, आप उस छोटे उपदेश पर चल कर उसका अभ्यास कर सकते हैं? कर सकते हैं न? हां, बहुत अच्छा!
आप लोगों के जैसे ही भगवान बुद्ध के समय भी कई लोग शाश्वत सुख-शांति की खोज में भटक रहे थे। बल्कि यों कहें कि भगवान के आविर्भाव के पहले से ही बहुत लोग इसी खोज में थे। वे कौन थे? आह! आप कह सकते हैं, सारा संसार। लेकिन मैं आपके लिए सारिपुत्त और मोग्गल्लान का एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूं। यह उन पावन पुरुषों की जोड़ी है जो आगे चल कर भगवान के प्रमुख शिष्य बने। आप लोग उनकी प्रव्रज्या के बारे में जानते होंगे।
सारिपुत्त और मोग्गलान अमृत-तत्त्व की खोज में पवित्र परिव्राजक का जीवन बिता रहे थे। सारिपुत्त पहले व्यक्ति थे जो भगवान से सबसे पहले ‘धम्म’ सुनने वाले पंचवर्गीय भिक्षुओं में से एक के संपर्क में आये। परिव्राजक सारिपुत्त ने उन्हें भिक्षाटन करते देखा। उनकी सभी इंद्रियों को सौम्य, शांत और शरीर-वर्ण को स्वच्छ तथा आभापूर्ण देख कर सारिपुत्त तुरंत जान गये कि ये महानुभाव उस ज्ञान मार्ग को अवश्य जानते हैं, जिसकी वे खोज कर रहे हैं।
भिक्षाटन पूरा होने तक सारिपुत्त उनके पीछे-पीछे चले और भोजन करने के लिए उन्हें अकेले छोड़ दिया। भोजन पूरा होने तक वे उचित दूरी पर रह कर प्रतीक्षा करते रहे। उसके बाद उनके पास जाकर अभिवादन करके पूछा कि उनके गुरु कौन हैं और वे क्या ‘धम्म' सिखाते हैं?(पिटकों में यह सब है, पर मैं आपको संक्षिप्त विवरण बता रहा हूं।)
भिक्षाटन पूरा होने तक सारिपुत्त उनके पीछे-पीछे चले और भोजन करने के लिए उन्हें अकेले छोड़ दिया। भोजन पूरा होने तक वे उचित दूरी पर रह कर प्रतीक्षा करते रहे। उसके बाद उनके पास जाकर अभिवादन करके पूछा कि उनके गुरु कौन हैं और वे क्या ‘धम्म' सिखाते हैं?(पिटकों में यह सब है, पर मैं आपको संक्षिप्त विवरण बता रहा हूं।)
उन पावन भिक्षु ने बताया कि वे अपने शास्ता भगवान 'बुद्ध' से प्रव्रजित हुए हैं और उन्हीं के ‘धम्म' को मानते हैं। जब सारिपुत्त ने ‘धम्म' का वर्णन करने के लिए अनुरोध किया तब उन्होंने कहा, ''मैं अभी-अभी प्रव्रजित होकर ‘धम्म-विनय' के संपर्क में आया हूं, अतः आपको पूरा ‘धम्म' नहीं सिखा सकता। मैं उसका सार संक्षिप्त रूप में बताता हूं। भगवान इसी शहर में हैं, आप विस्तृत धम्म उन्हीं से सीखें।''
वे पावन भिक्षु वास्तव में अरहंत थे, जो पूरे ‘धम्म' को जानते होंगे; लेकिन विनम्रता के कारण उन्होंने कहा कि वे बहुत कम जानते हैं। तब सारिपुत्त- जो आगे चल कर ‘धम्म' के सर्वोच्च प्रतिनिधि बने, ने कहा कि वे भगवान के ‘धम्म' को थोड़े से शब्दों में अभी सुनना चाहते हैं।
भिक्षु ने उनकी विनती स्वीकार की। उन्होंने उन्हें सिर्फ सार बताया। कितना? इतना छोटा कि वह पूरा एक पद्य-पाद भी नहीं था। जब सारिपुत्त ने धम्म की इस छोटी टिप्पणी को सुना तो कहा, उनके लिए यह पर्याप्त था। क्योंकि उसका थोड़ा भाग सुनते ही वे दोषरहित शुद्ध धर्म को अंतर्मुखी होते ही स्वानुभव से जान गये थे। वह उपदेश बहुत छोटा था पर सारिपुत्त की समझ छोटी नहीं थी। वे धम्म को ठीक से समझ गये थे।
वे पावन भिक्षु वास्तव में अरहंत थे, जो पूरे ‘धम्म' को जानते होंगे; लेकिन विनम्रता के कारण उन्होंने कहा कि वे बहुत कम जानते हैं। तब सारिपुत्त- जो आगे चल कर ‘धम्म' के सर्वोच्च प्रतिनिधि बने, ने कहा कि वे भगवान के ‘धम्म' को थोड़े से शब्दों में अभी सुनना चाहते हैं।
भिक्षु ने उनकी विनती स्वीकार की। उन्होंने उन्हें सिर्फ सार बताया। कितना? इतना छोटा कि वह पूरा एक पद्य-पाद भी नहीं था। जब सारिपुत्त ने धम्म की इस छोटी टिप्पणी को सुना तो कहा, उनके लिए यह पर्याप्त था। क्योंकि उसका थोड़ा भाग सुनते ही वे दोषरहित शुद्ध धर्म को अंतर्मुखी होते ही स्वानुभव से जान गये थे। वह उपदेश बहुत छोटा था पर सारिपुत्त की समझ छोटी नहीं थी। वे धम्म को ठीक से समझ गये थे।
महाशय! अब आप ने भी उतना ही कम समझा है, है न?
ठीक है, परंतु यदि आप भगवान के उपदेश के अनुसार चलेंगे, उनका पालन करेंगे तो आपकी उपलब्धि भी महान होगी।
मैं आपकी भाषा में तो नहीं बोल सकता, लेकिन आप थोड़ा भी समझे हों तो उसे अपने दोस्तों को बताइये। वे भी ‘धम्म' के बारे में थोड़ा बहुत जान जायँगे। क्या आप ऐसा करेंगे? मुझे विश्वास है, आप करेंगे।
ठीक है, परंतु यदि आप भगवान के उपदेश के अनुसार चलेंगे, उनका पालन करेंगे तो आपकी उपलब्धि भी महान होगी।
मैं आपकी भाषा में तो नहीं बोल सकता, लेकिन आप थोड़ा भी समझे हों तो उसे अपने दोस्तों को बताइये। वे भी ‘धम्म' के बारे में थोड़ा बहुत जान जायँगे। क्या आप ऐसा करेंगे? मुझे विश्वास है, आप करेंगे।
आप सब ने बहुत-सी पारमियां इकट्ठी की हैं इसीलिए आप भिन्न-भिन्न सुदूर देशों एवं प्रदेशों से यहां आये हैं। यह आपकी पारमी ही है। इसलिए आप एक ही समय, एक साथ यहां आये हैं। यहां आने के बाद आप धम्म के बारे में जानना चाहते हैं। धम्म को सुना और बुद्ध के उपदेशों को सीखा। परंतु मात्र सुनने से ही संतृप्त न हों, बल्कि आप उसका गहन अभ्यास करते हुए दृढ़ता से साधना करें और मार्ग पर चलना प्रारंभ करें। आप आवश्यक ‘विरिय' (वीर्य, प्रयत्न) लगायेंगे तो उसका फल भी अवश्य पायँगे। अभी भी, निःसंदेह आप जानते हैं कि आपको अपनी लगन और प्रयत्न के अनुरूप फल मिल रहा है। है न? ।
आप सब यहां इसलिए हैं कि आपने इसके लिए आवश्यक पारमियों का समुपार्जन किया है। भगवान ने कहा था कि यदि आप धम्म के साथ रहेंगे और उसके साथ चलेंगे तो आप बुद्ध के बहुत समीप हैं। यद्यपि शरीर से आप उनसे बहुत दूर, विश्व के दूसरे कोने में ही क्यों न रहते हों। दूसरी ओर, आप उनके इतना निकट रहते हों कि उनके चीवर को छू लें, फिर भी उनके उपदेश के अनुसार चलें नहीं, उनके द्वारा बताये गये धम्ममार्ग का अनुपालन नहीं करें तो आप उनसे बहुत दूर है। आप दर-सुदर के अमुक-अमुक देशों में रहते हैं, फिर भी आप भगवान के बहुत करीब हैं, उनके साथ ही हैं। और यदि आप उचित विनीतभाव, श्रद्धा और लगन से उनके उपदेशों का पालन करेंगे तो आप अपनी चाहत ‘निर्वाण को पा ही लेंगे। आप उस लक्ष्य को हासिल कर ही लेंगे, जिसके लिए संसार में भटक रहे हैं।
इस मार्ग पर चल कर ‘निर्वाण' का साक्षात्कार करने वाले अनगिनत लोग हैं। वैसे ही अलग-अलग देशों से, शहरों से इस पावन भूमि पर एक साथ आने वाले आप सभी पावन जन भी उन्हीं की भांति हैं। यदि आप पर्याप्त ‘विरिय’ लगा कर विनम्रता और परिश्रम से साधना करेंगे तो आप भी अपने
लक्ष्य तक पहुँच ही जायेंगे। क्या आप सभी अवस्थाओं में बिना विराम के साधना कर पाये? चाहे लेटे हों, बैठे हों, चल रहे हों या खड़े हों! क्या आपने इस प्रकार बिना विराम के साधना की? अथवा हर समय कोशिश कर रहे हैं या नहीं?
लक्ष्य तक पहुँच ही जायेंगे। क्या आप सभी अवस्थाओं में बिना विराम के साधना कर पाये? चाहे लेटे हों, बैठे हों, चल रहे हों या खड़े हों! क्या आपने इस प्रकार बिना विराम के साधना की? अथवा हर समय कोशिश कर रहे हैं या नहीं?
साधकः (हंसी), नहीं, सातत्य नहीं है।
-- परंतु इस प्रकार ‘विरिय' के साथ सतत साधना करना कठिन या मुश्किल नहीं है। इससे कोई पीड़ा भी नहीं होती। (हंसी) यदि आप पूर्ण ‘विरिय' के साथ साधना करते हों तो क्या यह आनंददायी नहीं होती?
-- हां, होती है।
-- क्या आप बिना साधना के प्रसन्नता महसूस करेंगे?
-- नहीं।
-- आपको क्या चाहिए, खुशी या गम? (हंसी)
साधकः भंतेजी, हमारी ‘समाधि' (ध्यान) हवा में रखे दीपक की लौ की भांति है। प्रयत्न, सजगता और एकाग्रता न हो पाना हमारी समस्या है। हमारी ‘समाधि’ बहुत दुर्बल है।
-- यदि आप प्रयासरत हैं तो प्रगति ही कर रहे हैं। एकमात्र जरूरी बात यही है कि कोशिश करना नहीं छोड़ें! ‘विरिय’ के साथ परिश्रमपूर्वक काम करें। आप जानते हैं 'विरिय’ क्या है?
साधकः सम्यक प्रयत्न।
-- हां, पुराने समय के आर्य जनों ने ‘विरिय’ के साथ अविराम साधना किया और उन्हें सुख मिला। यदि आप भी अनवरत सावधानीपूर्वक भगवान के उपदेशों के अनुसार चलेंगे तो आप अपनी उदात्त आकांक्षाओं का फल अवश्य पायँगे। एक ही बात याद रखें कि बिना बाधा के प्रयत्न करें तो सुख तुरंत मिलेगा। आपको बर्मा आये कितने घंटे हुए?
साधकः चौबीस घंटे।
-- जब आप यहां आये, तब से आपने पूरा-पूरा प्रयत्न किया?
साधकः हर घंटे तो नहीं।
-- जिन घंटों में आपने साधना की, उस समय आप खुश नहीं थे?
साधक: खुश थे। परंतु भंतेजी, ध्यान करते-करते कभी-कभी मैं सो जाता हूं। तब मुझे खुशी नहीं होती।
-- परम सुख उसी के अंतर में प्रवेश पा सकता है जो पूरे प्रयत्न से प्रयास करता है। क्या प्रयास मुश्किल है? यदि वह कठिन और बहुत पीड़ादायी न हो तो आप विश्राम न करें, लगातार काम करते ही रहें।
-- परंतु इस प्रकार ‘विरिय' के साथ सतत साधना करना कठिन या मुश्किल नहीं है। इससे कोई पीड़ा भी नहीं होती। (हंसी) यदि आप पूर्ण ‘विरिय' के साथ साधना करते हों तो क्या यह आनंददायी नहीं होती?
-- हां, होती है।
-- क्या आप बिना साधना के प्रसन्नता महसूस करेंगे?
-- नहीं।
-- आपको क्या चाहिए, खुशी या गम? (हंसी)
साधकः भंतेजी, हमारी ‘समाधि' (ध्यान) हवा में रखे दीपक की लौ की भांति है। प्रयत्न, सजगता और एकाग्रता न हो पाना हमारी समस्या है। हमारी ‘समाधि’ बहुत दुर्बल है।
-- यदि आप प्रयासरत हैं तो प्रगति ही कर रहे हैं। एकमात्र जरूरी बात यही है कि कोशिश करना नहीं छोड़ें! ‘विरिय’ के साथ परिश्रमपूर्वक काम करें। आप जानते हैं 'विरिय’ क्या है?
साधकः सम्यक प्रयत्न।
-- हां, पुराने समय के आर्य जनों ने ‘विरिय’ के साथ अविराम साधना किया और उन्हें सुख मिला। यदि आप भी अनवरत सावधानीपूर्वक भगवान के उपदेशों के अनुसार चलेंगे तो आप अपनी उदात्त आकांक्षाओं का फल अवश्य पायँगे। एक ही बात याद रखें कि बिना बाधा के प्रयत्न करें तो सुख तुरंत मिलेगा। आपको बर्मा आये कितने घंटे हुए?
साधकः चौबीस घंटे।
-- जब आप यहां आये, तब से आपने पूरा-पूरा प्रयत्न किया?
साधकः हर घंटे तो नहीं।
-- जिन घंटों में आपने साधना की, उस समय आप खुश नहीं थे?
साधक: खुश थे। परंतु भंतेजी, ध्यान करते-करते कभी-कभी मैं सो जाता हूं। तब मुझे खुशी नहीं होती।
-- परम सुख उसी के अंतर में प्रवेश पा सकता है जो पूरे प्रयत्न से प्रयास करता है। क्या प्रयास मुश्किल है? यदि वह कठिन और बहुत पीड़ादायी न हो तो आप विश्राम न करें, लगातार काम करते ही रहें।
साधकः यदि वह कठिन और पीड़ादायी हो तो?
-- जब आप लगन से साधना करते हैं तो क्या ऐसी अनुभूति होगी जिससे पीड़ा हो?
साधकः साधना करने में पीड़ा हो सकती है लेकिन उसका फल पीड़ादायी नहीं होगा।
-- बिल्कुल ठीक। वीर्य के साथ उद्यम करने का लक्ष्य क्या सुख पाना नहीं? सुख तो अवश्य मिलेगा, तो उद्यम करना क्या पीड़ादायी है?
साधकः पीड़ा तो तब होती है जब हम सो जाते हैं।
-- नींद कब आती है? ‘वीर्य’ कम होने से कि ज्यादा होने से? आपको चाहिए कि अपने सारे के सारे वीर्य का प्रयोग करें।
साधकः यहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति के पास थोड़ा बहुत ‘विरिय' है, लेकिन हमेशा नहीं रहता।
-- ‘विरिय’ प्रत्येक के पास है। उसका कुछ भाग आप भविष्य के लिए बचा कर तो नहीं रख रहे? (हंसी), क्या आप पूरा प्रयत्न कर रहे हैं, जितना आप सचमुच कर सकते हैं?
साधकः मैं हर क्षण ऐसा नहीं कर सकता। कभी-कभी सो जाता हूं।
-- सो जाना ‘थिनमिद्ध' (आलस्य, सुस्ती) है। यह कब होता है? ‘विरिय’ कम होने पर कि ज्यादा होने पर?
साधकः ‘विरिय' के कम होने पर।
-- तो क्या अपने मन को नियंत्रित करने के लिए प्रयासरत हैं? यदि आप भगवान बुद्ध के उदात्त उपदेशों के अनुसार चलने के लिए प्रयासरत हैं तो आपको कम ‘विरिय’ की आवश्यकता है कि ज्यादा?
साधकः बहुत ज्यादा भंतेजी!
-- जब आप लगन से साधना करते हैं तो क्या ऐसी अनुभूति होगी जिससे पीड़ा हो?
साधकः साधना करने में पीड़ा हो सकती है लेकिन उसका फल पीड़ादायी नहीं होगा।
-- बिल्कुल ठीक। वीर्य के साथ उद्यम करने का लक्ष्य क्या सुख पाना नहीं? सुख तो अवश्य मिलेगा, तो उद्यम करना क्या पीड़ादायी है?
साधकः पीड़ा तो तब होती है जब हम सो जाते हैं।
-- नींद कब आती है? ‘वीर्य’ कम होने से कि ज्यादा होने से? आपको चाहिए कि अपने सारे के सारे वीर्य का प्रयोग करें।
साधकः यहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति के पास थोड़ा बहुत ‘विरिय' है, लेकिन हमेशा नहीं रहता।
-- ‘विरिय’ प्रत्येक के पास है। उसका कुछ भाग आप भविष्य के लिए बचा कर तो नहीं रख रहे? (हंसी), क्या आप पूरा प्रयत्न कर रहे हैं, जितना आप सचमुच कर सकते हैं?
साधकः मैं हर क्षण ऐसा नहीं कर सकता। कभी-कभी सो जाता हूं।
-- सो जाना ‘थिनमिद्ध' (आलस्य, सुस्ती) है। यह कब होता है? ‘विरिय’ कम होने पर कि ज्यादा होने पर?
साधकः ‘विरिय' के कम होने पर।
-- तो क्या अपने मन को नियंत्रित करने के लिए प्रयासरत हैं? यदि आप भगवान बुद्ध के उदात्त उपदेशों के अनुसार चलने के लिए प्रयासरत हैं तो आपको कम ‘विरिय’ की आवश्यकता है कि ज्यादा?
साधकः बहुत ज्यादा भंतेजी!
-- हां, एक बच्चे को हिमालय पर चढ़ने में ज्यादा समय लगेगा। उसे भरसक प्रयास करना पड़ेगा, फिर भी वह कभी-कभी फिसलता रहेगा। हम सब हिमालय पर चढ़ने का प्रयास करने वाले बच्चों की भांति हैं, इसलिए समय-समय पर फिसलते रहेंगे। जब आप जान जायँ कि गिर रहे हैं तो आपको ‘सति' (जागरूकता) के साथ पुनः प्रयत्न करना होगा।
साधकः हमारी ‘सति’ हवादार कमरे में रखे दीपक की लौ की भांति है। क्या यह कभी स्थिर नहीं होगी?
-- यदि आप बंद कमरे में रहते हैं जहां हवा का प्रवेश नहीं हो सकता तो क्या लौ झिलमिलायेगी? अर्थात आपको उस जगह रहना होगा जहां हवा न जा सके। यानी, व्यवधान कम-से-कम हो।
साधक: हमें वैसी जगह कहां मिलेगी?
-- ‘विरिय’! यदि आप दूसरी जगह से यहां आना चाहते हैं तो क्या आपको प्रयास नहीं करना पड़ेगा? अपने आपसे पूछिये, आप यहां जल्दी आना चाहते हैं कि धीरे-धीरे?
साधकः जल्दी।
-- यदि आप जल्दी आना चाहते हैं तो क्या आप धीरे चलेंगे? साधक: नहीं।
-- जल्दी आना चाहने वालों को कोई धीरे से चलने को कह सकता है? अब आप समझे? आप सबके पास बहुत ‘विरिय' है, बहुत; इसलिए आप इतनी दूर से आये हैं। आप उस संपूर्ण ‘विरिय’ को लगायें। आप उसमें से थोड़ा भी अलग रखेंगे तो क्या शत्रु (थिनमिद्ध) हावी नहीं हो जायगा? यदि संपूर्ण ‘विरिय’ का उपयोग करेंगे तो फल क्या होगा?
साधक: हमारी आकांक्षाओं की पूर्ति होगी।
-- यदि कोई अपने ‘विरिय’ के कुछ भाग को अलग रखे बिना, संपूर्ण भाग के साथ साधना करे तो जिस प्रकार पुराने जमाने के आर्यजनों ने अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति की थी, उसी प्रकार आप की कामनाएं भी निश्चित रूप से सच हो जायँगी। आप सब का मंगल हो!
साधकः हमारी ‘सति’ हवादार कमरे में रखे दीपक की लौ की भांति है। क्या यह कभी स्थिर नहीं होगी?
-- यदि आप बंद कमरे में रहते हैं जहां हवा का प्रवेश नहीं हो सकता तो क्या लौ झिलमिलायेगी? अर्थात आपको उस जगह रहना होगा जहां हवा न जा सके। यानी, व्यवधान कम-से-कम हो।
साधक: हमें वैसी जगह कहां मिलेगी?
-- ‘विरिय’! यदि आप दूसरी जगह से यहां आना चाहते हैं तो क्या आपको प्रयास नहीं करना पड़ेगा? अपने आपसे पूछिये, आप यहां जल्दी आना चाहते हैं कि धीरे-धीरे?
साधकः जल्दी।
-- यदि आप जल्दी आना चाहते हैं तो क्या आप धीरे चलेंगे? साधक: नहीं।
-- जल्दी आना चाहने वालों को कोई धीरे से चलने को कह सकता है? अब आप समझे? आप सबके पास बहुत ‘विरिय' है, बहुत; इसलिए आप इतनी दूर से आये हैं। आप उस संपूर्ण ‘विरिय’ को लगायें। आप उसमें से थोड़ा भी अलग रखेंगे तो क्या शत्रु (थिनमिद्ध) हावी नहीं हो जायगा? यदि संपूर्ण ‘विरिय’ का उपयोग करेंगे तो फल क्या होगा?
साधक: हमारी आकांक्षाओं की पूर्ति होगी।
-- यदि कोई अपने ‘विरिय’ के कुछ भाग को अलग रखे बिना, संपूर्ण भाग के साथ साधना करे तो जिस प्रकार पुराने जमाने के आर्यजनों ने अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति की थी, उसी प्रकार आप की कामनाएं भी निश्चित रूप से सच हो जायँगी। आप सब का मंगल हो!
🌹 [वेबू सयाडो दूसरों से बातें ज्यादा नहीं करते थे; लेकिन मेरे साथ उन्होंने बहुत बातें कीं। उन्होंने कहा था, “तुम्हारे पास पारमी है। तुम्हें ‘सासन’ की वृद्धि करनी होगी। याद रखो; ‘सासन' की वृद्धि करने का अर्थ है, किसी को आर्य अष्टांगिक मार्ग पर आरूढ़ करना अर्थात उसे शील समाधि और प्रज्ञा में प्रस्थापित करना। इसी को ‘सासन' की वृद्धि कहते हैं। भिक्षुओं को विहार, भोजन, वस्त्र और दवाइयां जैसी जरूरी चीजें देना ‘सासन' की सहायता करने के लिए है। यह केवल ‘सासनानुकूल’ कार्य है, ‘सासन' को फैलाना नहीं। तुम्हें तो ‘सासन' को फैलाना है। देर मत करो। अभी करो। यदि तुम देर करोगे तो तुम्हारे संपर्क में रहे लोग धर्मलाभ से वंचित होंगे। इसलिए अभी शुरू करो।” जब मैं स्टेशन वापस आया तो मैंने वहीं, रेल के डिब्बे में उप-स्टेशन मास्टर को सिखाना शुरू कर दिया था, जो मेरे साथ था। तब से मैं ध्यान का आचार्य बना था।]
- सयाजी ऊ बा खिन (सयाजी ऊ बा खिन जर्नल (हिंदी) से साभार)
- सयाजी ऊ बा खिन (सयाजी ऊ बा खिन जर्नल (हिंदी) से साभार)
जनवरी 2018 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
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🌹Vipassana Students Meet with the Venerable Webu Sayadaw 🌹
(In January 1976, on the fifth anniversary of Sayagyi’s demise, a number of Goenkaji’s Western Vipassana students travelled to Rangoon, Burma to meditate at Sayagyi’s centre. During their stay, they met at Shwedagon Pagoda with the Venerable Webu Sayadaw, whose remarks were conveyed through a translator.)
Translator: These are the disciples of Goenkaji fifteen foreign disciples, men and women. Today [19 January 1976] is the fifth anniversary of Sayagyi U Ba Khin’s death. Fifty monks were offered breakfast very early this morning, and about one hundred and fifty disciples were invited to the feeding ceremony. These foreign disciples have been coming during the whole month for their Vipassana courses at the Centre. These people can stay in Burma only for seven days. So they do meditation for seven days, leave for Bangkok or Calcutta, and then come back here again. Some of them are on their second trip. More will be coming for a third trip. The meditation course is arranged for the whole of this month to commemorate the passing away of Sayagyi. Some of the students are from America, some from England, France and New Zealand – very far away places, representing many nationalities. Some have come from Australia, and there is one disciple from Malaysia.
Webu Sayadaw: This is just like the time of our Lord Buddha. Then, also, they arrived at the presence of the Buddha, all at the same time. Not from the same country, not from the same town, the same place; but from different countries, different towns – all men of noble hearts, arriving simultaneously at the same place to pay respect to Lord Buddha. Noble beings, whether human or celestial, never tired in giving homage to the Lord Buddha. Gladdened at heart, they worshipped the Buddha in great adoration. The Buddha, having unbounded love, pity and compassion for all beings, showed them the way. They followed and practised his teachings with meekness and in all humility, being good and disciplined students. Wandering forlornly throughout the whole of samsara (cycle of rebirths), looking for a way out, they had now reached the end of their journey, they had now found what they had been searching for during the whole of samsara. Innumerable are those who have attained Nibbana (freedom from suffering) by following Buddha’s advice.
Now you all are just like those seekers of the old days. And, just like them, if you are determined to acquire what they did and if you are equipped with the noble zeal and earnestness, having now reached a place of sanctity where Buddha’s teachings are perpetuated, doing all that is necessary to be done, following the teachings with meekness and humility, without wasting time, working hard in this way you will achieve what you have been working for, the supreme goal of the holy life. This is something you should all feel happy about. Do they understand what I have said? I wonder if they do.
Translator: One or two might understand, Sir. They have learned some Burmese in America.
Sayadaw: Have they really? Well, very good! I am glad. The ones who understand can then pass on the teachings of the Buddha to the rest, thus benefiting many. Isn’t it so? Who is the one who can speak Burmese fluently? So, disciple, you understand Burmese, you understand me? Only a little? Well, a little will be useful! Understanding even a little of what Buddha taught will be of great help. Just a few of the Buddha’s words are not really little. They mean a great deal. There is something that you have longed for and worked for throughout samsara. When you understand the teachings of Buddha and follow his advice, you will achieve what you have been looking for.
Now, what is it that you all wish to gain, for now, and for always, throughout endless samsara? What do I mean by ‘now’? I mean the immediate present – right this moment. You all want happiness, relief from suffering, right now – don’t you all? And you all want to be assured of happiness in samsara, too. Well, during all your rebirths in samsara you are all the time subjected to old age, illness and death. It means great suffering. You all are all afraid of old age, illness and death, aren’t you? Yes, you all are, I’m sure. Being frightened, you don’t want to have anything to do with that, do you? What you really long for is a place where these sufferings don’t exist, a place of happiness because these sufferings are absent, where old age, illness and death are unknown. Where all these sufferings cease – in short, Nibbana. This is what you are striving for. If you follow Buddha’s instructions with due meekness and in all humility, you will achieve your goal, won’t you? You will have accomplished all your work, having gained success, having gained what you have always longed for.
So, what you understand may be very little, only a short, brief teaching. But if you follow it diligently, the achievement will not be small. It is what you have been striving for throughout the ages. Can that be regarded as only a small reward? Not at all. It is indeed a big reward. Once you understand the instruction, however brief and concise, and follow it carefully, without ceasing, happiness will be yours. There will be happiness for all the universe, for all humans, devas and brahmas (celestial beings). Although the teaching may only be a few words, the achievement will be great. All that you want is achieved. Is it not so? Indeed, it is so.
So, disciple, can you manage to follow and practise that short instruction? Can you? Very good. Like you all, at the time of the Blessed One there were people who wandered forth, looking for peace and happiness for all time. They were looking for it before the Enlightened One had made his appearance. Who were they? Oh, you can say, the whole world. But I will single out for you the example of Sariputta and Mogallana, the auspicious pair who later became the two chief disciples of the Blessed One. Maybe you are acquainted with the story of their going forth. Sariputta and Mogallana were living the holy life as wanderers, looking for the deathless. It was Sariputta who first came into contact with one of the five disciples who had learned the Law from the Blessed One. The wanderer Sariputta saw him going round for food. Seeing his faculties serene, the colour of his skin clear and bright, Sariputta at once knew that he possessed the knowledge of the way he had been looking for. Sariputta followed the holy monk until he had finished his round and left the town with his alms food. The wanderer Sariputta waited at a respectable distance while the holy monk ate his meal, then went up to him, paying courteous respects, and asked him about his Teacher and the Doctrine he taught.
All this is in the Pitakas (Pali Cannon) but I will give you just a short summary, just a little. The holy monk replied that he had gone forth under the Blessed One who was his Teacher, and it was the Blessed One’s Doctrine that he followed. When Sariputta pressed for exposition of the Doctrine, the holy monk said, “I have only recently gone forth. I have only just come to this Doctrine and Discipline. I cannot teach you the Law in detail. I can tell you its meaning in brief.”
This holy monk had actually reached the supreme goal, so he must actually have known the whole Doctrine, but out of humility, he confessed that he knew only a little. Then Sariputta, who later became the chief exponent of the Blessed One’s Law, said that he did not want much. He only wanted to hear a little of what the Buddha taught. The holy monk granted his request. He gave him only a sketch of the Law. How little was it? So little that it was not even a full stanza. When Sariputta heard the short statement of the law, he said that it was sufficient for him. For the spotless, immaculate vision of the whole Dhamma had arisen in him after hearing just a little of it.
So the teaching was very little. But the understanding by Sariputta was not little at all! He understood the whole Dhamma. So also, disciple, you understand a little, don’t you, now? Well, if you do and follow the Blessed One’s advice, your achievement will be very great.
I, of course, cannot speak your language. So you, disciple if you understand a little, pass it onto your friends, so all of you will know a little of Dhamma. Can you do this? I am sure you can.
You all have accumulated, each one of you, great paramis (virtues, perfections). That’s why you are all here, coming from various countries, distant lands, far, far away from here. But, because you have acquired sufficient paramis, you all arrived here at the same time, simultaneously from different countries. And then, having reached here, you want to know the Law, so you have heard the Law. You have learned the Buddha’s advice. But you do not remain satisfied with just hearing the Law and just remembering it. You want to practise it. So you strive energetically and begin to walk the path. You establish the necessary effort (viriya) and, in time, you must surely enjoy the fruits of your effort. Even now you know, of course, don’t you? You are getting results commensurate with your application and diligence.
You all are here now because you have acquired sufficient paramis to do so. The Blessed One said that if you stay with Dhamma and follow the Law, you are dwelling near him, although physically you may be at the other end of the universe. On the other hand, if you reside near him – so near, so close that you could hold the end of his robes with your hand – yet, if you don’t follow his advice and practise the law according to his instructions, there is the whole distance of the universe between him and you. So, now, you live in various countries, far, far away; and yet you all are so close to the Blessed One. Following his advice, diligently with due meekness, you will achieve what you wish. You will win the goal which you have strived for throughout the samsara. Innumerable are the holy ones who have trodden the path and reached Nibbana. So also, you, from different countries, different towns, all holy people, arriving simultaneously at the place of sanctity, if you set up sufficient effort (viriya) and work diligently with all humility you also will arrive at your goal.
This is really an occasion for happiness and joy. We all can’t help being buoyant in spirit and cheering and admiring you, seeing your wonderful devotion and zeal. I wish you all success. Well done! Well done!
Have you all strived, without interruption, in all the four postures, whether you are lying down, sitting, walking or standing? Have you all strived in that manner, continuously, without interruption?
Students: (Laughter)
Sayadaw: You are trying at all times? Not at all times?
Students: Not continuously.
Sayadaw: It is not difficult or hard to strive with viriya, (effort) neither does it cause any pain. (Laughter.) If you are striving with complete viriya, doesn’t it cause happiness?
Students: Yes. Sayadaw: If you are not striving, do you feel happy?
Students: No. Sayadaw: Which do you prefer, happiness or suffering?
Students: (Laughter) Our samadhi (concentration) is very weak. It is like a candle in the wind. Our problems are effort, awareness and concentration.
Sayadaw: If you are going forward, you are progressing. The only thing is: don’t Strive diligently, with viriya. Do you know what viriya is?
Students: Yes, effort.
Students: (Laughter)
Sayadaw: You are trying at all times? Not at all times?
Students: Not continuously.
Sayadaw: It is not difficult or hard to strive with viriya, (effort) neither does it cause any pain. (Laughter.) If you are striving with complete viriya, doesn’t it cause happiness?
Students: Yes. Sayadaw: If you are not striving, do you feel happy?
Students: No. Sayadaw: Which do you prefer, happiness or suffering?
Students: (Laughter) Our samadhi (concentration) is very weak. It is like a candle in the wind. Our problems are effort, awareness and concentration.
Sayadaw: If you are going forward, you are progressing. The only thing is: don’t Strive diligently, with viriya. Do you know what viriya is?
Students: Yes, effort.
Sayadaw: The Noble Ones of the olden days strived with viriya, without any interruption, and happiness set in. If you follow the teachings of Lord Buddha with attention and without interruption, you will experience the result of your noble aspirations. Just remember one thing: strive without interruption, and happiness will be immediate. If you strive diligently, will you experience anything which causes suffering?
Students: The striving itself may be painful, but the result of striving will not be painful.
Sayadaw: If one strives with all the viriya one possesses without keeping aside any portion of the viriya, the noble aspirations will be fulfilled, just as the noble ones of the olden days achieved their aspirations.
Students: The striving itself may be painful, but the result of striving will not be painful.
Sayadaw: If one strives with all the viriya one possesses without keeping aside any portion of the viriya, the noble aspirations will be fulfilled, just as the noble ones of the olden days achieved their aspirations.
With best compliments from Sayagyi U Ba Khin Journal.