सही बुद्ध वंदना

साधको ! 
कोई व्यक्ति किसी बुद्ध मंदिर में जाकर बुद्ध की मूर्ति को पंचांग या साष्टांग प्रणाम करे या न करे, उसके सामने धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प आदि चढ़ाए या न चढाए परंतु यदि वह:-
• प्राणि-हत्या करने से विरत रहता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• चोरी करने से विरत रहता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• व्यभिचार से विरत रहता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• झूठ बोलने से, कड़वी, कटु, निंदा, चुगली की बात बोलने से विरत रहता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• नशे-पते के सेवन से विरत रहता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• शस्त्र, मदिरा, विष, मांस और जीवों के क्रय-विक्रय की आजीविका से विरत रहता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।


• हिंसा और काम-क्रोध के चिंतन-मनन से विरत रहता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• जाति-जन्म के आधार पर मानव मानव में ऊंच-नीच का भेदभाव करने से विरत रहता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• अपने सहज स्वाभाविक आश्वास-प्रश्वास के प्रति सजग रहकर एकाग्रता का अभ्यास करता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• अपने चित्त पर उठे विकार और तज्जनित शारीरिक संवेदनाओं के प्रति सजग रहने का अभ्यास करता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• शारीरिक संवेदनाओं के अनुभव के आधार पर शरीर और चित्त के अनित्य स्वभाव का दर्शन करता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• सुखद से सुखद संवेदना भी अनित्य होने के कारण दुःख में ही परिणत होने वाली है; अतः वस्तुतः दुःख ही है। इस सत्य का स्वयं दर्शन करता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• सारे शरीर स्कन्ध में जब सुखद, सूक्ष्म संवेदनाओं का प्रवाह ‘चलने लगता है तो उनका आस्वादन भयावह है, खतरनाक है, भवचक्र बढ़ाने वाला है- यूं समझकर उनके प्रति निर्वेद उत्पन्न करता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• शरीर और चित्त प्रपंच कार्य-कारणों के नियमों के अनुसार अनुप्रवर्तित हो रहा है। इसमें मैं, मेरा, मेरी आत्मा का आभास मात्र होता है, जो प्रवंचक है-इस सत्य का दर्शन करता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• जैसे भीतर वैसे बाहर यह आंख, नाक, कान, जीभ, त्वचा और मन तथा रूप, गंध, शब्द, रस, स्पर्श और चिंतन का सारा प्रपंच अनित्य ही है, दुःख ही है, अनात्म ही है इस सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा दर्शन करता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• शरीर और चित्त अथवा इंद्रियां और उनके विषय अनित्य, दुःख, अनात्म हैं; ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव करके तज्जन्य किसी भी सुखद अनुभूति के प्रति राग नहीं जगाता, किसी भी दुखद अनुभूति के प्रति द्वेष नहीं जगाता, किसी असुखद-अदुखद अनुभूति के प्रति मोह नहीं जगाता तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• जो आंतरिक संवेदनाओं के प्रति अनित्य बोध जगाकर राग-द्वेष और मोह के नये संस्कार नहीं बनाता और अविचल उपेक्षा समता में स्थित रहकर पुराने कर्मसंस्कारों का उन्मूलन करता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• जो व्यक्ति उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, नहाते-पीते, सोते-जागते हर अवस्था में सति याने सजगता और संप्रज्ञान में स्थित रहता है तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• जो निरंतर स्मृति और संप्रज्ञान में स्थित रहने का अभ्यास करते करते श्रोतापन्न के मार्ग-फल का साक्षात्कार करके सगदागामी अनागामी और अर्हन्त अवस्था के मार्ग-फल का स्वयं साक्षात्कार कर लेता है, तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
• जो सदा मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा का जीवन जीता है। और लोक सेवा में निरत रहता है, तो बुद्ध की वंदना ही करता है।
साथकों ! ऐसा व्यक्ति अपने आपको बौद्ध कहे अथवा न कहे, वह मुक्ति-मार्ग का पथिक अपना मनुष्य जीवन सार्थक कर ही लेता है। अपने तथा अनेकों के कल्याण का कारण बन ही जाता है।
आओ! हम भी इसी प्रकार सही बुद्ध वंदना करें और अपना कल्याण साध लें ! औरों के कल्याण में सहायक बनें!
कल्याणमित्र
सत्य नारायण गोयन्का

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Premsagar Gavali

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