Now Is the Time —Ven. Webu Sayadaw
(भदंत वेबू सयाडो द्वारा सयाजी ऊ बा खिन और अपने शिष्यों को दिये गये । प्रवचन के कुछ अंश):--
वेबू सयाडो: दकाजियो और दकामाजियो (सज्जनो और सन्नारियो) !
आपको अपने मन को विमुत्ति (विमुक्ति) के ऋजु मार्ग पर स्थिर करना चाहिए और सोवचस्सतागुण (भगवान बुद्ध के उपदेशों के प्रति ग्रहणशीलता) को धारण करने के लिए प्रयासरत होना चाहिए। भगवान बुद्ध के अद्वितीय शासन के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए भिक्षुओं का आदर-सत्कार करके उन्हें दान देना है-- इस तरह पुण्य कमाने के बाद अपने मंगल की कामना इस प्रकार करनी है, 'मैं बोधिाण (बोधिज्ञान) प्राप्त करके निब्बान (निर्वाण) का साक्षात्कार करूं।”
जो मैंने ‘बोधि' कहा है, उसका अर्थ है-- चार आर्य सत्यों को भली । प्रकार समझ लेना । बोधि तीन प्रकार की होती है:
आपको अपने मन को विमुत्ति (विमुक्ति) के ऋजु मार्ग पर स्थिर करना चाहिए और सोवचस्सतागुण (भगवान बुद्ध के उपदेशों के प्रति ग्रहणशीलता) को धारण करने के लिए प्रयासरत होना चाहिए। भगवान बुद्ध के अद्वितीय शासन के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए भिक्षुओं का आदर-सत्कार करके उन्हें दान देना है-- इस तरह पुण्य कमाने के बाद अपने मंगल की कामना इस प्रकार करनी है, 'मैं बोधिाण (बोधिज्ञान) प्राप्त करके निब्बान (निर्वाण) का साक्षात्कार करूं।”
जो मैंने ‘बोधि' कहा है, उसका अर्थ है-- चार आर्य सत्यों को भली । प्रकार समझ लेना । बोधि तीन प्रकार की होती है:
1. सम्मा सम्बोधि (सम्यक संबोधि)
2. पच्चेक बोधि (प्रत्येक बोधि)
3. सावक बोधि (श्रावक यानी, शिष्य बोधि)
अपने मंगल की कामना करने का अर्थ है इनमें से एक बोधि प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय करना । गहराई में जायँ तो ‘सावक बोधि' के भी तीन प्रकार हैं:--
1. अग्ग सावक बोधि (अग्र श्रावक बोधि)
2. महा सावक बोधि (महा श्रावक बोधि)
3. पकति सावक बोधि (प्रकृत यानी, साधारण श्रावक बोधि)
2. पच्चेक बोधि (प्रत्येक बोधि)
3. सावक बोधि (श्रावक यानी, शिष्य बोधि)
अपने मंगल की कामना करने का अर्थ है इनमें से एक बोधि प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय करना । गहराई में जायँ तो ‘सावक बोधि' के भी तीन प्रकार हैं:--
1. अग्ग सावक बोधि (अग्र श्रावक बोधि)
2. महा सावक बोधि (महा श्रावक बोधि)
3. पकति सावक बोधि (प्रकृत यानी, साधारण श्रावक बोधि)
तो इस अद्वितीय शासन में आपके लिए कई मार्ग हैं और कई लक्ष्य । आप अपनी इच्छा के अनुसार मनचाहा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।
कई महानुभावों ने इन मार्गों पर चल कर संबोधि प्राप्त की थी। उनकी मनोकामनाएं क्यों पूरी हुईं? क्योंकि समय सम्यक था, स्थान सम्यक था और उनका प्रयत्न सम्यक था।
कई महानुभावों ने इन मार्गों पर चल कर संबोधि प्राप्त की थी। उनकी मनोकामनाएं क्यों पूरी हुईं? क्योंकि समय सम्यक था, स्थान सम्यक था और उनका प्रयत्न सम्यक था।
भगवान बुद्ध के संबोधि प्राप्त करने के बाद से लेकर कई देव और। मनुष्य उनके पास गये, वंदना की और उनका धर्मोपदेश सुना। तब से जो-जो भी बुद्ध के उपदेशों को जान कर उनके अनुसार चले और सम्यक प्रयत्न किये, उन्होंने अपनी आकांक्षाओं को पा लिया।
वे न उनकी भव्य मूर्ति को देख कर संतृप्त हुए थे और न ही उनके शुद्ध धर्म को सुनने मात्र से । बल्कि अटूट श्रद्धा पैदा होने और अच्छी तरह समझने के बाद ही उन्होंने ‘धम्म' में प्रवेश किया और उसकी शरण ली । करुणानिधि बुद्ध ने उनके लिए सत्य का वर्णन किया। जिस सत्य का उन्होंने स्वयं दर्शन किया था, उसे जानने का मार्ग प्रशस्त किया। लोगों ने जैसे ही बुद्ध के उपदेशों को समझा, उनका अनुसरण किया और शरीर की चारों अवस्थाओं में (लेटना, बैठना, खड़े रहना और चलना) बिना थके, कठिन प्रयत्न के साथ ‘धम्म' की साधना की। इस प्रकार दुर्गुणों को मिटा कर, सद्गुणों का समुपार्जन करने हेतु बिना थके, बिना दुःख अनुभव किये, निरंतरता से साधना करना ही सम्यक व्यायाम (सम्यक प्रयत्न) है।
जब कोई धर्मनिष्ठ व्यक्ति अपनी कठिन साधना से अपने सम्यक मनोरथ (चुनाव) को सिद्ध करता है, तब वह पूर्ण आनंद में स्थित होता है। दुर्गुणों से मुक्त यह सच्चा आनंद, जन्म-जन्मांतर के समस्त दुःखों को पार कर चुका है। यही मुक्ति (या स्वतंत्रता) का आनंद है। इसको प्राप्त किये व्यक्ति कभी ईर्ष्यालु या लोभी नहीं होते, इसलिए वे अपने परमसुख को हमेशा दूसरों से बांटते हैं। पुण्य-वितरण उनका कर्तव्य है। इस प्रकार खुश होना अच्छी बात है।
इसलिए अच्छे लोगों को आनंदित करने और सभी प्राणियों की खुशी के लिए आप सबको बुद्ध-वाणी हृदयंगम करना होगा और सबको बांटना होगा। आप उपासक लोग भिक्षुओं को जरूरी चीजें देकर 'धम्म' की सहायता करते हैं और भिक्षु ‘धम्म' देकर लोगों की सहायता करते हैं। कितना अच्छा, कितना आनंददायक!
जो सम्यक प्रयत्न करता है और लगन से साधना करता है, जिसमें श्रद्धा है, जिसे आवश्यक सामग्री उदारतापूर्वक दी जाती है, जिसमें ‘सोवचस्सतागुण' ('धम्म' के प्रति ग्रहणशीलता) है, उसे लाभ मिलता ही है। यही बुद्ध की शिक्षा का महा प्रभाव है। इस तरह भगवान के समय से लेकर आज तक सम्यक आकांक्षा, सम्यक प्रयत्न और अतीव श्रद्धा संपन्न भले लोगों ने बुद्ध शासन के प्रति कर्तव्यों को निभाया है। इस प्रकार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ‘धम्म' को खुशी से पहुँचाते रहना सराहनीय और खुशी की बात है। समय और स्थान के सम्यक होने पर जब कोई सत्पुरुष उपदेश देता है तब उसका लाभ उठाने का यह सर्वोत्तम अवसर है। जब भगवान ने धर्मचारिका करते हुए धर्मोपदेश देना प्रारंभ किया तब मगध पर शासन करने वाले नरेश बिंबिसार ने प्रज्ञा, सच्चा सुख यानी, मुक्ति-सुख का अनुभव किया। अतः विवेकयुक्त श्रद्धा के साथ (संघ के लिए राजगृह में वेळुवन का दान किया। भगवान ने वहां देव और मनुष्य जैसे विभिन्न प्राणियों के लिए अलग-अलग प्रवचन दिये। तब से लेकर आज तक अनगिनत प्राणी वास्तविक सुख-शांति को प्राप्त करते आ रहे हैं।
-- भगवान का ‘धम्म क्या है?
सयाजी: तिपिटक के उपदेश हैं, भंते !(भंते--सम्मानसूचक शब्द) -- वे कौन से हैं?
सयाजीः ‘सुत्त' (प्रवचन), ‘विनय' (भिक्षुओं के अनुशासन के नियम) और अभिधम्म' (धर्म की गंभीर व्याख्या), भंते !
-- हां, ये सब पढ़ाई के लिए हैं, परंतु जब कोई इनको सार-सहित जान लेता है तब वह ‘शील' (शील-सदाचार), ‘समाधि' (ध्यान) और प्रज्ञा (विवेक) को प्राप्त करता है।
-- यह किसलिए है?
सयाजी: यह अनुसरण करने, ग्रहण करने और अभ्यास करने के। लिए है, भंते !
-- जब कोई उनका अनुसरण करके पालन करता है तब वह क्या पा सकता है?
सयाजीः वह सच्चा सुख, सच्ची शांति और निर्वाण पा सकता है, भंते !
-- वे लाभ उसे इसी जन्म में मिलेंगे कि बाद में ?
सयाजी: यहीं और इसी समय भंते ! देर नहीं होगी।
-- हां, इसीलिए कहते हैं-- संदिद्विक, अकालिक ‘धम्म' का स्वभाव खुद जानने जैसा है; बिना देर किये; अभी, यहीं । वाह, लाजवाब है! अद्भुत है! -- तिपिटक में कितने प्रकार के ‘धम्म' (विशेषताएं) हैं?
सयाजी: तीन, भंते ! सुत्त, विनय और अभिधम्म।
-- और फिर पटिपत्ति (साधना) में कितने प्रकार के हैं?
सयाजी: शील, समाधि और प्रज्ञा, भंते !
-- पटिपत्ति और पटिवेधन (प्रतिवेधन- गहराई में छुपे क्लेशों का बेधन करना) में कितने ?
सयाजीः ‘मग्ग' (मार्ग), ‘फल’ (फल) और ‘निब्बान’ (निर्वाण); तीन भंते !
-- यद्यपि संख्या में ‘धम्म' बहुत हैं तथापि मुक्ति का गुण एक है- ‘विमुत्ति' (विमुक्ति) । वैसे ही साधना में भी एक ही अनुपम मार्ग है- ‘सति' (स्मृति- जागरूकता) । इसलिए जिन देवों या मनुष्यों ने भी अनुपम मार्ग का अनुसरण किया है, उन्होंने इस बेजोड़ अनुपम धर्म'विमुक्ति' को पाया है। यही निर्वाण है।
सयाजी: तिपिटक के उपदेश हैं, भंते !(भंते--सम्मानसूचक शब्द) -- वे कौन से हैं?
सयाजीः ‘सुत्त' (प्रवचन), ‘विनय' (भिक्षुओं के अनुशासन के नियम) और अभिधम्म' (धर्म की गंभीर व्याख्या), भंते !
-- हां, ये सब पढ़ाई के लिए हैं, परंतु जब कोई इनको सार-सहित जान लेता है तब वह ‘शील' (शील-सदाचार), ‘समाधि' (ध्यान) और प्रज्ञा (विवेक) को प्राप्त करता है।
-- यह किसलिए है?
सयाजी: यह अनुसरण करने, ग्रहण करने और अभ्यास करने के। लिए है, भंते !
-- जब कोई उनका अनुसरण करके पालन करता है तब वह क्या पा सकता है?
सयाजीः वह सच्चा सुख, सच्ची शांति और निर्वाण पा सकता है, भंते !
-- वे लाभ उसे इसी जन्म में मिलेंगे कि बाद में ?
सयाजी: यहीं और इसी समय भंते ! देर नहीं होगी।
-- हां, इसीलिए कहते हैं-- संदिद्विक, अकालिक ‘धम्म' का स्वभाव खुद जानने जैसा है; बिना देर किये; अभी, यहीं । वाह, लाजवाब है! अद्भुत है! -- तिपिटक में कितने प्रकार के ‘धम्म' (विशेषताएं) हैं?
सयाजी: तीन, भंते ! सुत्त, विनय और अभिधम्म।
-- और फिर पटिपत्ति (साधना) में कितने प्रकार के हैं?
सयाजी: शील, समाधि और प्रज्ञा, भंते !
-- पटिपत्ति और पटिवेधन (प्रतिवेधन- गहराई में छुपे क्लेशों का बेधन करना) में कितने ?
सयाजीः ‘मग्ग' (मार्ग), ‘फल’ (फल) और ‘निब्बान’ (निर्वाण); तीन भंते !
-- यद्यपि संख्या में ‘धम्म' बहुत हैं तथापि मुक्ति का गुण एक है- ‘विमुत्ति' (विमुक्ति) । वैसे ही साधना में भी एक ही अनुपम मार्ग है- ‘सति' (स्मृति- जागरूकता) । इसलिए जिन देवों या मनुष्यों ने भी अनुपम मार्ग का अनुसरण किया है, उन्होंने इस बेजोड़ अनुपम धर्म'विमुक्ति' को पाया है। यही निर्वाण है।
यही बुद्ध द्वारा बताया गया एकायनो धम्मो' ( एकमात्र धर्म) है।। विश्लेषणात्मक विवरणों में तो अनगिनत ‘धम्म' हैं, अगर आप इनमें से एक को भी सीख लें तो पालन करने के लिए वह पर्याप्त है।
दुःखचक्र से मुक्ति चाहने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक गुण हैं-- ग्रहणशीलता और सौम्यता (सोवचस्सतागुण), प्रबल वीर्य (आरद्ध वीरिय) और कुशाग्र विवेक (पटिविद्ध पञ्जा), जिसमें ये सब गुण हैं; वह जन्म-मरण के चक्र से अवश्य छूट जायगा। इसीलिए आपको बुद्ध शासन में बताये गये शास्ता के उपदेशों को अच्छी तरह ग्रहण कर लेना चाहिए। आपने ‘धम्म' को अच्छी तरह समझ लिया हो, तो अपने ध्यान को शरीर पर स्थित करना चाहिए।
दुःखचक्र से मुक्ति चाहने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक गुण हैं-- ग्रहणशीलता और सौम्यता (सोवचस्सतागुण), प्रबल वीर्य (आरद्ध वीरिय) और कुशाग्र विवेक (पटिविद्ध पञ्जा), जिसमें ये सब गुण हैं; वह जन्म-मरण के चक्र से अवश्य छूट जायगा। इसीलिए आपको बुद्ध शासन में बताये गये शास्ता के उपदेशों को अच्छी तरह ग्रहण कर लेना चाहिए। आपने ‘धम्म' को अच्छी तरह समझ लिया हो, तो अपने ध्यान को शरीर पर स्थित करना चाहिए।
आपको चाहिए कि अपने चित्त को शरीर पर केंद्रित कर स्थिर करें, ताकि मन को काबू में रहना सिखायें।
-- मन को एकाग्र करना क्या है?
सयाजी: ‘सति' (स्मृति) है।
-- मन को स्थिर रखना क्या है?
सयाजीः ‘समाधि' (ध्यान) है।
-- मन को शिक्षित करना क्या है?
सयाजी: वीर्य (प्रयत्न, दृढ़ पराक्रम) है।
-- मन को वश में करना क्या है?
सयाजी: प्रज्ञा (विवेक) है, भंते!
वाह, दुकाजी !'' (श्रीमान) साधु, साधु, बहुत अच्छा, बिल्कुल ठीक। कैसा है यह? अत्युत्तम! अद्भुत !
सयाजी: जी हां, भन्ते! (ऐसा ही है)। यही सर्वश्रेष्ठ शासन का चमत्कार है।
-- सुनने-पढ़ने सीखने वाला ज्ञान बहुत है। बहुत ! लेकिन इसका हृदयंगम होना आवश्यक है। इसके लिए यह आवश्यक है कि श्रुत ज्ञान (सुतमया पञ्जा ), क्लेशों (दुष्कर्म) के संचय को बींधने वाले अनुभूतिमय ज्ञान (भावनामया पञ्जा) में परिणत हो । केवल यह सूक्ष्मभेदी ज्ञान ही आपको मुक्त कर सकता है। है न?
सयाजी: जी हां, भंते !
-- हां, यही एक सही गुण है। जब यह सूक्ष्म-भेदी गुण किसी के मन में स्थिर हो जाता है तब लोभ, क्रोध, मोह, दु:ख, दौर्मनस्य आदि उसमें नहीं रह सकते और वह सच्चे सुख और शांति का आनंद पाता है। यह बहुत अच्छा है। है न?
सयाजी: जी हां, पूज्य भंते !
-- तो इच्छा की अनुपस्थिति को ही सुख कहते हैं। द्वेष की अनुपस्थिति को ही सुख कहते हैं। मोह की अनुपस्थिति को ही ज्ञान कहते हैं। ये सभी लाभ इसी जन्म में प्राप्त होते हैं। इन लाभों को बढ़ाने में देर मत कीजिए! ‘असोक' (शोक रहित), ‘विराग' (तृष्णा रहित); यही सच्चा सुख है, शांति है, दुःख-निरोध यानी, निर्वाण है।
-- मन को एकाग्र करना क्या है?
सयाजी: ‘सति' (स्मृति) है।
-- मन को स्थिर रखना क्या है?
सयाजीः ‘समाधि' (ध्यान) है।
-- मन को शिक्षित करना क्या है?
सयाजी: वीर्य (प्रयत्न, दृढ़ पराक्रम) है।
-- मन को वश में करना क्या है?
सयाजी: प्रज्ञा (विवेक) है, भंते!
वाह, दुकाजी !'' (श्रीमान) साधु, साधु, बहुत अच्छा, बिल्कुल ठीक। कैसा है यह? अत्युत्तम! अद्भुत !
सयाजी: जी हां, भन्ते! (ऐसा ही है)। यही सर्वश्रेष्ठ शासन का चमत्कार है।
-- सुनने-पढ़ने सीखने वाला ज्ञान बहुत है। बहुत ! लेकिन इसका हृदयंगम होना आवश्यक है। इसके लिए यह आवश्यक है कि श्रुत ज्ञान (सुतमया पञ्जा ), क्लेशों (दुष्कर्म) के संचय को बींधने वाले अनुभूतिमय ज्ञान (भावनामया पञ्जा) में परिणत हो । केवल यह सूक्ष्मभेदी ज्ञान ही आपको मुक्त कर सकता है। है न?
सयाजी: जी हां, भंते !
-- हां, यही एक सही गुण है। जब यह सूक्ष्म-भेदी गुण किसी के मन में स्थिर हो जाता है तब लोभ, क्रोध, मोह, दु:ख, दौर्मनस्य आदि उसमें नहीं रह सकते और वह सच्चे सुख और शांति का आनंद पाता है। यह बहुत अच्छा है। है न?
सयाजी: जी हां, पूज्य भंते !
-- तो इच्छा की अनुपस्थिति को ही सुख कहते हैं। द्वेष की अनुपस्थिति को ही सुख कहते हैं। मोह की अनुपस्थिति को ही ज्ञान कहते हैं। ये सभी लाभ इसी जन्म में प्राप्त होते हैं। इन लाभों को बढ़ाने में देर मत कीजिए! ‘असोक' (शोक रहित), ‘विराग' (तृष्णा रहित); यही सच्चा सुख है, शांति है, दुःख-निरोध यानी, निर्वाण है।
इन क्लेशों से मुक्त होने की आपकी प्रबल इच्छा ही ऋद्धि (शक्ति) पाने का मार्ग (छंद इद्धिपाद) है। अगर आप इस प्रबल इच्छा को आधार बनायँगे तो आपके प्रयत्न दृढ़ होंगे। यही ‘विरिय इद्धिपाद’ (ऋद्धि पाने का मार्ग, वीर्य) है। इससे मन दृढ़, स्थिर, सरल और एकाग्र होगा। इसे ‘चित्त इद्धिपाद’ (ऋद्धि पाने का मार्ग, चित्त-इद्धिपाद) कहते हैं। जब ये तीन-- इच्छा, प्रयत्न और चित्त-- दृढ़, एकाग्र और वीर्य संपन्न होंगे, तब विवेक, अन्वेक्षण और पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा। इस ज्ञान को ऋद्धि का मार्ग (विमंस इद्धिपाद) कहते हैं। इस तरह भगवान बुद्ध ने प्रतिपादन किया था; ‘केवलं परिपुर्ण सत्थुसासन' (सारा शासन अपने आपमें पूर्ण है।) क्या इस तरह यह परिपूर्ण है?
सयाजी: यह सचमुच हर करणीय कार्य से परिपूर्ण है, भंते !
-- जिसने सभी करणीयों को पूरा किया है, उसने सुख को अभी और यहीं पा लिया है, बिना विलंब के। यही वह अनुपम सुख है जिसमें उलझे हुए और दुःख देने वाले क्लेश (पाप) एक भी न बचे, सभी नष्ट हो गये। ध्यानी में दृढ़ता के साथ स्थित हुआ यह सुख न कभी अपसरण (पीछे, हटना) करता है और न ही बदलता है। आपको इस अलौकिक सुख को नमन करना है, इसकी बहुत कदर करनी है। इंद्रिय भोग से प्राप्त होने वाले लौकिक सुख में कई उलझनें, परेशानियां, अवरोध, शत्रुताएं और दुःख आदि हैं। है न?
सयाजी: जी हां, भंते !
-- जिसने सभी करणीयों को पूरा किया है, उसने सुख को अभी और यहीं पा लिया है, बिना विलंब के। यही वह अनुपम सुख है जिसमें उलझे हुए और दुःख देने वाले क्लेश (पाप) एक भी न बचे, सभी नष्ट हो गये। ध्यानी में दृढ़ता के साथ स्थित हुआ यह सुख न कभी अपसरण (पीछे, हटना) करता है और न ही बदलता है। आपको इस अलौकिक सुख को नमन करना है, इसकी बहुत कदर करनी है। इंद्रिय भोग से प्राप्त होने वाले लौकिक सुख में कई उलझनें, परेशानियां, अवरोध, शत्रुताएं और दुःख आदि हैं। है न?
सयाजी: जी हां, भंते !
-- मनुष्य-सुख, राज-सुख, देव-सुख और इंद्र-सुख इन सबको उदाहरण के रूप में लें । ये सुख नाम और पदवी के अतिरिक्त और कुछ नहीं। ये सब खोखले हैं; इनमें कुछ सार नहीं। जब कोई इन्हें भोगते हैं। तो कैसे भोगते हैं?
सयाजीः वेदना के द्वारा, भंते !
-- हां, इसलिए इन्हें अनुभूत होने वाले (वेदयित सुख) कहते हैं। इंद्रिय सुख हमेशा ‘विपरिणामी' (बदलते रहने वाला) और ‘अनिच्च (अनित्य) होता है। जब मनुष्य और देव इन लौकिक सुख-वेदनाओं को भोगते हैं तो इनमें क्लेश (पाप) छिपे हैं या नहीं?
सयाजीः 'भंते, जब वे इंद्रिय सुख का आनंद लेते हैं तो उस अनुभूति में लोभ, तृष्णा, हवस अवश्य छिपे हैं।
-- मान लो ये इंद्रिय-सुख भोगने वाले पांच शत्रुओं (अग्नि, जल, दुष्ट राजा, चोर, मूर्ख) से डरते हों, या पुराने पुण्यों का संचय खाली होने के कारण उनको उस सुख से हाथ धोना पड़ा हो, या जीवनकाल पूर्ण हो जाने के कारण मृत्यु के करीब हो गये हों-- ऐसे अवसर पर वे इंद्रिय भोगों का सुख कैसे ले पायेंगे? ।
सयाजीः वेदना के द्वारा, भंते !
-- हां, इसलिए इन्हें अनुभूत होने वाले (वेदयित सुख) कहते हैं। इंद्रिय सुख हमेशा ‘विपरिणामी' (बदलते रहने वाला) और ‘अनिच्च (अनित्य) होता है। जब मनुष्य और देव इन लौकिक सुख-वेदनाओं को भोगते हैं तो इनमें क्लेश (पाप) छिपे हैं या नहीं?
सयाजीः 'भंते, जब वे इंद्रिय सुख का आनंद लेते हैं तो उस अनुभूति में लोभ, तृष्णा, हवस अवश्य छिपे हैं।
-- मान लो ये इंद्रिय-सुख भोगने वाले पांच शत्रुओं (अग्नि, जल, दुष्ट राजा, चोर, मूर्ख) से डरते हों, या पुराने पुण्यों का संचय खाली होने के कारण उनको उस सुख से हाथ धोना पड़ा हो, या जीवनकाल पूर्ण हो जाने के कारण मृत्यु के करीब हो गये हों-- ऐसे अवसर पर वे इंद्रिय भोगों का सुख कैसे ले पायेंगे? ।
सयाजीः ऐसे अवसर पर इंद्रिय सुखों का आनंद नहीं ले पायेंगे। अवश्य ही वे शोक, परिदेव, दुःख, दौर्मनस्य का अनुभव करेंगे।
-- इस समय किस प्रकार के क्लेश (दुर्गुण) उनकी दुःख-वेदनाओं में प्रसुप्त रहेंगे?
सयाजी: भंते, उनकी दुःख-वेदनाओं में क्रोध और द्वेष प्रसुप्त रहेंगे।
-- तो सुख वेदना का सुख क्षणिक है, बहुत कम समय के लिए है। यह सतत परिवर्तनशील है। इसमें कोई मौलिक तत्व नहीं है। शांतिसुख (संति-सुख) कभी बदलता नहीं, परिवर्तनशील नहीं। यह शाश्वत है। क्यों ? क्योंकि ‘संति-सुख' में कोई क्लेश नहीं है। यह सभी दुःखों की जड़, क्लेशों को बिना अपवाद के उखाड़ फेंकता है। यही दुःख का निरोध है। ये ही ‘धम्म' के लाभ हैं।
-- इस समय किस प्रकार के क्लेश (दुर्गुण) उनकी दुःख-वेदनाओं में प्रसुप्त रहेंगे?
सयाजी: भंते, उनकी दुःख-वेदनाओं में क्रोध और द्वेष प्रसुप्त रहेंगे।
-- तो सुख वेदना का सुख क्षणिक है, बहुत कम समय के लिए है। यह सतत परिवर्तनशील है। इसमें कोई मौलिक तत्व नहीं है। शांतिसुख (संति-सुख) कभी बदलता नहीं, परिवर्तनशील नहीं। यह शाश्वत है। क्यों ? क्योंकि ‘संति-सुख' में कोई क्लेश नहीं है। यह सभी दुःखों की जड़, क्लेशों को बिना अपवाद के उखाड़ फेंकता है। यही दुःख का निरोध है। ये ही ‘धम्म' के लाभ हैं।
इसलिए, हे उपासक, उपासिकाओ (गृहस्थ और गृहिणियो)! इसी समय जब आपको शास्ता के अद्वितीय शासन का लाभ उठाने का अवसर मिल रहा है, आप प्रबल आकांक्षा के साथ, सम्यक प्रयत्न के साथ, सजगता के साथ, इस शांति-सुख को अभी ‘इसी समय' अविलंब प्राप्त करने के लिए जोर लगा कर साधना करें, लगन से प्रयास करें।
आप सबको शांति मिले ! सब का मंगल हो !! । (श्रोतागण): साधु! साधु ! साधु !!
(बर्मी भाषा से आंग्ल भाषा में इस प्रवचन का अनुवाद भर्दत आणीसार (सगाई, म्यंमा) द्वारा विपश्यना विशोधन विन्यास के लिए ‘धम्मगिरि' पर रहते हुए अक्टूबर, 1991 में किया गया था। अब उसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है।)
(सयाजी ऊ बा खिन जर्नल (हिंदी) से साभार)
(सयाजी ऊ बा खिन जर्नल (हिंदी) से साभार)
दिसम्बर 2017 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
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🌷Now Is the Time 🌷
—Ven. Webu Sayadaw;
translated by Ven.Ñanissara.
—Ven. Webu Sayadaw;
translated by Ven.Ñanissara.
(Discourse by Ven. Webu Sayadaw addressing Sayagyi U Ba Khin and his students)
Ven. Webu Sayadaw: Dakagyis and dakamagyis (gentlemen and ladies)!
You should establish your minds on the straight path to liberation (vimutti), and you should endeavour to possess sovacassataguna (receptivity to the teachings of Buddha). You should pay respect to the Sangha and give donation to them in order to honour the peerless dispensation of the Buddha.
When you gain merits in this way, you must wish well for yourselves in this manner: “May I enter into nibbana by attaining bodhiñana (knowledge of enlightenment).”
By bodhi I mean penetration of the Four Noble Truths.
🌷 There are three kinds of bodhi:
1. samma sambodhi (full enlightenment)
2. paccekabodhi (solitary enlightenment)
3. savakabodhi (the enlightenment of a disciple) Wishing well for yourselves means that you determine to attain one of these three enlightenments.
If you analyse it, there are also three types of savakabodhi:
1. agga-savakabodhi (foremost enlightenment) disciple’s
2. maha-savakabodhi (great disciple’s enlightenment)
3. pakati-savakabodhi (normal enlightenment) disciple’s
So, you have many ways and many destinations in this peerless dispensation; you can go to your destination as you like, according to your wishes.
There were countless noble beings who attained enlightenment in these ways.
Why were their determined wishes achieved?
Because the time was right, the place was right and the endeavour was right. From the time when the Buddha attained enlightenment, so many devas (deities) and men came to him, paid respect and listened to the teaching. From that time, those who have known and followed the teaching of the Buddha, who have endeavoured rightly, have accomplished their wishes. They were not satisfied by seeing the splendid physical appearance of the Buddha, nor by merely listening to the noble Dhamma taught by him. Having developed unshakable confidence and clear understanding, they entered into the teaching and took the teaching as their shelter.
The compassionate Buddha delineated the truth for them. He instructed them in how to know the truth which he had discerned.
As soon as they understood the teaching of the Buddha, they followed and practised the Dhamma tirelessly, with strong endeavour, in all the four postures of the body. This is right endeavour: to practise tirelessly, successively, sorrowlessly in order to dispel the defilements and fulfil the wholesome qualities.
When a pious man accomplishes his right wish (samma-chanda) by striving with diligence, he is glad in the fullness of happiness. This real happiness, free from defilements, has overcome continual suffering in successive lives. This is the happiness of freedom. Such persons are never envious or grasping, so they always share the happiness of their freedom with others. Sharing of merits is their duty. It is good to be glad! So, for the gladdening of good people and for the happiness of all beings, all of you must propagate and maintain the teachings in your hearts. You lay people, you support the teachings by giving the requisites to the monks. And the monks support the people with the teaching. How good, how very glad! One who possesses right effort and strives diligently, one who possesses clear faith, who is generously supported, one who possesses this quality of gentle receptivity (sovacassataguna); he gains the benefits. This is the great effect of the teaching. In this way, from the time of the Buddha until now, good people with right wishes, right effort and strong faith have taken up the duties of the Buddha-sasana (dispensation of Buddha). It is so good and joyous to be happily carrying the teachings from generation to successive generation. These are excellent opportunities that can be attained from the teachings by a pious person who endeavours when the time and place are right. When the Buddha began to teach the Dhamma on his Dhamma journey, the king of Rajagaha (Bimbisara), who ruled the kingdom of Magadha, attained wisdom, real happiness and liberation. The king was so keen and so wise that he donated the Veluvana grove for the accommodation of the Sangha.
The Buddha taught many different sorts of discourses there to many different beings: devas and men. From that day to the present, countless beings have enjoyed real peace and happiness because of the teachings.
🌷What is the teaching of the Buddha?
Sayagyi U Ba Khin: It is the three baskets of the teachings, bhante [venerable sir: term used to address a monk].
What are these?
Sayagyi: Sutta (discourses), Vinaya (discipline), Abhidhamma (subtle, sublime teaching), bhante.
Oh, yes. These are for learning. But, when someone learns the three baskets, in essence, he gets sila (morality), samadhi (concentration), and pañña (wisdom). What is this for?
Sayagyi: This is to follow, undertake and practise.
When someone follows and practises them, what benefit can he attain?
Sayagyi: He can attain real happiness, peace and liberation, bhante.
The attainment of the benefits: is it here or hereafter?
Sayagyi: Here and now, bhante! It is not delayed. Aye! That is sanditthika, akalika: the nature of Dhamma is worthy of seeing by yourself, here and now, without delay. Ah, very excellent! So wonderful! How many kinds of dhammas (characteristics) are in the Tipitaka (scriptures)?
Sayagyi: Three, bhante! Sutta, Vinaya and Abhidhamma.
And then, how many kinds are in patipatti (practice)?
Sayagyi: Sila, samadhi and pañña, bhante, in patipatti. In patipatti, and how many in the penetration (pativedha)?
Sayagyi: Magga (path), phala (fruition) and nibbana. Three, bhante.
Though the dhammas are many in number, nevertheless in the characteristic of liberation, there is only one: that is vimutti. And in the aspect of practice, there is only one, unique way: that is sati (awareness). Therefore men and devas who have followed the unique method have attained the unique Dhamma: vimutti equals nibbana. This is eko Dhamma (one Dhamma), that is taught by the Buddha. In analytical details, there are countless dhammas, but if you learn only one of these dhammas, it is enough for you to practise. For a person who wants to get liberated from the cycle of suffering, the requirements are the qualities of receptivity and gentleness (sovacassataguna), ardent energetic will (araddha-viriya) and penetrative wisdom (patividdha pañña). When he possesses these qualities, he will get liberated from the round of becoming without fail. So, you should seize the instructions of the Teacher in the peerless dispensation. When you have grasped the teaching exactly, you have to keep your attention in the body. You should fix the mind on the body, keeping it there steadily to train the mind to become tame. What is the fixing of the mind?
Sayagyi: It is mindfulness (sati).
What is keeping the mind steady?
Sayagyi: It is concentration (samadhi).
What is the training of the mind?
Sayagyi: It is effort (viriya).
What is the taming of the mind?
Sayagyi: It is wisdom (pañña), bhante.
Oh dakagyi (gentleman): sadhu, sadhu,… good, quite right! How is it? Excellent! So wonderful!
Sayagyi: Right! Evam, bhante (it is so, sir). This is the wonder of the excellent sasana (dispensation). There is a great deal of hearing, learning-knowledge (suta-maya pañña). Lots! But it needs to persist firmly in the mind. For this, the learning-knowledge should lead to development-knowledge (bhavana-maya pañña) which can penetrate the mass of defilements. Only this penetrative knowledge can bring you to liberation. Is it right? Right! This is the only real merit. When the real merit is persistently present in one’s mind, then greed, anger, delusion, sorrow, lamentation, etc., are absent in him and he will enjoy real happiness and peace. It is so good, isn’t it?
Sayagyi: Yes, reverend bhante. So, the absence of desire is called happiness. The absence of hatred is called happiness. The absence of delusion is called wisdom. These benefits come in this life. Do not delay their development! Asoka (non-sorrow), viraga (absence of desire): these are the only real joy, peace and cessation. Your strong wish—aspiring to liberation from these defilements—is the road to power (chanda-iddhi-pada). When you possess this strong wish as the basis, your effort becomes very energetic. This becomes energetic-will as the road to power (viriya-iddhi-p±da). Then your mind becomes strong and steady, straight and concentrated. This is called the consciousness which is the road to power (citta-iddhi-pada). When these three—wishes, effort and consciousness—become strengthened, concentrated and energetic; at that time reason, investigation, complete wisdom is achieved. This wisdom is called a road to power (vima½sa-iddhi-pada). In this way, the Buddha expounded: kevala½ paripunna½, satthu sasana½ (the whole dispensation is complete in its entirety). Now, like this, is it wholly completed?
Sayagyi: It is actually completed, in all tasks, bhante.
He who has entirely completed all tasks has achieved happiness here and now, with no delay. This is the incomparable happiness in which tangled, perturbed defilements have passed away, ceased without exception. Such happiness, firmly seated in the meditator, never retreats, never changes. You should pay respect to and think highly of this supramundane happiness. In the worldly happiness, happiness arising from sensual pleasures, there are many tangles, perturbances, interruptions, opponents, sorrows, and so on. Is this right?
Sayagyi: Right, bhante.
Consider, for example, the happiness of human beings, the happiness of human kings, the happiness of gods and goddesses, the happiness of kings of gods and goddesses. These types of happiness are but names, mere designations. They are insubstantial; there is no core inside them. When one enjoys any of these types of happiness, how are they enjoyed?
Sayagyi: They are enjoyed by feeling, bhante.
So, these are called happiness enjoyed by feeling (vedayita sukha). Sensual happiness is always changing, never lasting (viparinama, anicca). When men and gods enjoy this worldly happiness of sensation, does defilement lie dormant in the feelings?
Sayagyi: Bhante, if they enjoy the happiness with pleasure, then surely greed, desire and lust lie dormant in the feeling.
Suppose these enjoyers of sensual pleasure are afraid of five enemies (i.e., fire, water, a bad king, robbers, fools); or they must give up their enjoyments because they have consumed the results of previous good actions, or they are near death because they have consumed their life-span. At times like these, how do they enjoy their sense pleasures?
Sayagyi: On the eve of these events, they could not enjoy their sensual pleasures with a feeling of happiness. They would surely feel sorrow, lamentation, worry, anxiety and so on. Meanwhile, what kind of defilements lie dormant in their feelings?
Sayagyi: Bhante, anger or hatred lies dormant in their sensations of misery.
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So, the happiness of pleasant-feeling exists only for a moment, a very short period of time. It is in constant flux. It has no substantial core. The peaceful happiness (santisukha) never changes, is not in flux and lasts forever. Why? Santisukha has no defilements; it eradicates all defilements which are the roots of various miseries. It uproots them without exception. This is the cessation of defilements. This is the cessation of suffering. These are the benefits of the Dhamma. Therefore, O upasakas and upasikas (laymen and laywomen disciples), now, while you can seize the excellent opportunity, during the dispensation of the peerless Teacher, try hard, endeavour ardently, with strong wishes, right effort, straight consciousness and bright wisdom to attain the peaceful happiness here and now, without delay. May all of you be peaceful. All listeners in attendance: Sadhu! Sadhu! Sadhu! (Well said! Well said! Well said!)
This discourse was translated from Burmese by Ven. Ñanissara (Sagaing, Myanmar) at V.I.A. Dhamma Giri, in October 1991.
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Webu Sayadaw does not talk much with others, but he spoke a lot to me. He said, “You have parami. You will have to disperse the sasana. Remember, spreading the sasana means sending a person onto the Noble Eightfold Path – to make a person secure in sila, samadhi and pañña. This is called dispersion of the sasana. To donate the four articles of the monks such as the monastery, food, robes, medicines, is to support the sasana. It is just an act of sasananugala and not the dispersion of the sasana. You will have to spread the sasana. Do not delay; do it now. If you delay, the people who are in contact with you now will miss the Dhamma. So start right now.” When I got back to the station, I started teaching Dhamma to the assistant station master who was with me, right there in the railway carriage. Since then, I became a meditation teacher.
—Sayagyi U Ba Khin.
With best compliments from Sayagyi U Ba Khin Journal.