🌹सत्य का साक्षात्कार🌹

Vesak Day


वैशाख पूर्णिमा की वह मंगलमयी रात धन्य हो उठी, जबकि उस युवा योगी सिद्धार्थ गौतम ने बोधिवृक्ष के तले अपने आप पर अनुपम विजय प्राप्त की। सारा अज्ञान अंधकार दूर हो गया। प्रज्ञा की आलोक रश्मियां प्रभास्वर हो उठीं। सूक्ष्म से सूक्ष्म आंतरिक क्लेशों का मैल धुप-धुल गया। नितांत विरजविमल धर्मचक्षु प्राप्त हो गये। अनेक जन्मों के पूर्व संस्कारों का सारा लेप उतर गया। अंतर्मन पूर्णतया निर्मल निर्लेप हो गया। सभी कर्म बंधन टूट गये। चित्त सर्वथा बंधन-मुक्त हो गया। भविष्य के प्रति कोई तृष्णा नहीं रह गयी। मन पूर्ण रूपेन वितृष्ण हो गया। मोह-मूढ़ता, माया-मरीचिका, विभ्रम-विपल्लास का सारा कुहरा दूर हो गया। परम सत्य का साक्षात्कार हो गया। अनंत जन्मों का सत्प्रयत्न सफलीभूत हुआ। बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम सम्यक सम्बुद्ध हो गया।
अनुपम विमुक्ति रस का आस्वादन करते ही सम्यक सम्बुद्ध के मुंह से परम हर्ष के उद्गार निकल पड़े। बड़े अर्थपूर्ण हैं ये उदान शब्द! बड़ा भावपूर्ण है यह हृदय उद्गार!
अनेकजातिसंसारं सन्धाविस्सं अनिब्बिसं । 
गहकारं गवेसन्तो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ॥ 
गहकारक! दिट्टोसि पुन गेहं न काहसि । 
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसङ्खतं । 
विसङ्घारगतं चित्तं तण्हानं खयमज्झगा ॥
धम्मपद-- १५३-१५४
(इस काया-रूपी) घर को बनाने वाले की खोज में (मैं) बिना रुके अनेक जन्मों तक (भव-) संसरण करता रहा, किंतु बार बार दुःख(-मय) जन्म ही हाथ लगे। ऐ घर बनाने वाले! (अब) तू देख लिया गया है, (अब)फिर(तू)(नया) घर नहीं बना सकता। तेरी सारी कड़ियां टूट गयी हैं। और घर का शिखर भी विशृंखलित हो गया है। चित्त पूरी तरह संस्काररहित हो गया है और तृष्णाओं का क्षय (निर्वाण) प्राप्त हो गया है।
सम्यक सम्बोधि प्राप्त करने के पूर्व ध्यान समापत्तियों द्वारा जो अनेक सिद्धियां प्राप्त हुईं, उनके बल पर सिद्धार्थ गौतम ने अपने अनंत अतीत का दर्शन किया और देखा कि उस अपरिमित काल-प्रवाह में अनगिनत बार इस संसार में जन्म लेता ही रहा हूं। हर बार जन्म लेने पर मृत्यु की ओर ही दौड़ लगती रही है। यह कौन है। जो मुझे बार-बार जन्म दे रहा है? यह कौन है जो हर मृत्यु पर मेरे लिए एक नया जीवन तैयार कर देता है? एक नया घर बना देता है? इस घर बनाने वाले की खोज में कितने जन्मों में कितना समय बिताया और इस खोज में बार-बार दुःखमय जन्म ही लेते रहने पड़े। इस बार ऐसी सम्यक सम्बोधि प्राप्त हुई कि सारी सच्चाई आंखों के सामने आ गयी। देख लिया उस घर बनाने वाले को। अब वह पुनः घर नहीं बना सकेगा मेरा। घर बनाने के लिए जिन सामग्रियों की आवश्यकता होती है, वे सारी नष्ट भ्रष्ट कर डाली हैं मैने घर बनाने वाला अब किससे घर बना पायगा। बिखर गयी घर की सारी कड़ियां, बिखर गया घर का शिखर स्तंभ। अब कोई आधार नहीं नये घर के बनने का। संस्कारों से पूर्णतया विहीन होकर परम परिशुद्ध हो गया यह चित्त। इस पर लगे हुए अतीत के सारे लेप उतर चुके। आगे कोई लेप लग सकने की संभावना नहीं। क्योंकि भविष्य के प्रति मन में अब कोई कामना ही नहीं रह गयी। सारी तृष्णाएं जड़ से उखाड़कर फेंक दी गयीं काम तृष्णा भी, भव तृष्णा भी, विभव तृष्णा भी।
कौन था यह घर बनाने वाला जिसका दर्शन हो गया सम्यक सम्बुद्ध को ? विमुक्ति के इस संग्राम के दौरान उस रात उसे देवपुत्र मार ही के तो दर्शन हुए थे। क्या यही मार घर बनाने वाला है? कौन है यह मार? हमारे अंतर्मन में समाए हुए सभी प्रकार के कुत्सित संस्कारों का व्यक्तिकरण ही तो मार है। सचमुच यह मार ही तो है। जो कि बार-बार हमारे लिए नया-नया घर बनाता रहता है। नए-नए जन्म द्वारा नया-नया शरीर उत्पन्न करता रहता है। लेकिन अब यह मार सर्वथा लाचार हो गया, निहत्था हो गया, निर्बल हो गया। अब यह कैसे घर बना सकेगा भला! घर बनाने की सारी सामग्री यानी सारा पूर्व संचित संस्कार सचमुच ही छिन्न-भिन्न हो गया। नया संस्कार बनाने वाली सारी लालसाएं जड़ से उखड़ गयीं। भूतकाल के संग्रहीत संस्कार और भविष्य के प्रति जागने वाली तृष्णाएं ही तो हमारे लिए नए-नए भव का कारण बनती हैं। ये दोनों खत्म हो जायें तो नया भव बनना रुक जाय। आग का जलावन समाप्त हो जाय तो आग अपने आप बुझ जाय। बिना जलावन आग किसको लेकर जले?
“खीणं पुराणं नवं नत्थि सम्भवं पुराना क्षीण हो गया, नया बन नहीं रहा। यही तो विमुक्त-अवस्था थी। यही तो सम्यकसम्बोधि थी उस बोधिसत्व की । यही तो अंधकार पर प्रकाश की विजय थी। मृत पर अमृत की विजय थी। असत पर सत की विजय थी।
परंतु सिद्धार्थ गौतम की इस अनुपम उपलब्धि की बात सुनकर हम प्रसन्न-विभोर हो उठे और धन्य धन्य कह उठे तो मात्र इतने से हमारा कोई विशेष लाभ हो जाने वाला नहीं है। हमारा वास्तविक लाभ तो स्वयं बोधि प्राप्त करने में है, स्वयं परम सत्य का साक्षात्कार करके विमुक्त हो जाने में है। अतः सिद्धार्थ गौतम की इस महान आत्म-विजय से हम समुचित प्रेरणा प्राप्त करें और स्वयं भी उस रास्ते चलकर, भले थोड़ी बहुत ही सही, इसी जीवन में चित्त-विमुक्ति प्राप्त करें तो ही हम सच्चे सुख के अधिकारी हो सकते है। इसलिए समझे कि सिद्धार्थ गौतम की सम्यक सम्बोधि क्या थी ? और कैसे हासिल हुई?
यह कोई अलौकिक चमत्कारपूर्ण घटना नहीं थी जो कि किसी अदृश्य सत्ता की अनुकम्पा स्वरूप घटी हो । यह तो मनुष्य के अपने ही अथक परिश्रम की श्रेष्ठतम उपलब्धि थी, किन्हीं कमनीय कपोल कल्पनाओं के सहारे प्राप्त हुआ, यह कोई थोथा बुद्धि किलोल नहीं था और न ही किसी प्रकार की अंधभक्ति का निरर्थक भावावेश था। यह तो सम्यक सम्बोधि थी, परम सत्य का प्रत्यक्ष साक्षात्कार था। इसे प्राप्त करने के लिए मिथ्या कल्पनाओं का सहारा नहीं लिया गया और न ही मिथ्या भावुकता का। मस्तिष्क और हृदय को इन दोनों दूषणों से दूर रख कर ही नितांत निर्मलता प्राप्त की जा सकी। मस्तिष्क ने अपरिमित शुद्ध ज्ञान हासिल किया और हृदय ने भावावेश की मलिनता से विहीन अनंत विशुद्ध मैत्री और करुणा उपलब्ध की। और यह सब स्वावलंबन के बल पर ही किया गया। पराश्रित होकर कोई स्वतंत्र और स्वाधीन कैसे हो सकता है? विमुक्त कैसे हो सकता है? मनुष्य को अपने भीतर की लड़ाई स्वयं ही लड़नी पड़ती है। अपने दुर्गुणों से और अपनी मिथ्या दृष्टियों से स्वयं ही युद्ध करना पड़ता है। इसी लड़ाई में अज्ञान के घने बादल छिन्न-भिन्न होते हैं और उस अंधकार में से सत्य का प्रकाश प्रस्फुटित होने लगता है।
सत्य की खोज में लगा हुआ साधक अंतर्मुखी होकर यह जान लेता है कि उसके भीतर ही भीतर क्या कुछ हो रहा है और जो कुछ हो रहा है उसका यह-यह कारण है। वह जान लेता है कि जो कुछ कारणों से हो रहा है, उसका निवारण अवश्य ही किया जा सकता है। वह जान लेता है कि इस-इस प्रकार उन-उन कारणों का निवारण किया जा सकेगा और ऐसा जान समझकर ही वह उन कारणों का स्वयं निवारण करके बंधन मुक्त होता है और निरभ्र आकाश में चमकते हुए सूर्य के समान प्रभास्वर हो, प्रतिष्ठित होता है। यही सच्ची विमुक्ति है।
अनेक जन्मों में और इस अंतिम जन्म में भी अनेक प्रकार की विधियों के अभ्यास में भटकते रहने के बाद उस महामानव ने इसी विमुक्ति के लिए जो सहज सरल तरीका ढूंढ निकाला उसे ही हमारे लिए विरासत के रूप में छोड़ गये। हम उसका सही उपयोग करके वही प्राप्त कर सकते हैं जो कि उन्होंने प्राप्त किया।
क्या था वह तरीका? सच्चाई को उसके सही स्वरूप में देखते रहना। स्थूल सच्चाई को देखते-देखते उसे सूक्ष्मता की पराकाष्ठा तक देख जाना । मोटे-मोटे सघन सत्य का विभाजन विश्लेषण करते-करते उसके सूक्ष्मतम परमार्थ स्वरूप का साक्षात्कार कर लेना। सत्य की यह खोज तभी सफल होती है जबकि पूर्व मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के सभी रंगीन चश्मे उतार दिए जाएँ और स्वानुभूतियों के स्तर पर जो-जो सत्य सम्मुख आता जाय, उसे यथाभूत स्वीकार करते चले। यही यथाभूत ज्ञान दर्शन है जो कि परम सत्य का साक्षात्कार कराता है। इसमें न कल्पना के लिए गुंजाइश है और न ही भावावेश के लिए। बोधिसत्व ने एक शोध वैज्ञानिक की तरह इन दोनों को ही दूर रख कर परम सत्य की खोज की और सफल हुए।
खुली प्रकृति में सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ, खुली प्रकृति में ही उन्होंने सम्यक सम्बोधि उपलब्ध की और खुली प्रकृति में ही महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। जीवन की तीनों महत्वपूर्ण घटनाएं खुली प्रकृति में ही घटीं । अतः उन्होंने जीवनभर खुली प्रकृति का खूब ही गहन अध्ययन किया। उन्होंने देखा कि इस जंगम जगत में सब कुछ गतिमान ही गतिमान है। कुछ भी तो जड़ नहीं है। प्रतिक्षण सर्वत्र कुछ न कुछ घटित हो रहा है। प्रतिक्षणं कुछ न कुछ बन ही रहा है, बदल ही रहा है। बदलते रहना, बनते रहना, यही इस संसार का स्वभाव है। इसीलिए यह भव संसार है। जिन्हें हम जड़ भौतिक पदार्थ कहते हैं वे भी जंगम ही हैं। अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर उनमें भी प्रतिक्षण परिवर्तन ही परिवर्तन हो रहे हैं। जिसे हम चैतन्य कहते हैं, वह भी प्रतिक्षण परिवर्तनशील ही परिवर्तनशील है। जो कुछ बाहर घट रहा है वैसा ही प्रत्येक प्राणी के भीतर भी प्रतिक्षण घट ही रहा है। कुछ न कुछ परिवर्तन हो ही रहा है। इसी सत्य को उन्होंने अपने अंदर अंतर्मुखी होकर देखा । प्रकृति का सारा रहस्य अनावरित हो गया। यह शरीर-स्कंध और ये चेतन चित्त-स्कंध, जिनके साथ हमने तादात्म्य स्थापित कर लिया है और जिन्हें 'मैं' 'मैं' ‘मेरा' ‘मेरा कहते हुए उलझते ही जा रहे हैं, मुंज की रस्सी की तरह अकड़ते ही जा रहे हैं, उनका सारा सत्य स्वभाव प्रत्यक्ष हो गया। ऐद्रिय और लोकीय जगत की इन सूक्ष्मतम सच्चाइयों के मरणशील स्वभाव का साक्षात्कार तो हुआ ही, उनसे परे इंद्रियातीत - लोकोत्तर निर्वाण के अमृत स्वभाव का भी साक्षात्कार हो गया। इस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभूतियों के स्तर पर दु:ख का साक्षात्कार हुआ, दु:ख के कारण का साक्षात्कार हुआ और इन कारणों को दूर करके नितांत दु:ख-विमुक्त स्थिति का भी साक्षात्कार हो गया।
आओ, हम भी स्वानुभूतियों के स्तर पर स्वयं देखें, समझे कि हमारा यह शरीर स्कंध क्या है ? ये चित्त-चेतन स्कंध क्या हैं? और इन दोनों की मिली जुली यह जीवनधारा क्या है ? इसमें किस प्रकार परिवर्तन होते रहते हैं ? किस प्रकार नासमझी के कारण भीतर ही भीतर गांठें बँधती रहती हैं? उलझनें बढ़ती रहती है? किस प्रकार इन गाठों को बँधने से रोका जा सकता है ? किस प्रकार पुरानी गाठें खोली जा सकती हैं? किस प्रकार सारी उलझनें सुलझाई जा सकती है? और किस प्रकार परमसत्य का साक्षात्कार करके नितांत विमुक्तिरस का आस्वादन किया जा सकता है?
वैशाख पूर्णिमा की यही पावन प्रेरणा है। इसका लाभ ले। हम भी अपने भीतर समाए हुए गृह निर्माता देवपुत्र मार का दर्शन करें और उसे पराजित कर निबल निहत्था बना दें। हम भी अपने विकारों का दर्शन करें और उन्हें क्षीण कर दें। मुक्ति इसी में है - मंगल इसी में है।
मंगल मित्र, 
सत्यनारायण गोयन्का
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🌹उद्बोधन🌹 
मेरे प्यारे साधक-साधिकाओ! आओ, अपना सच्चा कल्याण साधे!
वैशाख पूर्णिमा का यह पावन पर्व हमें कल्याण साधना के लिए पर्याप्त प्रेरणा दे।
अनंत जन्मों तक दान, शील, निष्क्रमण, प्रज्ञा, वीर्य, क्षांति, सत्य, अधिष्ठान, मैत्री और उपेक्षा रूपी दस पारमिताओं को परिपूर्ण करते हुए बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम इसी पावन दिवस पर जन्मे। यह उनका अंतिम जन्म था । हम भी उन्हीं के समान अपनी-अपनी पुण्य पारमिताओं को पूरा करते हुए ऐसा जन्म प्राप्त करें, जो कि हमारे लिए भी अंतिम जन्म साबित हो।
बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम ने वैशाख पूर्णिमा को ही सारे अनुशय क्लेशों को विदीर्ण करते हुए सम्यक सम्बोधि प्राप्त की और परम सत्य का साक्षात्कार किया। हम भी उन्हीं की तरह शील, समाधि और प्रज्ञा का अभ्यास करते रहें और शनैः शनैः अपने सारे क्लेश दूर करते हुए परम पद निर्वाण का साक्षात्कार कर लें।
सम्यक सम्बोधि प्राप्त करने के बाद पैंतालीस वर्ष तक उन महाकारुणिक भगवान तथागत सम्यक सम्बुद्ध ने सतत जन-सेवा में निमग्न रहते हुए वैशाख पूर्णिमा को ही अस्सी वर्ष की परिपक्व अवस्था में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। यही उनकी अंतिम मृत्यु थी। हम भी इसी प्रकार आत्महित और परहित में निरत रहकर ऐसी मृत्यु प्राप्त करें जो कि हमारे लिए भी अंतिम मृत्यु साबित हो।
त्रिधा पुण्यमयी वैशाख पूर्णिमा का यही प्रेरणा-प्रसाद हमें धर्म धारण करने के अभ्यास में लगाए। इसी अभ्यास में हमारा सच्चा कल्याण निहित है। साधको! आओ, अपना सच्चा कल्याण साधे ।
कल्याणमित्र, 
सत्यनारायण गोयन्का
मई 2010 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित