साधनाः लक्ष्य और उद्देश्य

साधना की प्रगति के तीन सोपान है, तीन सीढ़ियां हैं।
1. विधि को समझना - कैसे और क्यों करना।
2. विधि का ठीक-ठीक -बिना कुछ जोड़े-घटाये पालन करना।
3. विधि की गंभीरता जान कर उसके भीतर भली प्रकार “पैठना" याने वास्तविक ताको,वर्तमान सच्चाई को अनुभव करना।

इनमें जितनी प्रगति होगी - लक्ष्य उतना ही स्पष्ट और निकट होता जायेगा।
साधारणतया हम बाहरी पदार्थों, दृश्यों और बाहरी संपर्कों को देखते हैं - उनके रूप-रंग, बनावट-सजावट की ओर हम आकर्षित होते हैं। राग उत्पन्न करते हैं या द्वेष-घृणा उत्पन्न करते हैं। ऐसा प्रत्येक साधारण व्यक्ति जाने या अनजाने में सदा ही करता है। हम सब का ऐसा 'स्वभाव' सा हो गया है और वास्तव में यही दुःख का मूल कारण है। इस स्वभाव से निकलना ही साधना का मुख्य लक्ष्य या उद्देश्य है। अर्थात दुःख का निवारण करना।
जब इस बाहर-बाहर दीखने वाले भासमान रूप से परे हट कर इसके असली स्वरूप को पहचान लेने का उपाय या गुर आ जाय तो ही सफलता प्राप्त हो सकती है। इस ऊपर से दीखने वाले रूप के भीतर क्या है? इस 'हिरण्यमय पात्र' के अंदर क्या रखा है - इसी को जानने की प्रक्रिया हमारी इस साधना का विषय है।
साधना का आरंभ हम शरीर के अंगों, अवयवों को ऊपर-ऊपर से देखते हुए करते हैं - नरम हैं, गरम हैं, ठंडे हैं, कोमल हैं, कठोर हैं, पसीने से तर हैं, सूखे हैं, दुखते हैं आदि आदि । साथ-साथ मूल्यांक न भी होता जाता है - अच्छा है बुरा है आदि ।
अभ्यास में आगे बढ़ते हैं तो उस अवयव के भीतर भी कुछ होता है, उसकी जानकारी होने लगती है। कंपन है, धूजन है, सरसराहट है आदि की पहचान होने लगती है। अर्थात केवल भौतिक नहीं, चैतसिक ज्ञान भी होने लगता है। इसे 'संवेदना' का नाम दिया गया है। जब यह मालूम होने लगती है याने अनुभूति होने लगती है और वह अच्छी लगती है, प्यारी-प्यारी लगती है तो यह ऐसी ही बनी रहे, यों उसके साथ राग होने लगता है। यह तो दुःखद सी है, मन को नहीं भाती, इसे तो हटना ही चाहिए -अर्थात द्वेष उत्पन्न होने लगता
परंतु अभ्यास करते-करते एक और सच्चाई सामने आ जाती है -अरे, यह जो संवेदना तब ऐसी थी अब वैसी नहीं रही, तब थी अब नहीं है, तब सुखद थी अब दुःखद है। यह तो बदलती रहती है। बदलना इसका स्वभाव है। यह स्थाई नहीं है। आती है और जाती है अर्थात ‘अनित्य' है। अब इस अनित्य बोध के साथ-साथ एक और अनुभव होने लगता है । यह जो कुछ अस्थाई है वह कंपन ही कंपन है। ठोस कुछ भी नहीं है। शारीरिक संवेदना या मानसिक संवेदना सभी कंपन मात्र ही है। वाइब्रेशन ही है। गौतम बुद्ध ने इसे एक सूत्र में कह दिया - '...
सब्बो लोको पकम्पितो।
जब साधक इस अवस्था तक पहुँच जाता है; तब शरीर और मन सब कुछ तरंग ही तरंग जैसा लगता है। मानो सब कुछ घुल-मिल गया है। सब कुछ तरल हो कर इधर-उधर बिखर रहा है। कहीं घनत्व ही नहीं रहा। ठोसपन का आभास ही नहीं होता। इस स्थिति को 'भंग' की अवस्था कहा गया है। यह बड़ी सुखद सी लगती है। कभी-कभी साधक इसी में खो जाता है। अपने शरीर का भान नहीं रहता -बैठा हूं या हवा में उड़ रहा हूं, रूई के फाहे के समान । स्थिति बदलती है और फिर साधक संवेदना को अनुभव करने लगता है। कोई-कोई तो इसे ही अंतिम अवस्था या गन्तव्य स्थान समझते हैं पर वास्तव में यह ऐसी नहीं है। यह एक पड़ाव मात्र है। अनित्यबोध का दर्शन मात्र है। इस अनित्यबोध के साथ समता का बोध होता है। सब में अपने को और सबको अपने में का ज्ञान होता है। राग-द्वेष, सुख-दु:ख, मान-अपमान, हानि-लाभ सबसे विलग रहने की भावना पुष्ट हो जाती है। सच्ची 'उपेक्षा' का जीवन हो जाता है। साधना जीवन में उतरने लगती है।
यही हमारी सीढ़ी का अंतिम, सब से ऊपर का डंडा (Rung) है। पहुँचना दूर है, कठिन भी है। यात्रा लंबी है परंतु निरंतर अभ्यास करते रहने पर एक-एक सीढ़ी (Rung) पर पैर रखते-रखते साधक अंततः पहुँच ही जाता है।
भवतु सब्ब मंगलं!
- डॉ. ओम प्रकाश
(बिल हार्ट कीपुस्तक 'द आर्ट आफ लिविंग' के आधार पर)
सी-34, पंचशील एन्क्लेव, नई दिल्ली-110017
जनवरी 1996 हिंदी पत्रिका में प्रकाशित