नकुलपिता एवं नकुलमाता


"पुत्र! पुत्र! तुम हमें छोड़कर इतने दिन कहां विचरण कर रहे थे ? हम तुम्हारी कब से राह देख रहे थे!"

नकुल दंपति ने भगवान गौतम बुद्ध को अपने सम्मुख देखा तो पुराने जन्मों का स्नेह उमड़ पड़ा ।वे अपने पुत्र - वात्सल्य को न रोक पाये ।वे भगवान के चरणों में नतमस्तक हो गये और उन्हें 'पुत्र !' कहकर संबोधित करने लगे ।
नकुल दंपति का यह पुत्र -वात्सल्य स्वाभाविक ही था ।अनेक जन्मों से उनका बोधिसत्व सिद्धार्थ के साथ नाता जो था ! नकुलपिता पुर्व के पांच सौ जन्मों में बोधिसत्व के पिता हुए , पांच सौ जन्मों में चाचा , पांच सौ जन्मों में दादा । इसी तरह नकुलमाता पांच सौ जन्मों में बोधिसत्व की मां थी, पांच सौ जन्मों में चाची और पांच सौ जन्मों में दादी।

थोड़ी देर के लिए आंखो से ओझल किसी गाय का बछडा जब अपनी मां के पास आता हैं तब गाय में अनायास ही स्नेहभाव उमड़ पड़ता हैं , ठीक इसी प्रकार भगवान के प्रथम दर्शन कर नकुल दंपति अपने को पुत्र -वात्सल्य से न रोक सके । कुछ क्षणों के लिए वे अपनी सुध -बुध खो बैठे । जब उन्हें स्मृति जागी तब भगवान ने उन्हें धर्मदेशना दी । धर्मदेशना सुनकर वे सोतापत्ति फल में प्रतिष्ठित हुए ।

नकुल दंपति के घर में पाच सौं भिक्षुओं के लिए हमेशा आसन तैयार रहते थे ।
प्रणियों का साहचर्य

एक समय भगवान भग्ग [ जनपद ] के सुंसुमारगिरी भेसकळावन (नामक ) मृगदाय में विहार करते थे ।
तब भगवान पुर्वाह्न समय [ चिवर ] पहन तथा पात्र -चिवर लेकर नकुलपिता गृहपति के घर गये ; (वहां ) जा कर बिछे हुए आसन पर बैठ गये ।

तब नकुलपिता गृहपति और नकुलमाता गृहपत्नी भगवान के पास गयें ; ( वहां ) जाकर भगवान का अभिवादन कर वे भी एक और बैठ गये ।

एक ओर बैठे हुए नकुलपिता गृहपति ने भगवान को यह कहा - " भंते ! जब मैं तरुण था , जब यह नकुलमाता गृहपत्नी भी तरुण थी , उसी समय यह मेरे लिए लायी गयी । तबसे शरीर से कहना ही क्या , नकुलमाता ने मन से भी कभी ( धर्म -) विरुद्ध आचरण किया हो , ऐसा मैं नहीं जानता । भंते हम चाहते हैं कि इस लोक में जीते हुए भी हम एक दूसरे को देखते रहे , मरणोपरांत भी एक दूसरे को देखें ।"

नकुलमाता गृहपत्नी ने ( भी ) भगवान को यह कहा - " भंते ! जब मैं तरुणी थीं, जब यह नकुलपिता तरुण था , उसी समय मैं इसके लिए लायी गयी । तबसे शरीर से तो कहना ही क्या , नकुलपिता ने मन से भी कभी ( धर्म -) विरुद्ध आचरण किया हो , ऐसा मैं नहीं जानती । भंते! हम चाहते हैं कि इस लोक में जीते हुए भी हम एक दूसरे को देखते रहे, मरणोपरांत भी एी दूसरे को देखें ।"

" हे गृहपतिजन ! यदि पति - पत्नी की कामना हो कि जीते हुए भी एक दूसरे को देखते रहें , मरणोपरांत भी एक दूसरे को देखें , तो दोनों को चाहिए कि समान श्रद्धा वाले , समान शील वाले, समान रूप से त्यागी ( और ) समान प्रज्ञा वाले हों । वे इस लोक में जीते हुए भी एक दूसरे को देखते हैं, मरणोपरांत भी एक दूसरे को देखते हैं ।"
["(जब ) दोनों श्रद्धावान होते हैं , उदार होते हैं , संयत होते हैं, धार्मनुसार जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं , तब वे पती - पत्नी परस्पर प्रिय बोलने वाले होते हैं ।]


[" उन्हें प्रचुर अर्थ की प्राप्ति होती हैं, उन्हें सुगमता से अर्थ की प्राप्ति होती हैं । उन दोनों सम - शीलीयों के शत्रु. दुःखी. होते हैं ।]

[" इी लोक में धर्म का पालन करके वे दोनों समान शील - व्रत वाले कामकामी ( काम का अनुसरण करने वाले ) देवलोक में आनंदित , प्रमुदित होते हैं । ]